tag:blogger.com,1999:blog-41948299572251599012024-03-13T19:55:52.637-07:00आज़ाद लब azad lubरक्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देखविजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.comBlogger138125tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-23397919844599079152023-08-26T04:20:00.001-07:002023-08-26T04:20:11.286-07:00मेरी नई ग़ज़ल <p> प्यारे दोस्तो,</p><p>बुजुर्ग कह गए हैं कि हमेशा ग़ुस्से और आक्रोश में भरे रहना सेहत के लिए ठीक नहीं होता। इसीलिए आज पेश कर रहा हूं अपनी एक रोमांटिक ग़ज़ल- आप भी इसे गुनगुनाते हुए थोड़ा-सा रोमानी हो जाएँ! ❤😄</p><p><br /></p><p>तुम्हारी नज़र का निशाना कहाँ है</p><p>नया ज़ख़्म फिर से लगाना कहाँ है</p><p><br /></p><p>अभी ख़्वाब सोए हैं पलकों की ज़द में</p><p>अभी आंसुओं का ठिकाना कहाँ है</p><p><br /></p><p>ये पहला सबक है ग़म-ए-आशिक़ी का</p><p>के कब रूठना है मनाना कहाँ है</p><p><br /></p><p>खिला चाँद छत पर तो अक्सर वो रोए</p><p>हँसी और ख़ुशी का ज़माना कहाँ है</p><p><br /></p><p>कभी गुल ने बुलबुल से क्या इल्तिजा की</p><p>हमें कब किसी को बताना कहाँ है</p><p><br /></p><p>मोहब्बत के दीदार को तुम न तरसो</p><p>फ़क़त ये बता दो कि आना कहाँ है</p><p><br /></p><p>-विजयशंकर चतुर्वेदी</p><p><br /></p><p>(हुनरमंद लोग चाहें तो इसे अपनी आवाज़ में रिकॉर्ड करके मुझे लौटा भी सकते हैं। मैं हरगिज़ बुरा नहीं मानूँगा। 😂😂)</p>विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-34969144093010169752020-01-18T23:50:00.001-08:002020-01-18T23:50:31.351-08:00डोनाल्ड ट्रंप चुनाव भले हार जाएं लेकिन महाभियोग से बच निकलेंगे!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div>संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड जे. ट्रंप भले ही बड़बोलेपन में कहते फिर रहे हों कि जब उन्होंने बुश वंश, क्लिंटन वंश और ओबामा को हरा दिया था तो उनके खिलाफ चलाया जा रहा महाभियोग क्या चीज है, लेकिन आगामी चुनाव हारने की आशंका से उपजी धुकधुकी वे छिपा नहीं पा रहे. वह कह रहे हैं कि महाभियोग की कार्रवाई पूरी तरह से पक्षपातपूर्ण है और उन्हें एक 'फर्जी' प्रक्रिया से गुजरना होगा ताकि डेमोक्रेट (रिपब्लिकन ट्रंप के विपक्षी सांसद) इसे आजमा सकें और राष्ट्रपति पद का उनका उम्मीदवार चुनाव जीत सके.<br />
महाभियोग की वर्तमान प्रक्रिया को लेकर ट्रंप ने दलील पेश की है कि 1692-93 के दौरान सालेम, मैसाचुसेट्स में डायन और भूत-प्रेत बताकर फांसी पर चढ़ाई गई बदकिस्मत महिलाओं और पुरुषों के जितनी यथोचित प्रक्रिया से भी उन्हें वंचित रखा गया है. लेकिन ट्रंप चाहे जितना विक्टिम कार्ड खेलें और अपने पक्ष में सहानुभूति जुटाने की कोशिश कर लें, अमेरिकी संसद के उच्च सदन सीनेट में उनके खिलाफ ऐतिहासिक महाभियोग की सुनवाई शुरू हो चुकी है. ट्रंप की धुकधुकी का कारण मात्र यह नहीं है कि सदन में ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत बारीक है, बल्कि यह भी है कि आरोपों की गंभीर प्रकृति को देखते हुए शक्तिशाली मीडिया और अधिकतर अमेरिकी मतदाता उनके खिलाफ हो गए हैं, जिससे हार का खतरा बढ़ गया है. यदि ट्रंप से मतभेद रखने वाले कुछ रिपब्लिकन सांसदों ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट कर दिया तो उनको राष्ट्रपति पद से भी हटना पड़ जाएगा. लेकिन क्या वाकई ऐसा होगा?<br />
ट्रंप पर आरोप है कि उन्होंने 2020 के आगामी राष्ट्रपति चुनाव के अपने संभावित प्रतिद्वंद्वी जो बिडेन की छवि खराब करने के लिए यूक्रेन से गैरकानूनी रूप से मदद मांगी. बता दें कि बिडेन के बेटे हंटर यूक्रेन की एक ऊर्जा व गैस कंपनी ‘बरीस्मा’ में बड़े अधिकारी के पद पर हैं. ट्रंप ने हंटर बिडेन के कारोबार के बारे में जानकारियां मांगी थीं, जिनका इस्तेमाल वह अपने चुनाव प्रचार के दौरान कर सकते थे. दूसरा आरोप यह है कि उन्होंने अपने राजनीतिक लाभ के लिए यूक्रेन को मिलने वाली आर्थिक मदद को रोक दिया और दस्तावेजों को दबाकर, सफेद झूठ और वाक्छल का इस्तेमाल करके, अपने स्टाफ या मंत्रिमंडल के किसी भी सदस्य को गवाही देने से रोक कर और कांग्रेस के सम्मनों का जवाब देने में नाकाम रहकर कांग्रेस को बाधित किया. अमेरिकी संविधान के मुताबिक ये दोनों ही ऐसे अपराध हैं, जिनके सिद्ध होने पर राष्ट्रपति को पद से हटाया जा सकता है.<br />
अमेरिका के इतिहास में ऐसा तीसरी बार है जब सीनेट चैंबर उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता में महाभियोग की अदालत में तब्दील हो गया हो! उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश जॉन रॉबर्ट ने सांसदों को सीनेट में मौजूद 99 सांसदों को शपथ दिलाई कि वे इस बारे में निष्पक्ष निर्णय लेंगे कि अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति को पद से हटाया जाए या नहीं. ट्रंप से पहले अमेरिकी राष्ट्रपति एंड्रयू जॉनसन के खिलाफ 1868 में और बिल क्लिंटन के खिलाफ 1998 में महाभियोग लगाया गया था, लेकिन अब तक किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा पद से हटाया नहीं जा सका. राष्ट्रपति निक्सन ने तो महाभियोग चलाए जाने से पहले ही अपना इस्तीफा सौंप दिया था और वाटरगेट टेप सार्वजनिक होने के बाद उन्होंने सबके सामने यह स्पष्ट कर दिया था कि वह सिरे से झूठ बोलते चले आ रहे हैं. <br />
एंड्रयू जॉनसन के विरुद्ध आरोप था कि उन्होंने तत्कालीन रक्षा सचिव एडविन स्तेंटन को हटाकर उनकी जगह मेजर जनरल लोरेंजो थॉमस को नियुक्त करने का प्रयास किया और अंततः जनरल उलिसिस ग्रांट को अंतरिम रक्षा सचिव नियुक्त किया, जो 1867 में अमेरिकी कांग्रेस द्वारा पारित टेन्योर ऑफ ऑफिस एक्ट का स्पष्ट उल्लंघन था. बिल क्लिंटन के विरुद्ध आरोप यह था कि उन्होंने अरकांसस राज्य की पूर्व कर्मचारी पाउला कॉर्बिन जोंस द्वारा दाखिल यौन अपराध के मुकदमे में स्वयं के, जोंस और मोनिका लेविंस्की के संबंधों को लेकर झूठ बोला और न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयास किया. <br />
पूर्व राष्ट्रपतियों की भांति ट्रंप के खिलाफ भी झूठ बोलने और अमेरिकी कांग्रेस को बाधित करने के ही आरोप लगे हैं. उन पर हैरानी भरा आरोप यह भी है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदोमीर जेलेंस्की यदि हंटर बिडेन के कारोबार की जांच करने की हामी भर देते तो आर्थिक सहायता बहाल हो जाती! अब संसद की निगरानी समिति ने नया रहस्योद्घाटन किया है कि संसद की स्वीकृति के बावजूद व्हाइट हाउस ने यूक्रेन को दी जाने वाली सैन्य सहायता पर भी रोक लगा रखी है, जो यह कानून का स्पष्ट उल्लंघन है. चूंकि अमेरिका में चुनावी मौसम शुरू हो चुका है इसलिए स्वाभाविक रूप से यह मुद्दा भी एक राजनीतिक बवंडर की शक्ल ले चुका है और ट्रंप बुरी तरह घिर गए हैं.<br />
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या पूर्व राष्ट्रपतियों की तरह ट्रंप भी महाभियोग से बच निकलेंगे या उन्हें पद से हटना पड़ेगा और कोई सजा मिलेगी? ट्रम्प मूल रूप से राजनेता नहीं, एक सफल निर्माण कारोबारी और होटल व्यापारी रहे हैं और इस धंधे को उन्होंने जिस अकड़ के साथ किया है, उसका वर्णन उन्होंने अपनी किताब ‘आर्ट ऑफ द डील’ में किया भी है. दक्षिणपंथियों द्वारा अपनाए जाने वाले सारे हथकंडे अपनाने में वह माहिर हैं. अमेरिकी अर्थव्यवस्था को खुद नए संकट में डालने वाले ट्रंप ने मतदाताओं को आशंकित करते हुए कहा है कि अगर चुनावों में डेमोक्रेटिक पार्टी की जीत होती है तो अर्थव्यवस्था तबाह हो जाएगी और शेयर बाजार डूब जाएगा. <br />
अमेरिका में ट्रंप और उनकी रिपब्लिकन पार्टी श्वेत वर्चस्ववाद की पैरोकार है. ट्रंप का मानना है कि अमेरिका में सिर्फ श्वेतों को ही सच्चे नागरिक के रूप में समझा जा सकता है और बाहर से आने वाले महज परिस्थितिजन्य अमेरिकी हैं. इसी मान्यता के चलते ट्रंप ने अमेरिकी कांग्रेस की चार गैर-श्वेत महिला सदस्यों को अपने देश लौट जाने के लिए कह दिया था. उन्होंने बिना वारंट के छापा मारने को मंजूरी दी थी ताकि करीब 110 लाख ऐसे लोगों का प्रत्यर्पण किया जा सके, जिनके पास अमेरिकी दस्तावेज नहीं हैं, हालांकि ये लोग वर्षों से अमेरिका में रह रहे हैं. पिछले नवंबर में ट्रंप ने धमकी दी थी कि अमेरिका में जन्म लेने मात्र से नागरिकता मिलने की गारंटी खत्म की जा सकती है. जबकि अमेरिकी संविधान का 14वां संशोधन स्पष्ट करता है कि जो भी अमेरिका में जन्मा है, वह अमेरिकी नागरिक है. <br />
श्वेत श्रेष्ठता वाला नस्लवाद रिपब्लिकन पार्टी के मूल में है, जो ट्रंप के हर बयान से झरता है. उन्होंने बेधड़क होकर मैक्सिको के निवासियों को "बलात्कारी", महिलाओं को "मादा सुअर" और "कुतियों" के रूप में चित्रित किया था और बड़ी ढिठाई के साथ यह घोषित किया था कि वह न्यूयॉर्क स्थित फिफ्थ एवेन्यू के ऐन बीच में खड़े होकर एक भी मतदाता खोए बगैर या कोई मुसीबत झेले बिना किसी को भी गोली से उड़ा सकते हैं! अश्वेत डेमोक्रेट बराक ओबामा का राष्ट्रपति चुना जाना रिपब्लिकन श्वेत नस्लवादियों के लिए नाकाबिले बर्दाश्त ठहरा था. उन्हें लगा कि जिस अमेरिका को वे जानते-पहचानते थे कि वह उनकी आंखों से सामने से नदारद हो गया है, उसे ‘पुनर्प्राप्त’ करना ही होगा. दरअसल डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका में समय चक्र को इतना पीछे ले जाना चाहते हैं, जहां चुने हुए जनप्रतिनिधि भी खुल कर नस्ली श्रेष्ठता की बोली बोल सकें.<br />
इस मानसिकता को देखते हुए नहीं लगता कि रिपब्लिकन सांसदों के बहुमत वाली सीनेट में छोटे-मोटे आपसी मतभेदों के बावजूद ट्रंप के राष्ट्रपति पद को कोई खतरा पैदा होगा. ट्रम्प की नजर में चुनाव से ठीक पहले महाभियोग की कार्रवाई शुरू हो जाना सुर्खाब के पर लगने जैसी किसी उपलब्धि की तरह है, और इससे बच निकलने को, जिसका उनको भी पूरा यकीन है, वह अपने मुकुट में जड़े एक और हीरे की तरह बखान करते फिरेंगे.विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-57426389116317614592020-01-16T23:16:00.002-08:002020-01-16T23:16:38.972-08:00मुंबई का अंडरवर्ल्ड और राजनीतिक वर्ल्ड एक-दूसरे को खाद-पानी देते रहे हैं!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div>शिवसेना के राज्यसभा सांसद और प्रवक्ता संजय राउत बयानबहादुर आदमी हैं. अपने बयानों को जब वे शेरो-शायरी की चासनी में भिगो कर पेश करते हैं तो मामला बड़ा रंगीन हो जाया करता है. लेकिन जब मुंबई में एक मीडिया समूह के कार्यक्रम के दौरान उन्होंने दावा किया कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अंडरवर्ल्ड डॉन करीम लाला से दक्षिणी मुंबई के पायधुनी इलाके में मिला करती थीं, तो मामला रंगीन होने की जगह संगीन हो गया, क्योंकि उनकी पार्टी शिवसेना महाराष्ट्र में जिस बैसाखी के सहारे गठबंधन की सरकार चला रही है, उसकी एक टांग कांग्रेस भी है.<br />
अपने पत्रकारिता वाले नॉस्टैल्जिया में डूबकर राउत ने एक के बाद एक खुलासा करते हुए कहा था कि अस्सी के दशक में दाऊद इब्राहिम, छोटा शकील, शरद शेट्टी जैसे मुंबई के डॉन ही तय किया करते थे कि मुंबई पुलिस का कमिश्नर कौन होगा और कौन राज्य सचिवालय में बैठेगा और कौन मंत्रालय में बैठेगा! और यह भी कि हाजी मस्तान जब मंत्रालय पहुंचता था तो पूरा सचिवालय काम-धाम छोड़कर उसे देखने पहुंच जाता था! हालांकि राउत ने गांधी परिवार के प्रति सम्मान जताते हुए आज सफाई दे दी है कि इंदिरा जी करीम लाला से पठानों के नेता के रूप में मिलती थीं, किसी डॉन के रूप में नहीं. लेकिन महाराष्ट्र सरकार को अस्थिर करने का कोई मौका न चूकने वाली शिवसेना की पूर्व पार्टनर बीजेपी स्वभावतः राउत के इन हवाहवाई विवरणों को लेकर शिवसेना और कांग्रेस दोनों पर हमलावर हो गई है.<br />
नब्बे के दशक में बाल ठाकरे का धमाकेदार इंटरव्यू लेकर लाइमलाइट में आए और कभी मराठी दैनिक ‘लोकसत्ता’ के स्टार पत्रकार रहे संजय राउत की आज एक शिवसेना नेता के रूप में सफाई और मजबूरी समझी जा सकती है. लेकिन यह बात सच है कि मुंबई के अंडरवर्ल्ड का राजनीतिक और फिल्मों से ऑफ द रिकॉर्ड चोली-दामन का नाता रहा है. यहां बॉलीवुड और अंडरवर्ल्ड के रिश्तों का जिक्र करना विषयांतर होगा. लेकिन मुंबई के प्रथम स्थापित डॉन हाजी मस्तान के गोद लिए बेटे सुंदर शेखर के मुताबिक, जिन्हें मस्तान सुलेमान मिर्जा कह कर बुलाता था, इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी जब भी मुंबई (तत्कालीन बंबई) आते थे, डैडी (मस्तान) से मिलते थे. ऐसे में इंदिरा जी को लेकर संजय राउत की बातें हवाहवाई नहीं लगतीं.<br />
सत्तर और अस्सी के दशक की राजनीति के ट्रेंड को ट्रैक किया जाए तो वह घटनाक्रम उल्लेखनीय जान पड़ता है जिसके तहत कांग्रेस ने मुंबई में जड़ें जमा चुकी वामपंथी राजनीति को उखाड़ फेंकने के लिए शिवसेना को परदे के पीछे से आगे बढ़ाया था. उसी जमाने में कुख्यात तस्कर हाजी मस्तान के मुंबई ही नहीं बल्कि पूरे भारत में बढ़ते ग्लैमर और सामाजिक असर से भी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी चिंतित रहती थीं. कहा जाता है कि मस्तान ने सरकार के प्रशासन में अपना ऐसा समानांतर सिस्टम स्थापित कर रखा था कि कई रसूखदार नेता भी अपना काम निकलवाने के लिए हाजी मस्तान की शरण में आते थे! मस्तान की गिरफ्तारी का आदेश मिलने पर पुलिस अधिकारी अक्सर बहाने बनाकर निकल लिया करते थे. आश्चर्य नहीं कि मस्तान को कमजोर करने के लिए इंदिरा गांधी ने मस्तान के प्रतिद्वंद्वी पठान गैंगस्टर करीम लाला को शह देने की चाल चली हो!<br />
इंदिरा गांधी ने हाजी मस्तान को 1974 में पहली बार 'मीसा' के अंतर्गत गिरफ्तार करवाया था. लेकिन जब 1975 में इमरजेंसी लगने पर मस्तान को दूसरी बार गिरफ्तार किया गया तो सुनते हैं कि उसने इंदिरा गांधी को अपनी रिहाई के बदले सड़कों पर नोट बिछा देने की पेशकश की थी! जेल काटने के बाद हाजी मस्तान समझ चुका था कि लोहा ही लोहे को काट सकता है. लिहाजा उसने राजनीति का रुख किया और 1984 के दौरान मुंबई और भिवंडी में हुए दंगों के बाद बने माहौल का फायदा उठाते हुए दलित नेता प्रोफेसर जोगेंद्र कवाड़े के साथ मिलकर एक राजनीतिक दल ‘दलित मुस्लिम सुरक्षा महासंघ’ बना लिया. यह अलग बात है कि तस्करी की दुनिया का बेताज बादशाह हाजी मस्तान राजनीति की दुनिया का मामूली प्यादा भी न बन सका. अपराध की दुनिया में अपना सूरज ढलता देख कर ही मस्तान ने महाराष्ट्र; खासकर मुंबई में शिवसेना का विकल्प बनने इरादे से खुद की राजनीतिक पार्टी गठित की थी. <br />
जैसा कि मशहूर है कि हर अपराधी छटपटाकर आखिरकार अपनी पनाहगाह राजनीति में ही ढूंढ़ता है और सफेदपोश बनना चाहता है. मस्तान के नक्शेकदम पर चलते हुए मुंबई के कई कुख्यात गैंगस्टरों ने पुलिस और अदालत के शिकंजे से बचने के लिए परोक्ष या अपरोक्ष रूप से राजनीति का दामन थामने की कोशिश की और कुछ तो इसमें काफी हद तक सफल भी हो गए. हमेशा झक सफेद कुर्ता व टोपी पहनने वाले तथा मुंबई के अंडरवर्ल्ड में ‘डैडी’ और ‘सुपारी किंग’ के नाम से कुख्यात दाऊद गैंग के दुश्मन अरुण गवली ने भी कानून के डर से राजनीति की शरण ली थी. 2004 में उसने ‘अखिल भारतीय सेना’ नाम से राजनीतिक दल बनाया और उसी साल हुए महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में उसने अपने कई उम्मीदवार उतारे और खुद अपनी दगड़ी चाल वाली चिंचपोंकली विधानसभा सीट से चुनाव जीत गया था. गवली कई बार पकड़ा गया, जेल भी काटी, लेकिन कहा जाता है कि राजनीतिक वरदहस्त और भ्रष्ट पुलिस अधिकारियों की मदद से वह हर बार बच निकलता था! <br />
विधायक बनने के बाद गवली को लगने लगा कि अब तो उसे कोई टच ही नहीं कर सकता. एक समय था जब शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे डींग मारा करते थे कि अगर पाकिस्तान के पास दाउद है तो भारत के पास गवली है! गैंगवार में गवली का पलड़ा भारी देखते हुए मुंबई के कई बड़े बिल्डर और व्यापारी अपने कारोबार को बढ़ाने और अपने दुश्मनों को निबटाने के लिए गवली की मदद लेते थे. अंडरवर्ल्ड और राजनीतिक के नेक्सस का यह खुला उदाहरण था. यहां तक कि बाल ठाकरे अमर नाईक और गवली को हिंदू डॉन मानते हुए उनके खिलाफ होने वाली पुलिस कार्रवाइयों की कड़ी भर्त्सना किया करते थे! लेकिन जब 2008 में गवली ने 30 लाख रुपए की सुपारी लेकर शिवसेना के ही पार्षद कमलाकर जामसांडेकर की हत्या करवा दी तो शिवसेना गवली के खिलाफ हो गई.<br />
मुंबई के चेम्बूर इलाके का गैंगस्टर छोटा राजन दाऊद गैंग का खासमखास था. लेकिन मुंबई बम धमाकों के बाद जब गैंग में साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन हुआ तो छोटा राजन ने खुद के देशभक्त डॉन बनने का बड़ा स्कोप देखा और उसने दाऊद के करीबी गैंगस्टरों को सजा देने की कसम खाई. इसमें भी उसे बाल ठाकरे का ‘नैतिक’ समर्थन मिल गया था. दूसरी तरफ देखें तो रॉ के एक पूर्व अधिकारी एनके सूद ने कुछ साल पहले यह कह कर बड़ा धमाका किया था कि शरद पवार और अहमद पटेल जैसे कुछ प्रमुख भारतीय राजनीतिज्ञों के दाऊद इब्राहीम से करीबी संबंध रहे हैं! <br />
हालांकि आरोप लगा देने या नाम उछाल देने से ही कोई बात साबित नहीं हो जाती. इंदिरा गांधी को लेकर संजय राउत ने जो बयान दिया है, उसके सबूत पेश करने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की बनती है. लेकिन ऊपर के चंद उदाहरण यह बताने के लिए काफी हैं कि मुंबई का अंडरवर्ल्ड और राजनीतिक वर्ल्ड एक दूसरे को धर्मनिरपेक्ष ढंग से खाद-पानी देते रहे हैं.<br />
-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार<br />
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विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-37595929085459546862020-01-16T23:15:00.002-08:002020-01-16T23:15:36.231-08:00विश्वविद्यालयी हिंसा देश का भविष्य तबाह होने की राह पर ले जाएगी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div>संस्कृत वांङमय में प्राचीन भारत के छात्रों के लिए कहा जाता था- “काकचेष्टा बकोध्यानम् श्वाननिद्रा तथैव च: । श्वल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थिति पंच लक्षणम्॥“ अर्थात् विद्यार्थी को कौव्वे की तरह जानने (ज्ञानप्राप्ति) की सतत चेष्टा करते रहना चाहिए, बगुले की तरह ध्यान केंद्रित करना (पढ़ाई में) चाहिए, कुत्ते की तरह सजग और सचेत मुद्रा में सोना चाहिए, उसे पेटू नहीं होना चाहिए और घर के मोह से मुक्त होना चाहिए।<br />
लेकिन वर्तमान भारत में ये सारे लक्षण शीर्षासन करने लगे हैं। उपर्युक्त श्लोक विकृत ढंग से विद्यार्थियों से अधिक प्रशासकों पर सटीक बैठ रहा है। अध्यापकों और कुलपतियों की काकचेष्टा, बकोध्यान और श्वाननिद्रा शिक्षेतर गतिविधियों पर केंद्रित होकर रह गई है। राजनीतिक के ओवरडोज ने शैक्षणिक संस्थानों को स्कोर सेटल करने के अखाड़ों में तब्दील कर दिया है और छात्र इस या उस विचारधारा का झंडा उठाने वाले कार्यकर्ता बन कर रह गए हैं! <br />
इसे दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जाए कि भारत के जिन विश्वविद्यालय कैम्पसों को छात्रों के सर्वांगीण विकास का स्वर्ग होना चाहिए था, विभिन्न मान्यताओं, सिद्धांतों और शिक्षण-पद्धतियों का कोलाज बनना था, आज वे बदले की राजनीति, असहिष्णुता, वैचारिक सफाए और दुर्भावनापूर्ण कार्रवाइयों की आश्रय-स्थली बन गए हैं! हिंसा इक्कीसवीं शताब्दी के समाप्त होने जा रहे पहले दशक की अखिल विश्वविद्यालयी परिघटना रही है। अब तो छात्रों को खुलेआम ‘अर्बन नक्सल’ करार दिया जा रहा है और उनकी अभिभावक केंद्र सरकार तथा कुलाधिपति खामोश हैं, असंख्य पूर्व छात्रों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी होने के बावजूद विश्वविद्यालयों के सांस्थानिक रहनुमा धृतराष्ट्र बने बैठे हैं!<br />
छात्रों के विभिन्न गुटों के बीच वैचारिक मतभेद, राजनीतिक सक्रियता, चुनावी झड़पें और युवकोचित हिंसा इन कैम्पसों के लिए कोई नया फिनॉमिना नहीं है। जो लोग छात्रों को सिर्फ अपनी पढ़ाई से ही काम रखने की नसीहतें देते हैं, उन्हें मालूम होना चाहिए कि छात्र राजनीति और छात्र-संघों का सुनहरी इतिहास आजादी से पहले ही लिख दिया गया था। फिर चाहे वह 1920 का असहयोग आंदोलन हो, जिसमें छात्रों ने अपने-अपने शिक्षण संस्थानों का बहिष्कार किया था और कइयों ने पढ़ाई अधर में छोड़ दी थी या 1930 में छिड़े सविनय अवज्ञा आंदोलन का दौर हो, जब छात्र अहिंसक आंदोलन किया करते थे और विदेशी वस्त्रों की होलियां जलाते थे। आजादी के बाद आपातकाल के दौर में जीवनावश्यक वस्तुओं की बढ़ती महंगाई के विरोध में छात्र सड़कों पर उतरे। जेएनयू के छात्रों के विरोध के चलते ‘आयरन लेडी’ इंदिरा गांधी तक को चांसलर का पद छोड़ना पड़ा था। नब्बे के दशक में वीपी सिंह द्वारा लागू किए गए मंडल कमीशन के विरोध की राष्ट्रव्यापी चिंगारी एक छात्र राजीव गोस्वामी ने ही जलाई थी। अन्ना हजारे का आंदोलन हो या निर्भया कांड के खिलाफ पैदा आक्रोश, छात्रों ने बिना किसी पूर्वग्रह के हर जरूरी मौके पर बल भर आवाज बुलंद की है। जेपी आंदोलन से निकले कितने ही छात्र नेता आज केंद्र और राज्य सरकारों का महत्वपूर्ण हिस्सा बन कर अपनी बुजुर्गी काट रहे हैं। <br />
लेकिन हम इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि केंद्र में पीएम मोदी की अगुवाई में दक्षिणपंथी रुझान वाली सरकार का पहला कार्यकाल शुरू होते ही वामपंथी विचारों के दबदबे वाला जेएनयू कैम्पस छात्र हिंसा-चक्र की धुरी बना कर उभारा गया है। उसे 'राष्ट्रविरोधी' गतिविधियों तथा ‘व्यभिचार’ का केंद्र प्रचारित करके लगातार उसकी छवि काली करने की कोशिश की गई है। जबकि जेएनयू ने बार-बार ‘यूनिवर्सिटी ऑफ इक्सीलेंस’ का खिताब जीतकर तमाम दुष्प्रचार को मिथ्या साबित किया है। जेएनयू ही नहीं, दिल्ली विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय, जादवपुर विश्वविद्यालय, अलीगढ़ विश्वविद्यालय, बीएचयू और जामिया मिलिया इस्लामिया समेत केरल के कई विश्वविद्यालय परिसर भी शिक्षेतर वजहों से उपजी हिंसक कार्रवाइयों का शिकार बने हैं। विश्वविद्यालयी हिंसा के नए अध्याय में कैम्पसों के भीतर पुलिस की लाठी-गोली हावी हो चली है। चित्र यही उभरता है कि पठन-पाठन के तीर्थों को अपवित्र किया जा रहा है।<br />
यह भी आईने की तरह साफ है कि देश के अलग-अलग कैम्पसों की हिंसक झड़पों में परस्पर विरोधी विचारपद्धतियों से पोषित एवं संवर्द्धित छात्र संगठनों के बीच होने वाले टकराव की अहम भूमिका रही है। नाम लेकर कहें तो वामपंथी आधार वाले छात्र संगठनों (आइसा, डीएसएफ , डीवायएफआई और एसएफआई आदि), कांग्रेस समर्थित एनएसयूआई और दक्षिणपंथी रुझान वाले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एवीबीपी) की रस्साकसी ने बार-बार इन हिंसक घटनाओं को जन्म दिया है। चूंकि एवीबीपी सत्तारूढ़ दल बीजेपी का छात्र-मोर्चा है, इसलिए हर मामले में उसके सदस्यों को एडवांटेज मिलता है। एवीबीपी का सूत्र-वाक्य है- “छात्र शक्ति, राष्ट्र शक्ति”। लेकिन जान पड़ता है कि वे अपनी परिषद् से बाहर के छात्रों के लिए कोई शक्ति शेष नहीं छोड़ना चाहते! एवीबीपी को मजबूत करने के इरादे से सत्ताधारी खेमे के नेता और संघ प्रचारक अक्सर कैम्पसों के माहौल को 'राष्ट्रवादी' बनाने के लिए प्रशासन की तरफ से कभी 'करगिल विजय दिवस' तो कभी 'दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद' के नाम पर बड़े-बड़े आयोजन करवाते रहते हैं। जेएनयू में तो वीसी जगदीश कुमार ने छात्रों में राष्ट्रवाद की भावना जगाने के लिए तीन साल पहले कैंपस के अंदर सेना का वास्तविक टैंक रखवाने की मांग की थी।<br />
आदर्श स्थिति तो यही है कि हमारे विश्वविद्यालय पूर्ण सरकारी सहयोग और समर्थन से अंतरराष्ट्रीय स्तर की शैक्षणिक गुणवत्ता और शोध के लिए विख्यात हों। उन्हें कद्दावर नेता, राजनयिक, कलाकार और अपने-अपने क्षेत्रों के अधिकारी विद्वान तैयार करने के लिए जाना जाए। लेकिन आज देश-विदेश में इनकी शोहरत- छात्र-आत्महत्या, साजिश के अड्डों, लाठी, पत्थर और लोहे की छड़ें लेकर घूमने वाले नकाबपोशों, होस्टलों में घुस कर किए जाने हमलों, धरना-प्रदर्शनों, गलाफाड़ नारेबाजी, देशद्रोह के मुकदमों, जातिगत भेदभाव, विषमानुपातिक शुल्क-वृद्धि आदि के लिए ज्यादा फैल रही है। <br />
कभी कैम्पसों के माहौल में अकादमिक स्वायत्तता, छात्र-संघों के चुनाव, विश्वविद्यालय प्रशासन में छात्र-संघों का दखल, प्रवेश-प्रक्रिया में बदलाव, पढ़ने-पढ़ाने की भाषा, पुस्तकालयों और अन्य संसाधनों की कमी, अनुदान कटौती और शुल्क-वृद्धि जैसे मुद्दे गरमी पैदा किया करते थे, लेकिन अब कश्मीर की आजादी, अनुच्छेद 370, एनआरसी, पाकिस्तान, अफजल गुरु, जिन्ना, नागरिकता कानून, तिहरा तलाक, राम मंदिर, सबरीमला, मॉब लिंचिंग, मूर्तिभंजन, संविधान का निरादर, चार्जशीट, कंडोम, नियुक्तियों का अतार्किक विरोध जैसे मुद्दे उबाल पैदा करते हैं। इन मुद्दों को राजनीतिक दल अपने-अपने स्वार्थों के चश्मे से देखते-तोलते हैं लेकिन छात्रों की समस्याओं को घोषणा-पत्रों का हिस्सा कभी नहीं बनाते।<br />
विश्वविद्यालय कैम्पस के भीतर अगर छात्र राजनीति करते हैं, तो आप उसे कदाचार का नाम नहीं दे सकते। उच्च शिक्षा का उद्देश्य सरकारी कारकून तैयार करना नहीं बल्कि युवकों का सर्वांगीण व्यक्तिगत और चारित्रिक विकास करना होता है। अगर कल के नीति निर्माता आज की समस्याओं पर विचार-मंथन नहीं करेंगे तो सटीक समाधान निकालने और निर्णय लेने की क्षमता उनमें कैसे विकसित होगी? वंशवाद की राजनीति का खात्मा कैसे होगा? इसीलिए छात्र-राजनीति को समकालीन राष्ट्रीय परिदृश्य का प्रतिबिम्ब कहा जाता है। यह देश को प्रभावित करने वाले मुद्दों से जुड़ाव, नागरिक समस्याओं के प्रति जागरूकता और समाज का वर्गीय प्रतिनिधित्व कैम्पस में ही पैदा कर देती है। शिक्षा का असल मतलब डिग्री हासिल करके कोई नौकरी पकड़ लेना नहीं होता, बल्कि अच्छे और बुरे के बीच चुनाव करने की सलाहियत पैदा करके अच्छाई के हक में आवाज बुलंद करना उसका मूल उद्देश्य होता है।<br />
हमारे कैम्पसों में हिंसा की बाढ़ का कारण शैक्षणिक अथवा राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर होने वाली छात्र राजनीति नहीं है। इस हिंसा का असली कारण सरकार से असहमत छात्रों को भयभीत करने के लिए सत्तारूढ़ दल समर्थित छात्र विंग को शह और अभयदान दिया जाना है। मामला इस हद तक जा पहुंचा है कि जिन छात्र-छात्राओं का माथा फूटता है, एफआईआर उन्हीं के खिलाफ दर्ज करवा दी जाती है! राहत इंदौरी का शेर याद आता है- “अब कहां ढूंढने जाओगे हमारे कातिल / आप तो कत्ल का इल्जाम हमीं पर रख दो।” <br />
अगर कोई हिंसक हथियारबंद भीड़ भारत के सबसे शानदार और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में घुस कर मारकाट और तोड़फोड़ कर सकती है और सुरक्षा में तैनात पुलिस छात्रावास, छात्रों व अध्यापकों की सुरक्षा करने में नाकाम रहती है; अपने आकाओं के इशारों पर उपद्रवी छात्र-छात्राओं को गिरफ्तार नहीं करती, तो ऐसे हालात में आखिर देश का कौन-सा कैम्पस सुरक्षित है? उस पर भी विभिन्न प्रचार-प्रसार माध्यमों के जरिए विरोधी विचारधारा वाले छात्रों को खलनायक, आतंकवादी, देशद्रोही और जाने क्या-क्या साबित करने का राजनीतिक अभियान जारी है। ऐसे में छात्रों पर हिंसक हमलों का खतरा कई गुना बढ़ गया है। लेकिन जो लोग अंधविरोध और समर्थन के वशीभूत होकर किसी भी वैचारिक पक्ष वाले छात्रों के वर्तमान दमन का जश्न मना रहे हैं उन्हें अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि जो समाज छात्रों की पुलिसिया पिटाई और अपने विश्वविद्यालयों में हिंसा का समर्थन करता है, वह अपने भविष्य के तबाह होने की राह पर निकल पड़ता है!<br />
-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार<br />
विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-10923249045056292252020-01-16T23:14:00.004-08:002020-01-16T23:14:54.910-08:00फैज की नज्म पर हंगामा क्यों है बरपा?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div>फैज अहमद फैज की नज्म पर ऐतराज जताने वालों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए आजकल जहां सोशल मीडिया पर “हम फेकेंगे” और “हम बेचेंगे” जैसे उनवानों से उल्था नज्में चलाई जा रही हैं, वहीं कवि बोधिसत्व ने अपने फेसबुक पेज पर मूल रचना “हम देखेंगे” का हिंदी में गंभीर भावानुवाद पेश किया है, जो फैज के पाक इरादों का खुलासा करती है. कृपया आप भी देखें-<br />
<br />
।। हम देखेंगे।।<br />
पक्का है कि हम भी देखेंगे<br />
वो दिन कि जिसका है वचन मिला<br />
जो "विधि विधान" में है कहा गया<br />
जब पाप का भारी पर्वत भी<br />
रुई की तरह उड़ जाएगा<br />
हम भले जनों के चरणों तले<br />
जब धरती धड़ धड़ धड़केगी<br />
और राजाओं के सिर ऊपर<br />
जब बज्जर बिजली कड़केगी<br />
जब स्वर्गलोक के देव राज्य से<br />
सब पापी संहारे जाएंगे<br />
हम मन के सच्चे और भोले<br />
गद्दी पर बिठाए जाएंगे<br />
सब राजमुकुट उछाले जाएंगे<br />
सिंहासन ढहाए जाएंगे<br />
बस नाम रहेगा "परमेश्वर" का<br />
जो साकार भी है और निराकार भी<br />
जो दृश्य भी है और दर्शक भी<br />
उट्ठेगा “मैं ही ब्रह्म" का एक नारा<br />
जो मैं भी हूं और तुम भी हो<br />
और राज करेगा "पूर्णब्रह्म"<br />
जो मैं भी हूं और तुम भी हो<br />
हम देखेंगे!<br />
<br />
आम जनता के दुख-दर्द, उसके संघर्ष, समाजी व सियासी मसाइल और टूटे हुए दिलों की तड़प को अपनी शायरी में पिरोने वाले इंकलाबी और रूमानी शायर फैज अहमद फैज एक मुहावरे के मुताबिक अपना ही यह बारीक शेर याद कर करके कब्र में बेचैनी से करवटें बदल रहे होंगे कि “वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था/वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है”. मुहावरे का हवाला इसलिए दे रहा हूं कि फैज तरक्कीपसंद शायरी का मरकज थे और आदमी के खुदा नामक ख्वाब में उनका यकीन नहीं था. ऐसे में कब्र, जन्नत, खल्क-ए-खुदा, अनल-हक, अर्ज-ए-खुदा और बुत जैसे अल्फाज के मानी उनके लिए वही नहीं थे, जो शब्दकोश में लिखे होते हैं. इंसान की जिजीविषा ही उनके लिए पहली और आखिरी हस्ती थी. फैज के लिए ‘बुत’ का मतलब किसी देवता की ‘मूर्ति’ नहीं है, बल्कि इस जमीन पर रहने वाले उन लोगों से है, जो खुद को खुदा समझते हैं और लोगों पर जुल्म-ओ-सितम ढाते हैं. बहरहाल, उनकी शायरी पर तजकिरा पेश करना यहां हमारा मकसद नहीं है, लिहाजा हम सीधे मुद्दे की बात पर आते हैं.<br />
<br />
फैज की एक बड़ी मकबूल नज्म है- “हम देखेंगे”. इसे तमाम ऐसे लोग एक हथियार की तरह प्रयोग करते आए हैं, जो हर किस्म की निरंकुशता और जोर-ओ-जब्र की मुखालिफत किया करते हैं; हिंदुस्तान में भी और पाकिस्तान में भी. पिछले दिनों नागरिकता कानून के विरोध में कानपुर आईआईटी के छात्रों ने रैली निकाली, जिसे नाम दिया गया था- ‘इन सॉलिडैरिटी विद जामिया’. उसमें जब फैज की इस नज्म को पढ़ा गया, तो फैकल्टी के कुछ सदस्यों ने इसके संदेश को भारत विरोधी, हिंदू विरोधी और सांप्रदायिक करार देते हुए बाकायदा एक जांच समिति गठित करवा दी! आपत्ति जताने वाले लोग नज्म की इन पंक्तियों- “जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से/सब बुत उठवाए जाएंगे/हम अहल-ए-सफा मरदूद-ए-हरम/मसनद पे बिठाए जाएंगे/सब ताज उछाले जाएंगे/सब तख्त गिराए जाएंगे/बस नाम रहेगा अल्लाह का”- पर खास ऐतराज जता रहे हैं. उनको लगता है कि नज्म में इस्लाम का कोई कट्टर अनुयायी काल्पनिक जन्नत का दृश्य प्रस्तुत करते हुए अपनी गहरी आस्था के मुताबिक हश्र के दिन का वर्णन कर रहा है और ‘बुत’ उठवाने की चाह जता कर हिंदुओं की मूर्तिपूजा का विरोध कर रहा है!<br />
मशहूर शायर व फिल्म लेखक-गीतकार जावेद अख्तर तथा खुद फैज साहब की बेटी सलीमा हाशमी ने कहा है कि फैज और इस नज्म को हिंदू विरोधी बताना इतना दुखद, अजीब और हास्यास्पद है कि इसके बारे में कोई गंभीर प्रतिक्रिया भी नहीं दी जा सकती. मशहूर-ओ-मारूफ शायर मुनव्वर राणा ठीक ही कह रहे हैं कि हमारे देश के जो मौजूदा हालात हैं, उसमें हर चीज को सांप्रदायिक बनाए बिना सियासतदानों का काम नहीं चलता और नफरत इस देश में आजकल आक्सीजन का काम करती है. अगर यही नज्म राष्ट्रकवि दिनकर या मधुशाला वाले बच्चन साहब ने लिखी होती, तो कोई हंगामा नहीं होता.<br />
मुनव्वर राणा की बात में दम है. आजकल सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं और संगठनों में ऐसे लोगों का कब्जा हो चुका है जो एक खास किस्म से सोचने के लिए प्रशिक्षित किए गए हैं. जिन्हें साहित्य का ‘स’ नहीं मालूम, वे मीर-ओ-गालिब को खारिज कर देते हैं और कबीर-तुलसी-निराला की कविता को इलेक्ट्रिक शॉक देकर परखना चाहते हैं. दरहकीकत फैज ने कहा है कि धरती पर जो भी तानाशाह मौजूद हैं, उन सभी के बुत उठवा दिए जाएंगे. जनता की क्रांति आएगी और सिर्फ एक ताकत राज करेगी, जो ‘खल्क-ए-खुदा’ यानी खुदा की बनाई जनता ही होगी. लेकिन इतनी सी बात भी समझ पाना ‘असाहित्यिक’ और ‘जनविरोधी’ दिमागों के वश की बात नहीं है. कवि-पत्रकार मित्र चंद्रभूषण की राय में उपमाएं कवि के सोचने का तरीका हैं. लेकिन अपनी औकात के पार जाने के लिए उसे रूपकों के जोखिम भरे कारोबार में उतरना पड़ता है, जहां किसी भी बात का कुछ भी अर्थ लगाया जा सकता है.<br />
जाहिर है कि जब खुद कवि के लिए यह चुनौतीपूर्ण कार्य है तो पाठक की विकृत मानसिक बुनावट अनर्थ करने में उत्प्रेरक की भूमिका ही निभाएगी. “हम होंगे कामयाब” पंक्ति का हासिल किसी क्रांतिकारी, भ्रष्ट नेता अथवा डाकू के लिए एकसमान नहीं हो सकता. आखिरकार सब अपने-अपने तरीके से कामयाब ही होना चाहते हैं. इसमें कवि या शायर का क्या दोष है? जिनके मस्तिष्क में ग्रांड कैनियन से भी गहरे सांप्रदायिक सोच वाला तंत्रिका पथ खोद दिया गया है, वे सिंधु और गंगा-यमुना के बहते हुए पानी में भी हिंदू-मुसलमान के रंग खोज लेते हैं. कविता के सकारात्मक और गूढ़ निहितार्थ समझने की तरफ उनकी सोच जा ही नहीं सकती. इस दिशा में प्रशिक्षण देने वाली कोई शाखा भी भारत में नहीं चलाई जा रही है कि उनकी सोच वाला तंत्रिका पथ बदला जा सके.<br />
<br />
मजे की बात है कि ऐतराज जताने वाले लोग अपने ड्रांइग रूमों में फैज की रूमानी गजलें सुनकर अपना गम गलत करते हैं लेकिन उनकी शायरी के इंकिलाबी तेवर से परहेज करते हैं. यानी मीठा-मीठा गड़प और कड़वा-कड़वा थू! मेहदी हसन गा दें कि “कर रहा था गम-ए-जहां का हिसाब/आज तुम याद बे-हिसाब आए”, तो इन्हें तन्हाई में महबूबा की बेवफाई याद आ जाएगी और अगर ये शेर सामने पड़ जाए कि “निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहां/ चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले”, तो इन्हें सांप सूंघ जाएगा!<br />
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किस्सा ये है कि फैज ने “हम देखेंगे” नज्म पाकिस्तान को धार्मिक कट्टरता की जहालत में ठेलने वाले तानाशाह जिया उल हक की कारस्तानियों के विरोध में प्रतीकात्मक ढंग से लिखी थी. इसमें उनका कोई धार्मिक दृष्टिकोण नहीं था. अगर यह नज्म हिंदू विरोधी होती तो पाकिस्तान में महिलाओं के साड़ी पहनने तक को प्रतिबंधित करने वाला यह निष्ठुर जनरल इस नज्म को सेंसर करवा कर फैज को जेल में न ठूंसता बल्कि उन्हें ईनाम-ओ-इकराम से नवाजता. जेल में ही बेफिक्र होकर फैज ने लिखा था- “बोल कि लब आजाद हैं तेरे/बोल जबां अब तक तेरी है/तेरा सुतवां जिस्म है तेरा/बोल कि जां अब तक तेरी है”. सच तो यह है कि जिया उल हक की वजह से फैज पाकिस्तान में चैन से नहीं रह पाए. कभी उनको फिलिस्तीन में शरण लेनी पड़ती थी, तो कभी सोवियत रूस में अनुवाद करके पेट पालना पड़ता था, क्योंकि फैज की शायरी भूख, गरीबी, अत्याचार का खात्मा करने के लिए पाकिस्तानी अवाम का आवाहन करती थी और सच का साथ देने वालों के दिलों में सड़क पर संघर्ष करने की आग पैदा करती थी. आजादी के फरेब का पर्दाफाश करते हुए ऐलान करती थी- “ये दाग-दाग उजाला, ये शबगजीदा सहर, वो इंतजार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं”. लब्बोलुबाब यह कि फैज ने हर मुश्किल वक्त में अपनी आवाज बुलंद की और कई पीढ़ियों के मुंह में जबान डाल दी.<br />
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यही एक चीज नज्म पर आपत्ति उठाने वालों को खल रही है. स्पष्ट है कि या तो ये लोग सत्ता के साथ हैं या सत्ता से भयभीत हैं. अविभाजित भारत के सियालकोट में जन्मे फैज ने जीते जी पाकिस्तान के हुक्मरानों और मुल्लाओं से पत्थर खाए और मरने के बाद भारत में गालियां खा रहे हैं. फैज की शायरी सियासी सरहदों को लांघने वाली शायरी है. उसे हिंदुस्तान और पाकिस्तान की मौजूदा बायनरी में कैद करके नहीं देखा जा सकता. क्या दिन आ गए हैं कि शेर-ओ-शायरी की किस्मत सरकारी मशीन के चंद पुर्जे तय करने लगे हैं! इस नुक्ते पर मिर्जा गालिब का यह शेर याद आता है- “या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मिरी बात/ दे और दिल उनको जो न दे मुझको जबां और.”<br />
-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार<br />
विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-918537372056075882020-01-16T23:13:00.002-08:002020-01-16T23:13:56.258-08:00सीएए और एनआरसी के विरोध में उतरी महिलाएं सत्ता की चूलें हिला सकती हैं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><br />
इतिहास गवाह है कि एक कट्टर और रूढ़िवादी भारतीय समाज में हिंदू और मुस्लिम महिलाएं 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से पहले बड़े पैमाने पर सड़कों पर कभी नहीं उतरी थीं, और हमारी आंखों के सामने इतिहास बन रहा है जब धार्मिक भेदभाव को हवा देने वाले नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) के विरोध में करोड़ों भारतीय नागरिकों के साथ हिंदू-मुस्लिम महिलाएं कंधे से कंधा मिलाकर देशव्यापी आंदोलन कर रही हैं. कोलकाता में पिछले हफ्ते एक युवती ने अपने हाथ में जो तख्ती थाम रखी थी, उस पर लिखा संदेश वर्तमान संदर्भों में बेहद मानीखेज है- “मेरे पिता जी को लगता है कि मैं इतिहास की पढ़ाई कर रही हूं; वे नहीं जानते कि मैं इतिहास रचने में मुब्तिला हूं."<br />
दिल्ली के जामिया नगर स्थित मुस्लिम बहुल मोहल्ले शाहीन बाग की महिलाएं बीते दो हफ्तों से ज्यादा समय से सीएए और एनआरसी के खिलाफ अहिंसक प्रदर्शन करती आ रही हैं. कुछ महिलाएं तो कई दिनों से घर ही नहीं गई हैं, अन्य महिलाएं अपने बाल-बच्चों के साथ धरने पर बैठी हैं. अशिक्षित होने के बावजूद अनगिनत महिलाएं इस बात से पूरी तरह वाकिफ हैं कि राष्ट्रव्यापी एनआरसी लागू करने की सरकारी योजना में दांव पर क्या लगा हुआ है. ये सभी समझती हैं कि महिलाएं ज्यादा असुरक्षित एवं सहज शिकार बन जाने की स्थिति में होती हैं: संपत्ति के कागजात आम तौर पर पुरुषों के नाम पर होते हैं, और कइयों के पास तो भारतीय नागरिकता साबित करने हेतु जरूरी दस्तावेज ही नहीं हैं. असम में संपन्न एनआरसी गवाह है कि वहां के हिंदीभाषी और बंगाली समुदाय के जिन लोगों ने असम से बाहर शादी की थी, उनकी पत्नियों का नाम कट चुका है. उन महिलाओं ने अपने-अपने मायकों से दस्तावेज जुटाए थे लेकिन वे निर्धारित अर्हताओं पर खरे नहीं उतरे. महिलाओं के मन में व्याप्त असुरक्षा का अंदाजा लगाया जा सकता है क्योंकि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट कह दिया है कि देशव्यापी एनआरसी में आधार कार्ड वगैरह से काम नहीं चलेगा. <br />
बात सिर्फ शाहीन बाग ही नहीं है; मुंबई, औरंगाबाद, बैंगलोर, जयपुर, पटना, चेन्नई जैसे शहरों में महिलाओं ने खामोश प्रदर्शन किए हैं. धरना-प्रदर्शनों में जिस नारे ने सबका ध्यान खींचा, वो था- “जब हिंदू-मुस्लिम राजी, तो क्या करेगा नाजी?” अभिनेत्री रेणुका शहाणे ने पीएम को संबोधित करते हुए ट्वीट किया- “असली टुकड़े-टुकड़े गैंग आपका आईटी सेल है सर!... उन्हें नफरत फैलाने से रोकिए.” यह महिलाओं की इतिहास दृष्टि, गहरी राजनीतिक समझ, हालात पर पैनी नजर, निर्भीकता, कल्पनाशीलता, आत्मसंयम और बेहद अनुशासित होने का द्योतक है. प्रतिरोधी आंदोलन में महिलाओं की उपस्थिति, उनकी दृढ़ता और अहिंसक प्रवृत्ति ही इस दावे को खारिज करने के लिए काफी है कि इन प्रदर्शनों को "विपक्ष" अथवा "बाहर से उकसावा देने वालों" द्वारा हवा दी गई है. इन विरोध प्रदर्शनों के निहितार्थ बड़े गहरे हैं. भारतीय महिलाओं ने जामिया मिलिया और समूचे उत्तर प्रदेश में अनाहूत क्रूर पुलिसिया हिंसा के सामने अपनी अहिंसा की ताकत और संविधान के प्रति निष्ठा दिखा दी है.<br />
गौर करने की बात यह है कि इन महिलाओं को आप वर्गीकृत करना चाहें, तो बड़ी मुश्किल होगी. इनमें फिल्म अभिनेत्रियों से लेकर शिक्षिकाएं, नर्सें, निजी दफ्तरों की कामकाजी महिलाएं, स्कूली पढ़ाई से लेकर उच्चतर शोध करने वाली छात्राएं, रोज कुआं खोदने और रोज पानी पीने वाली मजदूरिनें, बुरके में सरापा ढंकी महिलाएं, बालों को हिजाब में छुपाती युवतियां, गृहणियां- यानी जीवन के हर क्षेत्र से जुड़ी हर आयु-वर्ग की पेशेवर और आम महिलाएं शामिल हैं. घरों से निकलकर सड़क पर उतरी इन महिलाओं में अधिकांश संख्या उनकी है, जो अशिक्षित हैं, परिजनों से भयभीत हैं लेकिन पुलिस की लाठी से जरा भी नहीं डरतीं! पहचाने जाने के डर से कुछ तो अपना पूरा या असली नाम भी नहीं बताना चाहतीं लेकिन सीएए और एनआरसी के आसन्न खतरों को वे अपनी टूटी-फूटी भाषा से लेकर अंग्रेजी और परिष्कृत हिंदी में जबान दे रही हैं. <br />
कई महिला आंदोलकारी हर दशक की शुरुआत में होने वाली जनगणना, एनपीआर 2010, एनपीआर 2019 और एनआरसी के बीच के फर्क को बड़ी स्पष्टता से खोल कर रख रही हैं. वे डिटेंशन शिविरों की हकीकत और हालात से भी वाकिफ हैं और इस मामले में बोले गए मोदी-शाह के झूठ को भी भीड़ के सामने उजागर करती हैं. वे इस बात का भी खुलासा करती हैं कि बाप-दादाओं के दस्तावेज जुटाने में भारतीयों, खासकर गरीबों और मध्य वर्ग के नागरिकों के सामने कैसी-कैसी मुसीबतें पैदा होंगी. एनआरसी, एनपीआर और सीएए की उपयोगिता को लेकर प्रधानमंत्री मोदी, केंद्रीय गृह-मंत्री अमित शाह और केंद्र सरकार के अन्य मंत्रियों द्वारा दिए गए बयानों का अंतर्विरोध सबके सामने ला रही हैं. जामिया की तीन छात्राएं-आयशा रेना, लबीदा फरजाना और चंदा यादव तो पुलिस की लाठियों के सामने एक साथी छात्र की ढाल बन गई थीं. उन्हें लाठी भांजने वाले पुलिसकर्मियों और साथी छात्र के बीच में पड़ कर प्रतिवाद करते हुए और अकल्पनीय क्रूरता के लिए पुलिसवालों को फटकार लगाते हुए देखा जा सकता है.<br />
अब तक महिलाएं प्रायः लैंगिक भेदभाव और मनचलों की छेड़छाड़ के खिलाफ मुखर होती रही हैं, लेकिन संविधान की मूल भावना के साथ हुई छेड़छाड़ को रोकने के लिए उनका इस तरह आक्रोशित होना भारतीय परिप्रेक्ष्य में अभूतपूर्व है. उन्होंने जता दिया है कि पानी सर के ऊपर से गुजर चुका है और चुनावी जीत के मद में चूर, बड़बोली, मिथ्यावादी, निरंकुश और अधिनायकवादी सरकार के सामने वे आत्मसमर्पण नहीं करनेवाली हैं. राजनीतिक आरोपों और सत्तारूढ़ खेमे के दावों के विपरीत इन विरोध प्रदर्शनों की खास बात यह है कि महिलाओं की इस अप्रत्याशित जुटान के पीछे किसी संगठन या संस्था या समूह या दल का हाथ नहीं है. विरोध जताने के लिए स्थान या अवसर की परवाह भी नहीं की गई है. एक ओर जहां दिल्ली को नोएडा से जोड़ने वाले मुख्य हाईवे के एक हिस्से पर कब्जा जमाया गया, तो दूसरी तरफ पांडिचेरी विश्वविद्यालय की स्वर्णपदक विजेता रबीहा अब्दुर्रहीम और जादवपुर विश्वविद्यालय की देबास्मिता चौधरी ने कैम्पस में आयोजित दीक्षांत समारोहों के मंचों पर ही सीएए का कड़ा विरोध दर्शाया. दक्षिण भारतीय अभिनेत्री रीमा कलिंगल ने अपने फेसबुक पेज पर लिखा- “धर्म के आधार पर हमारे शांतिपूर्ण राष्ट्र को मत बांटिए.”<br />
महिलाओं की यह जागरूकता इस संदर्भ में भी उल्लेखनीय है कि हिंदू समाज में सदा से हावी जबर्दस्त पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण ने कथित महिला सशक्तीकरण के नाम पर चंद रेवड़ियां बांटने के अलावा कभी भी लड़कियों और महिलाओं के बारे में गहराई से सोचने की जहमत नहीं उठाई. इस्लाम में प्रदत्त औरतों के हुकूक की लाख दुहाई देने के बावजूद मुस्लिम महिलाएं कठमुल्लों की कठपुतलियां बना कर रख दी गईं. महिलाओं को हमेशा "भारतीय नारीत्व" की पवित्र आभा में लपेटे रखने का प्रयास किया गया. इस पसमंजर में वर्तमान विरोध प्रदर्शन हिंदू-मुस्लिम महिलाओं की छवियों का एक दिलेर और मर्मभेदी कोलाज पेश करते हैं, जिन्होंने लादी गई हिफाजत के पिंजरे को तोड़ दिया है और लोकतांत्रिक असंतोष के लबालब भरे तूफानी समंदर में छलांग लगा दी है. उनका बाहर निकला एक-एक कदम किसी भी जनविरोधी और महाशक्तिशाली सत्ता की चूलें हिला सकता है.<br />
- विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार<br />
विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-25189785225162550822019-10-04T08:18:00.001-07:002019-10-04T08:18:56.207-07:00ट्रैफिक कानून संशोधित- क्या अब भारतीय सड़कों पर सचमुच रामराज उतरेगा?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div>बात हल्के-फुल्के अंदाज में शुरू की जाए तो ऐसा लगता है कि जैसे देश में मोटर वाहन (संशोधन) विधेयक 2019 को तेलुगु सुपरस्टार महेश बाबू की फिल्म 'भारत अने नेनु' का वह सीन देख कर लागू किया गया है, जिसमें नायक मुख्यमंत्री की भूमिका में है और अधिकारियों को ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन करने वालों पर कई गुना ज्यादा जुर्माना ठोकने का आदेश दे रहा है. यह बात और है कि नए निमय लागू होने के पहले दिन से ही देश भर में वाहन चालक ट्रैफिक पुलिस के सामने ‘तू डाल-डाल मैं पात-पात’ वाली तरकीबें आजमाने को मजबूर हैं और उनके फिल्मों से भी मजेदार कॉमेडी सीन सोशल मीडिया पर देखने को मिल रहे हैं.<br />
सड़क परिवहन को लेकर भारतीय समाज में इतनी कहावतें, लोकोक्तियां और मिथक प्रचलित हैं कि लगता है जैसे ट्रैफिक के नियम तोड़ना कोई शानदार कारनामा हो. रांग साइड में वाहन घुसेड़ना, छोटे-से वाहन में पूरा मोहल्ला लेकर चलना, नो पार्किंग जोन में वाहन पार्क करना, स्कूलों-अस्पतालों के दरवाजे पर जोर-जोर से हॉर्न बजाना, सिग्नल तोड़ कर आगे बढ़ जाना, जेब्रा क्रॉसिंग पर वाहन बढ़ा लेना गर्व की बात समझी जाती है. हमारे विंध्य क्षेत्र (एमपी) में तो बच्चे-बच्चे की जबान पर चढ़ा हुआ है- ‘पकड़ के हैंडल, तोड़ के सिग्नल, मार के पैडल, जांय दे कक्का सांय-सांय!’ पंजाब के किसी भी ड्रायवर से पूछिए, वह बताएगा कि सड़क पर ‘मत्स्य न्याय’ होता है और ‘जंगल का कानून’ चलता है!<br />
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जिस वाहन में जितने ज्यादा पहिए होते हैं, उसका उतना बड़ा रुतबा होता है. बारह चका वाला मालवाहक ट्रक उखड़ी हुई सड़क पर भी खुद को व्हेल मछली और दोपहिया वाहन को झींगा मछली मान कर चलता है. ट्रैफिक वाले कितने भी बड़े बोर्ड लगाएं कि ‘दुर्घटना से देर भली’, लेकिन वाहनवीरों के बीच यह मान्यता पुख्ता हो चुकी है कि सड़क दुर्घटनाएं अपनी लापरवाही से नहीं बल्कि दूसरों की असावधानियों के चलते ही होती हैं. यातायात के नियम तोड़ने वालों के पास ट्रैफिक वालों को गच्चा देकर पतली गली से निकलने, नाकाबंदी करने वालों पर पद या पैसों का रौब झाड़ने, किसी रिश्तेदार मंत्री या अधिकारी का नाम उछाल कर साफ बच निकलने की ऐसी-ऐसी वीरगाथाएं होती हैं कि उनके सामने पृथ्वीराज रासो लिखने वाले महाकवि चंदबरदाई भी पानी भरें! भले ही उनके पास हेलमेट, ड्रायविंग लाइसेंस, रजिस्ट्रेशन, टैक्स, बीमा और वाहन के एक भी कागजात न पाए जाते हों!<br />
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राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा संशोधित विधेयक को मंजूरी मिलने के बाद 1 सितंबर, 2019 से प्रभावी नियमों के अंतर्गत जुर्माना राशि 30 गुना तक बढ़ा दी गई है और चालक अथवा वाहन स्वामी को सलाखों के पीछे भेजने के साथ-साथ उनके लाइसेंस निरस्त करने के भी प्रावधान हैं. और तो और, यदि किसी नाबालिग से वाहन चलाते समय कोई दुर्घटना हो जाती है तो उसके माता-पिता या अभिभावक को 3 साल तक की जेल काटनी पड़ेगी. सभी नियम और जुर्माना विस्तार से देखने के लिए कृपया यह लिंक क्लिक करें - https://sarkaricourse.com/motor-vehicle-act-2019/<br />
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लेकिन ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि 'पइसा कै टोरबा, टका मुड़उनी’ (एक पैसे का बच्चा और उसके मुंडन का खर्च एक रुपया) वाली कहावत सिद्ध होने लगे. कहीं ऐसा न हो कि कर्ज की ईएमआई चुका कर वाहन खरीदने वालों को जुर्माना भरने के लिए नया कर्ज लेना पड़ जाए! हालांकि लिंक देखने पर यही आभास होता है कि पुराने अधिनियम को वाहन चालकों की भलाई के लिए ही संशोधित किया गया है. संशोधित एक्ट के प्रावधानों में यह व्यवस्था है कि हर दुर्घटना की साइंटिफिक जांच होगी और कारणों की तह तक जाकर दुर्घटना की हर वजह दूर की जाएगी, ड्राइविंग लाइसेंस जारी करने के पहले ऑनलाइन टेस्ट होगा, जिससे रिश्वत देकर लाइसेंस हथियाने वाले अनाड़ियों की छंटनी हो जाएगी, अगर सड़क की डिजाइनिंग में खराबी है या सड़क के टूटा-फूटा होने की वजह से कोई एक्सीडेंट हुआ है तो उसके लिए संबंधित विभाग के इंजीनियर और ठेकेदार भी जिम्मेदार माने और धरे जाएंगे, किसी घायल को अस्पताल पहुंचाने वाले मददगार व्यक्ति को कानून के पचड़ों से घायल नहीं होने दिया जाएगा.<br />
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इसके उलट चर्चा यह गर्म है कि नोटबंदी और जीएसटी आदि के चलते अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान की भरपाई के लिए सरकार ने नया वसूली अभियान चलाया है. इस पर केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी का कहना है कि पैसे से ज्यादा कीमत लोगों की जान की है और जुर्माने में भारी वृद्धि का फैसला कानून का पालन अनिवार्य बनाने के लिए किया गया है, सरकारी खजाना भरने के मकसद से नहीं. लेकिन भारी जुर्माने की मार झेल रहे लोग बेहद आक्रोश में हैं. एक शख्स ने ट्विटर पर लिख मारा कि नए एक्ट में सिर्फ फांसी की सजा का प्रावधान ही नहीं है, बाकी सब सजाएं हैं. एक साहब ने कुछ इस तरह से खुन्नस निकाली- ‘जिस तरह सरकार बिना हेलमेट के या ज्यादा सवारी बिठाने पर जुर्माना ठोक रही है, क्या हम भी उसी तरह टूटी हुई सड़क, बंद पड़े सिग्नल, किसी चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस वाला न होने या ट्रैफिक जाम की स्थिति में सरकार पर जुर्माना ठोक सकते हैं?’ हद तो यह है कि अगर बीच सड़क पर गाय या भैंस विराजमान हैं तो इसका जिम्मेदार भी ट्रैफिक पुलिस को ही माना जा रहा है!<br />
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लोगों को समझना चाहिए कि ट्रैफिक नियमों का अनुपालन इसलिए भी जरूरी है कि हमारे देश में आतंकवाद के कारण कम और सड़क हादसों में उससे कई गुना लोग मारे जाते हैं. तथ्य है कि सड़क दुर्घटनाओं में हर साल करीब डेढ़ लाख लोगों की जान चली जाती है और साढ़े चार लाख से ज्यादा लोग घायल होते हैं. मरने वालों में 60 फीसदी लोग 18 से 35 की चरम उत्पादक आयुवर्ग के होते हैं. प्रापर्टी के नुकसान का आकलन किया जाए तो वह देश की जीडीपी के दो फीसदी के बराबर बैठता है. बड़े-बड़े मंत्री-संत्री, वैज्ञानिक-खिलाड़ी और कवि-कलाकार भीषण सड़क दुर्घटनाओं में जान गवां चुके हैं. इसी बिंदु पर प्रतिप्रश्न उठता है कि आम लोगों के लिए यातायात के नियम तो सख्त बना दिए गए हैं लेकिन क्या सरकार व प्रशासन की गलतियों और लापरवाहियों तथा भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे ट्रैफिक कर्मचारियों की वजह से जनता को होने वाले नुकसान, दुर्घटनाओं, यहां तक कि लोगों की मौत के लिए किसी को सजा या जुर्माना होगा कि नहीं?<br />
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सरकार सिर्फ कानून बना कर बरी नहीं हो जाती. अगर वह लोगों से नए ट्रैफिक नियमों का अक्षरशः पालन करने की अपेक्षा करती है तो लोग भी अपेक्षा करते हैं कि संशोधित एक्ट के सभी जनहितैषी प्रावधानों पर सरकार की तरफ से अक्षरशः अमल किया जाए. विडंबना यह है कि जुर्माना वसूली तो तत्काल चालू हो गई, लेकिन संशोधित कानून में उल्लिखित बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर का कोई अता-पता नहीं है. हाईवे की यह वनवे कार्रवाई लोगों को आखिर कब तक और किस हद तक पचेगी? यातायात के नियम तोड़ने वालों के प्रति हमारी कोई सहानुभूति नहीं है लेकिन सरकार को भी चाहिए कि वह सड़कों को गड्ढामुक्त करे, मेनहोल बंद करे, जाम की समस्या से निजात दिलाए, सांड, गाय, भैंस, सुअर, घोड़े, कुत्ते, गधे तथा नीलगाय जैसे आवारा पशुओं के सड़क पर खुलेआम घूमने और बैठने को रोके, सड़कों का चौतरफा अतिक्रमण हटाए, सिग्नल चाक-चौबंद करे, पुलों और सड़कों पर रोशनी की व्यवस्था करे तभी तो यह भारी जुर्माना और सजा तर्कसंगत व न्यायसंगत लगेगी.<br />
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हमारी सरकार मानती है कि सख्त सजा का डर ही लोगों को अपराध करने से रोक सकता है. नए ट्रैफिक नियमों की खासियत यही है कि वे बेहद सख्त हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि नए नियम जनता की मुट्ठी गरम करने की लत और सरकारी अमले की ऊपरी कमाई की हवस का शिकार नहीं होंगे. पूरा ट्रांसपोर्ट और ट्रैफिक सिस्टम आने वाले सालों में पटरी पर आ जाएगा और यातायात को लेकर लोगों में इतना आत्म अनुशासन पैदा हो जाएगा कि जुर्माना और सजा की नौबत ही नहीं आएगी. अगर इतना हो गया तो भारतीय सड़कों पर रामराज्य आने से कोई नहीं रोक सकता!विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-28257535643539799412019-10-04T08:14:00.000-07:002019-10-04T08:14:00.602-07:00जरा-सी भी बाढ़ क्यों बर्दाश्त नहीं कर पाते हमारे शहर?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div>मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद, अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली... कोई महानगर नहीं बचा है, जिसने पिछले एक दशक के दौरान जलप्रलय न भोगा हो! हाल की कुछ तबाहियों को याद करें तो साल 2000 में हैदराबाद के हुसैन सागर के पास बनी कई झोपड़पट्टियां बाढ़ में बह गई थीं. पेड़ उखड़ कर बीच सड़क पर पड़े थे और शहर की रफ्तार ठप पड़ गई थी. सूरत में 2006 की बाढ़ ने 200 से ज्यादा लोगों और सैकड़ों पशुओं की जान ले ली थी. राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान 2010 में दिल्ली तिब्बती बाजार से लेकर खेल गांव तक पानी-पानी हो गई थी. लेकिन 26 जुलाई 2005 को मुंबई में आई बाढ़ सबसे विकराल थी. इसमें यह विराट महानगर लगभग आधा डूब गया था, सभी बुनियादी सेवाएं गायब थीं और जान-माल के नुकसान की तो कोई इंतहा नहीं थी. अधिक वर्षा, समुद्री किनारा और बाबा आदम के जमाने का ड्रेनेज सिस्टम मुंबई और चेन्नई का लगभग हर दूसरे साल गला घोंट देता है. इन दिनों बिहार की राजधानी पटना में जलप्रलय का मंजर है.<br />
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कोई ऐसा मानसून नहीं गुजरता जो देश के किसी न किसी नगर अथवा महानगर में तबाही न मचाता हो. हर कोई जानता है कि अगले मानसून में क्या होने जा रहा है. लेकिन जैसे ही जिंदगी पटरी पर लौटती है, शहर के लोग और स्थानीय प्रशासन उस तबाही को ऐसे भूल जाते हैं, जैसे कि वह प्राचीन ग्रंथों में वर्णित कोई किस्सा हो! हर बार ड्रेनेज, नालियों की साफ-सफाई और बाढ़ से निबटने के लिए आपदा-प्रबंधन का पहले से ज्यादा बजट बनता है और स्वाहा हो जाता है. हर बार मानसून से ठीक पहले नालियों और ड्रेनेज का कचरा निकालकर उसी के बगल में छोड़ दिया जाता है और बरसात होने पर उसी में समा जाता है. हर बार मंत्री-संत्री इंद्रदेव का अचानक कोप हो जाने का रोना रोते हैं, जो उस शहर के बाशिंदों और देश की आंखों में धूल झोंकने से ज्यादा कुछ नहीं है.<br />
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भारतीय मायथालॉजी में कहा गया है कि जब किसी नगर की रचना दोषपूर्ण हो जाती थी तो भगवान इंद्र अपना पुरंदर रूप धारण करके उस नगर को नष्ट कर देते थे. अधिकारियों को इस कथा से सबक हासिल करना चाहिए क्योंकि नगर की संरचना को दोषमुक्त बनाए रखना और बेहतर जल-निकासी की योजनाएं बनाना उनके हाथ में ही होता है. अल्पावधि में अत्यधिक वर्षा को शहर डुबाने का जिम्मेदार ठहराने का सीधा मतलब भू-माफिया, राजनीतिज्ञों, बिल्डरों, पूंजीपतियों के गठजोड़ को पाप की भागीदारी से मुक्त करना है, जो आधुनिक नगर-संरचनाओं को विकृत करने में वर्षों से जुटे हुए हैं. यह गठजोड़ शहरों के बीच की खुली जगहों को नगर-प्रशासन के नियंत्रण से मुक्त करवाता है, उन पर अवैध कब्जा होने देता है, समुद्र और बड़ी नदियों के किनारे की दलदली भूमि और मैंग्रोव्स कटवाता-पटवाता है, व्यावसायिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए वहां गगनचुम्बी इमारतें, मल्टीप्लेक्स और शॉपिंग कॉम्प्लेक्स वगैरह खड़े करवा देता है.<br />
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इसका सीधा असर यह हुआ है कि वर्षा का जो जल खुली जगहों की जमीन से होता हुआ भू-गर्भ में संचित हो जाता था, या बाढ़ का जो अतिरिक्त पानी नदी-नालों से होता हुआ सागरों तक पहुंच जाता था, उसके रास्ते अवरुद्ध हो गए हैं. हम देख रहे हैं कि प्राचीन नगर-संरचनाओं की बुनियाद पर खड़े कोलकाता और पटना जैसे कई आधुनिक शहर भी चोक हो चुके हैं. शहरों के भीतर मौजूद छोटी-मोटी जलधाराएं, नदियां, कुदरती नाले, कुएं, तालाब, जोहड़, बावड़ियों जैसी संरचनाएं भी जल-संचयन, बाढ़ को नियंत्रित करने अथवा अतिरिक्त जल की प्राकृतिक-निवृत्ति में बड़ी सहायक होती थीं. लेकिन अब इन समतल की जा चुकी जगहों को राजनेता और बिल्डर प्राइम लोकेशन बताकर ऊंचे दामों पर बेचते हैं और पीने का पानी गंगा (दिल्ली में), कृष्णा (हैदराबाद में), कावेरी (बैंगलुरु में) जैसी दूर-दराज की नदियों से लाया जाता है!<br />
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मुंबई के अंदर मीठी और ओशिवरा समेत 7 नदियां थीं जो नेशनल पार्क से निकलकर विभिन्न खाड़ियों में जा गिरती थीं. वर्षा जल का दबाव कम करने में इनकी बड़ी भूमिका थी. लेकिन रासायनिक और औद्योगिक कचरे, इमारतों के मलबे, प्लास्टिक और तरह-तरह के भंगार से पटी ये नदियां बाढ़ का पानी सड़कों पर उड़ेल कर बीच में ही लुप्त हो जाती हैं. मुंबई का ड्रेनेज सिस्टम 21 सदी की शुरुआत में तब की विरल बसाहट के हिसाब से यह सोच कर डिजाइन किया गया था कि अगर प्रतिघंटे अधिकतम 25 मिलीमीटर वर्षा हुई तो आधा पानी मिट्टी में जज्ब हो जाएगा. लेकिन आज वर्षा का अवरुद्ध पानी रेल की पटरियों को नदियां बना देता है.<br />
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दिल्ली की बात करें तो आज जहां व्यस्ततम आईटीओ रोड है वहां से एक नाला बहा करता था और बाढ़ का पानी यमुना में ले जाता था. लेकिन आज पहली बारिश में ही यह इलाका जलमग्न होता है. रिंग रोड बनाते समय दिल्ली के स्लोप को ध्यान में नहीं रखा गया, न ही इस बात का इंतजाम किया गया कि वर्षा का अतिरिक्त जल किधर से कहां जाएगा. राजधानी के जितने भी बस स्टैंड हैं, लगभग सबके सब जल-एकत्रित होने की जगहों को पाट कर बनाए गए हैं. कभी दिल्ली में नजफगढ़ झील, डाबर इलाके और यमुना पार समेत लगभग 800 जगहों पर स्थायी तौर पर पानी संग्रहीत रहता था, आज इनमें से अधिकांश जल-स्रोत गायब हैं और वहां कब्जा या निर्माण हो चुका है.<br />
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स्वभावतः पानी अपना रास्ता स्वयं खोज और बना लेता है. कोसी नदी का हर साल मानवनिर्मित तटबंध तोड़ कर रास्ते बदल लेना इसका जीवंत उदाहरण है. लेकिन पटना के बीच नागरिकों द्वारा की गई अवैध घेराबंदी को तोड़ कर वर्षा का जल आखिर कहां जाए, क्या करे! मजबूर होकर वह हहराता हुआ आपके-हमारे ड्राइंग रूम में घुसता चला आता है. इस स्थिति से बचने के लिए, शहर में जब कोई निजी मकान या बहुमंजिला इमारत बनाता है तो उसे उस प्लॉट और प्रभावित क्षेत्र द्वारा जज्ब किए जाने वाले वर्षा जल का विकल्प तैयार करना चाहिए, वरना वह आस-पास के इलाके में संचित होकर बाढ़ ला देगा. इमारत के आस-पास पार्किंग और फुटपाथ पर कंक्रीट व अस्फाल्ट के बजाए पत्थर बिछाना, वृक्षारोपण और प्राकृतिक ड्रेनेज के अनुसार ही सड़कें बनाना समझदारी का काम है. इसके लिए हम पाटिलपुत्र की नगर-रचना की ओर देख सकते हैं. कहते हैं कि जब महाराजा अजातशत्रु वैशाली के वज्जि गणसंघ को जीतने के लिए पाटलिपुत्र किले के निर्माण हेतु गंगा की तटबंदी करा रहे थे, तब गौतम बुद्ध वहां का पधारे थे और शहर को आशीर्वाद देते हुए आगाह किया था कि किसी नगर के ह्रास के कारण होते हैं- आग, पानी, और शहरवासियों में कलह. अजातशत्रु और बाद के मगध-शासकों ने इस बात का ध्यान रखा था लेकिन आज का शासक-वर्ग उस शिक्षा को भूल चुका है. कलिकाता गांव आज विशाल कोलकाता में तब्दील हो चुका है लेकिन जलनिकासी हुगली नदी के रहमोकरम पर ही है.<br />
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बाढ़ में फंसे असहाय लोगों और निरीह पशु-पक्षियों की तस्वीरें और कहानियां हम सबने देखी-सुनी हैं. सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का जुहू (मुंबई) स्थित घर जल-प्लावित होते देखा है. पटनावासी बिहार के उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी को परिवार सहित सड़क पर खड़ा देख चुके हैं. लेकिन हम लोग अब भी यह नहीं समझ रहे हैं कि बादल जितना भी पानी बरसाते हैं, वह भू-जल बनने के लिए होता है, बाढ़ लाने के लिए नहीं. उसे बाढ़ के रूप में हम और आप बदलते हैं, क्योंकि बेकार में बही एक-एक बूंद बाढ़ लाने में योगदान करती है. हमारे शहर वर्षा के अतिरिक्त जल को क्यों बर्दाश्त नहीं कर पाते, इसे समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है. पर्याप्त जल-संचयन, उचित जल-संरक्षण और सटीक जल-प्रबंधन करने की प्राचीन-कला सीख कर आज भी हम बाढ़ की विभीषिका से निबट सकते हैं. लेकिन जनता के पैसे से बनी हर योजना में से अपना हिस्सा निकाल लेने और आग लगने पर ही कुआं खोदने की हमारी आदत जाती नहीं है!<br />
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-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार<br />
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जिन सुधी अभिभावकों ने अपने पुत्र-पुत्रियों को उच्च चिकित्सा एवं तकनीकी शिक्षा दिलाने का सपना देख रखा है उनके लिए एक पांव पर खड़े होने का उष्ण मौसम आ गया है. मई और जून 2016 में कई प्रतियोगी परीक्षाएं होने जा रही हैं, जिनमें से प्रमुख हैं- एआईपीएमटी जो 1 मई को होनी है, क्लैट 8 मई को होगी, जेईई एडवांस्ड 22 मई को और सीईटी परीक्षा 2 जून को आयोजित होगी, 4 जून से द इंस्टीट्यूट ऑफ कंपनी सेक्रेटरीज ऑफ़ इंडिया की परीक्षाएं शुरू हो रही हैं, 10 जून से भारतीय बीमा संस्थान की परीक्षाएं होंगी.<br />
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इन दिनों धुनी छात्र-छात्राएं कोचिंग क्लासों, स्टडी रूमों, पुस्तकालयों, गार्डनों, छतों, गलियारों आदि को अपना रीडिंग रूम बनाए हुए हैं और इस तपती-चुभती गर्मी में भी मेडिकल, इंजीनियरिंग, कानून और अन्य पाठ्यक्रमों में दाख़िले के लिए दिन-रात पसीना बहा रहे हैं.<br />
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माता-पिता उनके टेबल पर सर रख कर सो जाने की आदत पर पैनी नज़र रखे हुए हैं और चाय-पानी की सप्लाई में जरा भी कोताही नहीं बरत रहे. कुछ छात्रों के अभिभावक इस बात को लेकर भी माथा पकड़ कर बैठे हुए हैं कि कैसे उनके बच्चे ऊंची से ऊंची रैंक एवं अंक प्राप्त करें ताकि प्रतिष्ठित और मनचाहे शिक्षा संस्थानों में उन्हें आसानी से दाख़िला मिल जाए. किसी ठंडे पहाड़ी स्थल पर ग्रीष्म ऋतु का लुत्फ़ उठाने का ख़याल फ़िलहाल उनके दिमाग़ से कोसों दूर है.<br />
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मेरे एक पीडब्ल्यूडी इंजीनियर मित्र की बेटी को डीएवीवी इंदौर के अंडरग्रेजुएट कोर्स में दाख़िला लेना है. वह इतने बेताब हैं कि बेटी की जगह सीईटी का पूरा कार्यक्रम ख़ुद उन्होंने रट लिया है जबकि परीक्षा को अभी महीना भर से ज़्यादा समय बाक़ी है. वह एक सांस में बताते हैं- ‘कॉमन इंट्रेंस टेस्ट 2 जून को और पहली काउंसलिंग 23 को होनी है. कुल मिलाकर 35 कोर्सेस हैं, जिनके लिए इग्जाम्स 9 शहरों में होने हैं. इनके लिए एप्लीकेशन ऑनलाइन भी भरे जा सकते हैं. हमारा प्लान यही है. अच्छा हो अगर एग्जाम सेंटर अपने ही शहर में मिल जाए.’<br />
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इंटीरियर डेकोरेटर शादाब सिद्दीक़ी साहब चाहते हैं कि उनकी बेटी पढ़-लिख कर एमबीबीएस डॉक्टर बने. इसके लिए वह पिछले दो सालों से उसकी एआईपीएमटी (आल इंडिया प्री मेडिकल टेस्ट) की सख़्त तैयारी करा रहे थे. सीबीएसई द्वारा आयोजित इस टेस्ट की तारीख़ 1 मई मुकर्रर की गई है. इसे पास करने पर उनकी बेटी देशभर के मेडिकल कॉलेजों की 15 फीसदी मेरिट पोजीशन में शुमार हो जाएगी, और इस तरह शादाब साहब का सपना भी पूरा हो जाएगा.<br />
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नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में दाख़िला पाने ने लिए पेशे से चार्टर्ड एकाउंटेंट बख्शी जी का बेटा जी-तोड़ कोशिश कर रहा है. राजीव गांधी नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ लॉ, पटियाला की तरफ से आयोजित कॉमन लॉ एडमीशन टेस्ट (क्लैट) 8 मई को होना है जिसका नतीजा 23 मई को उसके सामने आ जाएगा. अगर कामयाब हो गया तो 1 जून से उसकी काउंसलिंग शुरू हो जाएगी.<br />
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मिसेज बख्शी ने पूरे मोहल्ले में मिठाइयां बांटने की तैयारियां अभी से कर रखी हैं लेकिन उनके मन में किंतु-परंतु भी व्यायाम कर रहा है. शेयर ब्रोकर भरत भाई का ब्लड प्रेशर 22 मई को होने जा रहे ‘द ज्वाइंट एंट्रेंस एग्जामिनेशन (जेईई) एडवांस्ड टेस्ट’ के दोनों पेपरों को लेकर बढ़ा हुआ है क्योंकि उनके बेटे की प्रॉपर तैयारी नहीं हो पाई; जबकि दोनों पेपर अनिवार्य हैं. इस टेस्ट के लिए 29 अप्रैल को रजिस्ट्रेशन शुरू होना है जिसकी स्कैन रिस्पॉन्स शीट 1 जून तक वेबसाइट पर दिखने लगेगी और 12 जून को उनके बेटे की क़िस्मत का फ़ैसला हो चुका होगा. पता नहीं भरत भाई 22 दिन का यह हिमयुग कैसे काटेंगे!<br />
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बच्चों की परवाह करने तक तो ठीक है लेकिन ‘थ्री ईडियट्स’ बार-बार देखने के बावजूद कैरियर को लेकर संतान से कहीं ज़्यादा माता-पिता द्वारा इतनी चिंता करना सचमुच चिंताजनक है. हमारे देश में कई प्रतियोगी परीक्षाएं होती रहती हैं. जैसे कि सिविल सेवा परीक्षा, इंजीनियरी सेवा परीक्षा, सीपीएमटी (CPMT), आईआईटी संयुक्त प्रवेश परीक्षा (IIT JEE), अखिल भारतीय इंजिनीयरिंग प्रवेश परीक्षा (AIEEE), सम्मिलित प्रवेश परीक्षा (कॉमन ऐडमिशन टेस्ट / CAT), प्रबंधन योग्यता परीक्षा (MAT), ओपेनमैट (OpenMAT), सार्वजनिक प्रवेश परीक्षा (कॉमन इंट्रैंस टेस्ट / CET), इंजीनियरी में स्नातक अभिरुचि परीक्षा या गेट (GATE), राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (NDA) की परीक्षा, सम्मिलित रक्षा सेवा परीक्षा (CDS), संयुक्त विधि प्रवेश परीक्षा (कॉमन लॉ एडमिशन टेस्ट / CLAT), यूजीसी राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (यूजीसी नेट अथवा NET), केंद्रीय शिक्षक पात्रता परीक्षा (Central Teacher Eligibility Test / CTET), संयुक्त प्रवेश स्क्रीनिंग परीक्षा (Joint Entrance Screening Test / JEST) आदि. उपर्युक्त परीक्षाओं में हम कभी पास होते हैं तो कभी फेल. लेकिन फेल होने पर हमें अपने सपने संतान के जरिए पूरा करने की ख़ब्त-सी सवार हो जाती है जो संतान के भी फेल हो जाने पर लगभग घातक सिद्ध होती है.<br />
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यहां किसी के बड़े-बड़े सपने देखने की मुख़ालिफ़त नहीं की जा रही है. लेकिन अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने बच्चे की सही क्षमता पहचानें. कई मामलों में यह क्षमता कम भी हो सकती है. दुनिया का हर बच्चा एकसमान नहीं हो सकता. इसके उलट होता यह है कि माता-पिता प्रतियोगी परीक्षा देने जा रहे बच्चे के फ़ॉर्म तक ख़ुद भरते हैं.<br />
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अरे! जो बच्चा अपनी परीक्षा का फ़ॉर्म खुद नहीं भर सकता, बैंक जाकर अपना डीडी नहीं बनवा सकता, उसे प्रशासनिक केंद्र तक कुरियर नहीं कर सकता, अपना इग्जाम सेंटर नहीं खोज सकता; वह आईएएस-आईपीएस या डॉक्टरी-इंजीनियरी का टेस्ट क्या खाकर पास करेगा! लेकिन नहीं साहब, चूंकि पड़ोसी के बच्चे ने अमुक टेस्ट पास किया है इसलिए अपने बच्चे को उससे आगे निकालना आपने अपना धर्म बना लिया है. प्रतिभा जाति-पांत की मोहताज नहीं होती. होना यह चाहिए कि आप अपने बच्चे को स्वाबलंबी बनाएं. उसे अपना काम ख़ुद करने दें और सीखने का मौक़ा दें. अक्सर देखा जाता है कि जो मां-बाप घर में पड़ा अख़बार तक ठीक से नहीं पढ़ते वे किताब में घुसे रहने को लेकर बच्चे के सर पर चौबीसों घंटे सवार रहते हैं. पहले आप मिसाल तो पेश कीजिए. बच्चा मां-बाप से जितना सीखता है, उतना उसे दुनिया की कोई कोचिंग नहीं सिखा सकती.<br />
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अभिभावकों द्वारा अपनी संतान से प्रतियोगी परीक्षा की समय-सारिणी के मुताबिक तैयारी कराने, प्रश्न-पत्रों का पैटर्न समझाने और उनके खाने-पीने का पूरा ख़याल रखने में कोई हर्ज़ नहीं है. लेकिन अगर अभिभावक यह मानकर चलने लगें कि सफलता सौ टका मिलनी ही मिलनी है तो यह अपनी ही संतान के साथ अन्याय होगा. कई बार अनेक प्रयासों के बावजूद सफलता नहीं मिलती. इसका अर्थ यह नहीं है कि अभिभावक और संतान की दुनिया ख़त्म हो गई.<br />
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पहले अभिभावक को असफलता का महत्त्व समझना पड़ेगा तब कहीं जाकर संतान में संघर्ष करने की शक्ति उत्पन्न होगी और एक दिन वह सफल होकर दिखाएगी. प्रतियोगी परीक्षा में पास होने के लिए अभिभावक को संतान के पीछे लट्ठ लेकर नहीं पड़ना चाहिए बल्कि उसे उचित माहौल और समय देना चाहिए. लेकिन होता यह है कि जैसे-जैसे परीक्षा का दिन नजदीक आता है, बच्चे से ज़्यादा अभिभावकों के दिल की धड़कनें तेज़ होने लगती हैं; जैसे कि उन्हें ख़ुद पर्चा हल करना हो! बच्चा कितनी भी मेहनत क्यों न कर ले, अभिभावक उसको लेकर अक्सर नर्वस नज़र आते हैं.<br />
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बड़ी प्रतियोगी परीक्षाओं के इस मौसम में अगर आपका बच्चा भी किसी प्रतियोगी परीक्षा में बैठने जा रहा है तो उसकी आंखें सींच-सींचकर उसे रात-रात भर जगाने की बजाए नींद पूरी कर लेने दें. रात्रि-जागरण करके सुबह परीक्षा देने पहुंचे बच्चों को प्रश्न ही नहीं समझ में आते. आख़िरी मिनट में परीक्षा केंद्र पर पड़ाव डालकर बच्चे की आंखों तले किताबें अड़ाए रखना तो और भी बुरी बात है. आपको भले ही परीक्षा हॉल के गेट तक पूरी तैयारी करवाने की शांति मिल जाए लेकिन बच्चे का दिमाग़ अशांत हो जाएगा. वह भ्रमित भी हो सकता है और पर्चे में पूछे गए प्रश्नों का जवाब निल बटा सन्नाटा हो सकता है…और आपके सपनों पर पानी फिर सकता है. शुभ परीक्षा!विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-2597760909715486042016-04-24T08:15:00.000-07:002016-04-24T08:18:05.291-07:00बोतलबंद पानी के बाद अब आया बोतलबंद हवा का ज़माना!ज़्यादा दिन नहीं गुज़रे हैं जब लोग दूसरों को दिखा-दिखा कर बोतलबंद पानी किया करते थे गोया अमृतपान कर रहे हों! मोबाइल की तरह यह भी एक स्टेट्स सिंबल था. अब बोतलबंद पानी (बोतल 1 की हो या 100 लीटर की) पीना मजबूरी बन गया है. इस बाज़ारू दुनिया में जो इसे नहीं ख़रीद सकते वे तब भी प्यासे मर रहे थे, आज भी मर रहे हैं. भारत की आज़ादी के 70 वर्षों बाद सरकारी उपलब्धि यह है कि जल-स्रोतों को गटर बना दिया गया है और साफ पानी विलासी अमीरों का शग़ल लगता है. इसलिए चौंकिए मत और बोतलबंद पानी के बाद अब बोतलबंद हवा को स्टेटस सिंबल बनाने के लिए तैयार हो जाइए, क्योंकि वायु-प्रदूषण की मारी इस दुनिया में बाक़ायदा इसका व्यापार शुरू हो चुका है और भारत भी हवा व्यापारियों की ज़द में है. वायु-प्रदूषण के विविध कारण और समाधान उनकी चिंता का विषय नहीं हैं. वैसे भी मुनाफ़ापिस्सुओं के लिए हर संकट एक सुनहरी अवसर ही होता है.<br />
विकास की अंधी दौड़ में शामिल चीन जैसे विकसित देशों की ऐसी पर्यावरणीय दुर्गति हुई है कि वहां लाखों लोग अभी से बोतलबंद हवा ख़रीदकर सांस ले रहे हैं. ‘बर्कले अर्थ’ की रपट के अनुसार चीन में वायु-प्रदूषण से रोज़ाना लगभग 4000 मौतें होती हैं! यही भय है कि बीजिंग समेत चीन के कई बड़े शहरों में बोतलबंद हवा का बिजनेस तेज़ी से फल-फूल रहा है. जल्द ही विकासशील भारत भी इससे अछूता नहीं रहेगा. कंक्रीट के जंगल खड़े करने की होड़ ने पर्यावरण में असंतुलन पैदा कर दिया है. इसका नतीजा यह है कि भारत के कुछ राज्यों में अप्रत्याशित 5080 किमी नया वन-क्षेत्र विकसित होने के बावजूद सार्थक परिणाम सामने नहीं आ रहे हैं. महानगरों में अपर्याप्त पर्यावरण संवर्धन व वायु-प्रदूषण पसली का दर्द बना हुआ है. जाहिर है ऐसे में पहाड़ों की ताज़गी देने वाली हवा के लुभावने पैकेट पानी की ही तरह हाथोंहाथ बिकेंगे. देश में बोतलबंद हवा जल्द ही हकीक़त और मजबूरी बन जाएगी. अभी वायु-प्रदूषण से बचने के लिए लोग दस्युओं की तरह घर से नाक-कान-मुंह बांध कर निकला करते हैं लेकिन जल्द ही वे आईसीयू में भर्ती किसी मरीज़ की भांति हवा की छोटी-बड़ी बोतलें गले में लटकाए नज़र आएंगे! <br />
बिजनेसमैन पूरे विश्व में बहुत जल्द संभावनाएं सूंघ लिया करते हैं और उनके सेल्समैन हिमालय में भी बर्फ़ बेच आते हैं. सनातन संस्कृति वाले भारत में ज्ञानियों की धारणा थी कि धरती पर धूप-हवा-पानी सनातन तौर पर मुफ़्त और प्रचुर है लेकिन ‘वैश्वीकरण’ के इस दौर में पानी के बाद अब हवा भी बाज़ार में बिठा दी गई है. कनाडा की ‘वाइटैलिटी एयर बैंफ एंड लेक’ नामक कंपनी ने अपने यहां के चट्टानी पर्वतों और कंचन जल से घिरे प्राकृतिक हरे-भरे स्थलों की ताज़ा हवा बोतलों में बंद करके यूएसए और मध्य-पूर्व के देशों को बेचना शुरू कर दिया है. यह कंपनी कनाडा की दो स्थलों- बैंफ एवं लेक लुइस के निर्मल वातावरण से हवा को बोतलबंद कर रही हैं. ग्राहकी का आलम यह है कि उक्त कंपनी हवा बेचकर मालामाल हो रही है. चीन में तो क्रेज़ इस क़दर बढ़ गया है कि लोग बोतलबंद हवा ख़रीदकर जन्मदिन और शादियों में गिफ़्ट कर रहे हैं.<br />
वाइटैलिटी एयर बैंफ एंड लेक ने शुद्ध हवा के अपने दो ब्रांड बाज़ार में उतारे थे- बैंफ एयर और लेक लुइस. कंपनी के संस्थापक मोजेज लेक ने 2014 में जब इस हवा का पहला पैकेट बेचा था तब उन्हें इसकी कल्पना भी नहीं रही होगी कि हवा का धंधा उनकी किस्मत बदल देगा. चीन में उन्हें इतना बड़ा बाज़ार मिला कि पिछले दिसंबर में दुकान का श्रीगणेश करने के तुरंत बाद ही 500 बोतलें पलक झपकते बिक गई थीं. बीजिंग में बैंफ एयर की 3 लीटर की बोतल आज लगभग 952 रुपए और 7.7 लीटर का बाटला 1542 रुपए में बिक रहा है.<br />
दुनिया में हवा का बाज़ार बढ़ता देखकर ब्रिटेन के 27 वर्षीय लियो डे वाट्स भी ‘आएटहाएर’ कंपनी बनाकर शुद्ध हवा की खेती में कूद पड़े हैं और इस साल के शुरुआती तीन महीनों में ही हज़ारों पाउंड कमा चुके हैं. लियो की टीम शुद्ध हवा भरने सुबह 5 बजे ही ब्रिटेन के समरसेट, डोरसेट तथा वेल्स जैसे प्राकृतिक सुषमायुक्त इलाक़ों में जाती है और ग्राहकों की ख़ास मांगों के अनुरूप सप्लाई कर देती है. हवा के लिए लियो किसी दिन पहाड़ की चोटी पर चढ़ते हैं तो किसी दिन गहरी घाटियों में उतरते हैं. उनका मानना है कि अगर वायु-प्रदूषण का धरती पर यही हाल रहा तो निकट भविष्य में हज़ारों कंपनियां हवा के धंधे में उग आएंगी.<br />
भारत में औद्योगिक शहरों की सांसें पहले से ही थमी हुई थीं, अब छोटे और मझोले शहरों का दम भी घुटने लगा है. केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड की ताज़ा रपट कहती है कि सबसे प्रदूषित शहर मुजफ्फ़रपुर (बिहार) है और उसके बाद लखनऊ का नंबर आता है. यह आश्चर्यजनक है क्योंकि ये दोनों शहर उद्योगबहुल नहीं हैं! रपट से यह भी स्पष्ट हुआ है कि देश के 10 सबसे ज़्यादा प्रदूषित शहरों में से 6 शहर औद्योगिक रूप से पिछड़े उत्तर प्रदेश और बिहार के हैं जबकि औद्योगिक एवं आर्थिक गतिविधियों का केंद्र मुंबई, बंगलुरु और चेन्नई जैसे महानगरों में प्रदूषण उक्त शहरों से कम है. ऐसे में वायु-प्रदूषण को उद्योग-धंधों मात्र से सीधा जोड़ देना तर्कसंगत नहीं लगता. योजनाकारों व पर्यावरणविदों को इसका निदान और इलाज़ खोजना होगा. लखनऊ के बाद घटते क्रम में प्रदूषण-स्तर दिल्ली, वाराणसी, पटना, फ़रीदाबाद, कानपुर, आगरा, गया, नवी मुंबई, मुंबई और पंचकूला (हरियाणा) का है. अर्थात हवा की गुणवत्ता के आधार पर पंचकूला सबसे माकूल शहर है और मुजफ्फ़रपुर सर्वाधिक दमघोंटू! <br />
घर-घर वायु-प्रदूषण के पसमंजर में अगर भारत जल्द ही हवा बेचने का केंद्र बन जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. मौक़े का फ़ायदा उठाने के लिए देसी-विदेशी कंपनियां भारत की नदी-घाटियों एवं पर्वतशृंखलाओं की ख़ाक छानती नज़र आने लगें तो अचंभित मत होइएगा. सरकार पर्यावरण के नियमों को शिथिल कर उन्हें हवा के अंधाधुंध दोहन का लाइसेंस जारी कर दे तब भी चकित मत होइएगा. शुद्ध हवा की पैकेजिंग के नाम पर अगर नदी-पहाड़ों की हवा अशुद्ध कर दी जाए तो उंगली मत उठाइगा. आख़िर यह सब आपकी बेहतरी के लिए किया जाएगा. भले ही आगे चलकर यही कंपनियां दूषित पानी की तर्ज़ पर हवा की जगह बोतलों में धुंआ भरकर बेचने लगें और लोगों को मजबूरी में वही पीना पड़े!<br />
कनाडा की वाइटैलिटी एयर बैंफ एंड लेक कंपनी और ब्रिटेन की आएटहाएर कंपनी की भारत पर बराबर नज़र है. यहां वह किस भाव से हवा बेचेंगे यह समय आने पर जाहिर किया जाएगा. हालांकि विशेषज्ञ भारत में हवा-व्यापार को मुनाफ़े का सौदा नहीं मानते. उनकी आशंका है कि यह संपन्न लोगों का चोंचला ही बन कर रह जाएगा. देश का मध्यवर्ग और ग़रीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले करोड़ों लोग बच्चों का राशन-पानी तो ठीक से ख़रीद नहीं पाते; बाज़ार से हवा ख़रीद कर पीने की औक़ात कहां से पैदा करेंगे! यह और बात है कि पहले वे प्यास से मर रहे थे अब श्वांस से भी मरा करेंगे!विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-42386793211092089322016-04-15T09:32:00.001-07:002016-04-15T09:34:43.407-07:00यहूदी शाहकारों के बगैर मुंबई का नक्शा पूरा नहीं होता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div>दक्षिण मुंबई के कोलाबा की चौथी पास्ता लेन के पीछे होरमस जी स्ट्रीट में स्थित चबाड हाउस उर्फ नरीमन हाउस की सड़क पर अब भी जिंदगी का कारोबार चला करता है. नहीं है तो वर्ष 2003 से यह यहूदी केंद्र चलाने वाला युवा दम्पति रब्बी गाव्रियल और उनकी पांच माह की गर्भवती पत्नी रिवका होल्त्जबर्ग, जो बुधवार, 26 नवंबर, 2008 को 9 बजकर 45 मिनट पर हुए आतंकवादी हमले में दुनिया से असमय उठा दिए गए थे. <br />
चबाड हाउस कभी यहूदी समुदाय की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र हुआ करता था. यहां सिनॉगॉग (यहूदी उपासना-गृह और प्रार्थना-मंदिर) था, तोरा सिखाने वाली कक्षाएं चलती थीं, स्थानीय यहूदियों की शादियां तथा नशे की रोकथाम जैसे कई हितकारी क्रियाकलाप सम्पन्न होते थे. यहूदी पर्यटकों और व्यापारियों की तो जैसे यह मुंबई में एकमात्र शरणस्थली थी. ईश्वर से नजदीकी महसूस करने, कोशेर भोजन का जायका चखने या यहूदी छुट्टियां मनाने वालों के लिए चबाड हाउस के दरवाजे हमेशा खुले रहते थे. लेकिन आतंकवादियों की गोलीबारी और धमाकों से जब यह दुनिया उजड़ी थी तो दिन-रात जागने-भागने वाली कोलाहल भरी मुंबई ने जोर से जाना कि इस महानगर में यहूदी भी बसते हैं. यह बात और है कि आतंकवादी हमले के छह साल बाद 26 अगस्त, 2014 को एक और रब्बी इज्रोइल कोज़्लोवस्की और उनकी पत्नी चाया ने उसी नेस्तनाबूद चबाड हाउस को फिर आबाद कर दिया था. राख के ढेर से फीनिक्स पक्षी की तरह फिर जीवित हो उठना दुनिया भर के यहूदियों की बड़ी विशेषता रही है.<br />
सन 1940 का जमाना था जब मुंबई में यहूदी खूब फल-फूल रहे थे और उनकी संख्या 30 हजार के पार हो गई थी. आज वे उंगलियों पर गिनने लायक बचे हैं, जिनमें से ज्यादातर मुंबई और इसके आसपास बसते हैं. लेकिन संख्या पर मत जाइए, मुंबई के इतिहास पर छोड़े गए उनके पूर्वजों के निशान मुंबई के परिदृश्य और भूदृश्य पर आज भी अमिट और स्थायी हैं. बहुत कम लोगों को पता होगा कि भारत का एक लैंडमार्क माने जाने वाला गेटवे ऑफ इंडिया के निर्माण में सबसे बड़ा दानकर्ता एक यहूदी ही था- सर जैकब ससून.<br />
माना जाता है कि मुंबई में यहूदियों के सामूहिक आगमन का श्रीगणेश 18वीं सदी में हुआ. इस संगम में दो बिलकुल अलग धाराएं थीं- बेन इजरायली (इजरायल के लाल) और बगदादी. बेन इजरायली समुदाय कोंकण के गांवों से आया था जिसके बारे में कहा जाता है कि वे उन इजरायली यहूदियों के वंशज हैं जिनका जलपोत 175 ईसा पूर्व में कोंकण तट पर नष्ट हो गया था. जूडिया से आए उस जलपोत में 7 यहूदी परिवार थे. वे यूनानी सम्राट एंटियोकस चतुर्थ एपीफानेस के समय वतन से निकले थे. बगदादी यहूदी वे हैं जो मामलूक वंश के आखिरी शासक दाउद पाशा द्वारा 19वीं सदी की शुरुआत में मचाई गई तबाही और भीषण नरसंहार के बाद इराक से भागे थे.<br />
मुंबई में बसने वाला पहला बगदादी यहूदी जोसफ सेमाह बताया जाता है, जो सन 1730 में सूरत छोड़कर आया था. बेन इजरायली समुदाय के पहले सदस्य सन 1749 में कोंकण के गांवों से यहां पहुंचे. उन दिनों अंग्रेजों द्वारा मुंबई में विकसित किए जा रहे व्यापारिक ढांचागत विकास ने इन्हें बेहद आकर्षित किया था. मुंबई में बसने के बाद इन्हें अपने पूजागृहों की जरूरत भी महसूस हुई. सो कोंकण से आए सैम्युएल इजेकील दिवेकर (मूल नाम सामाजी हसाजी दिवेकर) नामक यहूदी ने मुंबई का प्रथम सिनॉगॉग मई 1796 में स्थापित किया, जिसका नाम था ‘शारे राहामीम’ जिसे गेट ऑफ मर्सी सिनॉगॉग भी कहा जाता है. यह उन्हीं के नाम की गई गली 254, सैम्युअल स्ट्रीट, मुंबई- 400 003 में स्थित है. इसके बाद तो जैसे दूसरे सिनॉगॉगों और प्रार्थना-गृहों की बाढ़ सी आ गई. टनटनपुरा स्ट्रीट में 4 जून 1843 को ‘शारे रेशन’ या नया सिनॉगॉग, सर जेजे मार्ग पर 1861 में ‘मेगन डेविड सिनॉगॉग’, जैकब सर्कल में 1886 में ‘टिफेरेथ इजरायल सिनॉगॉग’ जैसे कुल आठ सिनॉगॉग और प्रार्थना-गृह यहूदियों की बढ़ती आबादी के मद्देनजर सन 1946 तक मुंबई में बनाए जाते रहे.<br />
लेकिन यह 1832 का साल था जब दाउद पाशा के अत्याचारों से तंग आकर डेविड ससून अपने कई यहूदी साथियों के साथ मुंबई आए और यहां के यहूदियों की महिमा एवं इतिहास को हमेशा-हमेशा के लिए बदल कर रख दिया था. उनकी डेविड ससून एंड कंपनी ने देखते ही देखते मुंबई में कपड़ा मिलें तथा अन्य उद्योग-धंधे व संस्थान खड़े कर दिए. लेकिन उनका सबसे बड़ा योगदान था परोपकार के कार्यों में अपार धन लगाने का. उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में डेविड ससून ने डेविड ससून मैकेनिक्स संस्थान, डेविड ससून लाइब्रेरी, विक्टोरिया गार्डेंस (आज का वीरमाता जीजाबाई उद्यान) में क्लॉक टॉवर और विक्टोरिया एंड एल्बर्ट म्यूजियम (आज का भाऊ दाजी लाड संग्रहालय) में ऐतिहासिक स्मारक बनवाने जैसे कई ऐतिहासिक कार्य किए.<br />
सन 1875 में डेविड ससून के बेटे एल्बर्ट ने मुंबई की ऐसी पहली गोदी कोलाबा में बनवाई जिसमें जलपोत तैरने लायक पानी हर हाल में बरकरार रखा जाता है, उसे हम ससून डॉक के नाम से जानते हैं. सन 1884 में सर जैकब ससून ने फोर्ट में केनसेथ इलियाहू सिनॉगॉग बनवाया था, जहां चबाड हाउस शुरू होने के पहले तक ताजमहल और ओबेरॉय होटलों में ठहरने वाले यहूदी आसानी से पहुंचा करते थे. डेविड ससून की विरासत में जेजे हॉस्पिटल परिसर में खड़ा डेविड ससून औद्योगिक एवं सुधार संस्थान, मुंबई का कॉमेथ हाउस जो उनका मुख्यालय भी था, रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बाम्बे फ्लाइंग क्लब, निवारा ओल्ड एज होम, फ्लोरा फाउंटेन और मेसीना हॉस्पिटल जैसे न जाने कितने स्मारक शामिल हैं, जो आज भी हमें मुंबई का पता देते हैं.<br />
डेविड ससून की मृत्यु तो सन 1864 में ही हो चुकी थी लेकिन सामुदायिक गतिविधियां आगे के दशकों तक हंसती-खिलखिलाती रहीं. फिर मातृभूमि के आकर्षण में 50 के दशक के दौरान मुंबई से यहूदियों का बहिर्गमन शुरू हुआ, जो आज तक जारी है. हालत यह है कि इजरायल में पैदा हुए यहूदी भारत के बारे में अधिक नहीं जानते और मुंबई में बचे अधिकांश यहूदी 70 से ऊपर की अवस्था के हैं. 73वर्षीय निसिम मोजेस नामक सज्जन ने भारत के यहूदियों की वंशावली, सामूहिक गान, मराठी-हिब्रू मिश्रित भाषा और खान-पान की एक फेहरिस्त तैयार करने की कोशिश की है और सन 1671 से लेकर आज तक के करीब 40000 यहूदियों का वंशवट खड़ा भी कर लिया है. लेकिन आज पूरे भारत में उनकी आबादी 5000 के आसपास ही बची है और वह भी तेज़ी से खत्म हो रही है. फिर भी इतना तो तय है कि मुंबई का नक्शा यहूदियों के बनाए शाहकारों के बगैर पूरा नहीं होता. गौर से सुनें तो आज भी सूने सिनॉगॉगों में गूंजने वाली उनकी सामूहिक प्रार्थनाएं सुनाई दे जाएंगी.<br />
विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-122898081084911512012-06-15T02:48:00.000-07:002012-06-15T02:59:17.497-07:00मेहदी हसन: आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ<div style="BORDER-TOP: rgb(92,138,100) 5px solid; FONT-WEIGHT: bold; FONT-SIZE: 12pt; FLOAT: right; PADDING-BOTTOM: 5px; MARGIN: 15px; WIDTH: 300px; LINE-HEIGHT: 120%; PADDING-TOP: 5px; BORDER-BOTTOM: rgb(92,138,100) 5px solid; TEXT-ALIGN: right">मेहदी हसन साहब का भारत से ऐसा रिश्ता है कि जिसे कहते हैं कि उनकी तो यहाँ नाल गड़ी है. राजस्थान में जहाँ वह पैदा हुए थे उनके लूणा गाँव के पुराने लोग प्यार से उन्हें महेदिया कहकर बुलाते थे. मेहदी हसन अपनी जन्मस्थली से गहरे जुड़े हुए थे. वह विभाजन के बाद तीन बार गाँव आये. वहां अपने दादा की मजार बनवाई. गौर करने की बात यह है कि वह जब भी गाँव आते थे तो गांववालों से शेखावटी बोली में ही बात करते थे. गाँव वालों ने एक एजेंसी को बताया कि मेहदी हसन को गाने के साथ-साथ पहलवानी का भी शौक था और जब पिछली बार वह गाँव आये थे तो उनके बचपन के एक दोस्त अर्जुन जांगिड़ ने मज़ाक-मज़ाक में कुश्ती लड़ने की चुनौती देकर पुरानी यादों को ताज़ा कर दिया था. अब अर्जुन जांगिड़ भी इस दुनिया में नहीं रहे.</div>.<br />
पता नहीं क्यों किसी बड़े फ़नकार के गुज़र जाने के बाद उसे हर माध्यम में ढूंढ और पा लेने की बेचैनी दम नहीं लेने देती. यूं तो मेरे मोबाइल के मेमोरी कार्ड में हसन साहब की कई गज़लें हैं जिन्हें मैं अक्सर सुना करता हूं, लेकिन परसों (13 जून 2012) जब उनके निधन की ख़बर सुनी तो सन्न रह गया और उन्हें बहुत करीब से पा लेने के लिए छटपटाने लगा. इंटरनेट पर विविध सामग्री उनके बारे में पढ़ डाली. यू ट्यूब पर उनकी गायी अमर गज़लें आँख मूंदे सुनता रहा और न जाने किस किस दुनिया की सैर करता रहा.<br />
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जिन लोगों ने मेहदी हसन साहब को गाते सुना और देखा है उन्हें मैं भाग्यशाली समझता हूं. टीवी पर स्वरकोकिला लता मंगेशकर, खैय्याम साहब, आबिदा परवीन, हरिहरन, पंकज उधास, तलत अज़ीज़ और अन्य संगीत नगीनों की राय मेहदी साहब के बारे में देखता-सुनता रहा. लता जी ने तो उनके बारे में एक बार कुछ इस तरह कहा था कि मेहदी हसन साहब के गले से ख़ुदा बोलता है.<br />
<a href="http://4.bp.blogspot.com/-
DGtlRI619M0/T9r8TjlpUJI/AAAAAAAAAf4/1003LLOvXdY/s1600/mehdi%2Bhasan%2B2.jpg" imageanchor="1" style="clear:left; float:left; margin-right:2em; margin-top:1em"><img border="0" height="117" width="117" src="http://4.bp.blogspot.com/-DGtlRI619M0/T9r8TjlpUJI/AAAAAAAAAf4/1003LLOvXdY/s320/mehdi%2Bhasan%2B2.jpg" /></a><br />
मैंने इलेक्ट्रौनिक उपकरणों के जरिये ही मेहदी साहब को सुना है लेकिन उनकी आवाज़ मशीन को भी इंसानी गला दे देती है. उनकी आवाज़ में मुलायमियत होने के साथ-साथ वह वज़न भी है जो शायर के शब्दों और भावनाओं को श्रोता की रगों में उतार देता है. यही वजह है कि उनकी गायिकी सरहदों की दूरियां पाट देती है. हवाओं और पानियों में घुलकर एक से दूसरे देस निकल जाती है. बेख़याली के आलम में मैं सुनता रहा- 'रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ, आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ', 'ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं, मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा', 'अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें, जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें,' 'मोहब्बत करने वाले कम न होंगे, तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे', 'पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है, जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है,' 'गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले, चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले', 'दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के, वो कौन जा रहा है शब-ए-ग़म गुज़ार के,' 'आये कुछ अब्र कुछ शराब आये, उसके बाद आये जो अज़ाब आये', 'रफ्ता रफ्ता वो मेरी हस्ती का सामाँ हो गए.....लिस्ट बहुत लम्बी है. लेकिन जब भी मैं उनका गाया 'प्यार भरे दो शर्मीले नैन' सुनता हूँ तो मेरी वाणी मूक हो जाती है. जिस तरह से उन्होंने 'प्यार भरे' की शुरुआत की है वह भला कोई क्या खाकर कर सकेगा.<br />
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मेहदी हसन को सुनते हुए कभी अभिजातपन का एहसास नहीं होता. लगता है जैसे अपने ही परिवेश का कोई देसी आदमी पक्का गाना गा रहा हो. उनकी आवाज़ में राजस्थान की गमक को साफ़ महसूस किया जा सकता है (मेहदी हसन का जन्म 18 जुलाई 1927, राजस्थान, जिला-झुंझनू, गाँव-लूणा, अविभाजित भारत में हुआ था). उनकी ग़ज़ल गायिकी शास्त्रीय होते हुए भी मिट्टी की खुशबू से सराबोर है. वह जहां पूरी महफ़िल के लिए गाते प्रतीत होते हैं वहीं एक एक श्रोता के लिए भी और सबसे बढ़कर वह स्वयं में खोकर स्वयं के लिए गाते प्रतीत होते हैं. ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह जी ने मुझसे एक बार मेरे प्लस चैनल के दिनों में कहा था- "नई पीढ़ी के ग़ज़ल गायकों को अगर लम्बी रेस का घोड़ा बनना है तो उन्हें अपना शास्त्रीय आधार पुख्ता करना होगा और यह बात उन्होंने मेहदी हसन साहब से सीखी है."<br />
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-qYpkX-UnvJw/T9r8LDJct3I/AAAAAAAAAfs/VPgrvIogz3I/s1600/mehdi%2Bhasan%2B1.jpg" imageanchor="1" style="clear:left; float:right;margin-left:1em; margin-top:2em"><img border="0" height="150" width="150" src="http://1.bp.blogspot.com/-qYpkX-UnvJw/T9r8LDJct3I/AAAAAAAAAfs/VPgrvIogz3I/s320/mehdi%2Bhasan%2B1.jpg" /></a><br />
मेहदी हसन साहब ने बड़ी सादगी से राग यमन और ध्रुपद को ग़जलों में ढाला और ग़ज़ल गायिकी को उस दौर में परवान चढ़ाया जब ग़ज़ल गायिकी का मतलब उस्ताद बरकत अली खान, बेगम अख्तर और मुबारक बेगम हुआ करता था. हालांकि हसन साहब कोई ग़ज़ल गायक बनने का उद्देश्य लेकर नहीं चले थे. आठ साल की उम्र में उन्होंने फाजिल्का बंगला (अविभाजित पंजाब) में अपना जो पहला परफौरमेंस दिया था वह ध्रुपद-ख़याल आधारित था...और उन्हें जब पहला बड़ा मौका मिला 1957 में पाकिस्तान रेडियो पर, तो वह ठुमरी गायन के लिए था. ध्रुपद शास्त्रीय संगीत के कुछ सबसे पुराने रूपों में से एक माना जाता है. खान साहब की ट्रेनिंग ही ध्रुपद गायिकी में हुई थी. उनके पिता उस्ताद अज़ीम खान और चाचा उस्ताद इस्माइल खान साहब बचपन से ही रोजाना उन्हें ध्रुपद का रियाज़ कराते थे. दरअसल मेहदी हसन साहब का पूरा खानदान ही गायिकी परंपरा से जुड़ा चला आ रहा था. वह अक्सर ज़िक्र करते थे कि उनकी पीढ़ी 'कलावंत घराना' की 16वीं पीढ़ी है.<br />
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लेकिन रेडियो पाकिस्तान के दो अधिकारियों जेडए बुखारी और रफीक अनवर साहब ने मेहदी हसन की उर्दू शायरी में प्रगाढ़ अभिरुचि को देखते हुए उनका प्रोत्साहन किया और गज़लें गाने का मौका दिया. मेहदी हसन इन दोनों सख्शियतों का सार्वजनिक तौर पर ज़िन्दगी भर आभार मानते रहे. आज दुनिया भर के ग़ज़ल प्रेमी भी उनका आभार मानते हैं कि उन्होंने हमें 'शहंशाह-ए-ग़ज़ल' दिया और ग़ज़ल गायिकी को उसका नया रहनुमा.<br />
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मेहदी हसन साहब की ज़िंदगी किसी समतल मैदान की तरह कभी नहीं रही. वह वक़्त के थपेड़ों से दो-चार होते रहे. उनका कलाकारों से भरा-पूरा परिवार आर्थिक संकटों से घिरा ही रहता था. बचपन में मेहदी हसन साहब को अविभाजित पंजाब सूबे के चिचावतनी कस्बे की एक साइकल सुधारने वाली दूकान में काम करना पड़ा. थोडा बड़ा होने पर वह कार और डीजल ट्रैक्टर मैकेनिक का काम सीख गए और परिवार की मदद करते रहे. जव वह २० साल के हुए तो भारत-पाक बंटवारा हो गया और वह परिवार के साथ पाकिस्तान चले गए जहाँ आर्थिक मुश्किलों का नया दौर शुरू हुआ. इस सबके बावजूद उन्होंने संगीत के प्रति अपनी लगन में कमी नहीं आने दी. वहां छोटे-मोटे प्रोग्राम करते रहे. और तभी उनको मिला पहला ब्रेक पाकिस्तान रेडियो पर, जिसका ज़िक्र हम पहले कर चुके हैं.<br />
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ग़ज़ल गायिकी में स्थापित होने के साथ ही उन्हें पाकिस्तान फिल्म इंडस्ट्री ने हाथोंहाथ लिया. उनके गाये फ़िल्मी नगमें, दोगाने, गज़लें पाकिस्तानी फिल्म संगीत की विरासत बन गए हैं. मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ के साथ उनका गाया 'आपको भूल जाएँ हम, इतने तो बेवफा नहीं' (फिल्म-तुम मिले प्यार मिला, 1969), नाहीद अख्तर के साथ 'ये दुनिया रहे न रहे मेरे हमदम' (मेरा नाम है मोहब्बत, 1975), 'आज तक याद है वो प्यार का मंजर मुझको' (सेहरे के फूल), 'जब कोई प्यार से बुलाएगा' (ज़िंदगी कितनी हसीं है, 1967), 'दुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं' जैसे सैकड़ों सुपरहिट फ़िल्मी नगमें उनके नाम दर्ज़ हैं.<br />
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-UIKbbKF0MMg/T9r8biX8x3I/AAAAAAAAAgE/WFPo6eYbr_o/s1600/mehdi%2Bhasan%2B3.jpg" imageanchor="1" style="clear:right; float:right; margin-left:1em; margin-top:2em"><img border="0" height="120" width="140" src="http://3.bp.blogspot.com/-UIKbbKF0MMg/T9r8biX8x3I/AAAAAAAAAgE/WFPo6eYbr_o/s320/mehdi%2Bhasan%2B3.jpg" /></a><br />
एक गायक के तौर पर मेहदी हसन कई बार भारत आये. भारत के संगीत रसिकों ने हमेशा उन्हें सर-आँखों पर बिठाया. उनके क्रेज़ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब खान साहब पहली बार भारत आये तब 'टाइम्स ऑफ़ इण्डिया' ने पहले पेज पर किसी राष्ट्राध्यक्ष के आगमन की तरह बड़ी-सी तस्वीर छापी थी और कैप्शन दिया था- 'मेहदी हसन एराइव्स'. सच है, इस कायनात में ग़ज़लों का अगर कोई राष्ट्र होता हो तो वह उसके आजीवन राष्ट्राध्यक्ष ही थे. आख़िरी बार जब वह सन 2000 में भारत आये थे तो जल्द ही फिर आने का वादा करके गए थे लेकिन उनकी फेफड़ों की बीमारी ने ऐसा घेरा कि साँस साथ छोड़ने लगी. खुदा की आवाज़ का एहसास कराने वाले फ़नकार की धीरे-धीरे आवाज़ भी जाती रही और अंततः फ़नकार भी हमसे रुखसत लेकर सदा के लिए दुनिया से चला गया.<br />
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मुझे अब भी यह खबर झूठी लग रही है. मगर मृत्यु एक कड़वी सच्चाई है. मेंहदी साहब को श्रद्धांजलि देने के लिए उन्हीं के गाये शब्द उधार लेकर इतना ही कहता हूँ- ‘आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ.....’विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-60779157192333440032012-05-18T04:55:00.000-07:002012-05-18T04:55:21.774-07:00कवि तुषार धवल के चित्र: शिव, प्रकृति-पुरुष और वेलेंटाइन्स<b>एक कवि</b> यदि चित्र बनाये तो कैसा होगा? वह जो शब्दों से एक संसार रचता है, वही अब लकीरों और रंगों से संसार रचे तो कैसा होगा? क्या शब्द लकीर ओढ़ लेते होंगे या फिर वहां सिर्फ शब्दातीत ही होता होगा? क्या कवि अपने भीतर के किसी अलग तहखाने से चित्र लाता है और किसी अन्य से कविता? या फिर उसकी कविता का वही संसार एक अलग रूप-रंग में चित्र के रूप में उद्भासित होता है ? इसकी पड़ताल के लिए अलग अलग समय पर अलग अलग कवि-चित्रकारों की कृतियों को परखा गया है और अब तक इस बारे में कोई स्थाई राय नहीं बन पाई है. वजह ये कि हर रचनाकार का अपना सृजन धर्म अलहदा होता है, और यही वह कुंजी है जो विपुल सृजन के विश्व का ताला खोलती और उसे समृद्ध करती है.<br />
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देश और दुनिया में ऐसे कवियों की कमी नहीं है जो चित्रकार भी हैं, या थे. उन्हीं तमाम लोगों की कतार में एक और नाम है तुषार धवल का. यूँ तो तुषार धवल को हिंदी के लोग एक कवि के तौर पर जानते हैं, पर चित्रकार के रूप में भी वे सक्रिय हैं, और इसे हममें से कम लोग ही जानते होंगे.<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-Z8_Nu8wogaw/T7YySdFk3HI/AAAAAAAAAfc/MEdMjx6pwDw/s1600/Tushar%2BPainting.jpg" imageanchor="1" style="clear:right; float:right; margin-left:1em; margin-bottom:1em"><img border="0" height="240" width="320" src="http://2.bp.blogspot.com/-Z8_Nu8wogaw/T7YySdFk3HI/AAAAAAAAAfc/MEdMjx6pwDw/s320/Tushar%2BPainting.jpg" /></a></div>पिछले माह दिनांक 9 अप्रैल से 14 अप्रैल के मध्य मुंबई की प्रतिष्ठित 'सिमरोज़ा आर्ट गैलेरी' में तुषार धवल के चित्रों की प्रदर्शनी आयोजित की गयी जिसका नाम <b>unconscious calling</b> रखा गया. दरअसल यह नाम भी चित्रकार के मन की परतें खोलता प्रतीत होता है! तुषार दरअसल सृजन धर्मिता को अचेतन मन से उठता हुआ पाते हैं. यहाँ उन पर फ्रायड के मनोवैज्ञानिक चिंतन का प्रभाव देखा जा सकता है. प्रदर्शित चित्रों में तुषार धवल के चित्रों की तीन श्रृंखलाओं ने विशेष तौर पर ध्यान आकर्षित किया. ये चित्र श्रृंखलाएं थीं :-<b> शिव, प्रकृति-पुरुष, और वेलेंटाइन्स</b>. इन सभी चित्रों में जहाँ क्रमशः उनकी चित्र यात्रा को देखा जा सकता है वहीँ उनके अचेतन मन पर उठती छवियों को भी समझा जा सकता है. ये सभी चित्र एक ओर स्त्री-पुरुष संबंधों की बौद्धिक, मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और सामाजिक पड़ताल करते हैं तो दूसरी ओर उनमें फंतासी का भी विपुल प्रयोग दीखता है. यहाँ स्त्री-पुरुष अपने शारीरिक आयामों को तोड़ते हुए नज़र आते है, जैसे एक भीतरी तत्त्व इनकी देह रचना को तोड़ बाहर निकल कर खुद को व्यक्त करना चाह रहा है. यहाँ तुषार की ही ये काव्य पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती हैं--<br />
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"आओ तन बदल लें <br />
गहरे अंतर में <br />
दरक गए हैं सीमान्त<br />
काल की शिखा से तोड़ लाया यह पल<br />
परिधि को तोड़ निकला <br />
अनंत यात्रा यह भी इस कथा की ...”<br />
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अपनी कविताओं की ही तरह अपने चित्रों में भी तुषार भौतिक से पार-भौतिक तक की यात्रा करते हैं. फिर चाहे वह शिव का सूक्ष्म निरूपण हो या फिर ‘शेष 1’, जिसमें उन्हें पहली बार एक नया फॉर्म प्राप्त हुआ, या फिर प्रकृति-पुरुष और वेलेंटाइन्स. सबमें चित्रकार इस भौतिक विश्व के पीछे की उर्जा को तलाश रहा है. अपने नए मुहावरों में तुषार के चित्रित चरित्र 'मुंडा हुआ सर, लम्बी खिंची हुई गर्दन और गोल उठे हुए कंधे' वाले हैं और प्रायः इनकी नाक या आँख नहीं होती है. <b>तुषार का मानना है कि प्राणिमात्र की भाव भंगिमाओं का यदि अध्ययन किया जाये तो उनकी गर्दन के खिंचाव से ही उनके भीतर के भावों को समझा जा सकता है.</b> साथ ही वे मछली, कमल और अर्धचन्द्र को बिम्बों के रूप में लाते हैं. गौरतलब है कि ये बिम्ब तुषार की कविताओं में भी आते हैं. इसी तलाश में अभिव्यक्ति के नए नए फॉर्मों पर वे अभी काम कर रहे हैं. उनकी रेखाओं में एक आंतरिक लय, जो उनकी कविताओं में भी पाई जाती है, स्पष्ट दीखती है. इसके साथ कोमल रंगों के चटख सम्मिलन से वे एक सूक्ष्म विश्व की रचना करते हैं जो प्रायः दृश्यमान नहीं है. एक और बात, अपनी <b>"काला राक्षस"<i></i></b> जैसी लम्बी कविता में जिस तरह तुषार ने फंतासी का इस्तेमाल किया है, लगभग वही रूप इन चित्रों में भी नज़र आता है.<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-voJJCYDlCYs/T7YyEM3cCaI/AAAAAAAAAfQ/mFdKfv3ORTY/s1600/Tushar%2BChitrkari.jpg" imageanchor="1" style="clear:left; float:left;margin-right:1em; margin-bottom:1em"><img border="0" height="80" width="400" src="http://1.bp.blogspot.com/-voJJCYDlCYs/T7YyEM3cCaI/AAAAAAAAAfQ/mFdKfv3ORTY/s320/Tushar%2BChitrkari.jpg" /></a></div>इस प्रदर्शनी का उद्घाटन श्रीमती संगीता जिंदल, जो 'आर्ट इंडिया' नामक प्रतिष्ठित कला पत्रिका की संपादक हैं, ने किया. उद्घाटन समारोह में मुंबई और पुणे कला जगत के कई परिचित चेहरों के साथ साथ फिल्म जगत से जुड़े लोग, साहित्य सेवी तथा नौकरशाही से जुड़े लोग शरीक हुए.<br />
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यह कहा जा सकता है कि तुषार की कविता और चित्रकारी एक दूसरे की स्पर्धी नहीं बल्कि सहधर्मिणी एवं सहगामिनी हैं तथा कहीं-कहीं एक दूसरे की पूरक भी. जिस तरह एक कलाकार के भीतर अनेक रचनात्मक जगत एक साथ सक्रिय रहते हैं उसी तरह उसके अंतरतम में कई विधाएं एकसाथ प्रस्फुटित होने के इंतज़ार में रहती हैं. कोई कथ्य या विषयवस्तु धरातल पर किस रूप में खिले, यह कह पाना या तय कर पाना हमेशा कठिन होता है. इन अर्थों में तुषार जी की चित्रकारी और कविता एक दूसरे का संबल तथा विस्तार भी है. तुषार एक कवि के रूप में अधिक मुखर होंगे या एक चित्रकार के रूप में, या फिर दोनों ही में उनकी गति सम-इन्द्रधनुषी सिद्ध होगी, यह समय ही सिद्ध करेगा. उनकी इस उज्जवल रचनाधर्मी यात्रा के लिए हमारी शुभकामनायें!विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-1718382441788297472012-04-22T23:28:00.003-07:002012-04-22T23:33:17.228-07:00प्रायवेट स्कूलों में 25% आरक्षण और आदम के बच्चे<div style="BORDER-TOP: rgb(92,138,100) 5px solid; FONT-WEIGHT: bold; FONT-SIZE: 12pt; FLOAT: centre; PADDING-BOTTOM: 5px; MARGIN: 10px; WIDTH: 450px; LINE-HEIGHT: 100%; PADDING-TOP: 5px; BORDER-BOTTOM: rgb(92,138,100) 5px solid; TEXT-ALIGN: left">ज़रा सोचिये कि जब धारावी की झोपड़पट्टी का कोई बच्चा किसी इंटरनेशनल स्कूल में शान से क्लास अटेंड करेगा तो कितना अद्भुत नज़ारा होगा! धर्म, जाति, भाषा, वर्ग के कितने बंधन चकनाचूर होंगे. कई फ़िल्मी कहानियां हकीक़त बन सकती हैं. कई हाथ आसमान छू सकते हैं. कई सपने साकार हो सकते हैं. समाज में समरसता का एक नया दौर शुरू हो सकता है. कई किताबी बातें अमली जामा पहन सकती हैं.</div>यह कल्पना करके ही रोमांच हो आता है कि मुंबई के जुहू कोलीवाड़ा में रहनेवाले गरीब मच्छीमारों के बच्चे 2 फर्लांग दूर जुहू तारा रोड पर स्थित उस जमनाबाई नरसी स्कूल में दाखिला ले सकेंगे जहां फ़िल्मी सितारों और उद्योगपतियों के बच्चे पढ़ते हैं! वे करीब से देख सकेंगे कि किस फिल्म सितारे का बेटा अपने टिफिन में क्या लेकर आया है,किस उद्योगपति के बेटे ने किस विलायती कंपनी के जूते पहन रखे हैं या यूनीफॉर्म की दुनिया में नया फैशन क्या चल रहा है. वे यह भी जान सकेंगे कि पॉकेट मनी क्या बला होती है और उनके माता-पिता की महीने भर की कमाई से ज्यादा पैसे इस मद में अमीर बच्चे किस मासूमियत से उड़ा देते हैं.<br />
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ज़रा सोचिये कि जब धारावी की झोपड़पट्टी का कोई बच्चा किसी इंटरनेशनल स्कूल में शान से क्लास अटेंड करेगा तो कितना अद्भुत नज़ारा होगा! धर्म, जाति, भाषा, वर्ग के कितने बंधन चकनाचूर होंगे. कई फ़िल्मी कहानियां हकीक़त बन सकती हैं. कई हाथ आसमान छू सकते हैं. कई सपने साकार हो सकते हैं. समाज में समरसता का एक नया दौर शुरू हो सकता है. कई किताबी बातें अमली जामा पहन सकती हैं.<br />
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यह मुमकिन होने जा रहा है राईट टू एजूकेशन एक्ट के प्रावधानों पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लग जाने के चलते. प्रावधान यह है कि देश भर के प्रायवेट स्कूलों को गरीब तबके के बच्चों के लिए 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित करनी ही करनी हैं. बिना सरकारी मदद वाली अल्पसंख्यक प्रायवेट स्कूलों को इस दायरे से बाहर रखा गया है.<br />
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केंद्र सरकार ने सभी राज्यों से कहा है कि वे उपलब्ध सीटों तथा लाभान्वित होनेवाले छात्रों की सूची यथाशीघ्र भेजें. एक अनुमान के मुताबिक़ महाराष्ट्र में करीब 6000 प्रायवेट स्कूल हैं और इनमें 88000 से अधिक गरीब छात्रों को दाखिला दिया जा सकता है. ऐसे में पूरे देश की कल्पना कीजिये. एक करोड़ से ज्यादा गरीब छात्र पहले ही वर्ष लाभान्वित हो सकते हैं. लेकिन कहना जितना आसान है, करना उतना ही कठिन.<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-tBtrdFUkJhs/T5T2GP4JdOI/AAAAAAAAAe4/loIr4ytab-k/s1600/poor%2Bchildren%2Bschools.jpg" imageanchor="1" style="clear:right; float:right; margin-left:1em; margin-bottom:1em"><img border="0" height="113" width="150" src="http://4.bp.blogspot.com/-tBtrdFUkJhs/T5T2GP4JdOI/AAAAAAAAAe4/loIr4ytab-k/s320/poor%2Bchildren%2Bschools.jpg" /></a></div>आर्थिक रूप से पिछड़े छात्रों को 25 प्रतिशत आरक्षण मिलना कम से कम इस साल तो संभव नहीं लगता. राज्य सरकारों ने अभी तक इस सम्बन्ध में स्कूलों को विशेष दिशा-निर्देश जारी नहीं किये हैं. दूसरी ओर प्रायवेट स्कूल दावा कर रहे हैं कि उनके यहाँ सीटें पहले ही फुल हो चुकी हैं क्योंकि अगले सत्र के एडमीशन की प्रक्रिया पूरी हो गयी है. उधर शिक्षा कार्यकर्ताओं का कहना है कि ये स्कूल जून के पहले एडमीशन प्रक्रिया बंद नहीं कर सकते. एनजीओ 'फोरम फॉर फेयरनेस इन एजूकेशन' के अध्यक्ष जयंत जैन ने धमकी दी है कि अगर इसी साल से सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल नहीं हुआ तो हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की जायेगी. तर्क यह है कि प्रायवेट स्कूलों को एडमीशन लेने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए थी. हाई कोर्ट की औरंगाबाद खंडपीठ ने पिछले साल ही यह रूलिंग दी थी कि स्कूलों को जून के आसपास एडमीशन लेना चाहिए.<br />
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जाहिर है कि बहुत कठिन है डगर पनघट की. समाज विज्ञान भले ही सिद्ध कर चुका है कि अगर समान अवसर मिले तो कामयाबी पाने के लिए गरीब-अमीर होना कोई मायने नहीं रखता. लेकिन सामाजिक समरसता की जिसे पड़ी हो वह अपना घर फूंके. प्रायवेट स्कूलों की हीला-हवाली से जाहिर है कि वे अपने माल कमाऊ बिजनेस मॉडल को आसानी से चौपट नहीं होने देंगे. <br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-S3BEHMdlLj8/T5T2P95wF7I/AAAAAAAAAfE/tnciJgTG71c/s1600/poor%2Bchildren%2Brich%2Bschools.jpg" imageanchor="1" style="clear:left; float:left;margin-right:1em; margin-bottom:1em"><img border="0" height="82" width="122" src="http://2.bp.blogspot.com/-S3BEHMdlLj8/T5T2P95wF7I/AAAAAAAAAfE/tnciJgTG71c/s320/poor%2Bchildren%2Brich%2Bschools.jpg" /></a></div>अब 'देवताओं' के बच्चों के साथ क्लासरूम में बैठने वाले 25 प्रतिशत 'आदम' के बच्चों से यह तो नहीं कहा जा सकता कि फलां ब्रांड के जूते पहन कर आओ, ज्ञानवर्द्धक पिकनिक के नाम पर लाखों का चेक डैडी से कटवा कर भेजो, एनुवल फंक्शन के नाम पर हजारों रुपये कंट्रीब्यूट करो. उनसे यह भी नहीं कह सकते कि सुप्रीम कोर्ट की कृपा से आये हो तो एसी क्लासरूम से बाहर जाकर बैठो. यह भी नहीं कह सकते कि तुम्हारे जैसे झोपड़ावासियों की संगत में ये महलवासी बच्चे बिगड़ रहे हैं इसलिए स्कूल आना ही बंद कर दो. इस सूरत-ए-हाल में प्रायवेट स्कूल वाले क्या करें! फिलहाल उन्हें यही सूझ रहा है कि सीटें न होने का बहाना बनाया जाए. क्या करें, देश की सबसे बड़ी अदालत का आदेश है, टाला भी नहीं जा सकता.<br />
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आशंकाओं कुशंकाओं के बावजूद इतना तो तय है कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश पूरी तरह इस सत्र से न सही अगले सत्र से लागू करना ही होगा. चाहे प्रायवेट स्कूल वाले अपने यहाँ सीटें बढाएं या नए स्कूल खोलें, गरीब बच्चों को 25 प्रतिशत सीटों पर बिठाकर पढ़ाना ही पड़ेगा. ऐसे में सरकारों को इस बात की कड़ी निगरानी करनी पड़ेगी कि प्रायवेट स्कूलों के अन्दर गरीब बच्चों के साथ शिक्षण अथवा व्यवहार में किसी तरह का भेदभाव न होने पाए. सबसे अहम बात यह है कि शिक्षा कार्यकर्ताओं को चौकस रहना पड़ेगा कि कहीं किसी गरीब की जगह अमीर बच्चे को झोपड़ावासी या नौकरानी-पुत्र बनाकर एडमीशन देने का खेल शुरू न हो जाए यानी बैक डोर इंट्री. और अगर यह सिलसिला चला तो आगे चलकर घृणा के नए प्रतिमान भी स्थापित हो सकते हैं!विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-3880792181551019642012-04-16T06:05:00.008-07:002012-04-16T06:16:23.831-07:00U-19: उन्मुक्त आकाश में चमका चंद<a href="http://2.bp.blogspot.com/-CsREcf0F8Ko/T4wZkL_TJeI/AAAAAAAAAeg/1_mqWexKuCI/s1600/Unmukt.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 226px; height: 320px;" src="http://2.bp.blogspot.com/-CsREcf0F8Ko/T4wZkL_TJeI/AAAAAAAAAeg/1_mqWexKuCI/s320/Unmukt.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5731984535220069858" /></a><br />इन्डियन प्रीमियर लीग में इन दिनों दुनिया भर के क्रिकेट सितारे जगमगा रहे हैं. लेकिन इसी बीच ऑस्ट्रेलिया जाकर भारत का चाँद चमक उठा और सब लोग देखते ही रह गए. जी हाँ, भारत की अंडर-19 क्रिकेट टीम ने ऑस्ट्रेलिया में ऑस्ट्रेलिया अंडर-19 टीम को छठी का दूध याद दिला दिया और इसमें कप्तान उन्मुक्त चंद उन्मुक्त होकर चमके. मौका चार देशों की अंडर-19 क्रिकेट टीमों के फाइनल मुकाबले का था. कंगारुओं को धूल चटाने के लिए उन्मुक्त चंद ने 9 चौकों और 6 छक्कों की मदद से नाबाद 112 रनों की ज़ोरदार पारी खेली. इस शानदार जीत में मध्यम तेज़ गति के गेंदबाज़ संदीप शर्मा का योगदान भी अहम रहा जिन्होंने निर्धारित 10 ओवरों में 51 रन देकर विपक्षी टीम के 4 विकेट झटके. फाइनल में भारत ने ऑस्ट्रेलिया को 7 विकेट से रौंदा.<br /><div style="BORDER-TOP: rgb(92,138,100) 5px solid; FONT-WEIGHT: bold; FONT-SIZE: 12pt; FLOAT: right; PADDING-BOTTOM: 5px; MARGIN: 10px; WIDTH: 250px; LINE-HEIGHT: 100%; PADDING-TOP: 5px; BORDER-BOTTOM: rgb(92,138,100) 5px solid; TEXT-ALIGN: left"> यह जीत इसलिए भी ख़ास हो जाती है कि ऑस्ट्रेलियाई टीम में सीनियर टीम के तेज़ गेंदबाज़ पैट कमिंस भी शामिल थे. कप्तान उन्मुक्त चंद ने इस पूरे टूर्नामेंट में कंगारुओं को धोते हुए कुल 281 रन जोड़े और सर्वाधिक छक्के जड़ने का रिकॉर्ड भी उन्हीं के नाम रहा. उन्होंने कुल 13 छक्के जड़े हैं. सेमी फाइनल में इंग्लैण्ड के खिलाफ उन्मुक्त ने अगर 94 रनों की आतिशी पारी न खेली होती तो भारत का बैरंग वापस होना तय था. यह मैच भारत ने 63 रनों के बड़े अंतर से जीता जिसमें उन्मुक्त को 'मैन ऑफ़ द मैच' चुना गया था. फाइनल मुकाबले में तो ख़ैर वह 'मैन ऑफ़ द मैच' रहे ही.</div><br />पिछले दिनों जिस तरह भारतीय टीम ऑस्ट्रेलिया से बुरी तरह नाकाम होकर लौटी थी उसकी निराशा कुछ हद कम हुई है. भारतीय टीम टेस्ट सीरीज में बुरी तरह पराजित होने के बाद त्रिकोणीय सीबी सीरीज के फाइनल तक में नहीं पहुँच पाई थी. लेकिन आईसीसी अंडर-19 वर्ल्ड कप ऑस्ट्रेलिया में ही होना है. इस टूर का फायदा उन्मुक्त एंड कंपनी-- जिसमें कमल पासी, विकास मिश्रा, बाबा अपराजित, अक्षदीप, हरमीत सिंह, अखिल हेरावाड़कर, मन वोहरा, विजय जोल, एस पटेल, ए नाथ जैसे प्रतिभावान युवा क्रिकेटर शामिल हैं, को उस दौरान भी मिलेगा क्योंकि उन्होंने ऑस्ट्रेलियाई परिस्थितियों में खेलने का स्वाद चख लिया है. वे आत्मविश्वास से लबालब रहेंगे. पूर्व भारतीय कप्तान दिलीप वेंगसरकर ने भारतीय अंडर-19 टीम को बधाई देते हुए कहा है कि यह किसी भी क्रिकेटर के कैरियर का महत्वपूर्ण दौर होता है और अब ये क्रिकेटर बड़े-बड़े सपने देख सकते हैं. यकीनन स्टार परफॉर्मर कप्तान उन्मुक्त चंद का भविष्य उज्जवल नज़र आ रहा है.विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-58698437751411292992012-04-13T21:37:00.005-07:002012-04-13T22:27:49.394-07:00स्वाइन फ़्लू का दैत्य फिर दे रहा है दस्तकजहां मैं रहता हूँ वहां से भिवंडी ज्यादा दूर नहीं है. भिवंडी को यूं तो लोग वहां के पावरलूम कारख़ानों के लिए याद करते हैं (और किसी ज़माने में हुए भीषण दंगों के लिए भी) लेकिन भिवंडी के लोग आजकल भगवान को याद कर रहे हैं. यहाँ स्वाइन फ़्लू ने दस्तक दे दी है. भिवंडी के कोनगाँव इलाके के कोलीवाड़ा में रहने वाले 57 वर्षीय मधुकर नाईक को स्वाइन फ़्लू हो गया है और उन्हें इलाज के लिए मुंबई के कस्तूरबा गांधी हॉस्पिटल ले जाया गया है. लगभग डेढ़ वर्ष पहले कोनगाँव इलाके में ही स्वाइन फ़्लू से दो लोगों की मौत हो गई थी. इस इलाके में फिर से स्वाइन फ़्लू का मरीज पाए जाने से भय का वातावरण व्याप्त है. हालांकि नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी के विशेषज्ञों का कहना है कि जिन लोगों का सामना इस बीमारी से पहले हो चुका है उन्हें डरने की ज़रुरत नहीं है तथा स्वाइन फ़्लू सिर्फ ग्रामीण व अर्द्ध-शहरी इलाकों में ही दबिश दे रहा है. जबकि हकीक़त यह है कि मुंबई में ही स्वाइन फ़्लू के अब तक 14 मामले दर्ज़ हो चुके हैं.<br /><div style="BORDER-TOP: rgb(92,138,100) 5px solid; FONT-WEIGHT: bold; FONT-SIZE: 12pt; FLOAT: right; PADDING-BOTTOM: 5px; MARGIN: 10px; WIDTH: 200px; LINE-HEIGHT: 100%; PADDING-TOP: 5px; BORDER-BOTTOM: rgb(92,138,100) 5px solid; TEXT-ALIGN: center"> बीते दो महीनों के दौरान भारत में स्वाइन फ़्लू के 689 मामले सामने आये हैं जिनमें से 36 लोगों की दर्दनाक मौत दर्ज़ की गयी है. इनमें महाराष्ट्र सबसे ज्यादा प्रभावित लग रहा है. स्वाइन फ़्लू के 400 मामले अकेले इस राज्य में देखे गए और 18 लोगों की जान चली गयी. मरनेवालों में 13 पुणे, 3 नासिक, 1 औरंगाबाद और 1 धुले ज़िला का निवासी था. महाराष्ट्र के अलावा आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और राजस्थान में स्वाइन फ़्लू कहर ढा रहा है. तमिलनाडु के स्वास्थ्य मंत्री वीएस विजय अपने राज्य में अब तक 29 मामलों की पुष्टि कर चुके हैं.दिल्ली को ही लीजिये, नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल ने राजधानी में 6 स्वाइन फ़्लू मामलों की पुष्टि की है जिनमें से 2 मामले तो हाल ही के हैं. आखिर यह घातक स्वाइन फ़्लू है क्या बला?</div> <br />यह है स्वाइन एन्फ़्लुएन्ज़ा. इसे स्वाइन फ्लू, हॉग फ्लू या पिग फ्लू भी कहा जाता है. सन 2009 से पिछला स्वाइन फ्लू सन् 1968 में दर्ज़ हुआ था जिसे बतौर हांगकांग फ्लू जाना जाता है. इस नए वायरस के भिन्न रूप अथवा अपर रूप का नाम है- ए (एच1एन1). <br /><br />स्वाइन एन्फ़्लुएन्ज़ा वायरस आम तौर पर सुअरों में पनपने वाले एन्फ़्लुएन्ज़ा कुल के वायरसों का एक भिन्न रूप है. सन् 2009 तक ज्ञात स्वाइन एन्फ़्लुएन्ज़ा वायरसों के भिन्न रूप हैं एन्फ़्लुएन्ज़ा 'सी' वायरस और एन्फ़्लुएन्ज़ा 'ए' वायरस के उप प्रक्रार, जिन्हें हम ‘एच1एन1’, ‘एच1एन2’, ‘एच3एन1’, ‘एच3एन2’ तथा ‘एच2एन3’ के रूप में जानते हैं. स्वाइन एन्फ़्लुएन्ज़ा संयुक्त राज्य अमेरिका, टेक्सास, कैलीफोर्निया, मेक्सिको, कनाडा, दक्षिण अमेरिका, यूके, इटली, स्वीडन, कीनिया, चीन, ताइवान और जापान में पाए जाने सुअरों में एक आम और स्थानीय बीमारी है.<br /><br />स्वाइन एन्फ़्लुएन्ज़ा वायरस का मानव में संक्रमण आम तौर पर नहीं होता है. और अगर होता है तो उसे जूनोटिक स्वाइन फ्लू कहा जाता है. जो लोग सुअरों के बाड़ों में बहुत नजदीक रहकर काम करते हैं उन्हें संक्रमण का खतरा अधिक रहता है. बीसवीं शताब्दी के मध्य में एन्फ़्लुएन्ज़ा वायरस के उप प्रकारों की पहचान संभव हो पायी थी. उसके बाद ही इस तरह के वायरसों के संक्रमण की तीव्रता का ठीक-ठीक अंदाजा लगाया जाने लगा. आज वैज्ञानिक यह पता लगा चुके हैं कि इस बार मनुष्यों में फैला स्वाइन फ्लू एन्फ़्लुएन्ज़ा 'ए' वायरस के उप प्रकार एच१एन१ का नया भिन्न रूप है. इस भिन्न रूप के जींस स्वाइन एन्फ़्लुएन्ज़ा वायरस के जींस से मिलते जुलते हैं.<br /><br />सबसे पहले सन् 1918 में फैली फ्लू महामारी के दौरान स्वाइन एन्फ़्लुएन्ज़ा को मानव एन्फ़्लुएन्ज़ा से सम्बंधित बीमारी बताने की कोशिश हुई थी. इस महामारी के दौरान आदमी और सुअर एक ही समय फ्लू से पीड़ित हुए थे. हालांकि सुअरों में एन्फ़्लुएन्ज़ा फैलने के कारक वायरस की शिनाख्त इसके करीब 12 वर्ष बाद सन् 1930 में ही हो सकी थी. इसके अगले 60 वर्षों तक स्वाइन एन्फ़्लुएन्ज़ा का कारक विशेष तौर पर एच1एन1 वायरस के एक भिन्न रूप को बताया जाता रहा. यह सन् 1997 से 2002 के बीच का दौर था जब उत्तरी अमेरिका के सुअरों में फैले एन्फ़्लुएन्ज़ा का जिम्मेदार तीन अलग-अलग उप प्रकारों तथा पांच अलग-अलग जीनोंटाइपों के नए भिन्न रूपों को ठहराया गया.<br /><br />सन् 1997-98 के दौरान इस वायरस का एच2एन3 भिन्न रूप सामने आया. इस भिन्न रूप में मानव, सुअर और पक्षियों के मिले-जुले जींस मौजूद थे. उत्तरी अमेरिका में स्वाइन फ्लू के लिए आज सबसे बड़ा जिम्मेदार यही वायरस है. एच1एन1 तथा एच3एन2 के जीनोम मिलने से एच1एन2 भिन्न रूप उत्पन्न हुआ है. कनाडा में सन् 1999 के दौरान एच4एन6 वायरस का एक भिन्न रूप प्रजातियों की सीमा पार करके पक्षियों से सुअरों में प्रवेश कर गया था. सौभाग्य से इस भिन्न रूप को एक ही सुअर बाड़े में सीमित करके नियंत्रित कर लिया गया था.<br /><br />स्वाइन फ्लू का एच1एन1 रूप उसी वायरस से सम्बंधित है जिसके चलते सन् 1918 में फ्लू महामारी फैली थी. सुअरों में बने रहने के साथ-साथ 1918 महामारी का वायरस रूप बदल-बदल कर पूरी बीसवीं शताब्दी के दौरान मानवों में संक्रमण करता रहा है. इससे मानवों में सामान्य मौसमी एन्फ़्लुएन्ज़ा फैलता देखा गया है. यद्यपि सुअरों से मनुष्य में सीधा फ्लू संक्रमण न के बराबर होता है फिर भी सन् 2005 के बाद अमेरिका में 12 ऐसे मामले दर्ज़ हुए.<br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/-40ApO9v51kU/T4kFhAOKXxI/AAAAAAAAAeU/i8clekW0Gzc/s1600/swine%2Bflu%2Bdeath.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 295px; height: 200px;" src="http://2.bp.blogspot.com/-40ApO9v51kU/T4kFhAOKXxI/AAAAAAAAAeU/i8clekW0Gzc/s320/swine%2Bflu%2Bdeath.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5731118065358888722" /></a><br />मनुष्यों में स्वाइन फ्लू अनगिनत बार फैलता देखा गया है जिसे जोनोसिस कहा जाता है. लेकिन हर बार इसका फैलाव सीमित रहता है. हाँ, सुअरों में यह आम और लगातार मौजूद रहने वाली बीमारी है जिससे कई देशों को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है. एक आंकड़े के मुताबिक स्वाइन फ्लू के चलते अकेले ब्रिटेन के मांस उद्योग को 65 मिलियन पाउंड की चपत हर साल लगती है.<br /><br />स्वाइन एन्फ़्लुएन्ज़ा का इतिहास सन 1918 की फ्लू महामारी से प्रारंभ होता है. हालांकि इसके वायरस का उद्गम कब, कहाँ और कैसे हुआ यह आज तक अज्ञात है. यह फ्लू मनुष्यों से सुअरों में फैला या सुअरों से मनुष्यों में; यह भी स्थापित नहीं किया जा सका है. इसका एक कारण यह भी है कि 1918 की फ्लू महामारी का पता पहले मनुष्यों में चला था उसके बाद सुअरों में. अगला मामला हमें 5 मई 1976 के दिन अमेरिका के फोर्ट डिक्स में देखने को मिलता है. एक सैनिक कमजोरी और थकान की शिकायत के बाद अगले ही दिन मर जाता है और उसके 4 साथी सैनिक अस्पताल में भर्ती कराये जाते हैं. दो हफ्तों बाद स्वास्थ्य अधिकारी ऐलान करते हैं कि सैनिक की मौत एच1एन1 वायरस के एक भिन्न रूप के संक्रमण से हुई है. इस भिन्न रूप को 'ए/न्यू जर्सी/1976 (एच1एन1) नाम दिया गया था.<br /><br />सितम्बर 1988 में अमेरिका के विस्कोंसिन राज्य की वालवर्थ काउंटी में बारबरा एन वीनर्स नामक गर्भवती महिला की स्वाइन फ्लू से जान चली गयी थी. यह वायरस उन हाट-मेलों में पाया गया जहां सुअर बिक्री या प्रदर्शनी के लिए लाये जाते थे. बारबरा भी ऐसे ही एक मेले में अपने पति के साथ गयी थी. हालांकि यह वायरस सीमित ही रहा. इसके बाद 1998 के दौरान अमेरिका के चार राज्यों में स्वाइन फ्लू देखा गया, साल भर के अन्दर ही इसने पूरे अमेरिका के सुअरों को अपनी चपेट में ले लिया. वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि इस बार का वायरस मानव तथा पक्षियों में पाए जाने वाले फ्लू वायरस के भिन्न रूपों का मिश्रण है. अगस्त 2007 में फिलिप्पीन्स के कृषि विभाग ने भी देश भर के सुअरों में फ्लू महामारी फैल जाने की बात कबूली थी.<br /><br />...और साल 2009 का स्वाइन फ्लू. यह एच1एन1 उप प्रकार के एक ऐसे भिन्न रूप से फैला जो पहले सुअरों में नहीं पाया जाता था. महामारी फैलने के बाद 2 मई 2009 को यह वायरस एल्बर्टा (कनाडा) के एक सुअर बाड़े में पाया गया जिसके तार मेक्सिको में फैली फ्लू महामारी से जुड़ते थे. मेक्सिको में तो यह बीमारी फरवरी-मार्च 2009 में ही फैल जाने की शुरुआती रपटें मिलने लगी थीं. कहा जा रहा था कि स्मिथफूड्स फार्म के एक सुअर बाड़े में अपनाए जा रहे गलत तरीकों की वजह से स्वाइन फ्लू पैदा हुआ और मनुष्यों में फैल गया. हालांकि स्मिथफूड्स ने इसका तत्काल खंडन भी कर दिया था.<br /><br />देखने वाली बात यह है कि अमेरिकी ‘बीमारी नियंत्रण एवं रोकथाम केंद्र’ ने स्पष्ट तौर पर कहा कि अमेरिका में पाए गए स्वाइन फ्लू के वायरस का नया भिन्न रूप मेक्सिको के वायरस से पूरी तरह मेल खाता था. बता दें कि अमेरिका की सीमा मेक्सिको से सटी हुई है. स्वाइन फ्लू से पहली मौत 13 अप्रैल 2009 को मेक्सिको की ओआक्साका काउंटी में दर्ज की गयी थी. कनाडा में भी स्वाइन फ्लू वायरस तब पाया गया जब एक मजदूर मेक्सिको से वहां के एक सुअर बाड़े में कुछ ही दिन पहले लौटा था. इससे साबित होता है कि इस बार का स्वाइन फ्लू दैत्य मेक्सिको में पैदा हुआ था.<br /><br />स्वाइन एन्फ़्लुएन्ज़ा भारत समेत विश्व के हर सुअर पालन करने वाले देश में मौजूद है. सुअरों में यह पूरे साल फैलता रहता है. इसकी रोकथाम के लिए कई देश अक्सर सुअरों को टीका लगवाते हैं. भारत में अब तक इस बात के कोई संकेत नहीं मिले हैं कि मानवों में मिले स्वाइन फ़्लू का सम्बन्ध सुअरों में मौजूद वायरस से है. फिर भी एहतियात के तौर पर भारत सरकार के पर्यावरण, खाद्यान्न एवं ग्रामीण विभाग ( डीईएफआरए) ने सुअर पालकों को निर्देश जारी किए कि वे उच्चस्तर की साफ-सफाई रखें. यद्यपि एन्फ़्लुएन्ज़ा ए (एच1एन1) वायरस पूरे विश्व में मानव से मानव में फैल रहा है और कई देशों में मौत का तांडव भी खेल रहा है. इसीलिए 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' की दुनिया भर में फैलते जा रहे स्वाइन फ़्लू पर पैनी नजर है. भारत सरकार भी इस बार पहले से ज्यादा तैयार दिख रही है क्योंकि 2009 का अनुभव उसे है और उससे लोगों ने भी सबक सीखा होगा. टीके अस्पतालों तक पहुंचाए जा रहे हैं और जहां ज़रूरी है वहां चिकत्सा अधिकारियों को अतिरिक्त एलर्ट भी किया जा रहा है. इसके बावजूद हाल ही में सक्रिय हुए इस वायरस को हलके में लेना महंगा पड़ सकता है क्योंकि लोगों की जान जाने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है.<br /><br /><br /><br /><strong>एन्फ़्लुएन्ज़ा लोगों में फैलता कैसे है?</strong><br /><br />समझा जाता है कि यह नया एन्फ़्लुएन्ज़ा वायरस आम मौसमी फ़्लू की तरह ही फैलता है. संक्रमित व्यक्ति के बात करते समय, खांसते समय या छींकते समय उसके मुंह या नाक से जो छोटी बूँदें निकलती हैं, उनको सांस द्वारा अन्दर ले लेने से संक्रमण हो सकता है. इस वायरस से संक्रमित कोई चीज जैसे टिश्यू पेपर या दरवाजे के हैंडिल के संपर्क में आने के बाद अपनी नाक या आँख छूने से भी संक्रमण हो जाता है.<br /><br /><strong>संक्रमित सुअरों के लक्षण क्या हैं?</strong><br /><br />सुअरों में स्वाइन एन्फ़्लुएन्ज़ा होने पर वे बेहद सुस्त पड़ जाते हैं. बुखार एवं खांसी के अलावा उन्हें सांस लेने में भारी कष्ट होता है. किसी संक्रमित सुअर की सांस से निकली बूँदें सांस के जरिए अन्दर जाने से सुअरों में स्वाइन फ़्लू फैलता जाता है. वे संक्रमित सुअर के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संपर्क में आने पर भी संक्रमित होते जाते हैं.<br /><br /><strong>मनुष्य में स्वाइन फ़्लू के क्या लक्षण हैं?</strong><br /><br />स्वाइन फ़्लू से ग्रस्त मनुष्य में ठीक वैसे ही लक्षण दिखाई देते हैं जैसे कि उसके सामान्य मौसमी फ़्लू से संक्रमित होने पर नजर आया करते हैं. मसलन बुखार, थकान, भूख की कमी, खांसी और गला दुखना. कुछ लोगों को उल्टी-दस्त की शिकायत भी हो सकती है. उदाहरण के लिए मेक्सिको में ए (एच1एन1) वायरस से पीड़ित लोगों को भयंकर पीड़ा झेलनी पड़ी और उनकी मृत्यु भी हो गयी. जबकि भारत सहित अन्य देशों में इस एन्फ़्लुएन्ज़ा के लक्षण नरम रहे हैं और लोग पूरी तरह ठीक भी हुए हैं.<br /><br /><strong>एन्फ़्लुएन्ज़ा संक्रमित व्यक्ति क्या करे?</strong><br /><br />अगर आप किसी फ़्लू जैसा महसूस कर रहे हैं तो घर से बाहर हरगिज न निकलें और जितना हो सके कम से कम लोगों के संपर्क में रहें. टेलीफोन पर अपने पारिवारिक चिकित्सक से बात करें और उसकी सलाह पर पूरी तरह अमल करें. अपनी मर्जी से कोई भी दवा खरीदकर न खाएं. हालांकि कुछ दवाएं प्रचलन में हैं लेकिन फ़्लू की तीव्रता के अनुसार ही इन्हें लेने या न लेने की सलाह चिकित्सक देते हैं. अगर भारत में खतरा बढ़ता है तो भारतीय स्वास्थ्य सुरक्षा एजेंसी अगले दिशा-निर्देश जारी करेगी.<br /><br /><strong>रोकथाम के उपाय</strong><br /><br />एन्फ़्लुएन्ज़ा ए (एच1एन1) से संक्रमित व्यक्ति जब खांसता या छींकता है तो वह अपने आसपास की सतह पर विषाणु फैला देता है. इतना ही नहीं उसके द्वारा इस्तेमाल किए गए टिश्यू पेपर या बिना धुले हाथों के छू जाने से भी विषाणु फैलते हैं. इसलिए सतह को साफ रखना जरूरी हो जाता है ताकि आसपास के लोगों में संक्रमण न हो सके. डिटर्जेंट और पानी से सतह साफ करना आसान है लेकिन जहां हाथ नहीं पहुंचता वहां ब्रशों और विषाणुनाशक उत्पादों का प्रयोग करना उचित रहता है. किचन प्लेटफोर्म, टायलेट फ्लश और दरवाजों के हैंडिल ऐसी ही कुछ जगहें हैं जहां विषाणुनाशकों का प्रयोग करना चाहिए. जिन चीजों को घर अथवा दफ्तर के लोग अक्सर छूते हैं उनका स्वच्छ रहना अत्यावश्यक है. इनमें कम्प्यूटर कीबोर्ड, टेलीफोन रिसीवर, हैंडिल, स्विच, नलों की टोंटी आदि शामिल हैं.<br /><br />अपने आसपास बढ़िया साफ-सफाई रख कर एन्फ़्लुएन्ज़ा समेत हर किस्म के वायरस के संक्रमण से बचा जा सकता है. <br /><br />स्वास्थ्य सुरक्षा एजेंसी ने लोगों से कहा है कि वे हर समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखें:-<br /><br /><strong>अ)</strong> साबुन और पानी से अपने हाथ दिन में कई बार धोएं.<br /><strong>ब)</strong> छींकते अथवा खांसते समय अपना मुंह और नाक टिश्यू पेपर से ढँक लें.<br /><strong>स)</strong> इस्तेमाल किए गए टिश्यू पेपर को सावधानी और जिम्मेदारी से कचरे की टोकरी में डालें.<br /><strong>द)</strong> दरवाजे के हैंडिल जैसी कड़ी सतहों को हमेशा साफ रखें.<br /><strong>इ)</strong> सुनिश्चित करें कि बच्चे भी इन बातों का ख़याल रखें.विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-52838079007010401492012-04-05T04:21:00.000-07:002012-04-05T04:23:45.691-07:00नफ़रत से नफ़रतदोस्तों, अपने कविता संग्रह से बाहर की एक कविता चढ़ा रहा हूँ-<br /><br /><strong>नफ़रत से नफ़रत</strong><br /><br />नफ़रत किधर से आती है<br /><br />नफ़रत किधर को जाती है<br /><br />क्या यह किसी से किसी को प्यार करना भी सिखाती है?<br /><br /> <br /><br />प्यार के लिए कितने लोगों ने जान गवांई होगी बूझो तो?<br /><br />लेकिन नफ़रत से हुई मौतों के आंकड़े कोई पहेली नहीं हैं<br /><br />दुनिया लहूलुहान है नफ़रत के पंजों से.<br /><br /> <br /><br />नफ़रत बिल्लियों की तरह कहीं भी आ-जा सकती है बेरोकटोक<br /><br />तुम उस पर पहली नजर में शक नहीं कर सकते<br /><br />रीढ़ की हड्डी में नागिन की तरह कुण्डली मारे बैठी रह सकती है बरसों बरस<br /><br />वह कलम की स्याही बनकर झर सकती है मीठे-मीठे शब्दों की आड़ में<br /><br />नफ़रत को झटक दो कि वह तुमको तुमसे ही बेदखल कर रही है<br /><br /> <br /><br />नफ़रत हर ख़ास-ओ-आम में मिल जाएगी<br /><br />किसी पैमाने से उसे मापा नहीं जा सकता<br /><br />खिड़की बंद करके उसे रोका नहीं जा सकता<br /><br />नफ़रत हवाओं में उड़ती है विमानों के साथ-साथ<br /><br />पानियों में घुलकर एक से दूसरे देश निकल जाती है<br /><br /> <br /><br />हर दरवाजे पर दस्तक देती फिरती है नफ़रत<br /><br />कई बार वह आती है किताबों के पन्नों में दबी हुई<br /><br />लच्छेदार बातों की शक्ल में तैरती हुई पहुँचती है तुम तक<br /><br />गिरफ्त में ले लेती है विश्वामित्र की मेनका बनकर<br /><br />नफ़रत एक नशा है जो आत्मा को फाड़ देती है दूध की तरह<br /><br /> <br /><br />नफ़रत कब तलब बन जाती है यह पता भी नहीं चलता<br /><br />हम रोज सुबह पछताते हैं कि अब से नहीं करेंगे नफ़रत<br /><br />लेकिन नफ़रत के माहौल में करते हैं सुबह से शाम तक नफ़रत<br /><br />हम भुलाते जाते हैं सब कुछ नफ़रत की पिनक में<br /><br />फिर वह ऐसा सब कुछ भुला देती है जो जरूरी है इंसान के हक़ में<br /><br /> <br /><br />वैसे सही जगह की जाए तो नफ़रत भी बुरी चीज़ नहीं<br /><br />पर यह क्या कि दुनिया की हर चीज़ से नफ़रत की जाए!<br /><br />नफ़रत करो तो ऐसी कि जैसे नेवला साँप से करता है<br /><br />शिकार शिकारी से करता है<br /><br />बकिया मिसालों के लिए अपने आस पास ख़ुद ढूँढ़ो<br /><br />कि कौन किससे किस कदर और क्यों करता है नफ़रत<br /><br /> <br /><br />वैसे भी प्यार का रास्ता आम रास्ता नहीं है<br /><br />इसलिए नफ़रत से जमकर नफ़रत करो<br /><br />कि नफ़रत हमारे और तुम्हारे बीच नफ़रत बनकर खड़ी है.<br /><br /> <strong> -विजयशंकर चतुर्वेदी</strong>विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-91836883618081503222012-02-22T23:23:00.021-08:002012-02-23T00:02:22.874-08:00<div style="BORDER-TOP: rgb(102,148,100) 5px solid; FONT-WEIGHT: bold; FLOAT: right; PADDING-BOTTOM: 10px; MARGIN:25px; WIDTH: 500px; LINE-HEIGHT: 100%; PADDING-TOP: 10px; BORDER-BOTTOM: rgb(102,148,100) 5px solid; TEXT-ALIGN: center" size="12pt">हरदिलअज़ीज़ शायर शहरयार साहब गुज़र गए. वह कहा करते थे कि कोई दौर वापस आता है और न ही आना चाहिए, कोई भी अच्छी चीज़ ख़त्म नहीं होने वाली, नई चीज़ें आती रहेंगी और दुनिया फैलती रहेगी. हम उनकी इन बातों को मंत्र की तरह लेते हैं. संयोग की बात यह है कि महाराष्ट्र के ज़िला ठाणे से प्रकाशित होने वाली हिंदी मासिक पत्रिका 'मीरा-भायंदर दर्शन' के संपादक वेद प्रकाश श्रीवास्तव ने वर्ष 2011 के जनवरी महीने में जब एक ट्रेन यात्रा के दौरान मुझसे अपने यहाँ कविताओं का सिलसिला शुरू करने को कहा तो पहली ही प्रस्तुति यानी मार्च 2011 के अंक में शहरयार साहब की ग़ज़लें शामिल हुईं थीं. निदा फ़ाज़ली साहब की चंद उम्दा ग़ज़लें भी इसमें थीं.इस प्रस्तुति का लक्ष्य क्षेत्र के पाठकों को कुछ अच्छी शायरी और कविताओं से रूबरू कराना था. अप्रकाशित कवितायेँ छापना न उद्देश्य था और न ही आग्रह. फिर इस पत्रिका का वितरण भी पिछले १५ वर्षों से एक सीमित दायरे में होता आया है इसलिए पाठकों की रूचि का भी ध्यान रखना था. बहरहाल सिलसिला सचमुच चल निकला और अब एक साल पूरा हो गया है. इस प्रयास में देश के बड़े कवियों ने अपनी कवितायेँ छापने की स्वीकृति देकर मुझे उपकृत किया है.स्थानीय मित्रों के आग्रह पर अब पाठक वर्ग का दायरा बढ़ाने जा रहा हूँ. हर माह इस पत्रिका के दोनों कविता पृष्ठों की पीडीऍफ़ 'फेसबुक' और अपने ब्लॉग 'आजाद लब' में प्रकाशित किया करूंगा. फ़ाइल पर चटका लगाकर उस अंक के कवियों/शायरों का परिचय और कवितायेँ/ग़ज़लें पढ़ी जा सकती हैं. प्रस्तुत हैं ज्ञानपीठ विजेता शहरयार और उस्ताद शायर निदा फ़ाज़ली साहब-</div><br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/-hXbjvMRuBDM/T0XwCV1sjKI/AAAAAAAAAeI/fChSpTNNBok/s1600/Shaharyar.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 225px; height: 320px;" src="http://1.bp.blogspot.com/-hXbjvMRuBDM/T0XwCV1sjKI/AAAAAAAAAeI/fChSpTNNBok/s320/Shaharyar.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5712235625402109090" /></a><br /><br /><br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/-klKrTwmMsbc/T0Xuy3X6BNI/AAAAAAAAAd8/qlOCPwjJKrE/s1600/Nida%2BFazli.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 224px; height: 320px;" src="http://1.bp.blogspot.com/-klKrTwmMsbc/T0Xuy3X6BNI/AAAAAAAAAd8/qlOCPwjJKrE/s320/Nida%2BFazli.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5712234260014433490" /></a>विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-88547938591963805432011-07-25T04:24:00.000-07:002011-07-25T04:28:33.168-07:00'जनसत्ता रविवारी' में १७/०९/२०११ को छपी कवर स्टोरी<a href="http://2.bp.blogspot.com/-7dokQaFCuCw/Ti1SyrEMGVI/AAAAAAAAAdQ/hu1g1OJMLGU/s1600/Jansatta%2BPg02.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5633249739417590098" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 212px; CURSOR: hand; HEIGHT: 320px" alt="" src="http://2.bp.blogspot.com/-7dokQaFCuCw/Ti1SyrEMGVI/AAAAAAAAAdQ/hu1g1OJMLGU/s320/Jansatta%2BPg02.jpg" border="0" /></a><br /><br /><div><a href="http://2.bp.blogspot.com/-jfCvYJTXAe0/Ti1Sstv0b_I/AAAAAAAAAdI/ldES_s7VxII/s1600/Jansatta%2BPg01.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5633249637058244594" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 212px; CURSOR: hand; HEIGHT: 320px" alt="" src="http://2.bp.blogspot.com/-jfCvYJTXAe0/Ti1Sstv0b_I/AAAAAAAAAdI/ldES_s7VxII/s320/Jansatta%2BPg01.jpg" border="0" /></a> </div>विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-43141123933266938532011-04-01T04:26:00.000-07:002011-04-01T05:40:12.844-07:00प्रोफ़ेसर कमला प्रसाद का जहां से जाना<div style="BORDER-TOP: rgb(92,138,100) 5px solid; FONT-WEIGHT: bold; FONT-SIZE: 12pt; FLOAT: right; PADDING-BOTTOM: 5px; MARGIN: 10px; WIDTH: 500px; LINE-HEIGHT: 100%; PADDING-TOP: 5px; BORDER-BOTTOM: rgb(92,138,100) 5px solid; TEXT-ALIGN: left">कल अग्रज कवि और प्रिय भाई कुमार अम्बुज के ब्लॉग पर मैंने यह टिप्पणी पोस्ट की थी--''अम्बुज जी, आपने कमाल की टिप्पणी लिखी है. आज (३१/०३/२०११) के जे सोमैया कॉलेज, विद्याविहार में कमला प्रसाद जी की याद में एक शोक सभा आयोजित की गयी थी. वहां उनके लिखे कुछ सम्पादकीय अंश, उनके बारे में लिखा गया काशीनाथ सिंह जी का संस्मरण, परसाई जी को लेकर किया गया उनका आकलन एवं दीगर सामग्री स्थानीय रचनाकारों ने पढ़कर सुनायी. कार्यक्रम 'सृजन-सन्दर्भ' साहित्यिक पत्रिका एवं सोमैया कॉलेज के हिन्दी विभाग की ओर से प्रोफ़ेसर सतीश पाण्डेय तथा सीईआईएस कॉलेज के प्राध्यापक संजीव दुबे ने आयोजित किया था. यहाँ सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर एमपी सिंह भी उपस्थित थे. कवि-आलोचक विजय कुमार, लेखक शशांक और वरिष्ठ पत्रकार एवं सेवानिवृत्त शिक्षक राधेश्याम उपाध्याय ने अपने-अपने अनुभव एवं संस्मरण साझा किये. मैंने भी एक वक्तव्य टाइप प्रस्तुत किया. साझा बात यह रही कि सब लोगों ने कमला प्रसाद जी को एक कुशल संपादक, अजातशत्रु आलोचक तथा एक अथक संगठक के रूप में याद किया. उनकी स्मृति को प्रणाम ओर विनम्र श्रद्धांजलि!'' आज कुछ लोगों के फोन आये कि वह जो वक्तव्य टाइप मैंने वहां प्रस्तुत किया था उसे अपने ब्लॉग पर चढ़ा दूं. उनके आदेश का पालन कर रहा हूँ----</div><br /><br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/-o9a36nNsigI/TZW7nsM-7GI/AAAAAAAAAck/Z1-mvKw2ixg/s1600/kamla%2Bprasad%2Bji%2Bphoto.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 202px; height: 320px;" src="http://4.bp.blogspot.com/-o9a36nNsigI/TZW7nsM-7GI/AAAAAAAAAck/Z1-mvKw2ixg/s320/kamla%2Bprasad%2Bji%2Bphoto.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5590580803005246562" /></a><br /><br />मूर्धन्य आलोचक एवं यशस्वी सम्पादक प्रोफ़ेसर कमला प्रसाद जी का दुनिया से चला जाना प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन के लिए एक बड़ा झटका तो है ही मेरे लिए यह एक व्यक्तिगत क्षति भी है. हालांकि कमला प्रसाद जी के लिए व्यक्तिगत जैसी कोई बात नहीं होती थी. उनसे मिलकर सदा यही लगता था कि वह सबके हैं और सब उनके हैं. लेकिन मैं व्यक्तिगत अपनी तरफ से इसलिए कह रहा हूँ कि सतना जिला के जिस धौरहरा गाँव में चौदह फरवरी १९३८ को उनका जन्म हुआ था वह मेरे गाँव से महज २० किमी की दूरी पर है. धौरहरा बघेली का शब्द है जिसका अर्थ होता है श्वेत. और कमाल देखिये कि धौरहरा में जन्म लेने वाले कमला प्रसाद जी का चरित्र आजीवन उज्जवल रहा और कबीर की भाषा में कहें तो उन्होंने जीवन की यह धवल चदरिया ज्यों की त्यों रख दी और हम सबसे शांतिपूर्ण विदा ले कर दुनिया से चले गए. उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता और संगठन क्षमता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने उस महान प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव पद की जिम्मेदारी इतने बरसों से और इतनी कुशलता से संभाल रखी थी जिसकी स्थापना मुंशी प्रेमचंद, फैज़ अहमद फैज़, सज्जाद ज़हीर, मुल्कराज आनंद जैसे महान साहित्यकारों और विचारकों ने की थी.<br /><br /> <br />एक प्रसंग का जिक्र करना यहाँ बहुत आवश्यक जान पड़ रहा है. कमला प्रसाद जी जितना बाहर प्रसन्न नजर आते थे उतना ही वह अन्दर से छलनी व्यक्ति थे. पारिवारिक शोक उनके अन्दर रिसता रहता था. मुझे अपने यहाँ के वरिष्ठों ने बताया है कि उनके एक भाई थे जिनका असमय निधन हो गया था. उनकी स्मृति में उन्होंने बीसों बरस अपने गाँव में नियमित वार्षिक कवि-गोष्ठियां आयोजित कीं. इनमें केदारनाथ अग्रवाल और बैजू काका जैसे बुन्देली - बघेली के जैसे नामी गिरामी कवि कविता पाठ करते थे. यह विन्ध्य क्षेत्र का एक प्रतिष्ठित साहित्यिक आयोजन बन गया था. यह उनके सतना-रीवा क्षेत्र में सक्रिय रहने के दिनों की बात है. <br /><br /> <br />लेकिन जब वह कार्यक्षेत्र बदल जाने पर भोपाल आ गए तो उनकी माता जी भी साथ रहने आयीं. भोपाल में एक यात्रा के दौरान मैं प्रोफ़ेसर कॉलोनी स्थित आवास पर उनसे मिलने गया था. मैंने देखा और सुना कि उनकी माता जी अर्द्ध विक्षिप्त हो चुकी हैं और अपने बरसों पूर्व गुजर चुके बेटे का नाम लेकर बार-बार उसे घर लौट आने को कहती रहती हैं. मैंने कमला प्रसाद जी से इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि जबसे भाई गुजरा है तबसे ही इनकी ऐसी अवस्था है. सोचने वाली बात यह है कि बीसों बरस से अपनी माता जी यह हाल देख कर उनके मन पर क्या गुजरती रही होगी. खैर चार साल पहले उनकी माता जी का स्वर्गवास हो गया था. बाद में कमला प्रसाद जी के एक बेटे को भी मस्तिष्क में गंभीर बीमारी हो गयी थी जिसे लेकर वह इलाज के लिए मारे-मारे फिरते थे. लगभग पागलपन की अवस्था थी. लेकिन ऐसी विकट पारिवारिक परिस्थितियों में भी उन्होंने संगठन के काम को सर्वोपरि रखा और चेहरे पर कभी शिकन नहीं आने दी.<br /><br /> <br />कमला प्रसाद जी ने अपने जीवन में अनेक बड़ी साहित्यिक-सांस्कृतिक जिम्मेदारियां निभाईं. हमने सुना है कि सन् 1976 में उन्होंने सतना में प्रगतिशील लेखक संघ का भव्य समारोह आयोजित किया था जिसमें शिवमंगल सिंह सुमन, हरिशंकर परसाई, मैनेजर पांडेय, ज्ञानरंजन, विजयेन्द्र, काशीनाथ सिंह, धनंजय वर्मा जैसे साहित्यकारों ने शिरकत की थी. तब मेरी उम्र ५-६ वर्ष की रही होगी. कमला प्रसाद जी मध्य प्रदेश की एक और बहुत बड़ी हस्ती मायाराम सुरजन के सानिध्य में भी रहे. सुरजन जी 'देशबंधु' समाचार पत्र के संस्थापक-सम्पादक थे. इनके सहयोग से उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मलेन की गतिविधियाँ बढ़ाईं. बाद में वर्षों तक 'देशबंधु' में कमला प्रसाद जी का नियमित स्तम्भ हम लोगों ने पढ़ा है.<br /><br />सागर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. करने के बाद उन्होंने सतना और भोपाल में अध्यापन कार्य किया था और आगे चलकर वह रीवा स्थित अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष रहे, केशव अध्ययन एवं शोध संस्थान के अध्यक्ष रहे, मध्य प्रदेश कला परिषद् के सचिव रहे, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा के अध्यक्ष रहे और न जाने कितनी अकादमिक समितियों के महत्वपूर्ण पदों पर रहे, लेकिन वह अपने संगठनकर्ता वाले रूप में सबसे ज्यादा जाने जाते थे. साथी उन्हें सम्मान से ‘कमांडर’ कहकर बुलाते थे. उन्होंने जम्मू-कश्मीर से लेकर केरल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल, मेघालय, असम और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में प्रलेस की इकाइयों का पुनर्गठन किया. मुंबई की एक संगठन सभा का तो मैं साक्षी भी हूँ. वहां सतीश काल्शेकर समेत प्रलेस से जुड़े कई मराठी रचनाकार उपस्थित थे. वह किसी पर कोई जिम्मेदारी थोपते नहीं थे. लोगों से पूछते थे कि वह क्या-क्या कर सकते हैं और बाद में प्यार से नए-पुराने कार्यकर्ताओं को बड़ी जिम्मेदारियां उठाने के लिए मना लेते थे.<br /><br />कमला प्रसाद जी ने हिन्दी की प्रगतिशील धारा के प्रमुख आलोचकों में अपना स्थान बनाया था. कई विषय तथा व्यक्ति केन्द्रित पुस्तकों का सम्पादन भी किया था. लेकिन वह सिर्फ किताबों तक ही सीमित नहीं रहे. जब वह केशव शोध संस्थान के अध्यक्ष थे मध्यप्रदेश में तो उन्होंने प्रगतिशील धारा के हिन्दी कवियों की नई पौध तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. कर्म क्षेत्र में उतरकर साहित्यिक कार्यकर्ताओं एवं रचनाकारों की फ़ौज तैयार करने तथा उन्हें वैचारिक रूप से सुगठित एवं संगठित करने के प्रयास में वह दिन-रात जुटे रहते थे. कर्मठता ऐसी कि सत्तर की उम्र में भी संगठन के काम से इतनी यात्राएं करते थे कि युवाओं के पसीने छूट जाएँ. हमेशा यही सुनने को मिलता था कि कल जयपुर में थे, परसों रायपुर में, नरसों बनारस में थे, आज इलाहाबाद में हैं तो कल भागलपुर में तो परसों दिल्ली में तो नरसों रीवा में रहेंगे... मैंने ही एक बार अपने ब्लॉग 'आज़ाद लब' में उनके बारे में लिखा था कि उनका एक पैर ट्रेन में रहता है तो दूसरा घर में. शायद इसी अतिसक्रियता ने उनका शरीर तोड़ दिया और तीन-चार माह पहले एक कार्यक्रम में भाग लेने के बाद जयपुर से लौटते ही पता चला कि उन्हें भयंकर कैसर ने जकड़ लिया है.<br /><br />कमला प्रसाद जी अपना साहित्यिक और वैचारिक गुरु हरिशंकर परसाई को मानते थे. वह बताते थे कि बचपन में संस्कार बनाने का काम तुलसीदास की रामचरित मानस से प्रारम्भ हुआ था. उनके पिता जी तुलसी बाबा के प्रेमी थे इसलिए जैसे ही साक्षर हुए, उनके पिता मानस पढ़कर सुनाने को कहते थे. लेकिन कमला प्रसाद जी का स्पष्ट मानना था कि उनकी साहित्यिक और वैचारिक प्रवृत्तियों को जिसने संगठित, संकलित किया वह परसाई जी ही थे.<br /><br />परसाई जी की प्रेरणा से कमला प्रसाद जी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े. साहित्यिक, सामाजिक समस्याओं का निदान खोजने के लिए, समाज में रास्ता तलाशने के लिए उन्होंने व्यक्तिगत नहीं बल्कि एक सामूहिक कर्म की खोज की. उसी में से ये विचार पैदा हुआ कि अच्छे साहित्य की, प्रगतिशील साहित्य की पत्रिका निकले. सत्तर के दशक में उन्होंने ज्ञानरंजन जी के साथ मिलकर 'पहल' पत्रिका शुरू की. इसके कुछ सालों बाद ९० के दशक में उन्होंने संगठन के निर्णय पर 'पहल' से अलग होकर 'प्रगतिशील वसुधा' के सम्पादन का दायित्व सम्भाला. यह पत्रिका 'वसुधा' नाम से पहले ही निकल रही थी जिसके संस्थापक-सम्पादक हरिशंकर परसाई थे. 'प्रगतिशील वसुधा' ने हाल के वर्षों में कुछ विशेषांक निकाले हैं जो संग्रहणीय हैं. इनमें परसाई विशेषांक, रामविलास शर्मा विशेषांक, नामवर सिंह विशेषांक, कश्मीरी साहित्य विशेषांक, फिल्म विशेषांक, कहानी विशेषांक और मराठी दलित साहित्य विशेषांक प्रमुख हैं. मृत्यु के कुछ दिनों पहले तक, जब तक वह बेहोश नहीं हो गए, अपने सहयोगियों स्वयं प्रकाश और राजेन्द्र शर्मा के साथ मिलकर 'प्रगतिशील वसुधा' के आगामी अंकों तथा विशेषांकों की योजना बनाने में लगे हुए थे. <br /><br />मुझे कमला प्रसाद जी और बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व में कम से कम एक समानता तो दिखती ही है. बाबा से जब पूछा जाता था कि वह प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ तथा जन संस्कृति मंच के कार्यक्रमों में एक साथ कैसे दिखाई दे जाते हैं, तो उनका जवाब होता था कि क्या करें तीनों अपने ही बच्चे हैं. लेकिन जब कमला प्रसाद जी से पूछा जाता था कि वह इन तीनों लेखक संघों के साझा कार्यक्रमों को लेकर क्या सोचते हैं तो वह जवाब में प्रलेस के प्रतिनिधियों को जसम के कार्यक्रमों में भेज देते थे. जसम के महासचिव प्रणय कृष्ण ने भी स्वीकार किया है कि कमला प्रसाद जी तीनों वामपंथी संस्कृतिक संगठनों के बीच साझा कार्रवाइयों की संभावना तलाशने के प्रति खुलापन रखते थे.<br /><br />कमला प्रसाद जी से मेरी पहली मुलाक़ात उनके बेटे के इलाज के दौरान १९९५ की ठंडियों में मुंबई की एक धर्मशाला में हुई थी. उनका जीवन इतना सादा था कि सामान के नाम पर महज एक थैला था और वह धर्मशाला में चटाई बिछाकर सो रहे थे. और संयोग देखिये कि उनसे मेरी आख़िरी मुलाक़ात भी मुंबई में ही यूनिवर्सिटी होस्टल में हुई जहां झुनझुनवाला कॉलेज से रिटायर हो चुके एमपी सिंह भी उपस्थित थे. यही कोई चार-पांच माह पहले की बात है. वही आत्मीय बातें, वही सादगी, न कोई साहित्यिक गुटबाजी की चर्चा न किसी के प्रति मन में कोई दुराव या कड़वाहट. बस 'प्रगतिशील वसुधा' की आगामी योजनाओं पर चर्चा करते रहे. तब उनके चेहरे पर बीमारी का कोई चिह्न नहीं था और कैसी घड़ी है कि आज हम उनकी शोक सभा में शामिल होने आये हैं. <br /><br />उन्होंने इतना सक्रिय जीवन जिया है कि मेरे पास ही क्या देश में हज़ारों लोगों के पास उनके बारे में कुछ न कुछ कहने के लिए असंख्य बातें हैं, यादें हैं, प्रसंग हैं, प्रेरणाएं हैं. वे मानते थे कि इस दौर में लोगों को जोड़ने की जरूरत है साहित्य या राजनीतिक धाराओं के नाम पर तोड़ने की नहीं. इसलिए अंत में इतना ही कहूंगा कि पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, साम्प्रदायिकता और सामाजिक-आर्थिक शोषण का सांस्कृतिक रूप से प्रतिकार करने के लिए जिस तरह वह बिना थके कार्य करते रहे, उससे हमें प्रेरणा लेनी चाहिए, लेनी होगी. धन्यवाद!<br /><br /> - विजयशंकर चतुर्वेदीविजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-78166662543591073752010-01-21T02:35:00.000-08:002011-04-01T05:37:36.839-07:00साल २०१०: भविष्य को लेकर साहित्यकारों की राय<div style="BORDER-TOP: rgb(92,138,100) 5px solid; FONT-WEIGHT: bold; FONT-SIZE: 12pt; FLOAT: right; PADDING-BOTTOM: 5px; MARGIN: 10px; WIDTH: 500px; LINE-HEIGHT: 100%; PADDING-TOP: 5px; BORDER-BOTTOM: rgb(92,138,100) 5px solid; TEXT-ALIGN: center">साल २०१० और आने वाले समय की पड़ताल को लेकर साहित्यकारों से हुई बातचीत की लम्बी श्रृंखला ब्लॉग <a href="http://kabaadkhaana.blogspot.com" target="_blank"><strong> 'कबाड़खाना' </strong></a> में चलाई गयी. अब वह पूरी बातचीत पाठक एक ही जगह <a href="http://azadlub.blogspot.com/2010/01/blog-post_21.html" target="_blank"><strong> इस लिंक पर </strong></a> देख सकते हैं. साहित्यकारों का क्रम पहले हुई बातचीत के आधार पर बनता चला गया. हम कई और महत्वपूर्ण रचनाकारों को इसमें शामिल करना चाहते थे लेकिन कुछ हमारी तकनीकी सीमाएं, अड़चनें और कुछ उनकी व्यस्तताएं रोड़ा बन गयीं. बहरहाल उम्मीद ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि आगे भी श्रद्धेय साहित्यकर्मी एवं सहृदय पाठकगण स्नेह बनाए रखेंगे.</div><br /><br /><strong>आबिद सुरती (पेंटर, कार्टूनिस्ट, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार):</strong><a href="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1gMu6mDbaI/AAAAAAAAAa0/aRGd7NlmkYk/s1600-h/Abid+surti.jpg"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 250px; height: 320px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1gMu6mDbaI/AAAAAAAAAa0/aRGd7NlmkYk/s320/Abid+surti.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5429103350937513378" /></a><br />नए साल में मैं देखना चाहूंगा कि अपनी संस्कृति को कैसे सुरक्षित रखा जाए. यह जो वैश्वीकरण आगे बढ़ रहा है वह सब कुछ तहस-नहस किये डाल रहा है. यह अमेरिकी संस्कृति है जो पूरी दुनिया पर छाती जा रही है और सब कुछ खाती जा रही है. यह हर हाल में रुकना चाहिए.<br /><br />मैं मानता और कहता हूँ कि भारतीय संस्कृति दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है और अमेरिकी संस्कृति दुनिया में सबसे घटिया है. आज के बच्चे टिफिन में नूडल्स लेकर स्कूल जाते हैं, जिनमें कोई पौष्टिकता नहीं होती कोई विटामिन नहीं होता. हमारी संस्कृति में माँ बाजरे की रोटी पर घी चुपड़ कर देती थी. अमेरिकी संस्कृति जहां भी जाती है, वायरस की तरह वहां की लोक-संस्कृति को चट कर जाती है.<br /><br />चित्रकारिता जगत में नया साल खुशियाँ लेकर आयेगा. आज हुसैन, रज़ा, सुजा, गायतोंडे आदि की पेंटिंग्स लाखों-करोड़ों में बिकती हैं. इस दुनिया का विस्तार हो रहा है. आज एनीमेशन आ गया है, कार्टून चैनल्स हैं, कार्टून फ़िल्में बनती हैं...इससे सैकड़ों नए-नए कलाकारों को खपने की जगह मिलती है. पहले स्थान बहुत सीमित था. आज के दौर को आप कार्टूनिस्टों का स्वर्णयुग कह सकते हैं. साल २०१० में पेंटर भी अच्छा काम और दाम पायेंगे.'<br /><br /><strong>प्रोफेसर कमला प्रसाद (आलोचक, सम्पादक 'वसुधा'):</strong><br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1gOG2nzwtI/AAAAAAAAAa8/MaLhUwIh9dE/s1600-h/Kamla+prasad+photo.jpg"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 110px; height: 114px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1gOG2nzwtI/AAAAAAAAAa8/MaLhUwIh9dE/s320/Kamla+prasad+photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5429104861699621586" /></a><br />मैं इस व्यवस्था में लगातार ह्रास देखता हूँ और इसीके बढ़ते जाने की आशंका है क्योंकि इसमें जैसे-जैसे गरीबी और अमीरी की खाई बढ़ेगी, देश में पैसे का कब्ज़ा बढ़ेगा. चुनाव में, राजनीति में पैसे का कब्ज़ा बढ़ेगा. अमरीकी दोस्ती सघन होगी तो आतंकवाद, नस्लवाद, क्षेत्रवाद बढ़ेगा. हर समस्या का निदान क़ानून-व्यवस्था की समस्या माना जाएगा. नक्सलवाद की समस्या के लिए सेना की तरफ देखा जाएगा...तब हम क्या उम्मीद कर सकते हैं...साल २०१० में...२०११ में और उसके आगे के वर्षों में भी...<br /><br />जबसे यह भूमंडलीकरण का राज आया है तबसे विकास की थोथी चर्चा होती है. समता की बात नहीं होती...तो ऐसे में कैसा जनतंत्र? रूसो ने कहा है कि ऐसे किसी जनतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती जिसमें समता न हो...आज हमारे देश के हर आदमी के अवचेतन में अज्ञात भय और अमूर्त गुस्सा व्याप्त है. यह जनतंत्र के चरित्र का सबसे घातक पहलू है.<br /><br />ऐसी परिस्थितियों में उम्मीद की किरण हमारी जागरूक युवा पीढ़ी है और जो जागरूक मीडिया वाले लगातार विपरीत परिस्थितियों में सकारात्मक बातें जनता के सामने रखते चलते हैं, उनसे भी आने वाले समय में उम्मीद बंधती है. यह मीडिया बड़ी-बड़ी साजिशों को विफल करके नई उम्मीदों को जन्म देता है. अगले साल उन्हीं उम्मीदों के विस्तार की आशा करता हूँ. जनता में सामूहिक भाव-बोध आने वाले समय में सामाजिक परिवर्त्तन का कारक बनेगा. मैं अब भी मानता हूँ कि कला और संस्कृति का क्षेत्र तथा माध्यम अग्रगामी है और यही परिवर्त्तन की राह दिखाएगा.<br /><br /><br /><strong>निदा फाज़ली (वरिष्ठ शायर):</strong> मुझे कोई उम्मीद नहीं है. पिछला साल अपने दुखों के साथ चला जाता है और नया साल अपने ग़मों के साथ आता है. मेरा एक शेर है-<br /><br /><strong>'रात के बाद नए दिन की सहर आयेगी<br /><br />दिन नहीं बदलेगा, तारीख़ बदल जायेगी.'</strong><br /><br />...सो कैलेण्डर बदलता है, कैलेण्डर के बाहर का माहौल नहीं बदलता. वह २००९ हो, २०१० हो या कोई और साल हो... बाहर की फिजायें, हवाएं, सदायें जस की तस रहती हैं.<br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1ghcQKt-oI/AAAAAAAAAbE/Svk9SWbO2a8/s1600-h/Nida+Sahab-1.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 88px; height: 100px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1ghcQKt-oI/AAAAAAAAAbE/Svk9SWbO2a8/s320/Nida+Sahab-1.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5429126120055110274" /></a><br />बहुत बड़ी बात यह है कि भाजपा ने इंडिया शाइनिंग का नारा दिया था, कांग्रेस इंडिया इज शाइनिंग कह रही है...लेकिन जिस देश में नंदीग्राम हो, सिंगूर हो, भिंड हो, मुरैना हो, मोतिहारी हो... और ऐसे ही अनेक अंधेरों के क्षेत्र फैले हुए हों जो देश की आबादी के तीन चौथाई से ज्यादा हैं...वहां बहुत उम्मीद क्या करना...बस इन्हीं लोगों के लिए भूख है... मंहगाई है...महामारियां हैं...२००९ में भी थीं और क्या आप कह सकते हैं कि २०१० में नहीं रहेंगी?<br /><br />आज़ादी से अब तक... और ब्रिटिश राज में तथा उसके पहले से भी आम आदमी का शोषण हमारी तहजीब की पहचान रहा है...पुराने युग में भी था...२०१० में भी रहेगा. नए साल के लिए मेरा कोई सुझाव नहीं है... बस इतना कहता हूँ कि भगवान ने इंसान को बनाया तो शैतान को भी नहीं मारा...रामकथा में दिलचस्पी रावण के कारनामों के चलते कायम रहती है...यही २०१० में होगा...इक़बाल का एक शेर है-<br /><br /><strong>'गर तुझे फ़ुरसत मयस्सर हो तो पूछ अल्लाह से<br /><br />क़िस्सा-ए-आदम को रंगीं कर गया किसका लहू.'</strong><br /><br />फ़िल्मी गीत-संगीत एक व्यापार है और व्यापार चलता रहता है. एक बात गौर करने लायक है और वो यह कि पहले फिल्मों की दुनिया में प्रवेश पाने के लिए जो पासपोर्ट मिलता था वह इस आधार पर मिलता था कि आपने कितनी बढ़िया शायरी की है, आप कितने जहीन हैं, आपकी कितनी किताबें छप चुकी हैं. शैलेन्द्र, साहिर, राजा मेंहदी अली खाँ, भारत व्यास आदि गीतकार यही पासपोर्ट लेकर दाखिल हुए थे. आज हालत यह है कि अगर आपमें ये विशेषताएं हैं तो आपको बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा. वजह यह है कि जैसा लिखवाने वाला वैसा ही लिखने वाला.<br /><br />नए साल के लिए मैं अपना एक दोहा पाठकों को भेंट करना चाहता हूँ-<br /><br /><strong>'किरकिट, नेता, एक्टर, हर महफ़िल की शान<br /><br />स्कूलों में क़ैद है, ग़ालिब का दीवान.'</strong><br /><br />नई नस्ल के लिए मेरा यही सन्देश होगा कि वे स्कूलों में क़ैद ऐसे कई गालिबों को आज़ाद कराएं और उनका नेताओं, एक्टरों और क्रिकेटरों से ज्यादा सम्मान करें. शुक्रिया...धन्यवाद!"<br /><br /><strong>लीलाधर जगूड़ी (वरिष्ठ कवि):</strong><br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0WTZU5dEWI/AAAAAAAAAW0/pqJr_ye09Yk/s1600-h/jagoodi+ji-1.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 82px; height: 118px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0WTZU5dEWI/AAAAAAAAAW0/pqJr_ye09Yk/s320/jagoodi+ji-1.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5423903389553332578" /></a> एक उम्मीद तो यही है कि साल २००९ में जो काम नहीं कर सका वे २०१० में जरूर कर सकूंगा. दूसरी उम्मीद यह करता हूँ कि साल २०१० साल २००९ की पुनरावृत्ति न हो. मैं चाहता हूँ की खेती-बाड़ी और बागवानी संबंधी उत्पादनों के बारे में भारत में एक नयी शुरुआत हो. राष्ट्रीयता के बारे में विचारों को लेकर बदलाव आना चाहिए. अब अपनी-अपनी अंतरराष्ट्रीयता न हो बल्कि सबकी एक जैसी अंतरराष्ट्रीयता हो तो अच्छा होगा. हम राष्ट्रों के नागरिक होते हुए भी विश्व नागरिकता की और बढ़ सकें तो संयुक्त राष्ट्र संघ को वीजा जारी करने का अधिकार मिल जाएगा...वरना काहे का संयुक्त राष्ट्र संघ?<br /><br />साहित्य जगत में इस समय मुझे दो ख़तरे स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं जो २००९ ने पैदा नहीं किये लेकिन २००९ में वे पुख्ता अवश्य हुए हैं. एक तो कविता के प्रति लगावाहीनता की बात जाहिर की गयी है जो एक अभिशाप से कम नहीं है. कवियों को कविता की ताकत और उसकी लोकप्रियता के बारे में फिर से सोचना चाहिए. दूसरा खतरा यह है कि गद्य को कविता की शक्ति से वंचित किया जा रहा है. यह गद्य के लिए शुभ लक्षण नहीं है. साहित्य अपनी तमाम विधाओं में आगे बढ़ता हुआ नहीं दिख रहा है. उम्मीद है कि २०१० में निबंधों और नाटकों की एक नयी शुरुआत होगी ताकि गद्य में काव्य-गुण बचा रह सके.<br /><br /><br /><strong>चंद्रकांत देवताले (वरिष्ठ कवि):</strong> जो उम्मीदें १९५० में थीं वे निरंतर कम होती जा रही हैं. भले ही लोग मुझे निराशावादी होने के कटघरे में खड़ा कर दें, इस देश की वास्तविक जनता के लिए मुझे २०१० में कोई उम्मीद नज़र नहीं आती. यह सारा तमाशा अर्थशास्त्र का हो रहा है और ज़िंदगी की बुनियादी समस्याएं नेपथ्य में ढंकी हुई हैं.<br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0WTkq9j32I/AAAAAAAAAW8/jRLY95Ga1PY/s1600-h/Devtale.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 289px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0WTkq9j32I/AAAAAAAAAW8/jRLY95Ga1PY/s320/Devtale.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5423903584454696802" /></a><br />भविष्य में मैं चाहूंगा कि शिक्षा के सामान अवसर हों. जो शिक्षा अमीर आदमी के बेटे-बेटियों को मिलती है वही इस देश के गरीब आदमी के बच्चों को मिलना चाहिए. स्वास्थ्य सुविधाएं, स्वच्छता की सुविधाएं गाँवों, दलित बस्तियों और झुग्गी-झोपड़ियों में...सब जगह एक जैसी होना चाहिए. जनता के प्रतिनिधि, वे चाहे संसद में हों या विधानसभाओं में...यदि वे सदन का बहिष्कार करते हैं तो राष्ट्रीय संवैधानिक शपथ की अवमानना के आरोप में उन पर मुक़दमा चलाया जाए और उनकी सदस्यता समाप्त की जाए. न्याय-प्रणाली का जो अन्याय गरीब, कमज़ोर और असमर्थ लोग भुगत रहे हैं, वह तुरंत समाप्त होना चाहिए. यह सपना पूरा होना बहुत कठिन है, इसलिए मुझे अधिक उम्मीद नज़र नहीं आती.<br /><br />साहित्य बिरादरी से मैं यही अपेक्षा करूंगा कि वे शब्दों के गढ़ों और मठों से बाहर आयें तथा जितना संभव हो, अपना प्रतिरोध सड़क पर दर्ज़ कराएं.<br /><br /><strong>पंकज बिष्ट (कथाकार-उपन्यासकार):</strong> मैं उम्मीद करता हूँ कि हमारे शासक वर्ग में बेहतर समझ जाग्रत होगी. दूसरी ओर मैं देश की आम जनता से भी उम्मीद करता हूँ कि अगले वर्षों में वह अपने अधिकारों के प्रति अधिक सचेत होगी और अपने साथी नागरिकों के प्रति एक न्यायिक दृष्टिकोण अपनाएगी.<a href="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0WTzfIlEwI/AAAAAAAAAXE/WR-uUWNzdss/s1600-h/Punkaj+bisht.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 72px; height: 89px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0WTzfIlEwI/AAAAAAAAAXE/WR-uUWNzdss/s320/Punkaj+bisht.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5423903838977725186" /></a>देश की आर्थिक नीतियों से जो वर्ग सबसे ज्यादा लाभान्वित है, उसे यह समझना चाहिए कि यह सब किसकी कीमत पर हो रहा है. लोग विस्थापित हो रहे हैं, उनकी ज़मीनें छीनी जा रही हैं. अगर विकास इस कीमत पर हो रहा है तो चेत जाना चाहिए. अगर लोगों को जीने के अधिकार नहीं मिलेंगे तो जो तथाकथित आर्थिक सफलताएं इस राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था में नज़र आ रही हैं, वे ज्यादा दिन नहीं टिकेंगी.<br /><br />हिन्दी साहित्य के सम्बन्ध में मैं यह चाहता हूँ कि इसकी सरकारों पर निर्भरता घटे. सबसे बड़ी बात मैं यह देखना चाहूंगा कि सरकार द्वारा हो रही पुस्तकों की थोक खरीद बंद हो. इस प्रवृत्ति ने पूरे हिन्दी साहित्य को ख़त्म कर दिया है. अगर हमें अपने साहित्य को बचाना है तो हमारी पुस्तकों का वास्तविक ख़रीदार पाठक-वर्ग तैयार करना होगा.<br /><br /><br /><strong>डॉक्टर विजय बहादुर सिंह (आलोचक, सम्पादक 'वागर्थ'):</strong> साल २०१० में लगता है कि लोगों का क्षोभ और ग़ुस्सा बढ़ेगा. न्याय की आकांक्षा ज्यादा प्रबल होगी. जनतांत्रिक संस्थाएं और उसकी जो प्रक्रिया है, उनकी नैतिक उपस्थिति पर लोग संदेह से भरते चले जायेंगे.<br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0WT84NPyTI/AAAAAAAAAXM/xeWxw1kG7gs/s1600-h/Vijay+Bahadur.bmp"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 112px; height: 132px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0WT84NPyTI/AAAAAAAAAXM/xeWxw1kG7gs/s320/Vijay+Bahadur.bmp" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5423904000327010610" /></a><br />सोच रहा हूँ कि आज़ादी के बाद से समाज का लोप हुआ है और सत्ता समाजभक्षी ताक़त के रूप में सामने आयी है. मजबूर होकर लोगों को इस समाज को ज़िन्दा करना होगा ताकि सरकारें समाज के गर्भ से ही पैदा हो सकें. अगर ऐसा होगा तभी कुछ उम्मीद की जा सकती है.<br /><br />साहित्य से मैं हमेशा यह कामना करता हूँ कि वह लोगों के संघर्ष की क्षमता को और अधिक उद्दीप्त करे. वह लोकचित्त के अधिक करीब आये. ऐसा तभी संभव है जब रचनाकार अपने ज़मीनी यथार्थ को अपनी स्वाधीन आँखों से देखने का सामर्थ्य प्रदर्शित करेगा.<br /><br /><br /><strong>राजेश जोशी (वरिष्ठ कवि):</strong> इच्छा तो होती है कि देश में बहुत सारी जो चीज़ें बरसों से अनसुलझी पड़ी हैं उन्हें सुलझाया जाए. उम्मीद है कि आतंकवाद के खिलाफ़ जो लम्बी लड़ाई चल रही है, उसका सकारात्मक हल २०१० में निकलेगा और दुनिया से इस तरह की हिंसा समाप्त होगी. हम कामना करते हैं कि विकास के रास्ते पर देश इस ढंग से चले कि बेकारी, गरीबी और हर तरह की असमानता दूर हो. रोज़गार के नए-नए अवसर पैदा हों.<br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0WUHB8PqUI/AAAAAAAAAXU/Ym14pT6Zr5U/s1600-h/Rajesh+joshi+photo.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 150px; height: 106px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0WUHB8PqUI/AAAAAAAAAXU/Ym14pT6Zr5U/s320/Rajesh+joshi+photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5423904174738745666" /></a><br />एक बात गौर करने लायक है कि सांस्कृतिक स्तर पर साल २००९ बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण गुज़रा है. पूरे साल व्यर्थ की उठापटक चलती रही है, संगठनों एवं साहित्यकारों को लेकर विवाद हुए हैं. ज्यादा सृजनात्मक कार्य नहीं हुआ. अकादमियां भी निरर्थक ढंग के विवादों में घिर गयी हैं. इस पर सरकारों को गंभीरता से सोचना चाहिए और इसे सुधारना भी चाहिए. अकादमियां सृजन और कला से जुड़ी होती है इसलिए उन्हें संचालित करने की जिम्मेदारी इसी क्षेत्र से जुड़े लोगों को सौपना चाहिए. मेरा यह भी कहना है कि जिस तरह दिल्ली साहित्य अकादमी का अध्यक्ष अशोक चक्रधर को बनाया गया वह ठीक नहीं हुआ. दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित एक समझदार राजनीतिज्ञ हैं लेकिन इस मामले में उनकी हठधर्मिता गैरवाजिब थी. चक्रधर मेरे मित्र हैं, पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं लेकिन वह हिन्दी काव्य-मंचों के लोकप्रिय कवि हैं. हिन्दी साहित्य अकादमी एक गंभीर साहित्यिक संस्थान है. उसमें किसी गंभीर साहित्यकर्मी को लाना चाहिए था.<br /><br /><strong>आग्नेय (वरिष्ठ कवि):</strong> मैंने तो आँखें बंद कर रखी हैं और कान भी. निजी ज़िंदगी में जो चीज़ें हो रही हैं वही व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण होती हैं. जैसे कोई किसी से बहुत प्यार करता हो और वह दुनिया से चला जाए, या परिवार का कोई सदस्य विक्षिप्त हो जाए तो उसकी ज़िंदगी में भूचाल आ सकता है. अब सरकारें किसकी बनती हैं, राहुल गांधी पीएम बनेंगे या नहीं या अमेरिकी संस्कृति हमला कर रही है आदि सवाल मेरी ज़िंदगी में बहुत मायने नहीं रखते. देखना यह चाहिए कि एक व्यक्ति; एक नागरिक की ज़िंदगी में क्या हो रहा है. मनुष्य की यात्रा को विचारधारा के चश्मे से देखना संभव नहीं है...ठीक भी नहीं है.<br /><br />टीएस इलियट ने कहा था कि आप किसी चीज़ की उम्मीद न करें क्योंकि वह उम्मीद किसी ग़लत चीज़ के लिए होगी. जैसे मैं कहूं कि दालों के भाव कम हो जाएँ या साग-सब्जी-फल वगैरह सस्ते हो जाएँ… तो यह उम्मीद करना भी ग़लत ही साबित होता है. अब जैसे जलवायु का संकट है… तो वह किसी ख़ास तरह के राष्ट्रों की साजिश नहीं है, बल्कि यह पूरी मानव सभ्यता का संकट है. ओबामा और मनमोहन सिंह मनुष्य ही हैं. ग्लोबल वार्मिंग को हम अमेरिका का संकट नहीं कह सकते.<br /><br />अपनी पृथ्वी का भविष्य भी चमकीला नहीं है. मनुष्य जबसे इस पृथ्वी पर है उसने चींटियों, मधुमक्खियों, पशुओं यहाँ तक कि मछलियों की जगह भी छीन ली है. कोई इन जीव-जंतुओं से पूछे कि मनुष्य ने उनके साथ शुरू से ही क्या सुलूक किया है? वैसे भी माना जा रहा है कि चीजें अंत की तरफ बढ़ रही हैं. मेरा पूरा विश्वास है कि पृथ्वी पर जीवन का अंत होने वाला है और इसे कोई रोक नहीं सकता.<br />साहित्य में मुझे लग रहा है कि यह बड़े लेखन का दौर नहीं है. संगीत में भी बीथोवन और मोजार्ट अब कहाँ पैदा हो रहे हैं?<br /><br /><br /><strong>मंगलेश डबराल (वरिष्ठ कवि):</strong><br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0XOPaFgSqI/AAAAAAAAAXc/B76Q096wPDA/s1600-h/Manglesh+Photo.jpg"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 76px; height: 103px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0XOPaFgSqI/AAAAAAAAAXc/B76Q096wPDA/s320/Manglesh+Photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5423968090333399714" /></a> साल २००९ के अंत में पीएम डॉक्टर मनमोहन सिंह ने कांग्रेस के इंदिरा भवन का शिलान्यास करते हुए दिल्ली में कहा कि देश में आतंकवाद, साम्प्रदायिकता, नक्सलवाद और क्षेत्रवाद- ये चार बड़ी चुनौतियां हैं. पीएम खुद यह भूल गए कि गरीबी एक बहुत बड़ी समस्या है. बाज़ारवाद के समर्थक पीएम को बढ़ती हुई गरीबी नहीं दिखाई देती. जब तक भारत अमेरिकापरस्ती नहीं छोड़ता है और बाज़ारवाद का साथ नहीं छोड़ता है...अगर भारत यह मान कर चल रहा है कि सारी समस्याओं का हल दमन के जरिये किया जा सकता है तो वह भ्रम है. पीएम द्वारा गिनाई गयी चार चुनौतियों से भी बड़ी चुनौती नव-उदारीकरण और भूमंडलीकरण है.<br /><br />मेरा मानना है कि नए साल में लगभग यूरोपीय यूनियन की तर्ज़ पर एशियाई देशों की यूनियन बनाने की पहल होना चाहिए. इससे बहुत सारी समस्याएं हल हो जायेंगी.<br /><br />साल २०१० में मुझे आशंका है कि साहित्य में निजीकरण और निगमीकरण का दौर चलेगा. संस्कृति के दूसरों हिस्सों में कार्पोरेटाईजेशन हो ही रहा है. चित्रकला में भी वे लोग घुस गए हैं. देखिये कि केन्द्रीय साहित्य अकादमी का जो 'रवीन्द्रनाथ ठाकुर पुरस्कार' है, इसकी धनराशि कोरिया की बहुराष्ट्रीय कंपनी सैमसंग देने जा रही है. यह पुरस्कार ८ भाषाओं में है. सोचिये कि कितने साहित्यकार इस धनराशि के लपेटे में आ जायेंगे. यह ख़तरे की घंटी है. लेखकों को सचेत हो जाना चाहिए. साहित्य में निजी पूंजी का प्रवेश बड़ा नुकसान पहुंचाएगा. इस बात की क्या गारंटी है कि कल को साहित्य अकादमी के मुख्य पुरस्कारों को कोई निजी कंपनी प्रायोजित नहीं करने लगेगी.<br /><br />दूसरी बात यह है कि एक तरफ हम गांधी जी द्वारा उपयोग में लाई गयी कई चीज़ों को दुनिया भर में जगह-जगह से इकट्ठा करने की मुहिम छेड़े हुए हैं और दूसरी तरफ हम रवीन्द्रनाथ ठाकुर के नाम का पुरस्कार बहुराष्ट्रीय निगम को सौंप रहे हैं.<br /><br />साहित्य में वैचारिक और नैतिक गिरावट आती जा रही है. इसके बढ़ते जाने की आशंका है. साहित्य देश के साधारण जन से दूर जा रहा है. इसकी दिशा खाते-पीते मध्य-वर्ग की तरफ है. मुझे लगता है कि साहित्य को साधारण जन के निकट ही रहना चाहिए. एक उम्मीद यह भी है कि साल २०१० में महिला और दलित लेखन से कोई महत्वपूर्ण कृति आयेगी.<br /><br /><br /><strong>सुधा अरोड़ा (वरिष्ठ कथाकार):</strong> <br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0XOgF9sw-I/AAAAAAAAAXk/NH6V_kxhPRE/s1600-h/Sudha+Arora+Photo.jpg"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 75px; height: 94px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0XOgF9sw-I/AAAAAAAAAXk/NH6V_kxhPRE/s320/Sudha+Arora+Photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5423968376989729762" /></a>आज जैसी स्थितियां हैं उसमें बदलाव की गुंजाइश बहुत कम दिखाई दे रही है. आम जनता महंगाई की चक्की में पिस रही है...पूरा परिदृश्य ही काफी निराशाजनक है. राजनेताओं में जिस तरह भ्रष्टाचार पनपा हुआ है उसका कोई तोड़ नज़र नहीं आता. देश की बागडोर जिनके हाथ में है अगर वही भ्रष्ट हों तो आम जनता कितना भी बड़ा आन्दोलन क्यों न खड़ा कर ले, उससे क्या होगा...और आन्दोलन जनता खड़ा कैसे करेगी जबकि उसके ही जीने के लाले पड़े हुए हैं. न्याय-व्यवस्था का ढांचा चकनाचूर हो चुका है. अभी रुचिका का मामला ही देख लीजिये...<br /><br />साहित्य जगत में भी मुझे निराशाजनक परिदृश्य दीखता है. जब लेखकों के अपने कोई नैतिक मूल्य नहीं हैं, जब उनमें ग़लत को ग़लत कहने का माद्दा नहीं है, सच सुनने-सुनाने का साहस नहीं है, सच्चाई के पक्ष में खड़े होने का दम नहीं है तो ऐसे लेखकों द्वारा रचे गए साहित्य से हम क्या उम्मीद करेंगे? लेखन में मैं कई बार मोहभंग की स्थिति से गुजर चुकी हूँ और आज भी समझ लीजिये कि वही दौर चल रहा है.<br /><br /><strong>कुमार अम्बुज (कवि, हालिया कविता-संग्रह 'अतिक्रमण’):</strong><br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0XO-Ib_gQI/AAAAAAAAAXs/zUsy_7k1CxQ/s1600-h/Kumar+Ambuj.jpg"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 104px; height: 87px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0XO-Ib_gQI/AAAAAAAAAXs/zUsy_7k1CxQ/s320/Kumar+Ambuj.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5423968893049733378" /></a> पेड़ों और फसलों के लिए धरती पर लगातार कम होती जगह. पानी की मुश्किल. साम्राज्यवादी, पूंजीवादी समाज का रचाव और फैलाव. विकास के जनविरोधी प्रस्ताव. प्रतिरोध और आन्दोलनों की अनुपस्थिति. ये कुछ चिंताएं हैं जिनसे अक्सर मैं इधर घिरा रहता हूँ. जैसे इन सब बातों के बीच एक तार जुड़ा है जो इन्हें एक साथ रखता है. इन पर अलग-अलग विचार किया जाना शायद संभव नहीं. इन पर एक साथ ही गौर करना जरूरी होगा. यह एक कुल चरित्र है और आफत है जो इस समय हमारे सामने रोज-रोज एक बड़े रूप में सामने आती जा रही है.<br /><br />ऐसे में गुजरते वर्ष की एक रात बीतने भर से, किसी नयी सुबह में एक फैसलाकुन उम्मीद संभव नहीं. लेकिन प्रयास हों कि मध्यवर्ग में कुछ उपभोग वृत्ति कम हो, उसकी बाज़ार केन्द्रित आक्रामकता में कमी आये और वह मनुष्यता को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही चीज़ों के प्रति अपना प्रतिरोधात्मक विवेक दिखा असके तो यह नए साल की उपलब्धि होगी. वह सूचना और ज्ञान से संचालित होने के साथ-साथ संवेदना और करुणा से भी चालित हो. फासिज्म के जितने लक्षण इटली और ख़ास तौर पर हिटलर की जर्मनी में दिखने लगे थे, वे सब आज हमारे देश में उपस्थित हैं. यही हमारे समय का प्रधान सांस्कृतिक लक्षण है. राजनीति से इसका सीधा गठजोड़ है और सामाजिक संबंधों को संस्कृति के नाम पर इसमें शामिल कर दिया गया है. राजनीति अप्रत्याशित भ्रष्टाचार के पराक्रमों का उदाहरण बन कर रह गयी है. नए साल में इन सब में अचानक कोई कमी आ सकेगी, ऐसी कोई आशा व्यर्थ है.<br /><br />लेकिन मैं साहित्य से उम्मीद करता हूँ. यह ठीक है कि साहित्य अपनी भूमिका उतनी प्रखरता से नहीं निभा पा रहा है कि इस पतनशील और फासिस्ट समाज से लड़ने के लिए समुचित मार्गदर्शन और प्रेरणा दे सके. लेकिन साहित्य ही वह जगह होगी जहां से ऐसी प्रवृत्तियों की पहचान संभव हो सकेगी और प्रतिरोध के कुछ उपाय भी दिखेंगे. साहित्य में, ख़ास तौर पर कहानी में, बीच-बीच में कलावाद का ज़ोर भी उठता दिखाई देता है, उसकी जगह जीवन के उत्स, संताप और स्वप्नशीलता के जीवंत तत्वों को देखने की आशा की जानी चाहिए. हिन्दी कहानी, कविता और उपन्यास जहां तक आ गए हैं, वहां से एक नए प्रस्थान एवं अग्रगामिता की शुभकामना भी है. <br />लेकिन सारी आशाएं अंततः सकर्मक क्रियाओं से ही फलीभूत हो सकती हैं इसलिए हम सबके नागरिक प्रयास भी जरूरी होंगे.<br /><br /><strong>एकांत श्रीवास्तव (कवि, हालिया कविता-संग्रह 'बीज से फूल तक'):</strong><a href="http://3.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0XPKfsugKI/AAAAAAAAAX0/vDCdHBw66pw/s1600-h/Ekant+Shrivastav.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 78px; height: 104px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0XPKfsugKI/AAAAAAAAAX0/vDCdHBw66pw/s320/Ekant+Shrivastav.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5423969105452368034" /></a><br />मैं कामना करता हूँ कि यह जो असमान छूती मंहगाई है वह नीचे उतरे ताकि एक बहुत साधारण व्यक्ति अपनी जेब की हैसियत के अनुसार अपना ठीक-ठीक जीवनयापन कर सके. मगर उत्तर-पूंजीवाद में यह संभावना कम बनती दिखाई दे रही है.<br /><br />मैं यह मानता हूँ कि वर्त्तमान साहित्य से ही भविष्य की भूमिका बनती है. मैं चाहूंगा कि भविष्य का साहित्य पाठकों के अधिक करीब हो और उसका रास्ता दिमाग के साथ-साथ दिल से होकर भी गुज़रे. जैसा कि डॉक्टर रामविलास शर्मा ने कहा है कि सिर्फ विचारबोध से साहित्य पैदा नहीं होता, उसके लिए भाव-बोध ज़रूरी है.<br /><br /><strong>डॉक्टर सूर्यबाला (वरिष्ठ कथाकार-व्यंग्यकार):</strong><br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0cbx5YBDzI/AAAAAAAAAX8/hyq6EyOh_X8/s1600-h/Dr.+Suryabala+Photo.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 90px; height: 106px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0cbx5YBDzI/AAAAAAAAAX8/hyq6EyOh_X8/s320/Dr.+Suryabala+Photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5424334820220145458" /></a><br />मुझे ध्यान में आता है कि कोलंबिया विश्वविद्यालय (न्यूयॉर्क) में एक छात्र ने मुझसे पूछा था कि जिस तरह की दुनिया की आप कल्पना करती हैं, जो सम्बन्ध आपके पात्र जीते हैं, जिस विश्व की आकांक्षा वे करते हैं, क्या आप सोचती हैं कि यथार्थ के धरातल पर वैसा कभी हो पायेगा?...तो इतने आदर्शों में जीने का अर्थ? इसके जवाब में मैंने कहा था कि मुझे मालूम है कि ऐसा कभी संभव नहीं हो पायेगा लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि हम सपने देखना छोड़ दें. एक अहम् बात यह भी है कि जब हम बहुत अच्छा सोचेंगे, दूसरों से उन विचारों को बांटेंगे, तो कम से कम हम अपने आस-पास एक छोटी ही सही, ख़ूबसूरत दुनिया बनाने में कामयाब होंगे.<br /><br />साहित्य जगत में मेरे चाहने या न चाहने से एक साल के अन्दर कुछ नहीं होने वाला. फिर भी अच्छे साहित्य-सृजन की इच्छा बनी रहेगी. मेरी कामना है कि हम रचनाकार अपनी आत्ममुग्धता और स्वकेन्द्रीयता से मुक्त होकर ईमानदारी और पारदर्शिता से समाज की तरफ भी देखें. ज्ञान और शिक्षा ने हमें विनम्र और समझदार नहीं बनाया है. हम बातें ऊंची-ऊंची करते हैं लेकिन जीवन में उस सहजता और पारदर्शिता का निर्वाह नहीं कर पाते. लेकिन यही तो इस यांत्रिक जीवन की थोड़ी सी लाचारियाँ भी हैं. <br /><br /><strong>राजेन्द्र दानी (वरिष्ठ कथाकार):</strong><br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0cb9_AxdOI/AAAAAAAAAYE/h9p0RfqzXQw/s1600-h/Rajendra+Dani.jpg"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 267px; height: 320px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0cb9_AxdOI/AAAAAAAAAYE/h9p0RfqzXQw/s320/Rajendra+Dani.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5424335027891696866" /></a><br />मैं एक अच्छा आदमी बनने के प्रयास में हमेशा सकारात्मक सोचता हूँ लेकिन आस-पास का माहौल निराश करता है. साल २०१० में सब कुछ चमत्कारिक रूप से बदल जाएगा, ऐसी मुझे उम्मीद नहीं है. अभी मैं निरंजन श्रोत्रिय की एक कहानी पढ़ रहा था, उसका शीर्षक है- 'जानवर'. इस कहानी में होता यह है कि पति-पत्नी सो रहे हैं और रात के वक्त कोई उनका दरवाज़ा खटखटाता है. वे इस डर से दरवाज़ा नहीं खोलते कि कोई जानवर होगा. सुबह पति उठता है तो देखता है कि भीड़ लगी हुई है और वहां एक शव पड़ा हुआ है. पति के मन में कौंधता है कि हो न हो यह वही शख्स है जो रात में मदद के लिए दरवाज़ा खटखटा रहा था.<br />बहरहाल, पति घर लौटता है तो पत्नी पूछती है कि इतनी देर क्यों लगा दी, क्या हुआ था. तो पति कहता है कि कुछ नहीं, कोई जानवर मर गया है.<br /><br />हमारे आस-पास भी यही माहौल है. आज खुशियों का इजहार भी ज्यादा दूर तक नहीं पहुंचता. वैसे मुझे उम्मीदें तो बहुत हैं नए साल से. अभी हमने आमिर खान की 'थ्री ईडियट्स' देखी जबलपुर में. मैं था, ज्ञान जी थे, पंकज स्वामी थे, अरुण यादव थे. तो उस फिल्म ने हमें खुश कर दिया. फिल्म में बड़े ही ह्यूमरस तरीके से पूरी विट के साथ यह दिखाया गया है कि अकादमिक अथवा यांत्रिक शिक्षा से कोई सचमुच का शिक्षित नहीं हो जाता.<br /><br />साहित्य के अलावा फिल्मों से समाज में बड़ा बदलाव आ सकता है. अब फिल्मों की परम्परागत भाषा और उसका मुहावरा बदल रहा है. अब वह घिसी-पिटी बात नहीं है कि 'अ ब्वाय मीट्स अ गर्ल.' एक और बात जो मैं २०१० में घटित होते देखना चाहूंगा कि साहित्यकारों की पुरानी पीढ़ी का नयी पीढ़ी से आत्मीय और गहरा संवाद स्थापित होना चाहिए. नई पीढ़ी के लोग अपने कैरियर को लेकर अति महत्वाकांक्षी हैं और उनमें वैचारिक आग्रह कम हो गया है.<br /><br /><strong>सुधीर रंजन सिंह (कवि-आलोचक):</strong> अब तो लगता है कि दुनिया अपनी समझ से बाहर होती जा रही है और इसके कसूरवार भी हमीं लोग हैं. जाहिर है एक समय हम दुनिया को बदलने की बात करते थे, व्याख्या की नहीं. लेकिन दुनिया हमारे न चाहते हुए भी इतनी दूर तक बदल गयी है कि व्याख्याकार पीछे छूट गए. अब भी हमें लगता है कि व्याख्या में ही बदलने का काम संभव है.<br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0ccUW4nd0I/AAAAAAAAAYM/815ZoqRKsHM/s1600-h/Sudhir+Ranjan+Singh+Photo.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 215px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0ccUW4nd0I/AAAAAAAAAYM/815ZoqRKsHM/s320/Sudhir+Ranjan+Singh+Photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5424335412257060674" /></a><br />जनता का जीवन सुकून से गुज़रे इस बात की गारंटी कोई नहीं दे सकता. होता यह है कि जो संस्कृति कर्म है, उसको जनता एक भिन्न वस्तु मान लेती है. संस्कृति कर्म के प्रति जनता में एक दायित्वहीनता है और संस्कृतिकर्मियों के यहाँ जनता को लेकर एक क़िस्म की बेफ्रिकी है. एक कलाकार अपने आत्मविश्वास में महत्वाकांक्षा से इस प्रकार ग्रस्त हो जाता है कि वह किसी तरह से जीवन को उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं रहता. दूसरी तरफ जनता यह सोचती है कि यह तो कला है और पहुँच से बाहर है. आखिर हमारे पास जीवन निर्वाह के लिए नीरस गद्यात्मक संसार है. कला और जीवन एक नहीं है लेकिन उनको मुझमें (जनता + कलाकार में) एक होना होगा. मेरे उत्तरदायित्व की एकता में एक होना होगा. यही सूत्र हो सकता है.<br /><br />साल २०१० में मैं चाहूंगा कि हमारा लेखन, हमारी कलात्मक अभिव्यक्तियाँ ज्यादा से ज्यादा हों और हमें वर्त्तमान सत्ता-संरचना पर एक दबाव समूह की तरह काम करना होगा. यह तभी संभव है जब साहित्य में मात्रात्मक एवं गुणात्मक परिवर्त्तन होंगे.<br /><br /><strong>बोधिसत्व (कवि, हालिया कविता संग्रह 'दुःख तंत्र’):</strong><br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0ccgDsdUHI/AAAAAAAAAYU/3EkPOwnQqOo/s1600-h/Bodhisatva.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 240px; height: 180px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0ccgDsdUHI/AAAAAAAAAYU/3EkPOwnQqOo/s320/Bodhisatva.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5424335613264220274" /></a> मुझे उम्मीद यह है कि कविता में कथा तत्व की वापसी होगी क्योंकि बिना कहानी के न कविता जीवित रही है न रहेगी. अगर हम संसार भर के काव्य को ध्यान में रखें तो वही कवितायें जीवित नजर आती हैं जिनमें कहीं न कहीं कथा और चरित्र हैं. आप भारतीय मध्यकालीन साहित्य को ही ले लें, सूर, तुलसी, जायसी या आधुनिक काल के निराला, प्रसाद, टैगोर या अन्य बड़े कवि....तो इनकी सारी बड़ी रचनाएँ एक कथा कहती हैं और चरित्र प्रस्तुत करती हैं. आज की कविता में भी जो चरित्र प्रधान कवितायें हैं, वे ज्यादा पढ़ी जाती हैं, ज्यादा चर्चा में रहती हैं और ज्यादा लोगों को जोड़ती हैं और उनके स्मरण में रहती हैं. मेरी ही कवितायें 'माँ का नाच', 'पागलदास' और 'शांता' लोगों के जहन में मेरी ही दूसरी कविताओं की बनिस्बत ज्यादा गहरे बैठी हुई हैं क्योंकि इनमें कथा है, चरित्र हैं.<br /><br />आज यह परिभाषित करना जरूरी है कि आम जनता क्या है? क्योंकि जो साहित्य आज लिखा जा रहा है वह किस टाइप की जनता के लिए है...जिसमें आप बदलाव लाना चाह रहे हैं. यह भ्रम भी दूर हो जाना चाहिए कि लिखने से जनता का कुछ भला होता है या समाज में परिवर्त्तन होता है या आर्थिक विसंगतियां दूर हो जाती हैं या साम्प्रदायिक दंगे रुक जाते हैं या किसानों की आत्महत्याएं रुक जाती हैं...तो यह समझना चाहिए कि कविता लिखने से बाल मजदूरी या दहेज़ प्रथा भी दूर नहीं होगी.<br /><br />कविता आज कहने को तो 'उर्वर प्रदेश' में बतायी जा रही है लेकिन वह भयानक बंजर प्रदेश में भटक रही है... और २०१० में या २०२० तक में भी मुझे नहीं लगता कि वह सचमुच की काव्य-भूमि में लौटेगी. मैं चाहूंगा कि हम जितनी जल्दी चमत्कार पैदा करने वाली कवितायें लिखने से छुटकारा पा लें, उतना ही अच्छा होगा.<br /><br /><strong>डॉक्टर सेवाराम त्रिपाठी (वरिष्ठ आलोचक, अध्यापक):</strong><br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0q4WpwmuaI/AAAAAAAAAYk/qCy1jUlh1vI/s1600-h/sevaram+chacha-1.JPG"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 213px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0q4WpwmuaI/AAAAAAAAAYk/qCy1jUlh1vI/s320/sevaram+chacha-1.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5425351400427534754" /></a> आनेवाले समय में हमारी आर्थिक-राजनीतिक स्थितियों में तेज़ी से बदलाव आयेगा. हम वैश्वीकरण, विदेशी पूंजी और काला-धन के दबाव का मुकाबला स्वदेशी पूंजी तथा अपने संसाधनों के माध्यम से कर सकेंगे. तय है हमें अपने पैरों पर खड़ा होना होगा... और हमारे लघु-कुटीर उद्योग धंधे, जिनको अभी तक हमने तिरष्कृत किया है और हाशिये पर रखा है, उन्हीं पर हमें ज्यादा ध्यान केन्द्रित करना होगा. विभिन्न रूपों में जो अर्थ की सत्ता है उसे आम आदमी तक बांटना पड़ेगा. तभी हम अपने देश का समग्र विकास कर सकते हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य की सामान सुविधाएं देकर दलितों, वंचितों तथा आदिवासियों की स्थितियों में सुधार लाना होगा.<br /><br />हमारे पुराने सामाजिक ढाँचे निरंतर टूट रहे हैं और सामाजिक रूपांतरण की प्रक्रिया बहुत तेज़ हो गयी है. शादी-विवाह के प्रसंगों में एक तरह का खुलापन आया है. इसी तरह छुआछूत आदि सन्दर्भों में भी व्यापक परिवर्त्तन परिलक्षित किये जा रहे हैं. जहां तक राजनीतिक स्थितियों का सवाल है तो जनता का मौजूदा राजनीति से मोहभंग हुआ है. संकीर्ण हितों के स्थान पर हिन्दुस्तान की जनता बहुत व्यापक परिवर्त्तन की आकांक्षी है इसलिए वह बड़े दलों के स्थान पर छोटे और क्षेत्रीय दलों को स्वीकार करने में गुरेज़ नहीं करती. हम देख सकते हैं कि साम्प्रदायिक ताकतें हताश होकर छद्म रूप से वामपंथी पैंतरे खोज रही हैं और उनका एकमात्र लक्ष्य सत्ता पर काबिज़ होना है. २०१० में इस प्रक्रिया में कोई बदलाव आता मुझे नहीं दीखता.<br /><br />साहित्य जगत में अब केवल कल्पना की दुनिया से काम नहीं चलेगा. हमें यथार्थ को ठीक से पहचानना होगा. नारेबाजी के स्थान पर आम आदमी की दुनिया का चित्रण अपनी रचनाओं में करना होगा. हमारे साहित्य से गाँवों को लगभग देशनिकाला दे दिया गया है, जो थोड़ा-बहुत आते भी हैं तो वे स्मृतियों के गाँव हैं. साल २०१० में हमें इस पर ध्यान देना चाहिए.<br /><br /><strong>तुषार धवल (कवि, कविता-संग्रह 'पहर यह बेपहर का'):</strong><br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0cf5QChAyI/AAAAAAAAAYc/7BH3Ku4RPnw/s1600-h/Dhaval%27s+Photo.jpg"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 89px; height: 111px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0cf5QChAyI/AAAAAAAAAYc/7BH3Ku4RPnw/s320/Dhaval%27s+Photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5424339344609575714" /></a> यह उपभोक्तावादी ताकतों से जोरदार युद्ध करने का समय है. बाज़ार इतनी तेजी से हमला कर रहा है कि सबको बस भागो और भोगो ही सूझ रहा है. मनुष्य के सोचने और विचार करने की शक्ति पर हमला करके उसे भोथरा बनाने का खेल जारी है. ऐसे में मैं चाहता हूँ कि कुछ ऐसा हो कि मानव के भीतर का मानव बचा रहे. वह मशीन न बन जाए. उपभोग की वस्तु न बन जाए. उसके भीतर की तरलता सुरक्षित रहे. आज आदमी का आदमी से जुड़ाव समाप्त होता जा रहा है ख़ास तौर पर मुंबई जैसे महानगरों में.<br /><br />साहित्य जगत में एक तरह के विभ्रम की स्थिति है. यह तय नहीं हो पा रहा है कि हम किस दिशा में जाएँ. हमारी रचनाओं का कथ्य क्या हो, शिल्प क्या हो...खास कर कविता में. यह ऐसा समय है जब सारे वाद समाप्त हो गए हैं. दक्षिण या वाम का कोई सपना साकार नहीं होता दिख रहा है. सब ध्वस्त हैं. बाज़ार ने इसे बुरी तरह प्रभावित किया है. साहित्य में जो समर्पित गतिविधियाँ थीं वे अब तात्कालिक सफलता और झटपट यशप्राप्ति की कसरतों में तब्दील हो गयी हैं. तरह-तरह के गुट और रैकेट चल रहे हैं. यह भी उपभोक्तावाद का असर है.<br /><br />लेकिन मेरे मन में एक बड़ी उम्मीद है. खास कर अपनी पीढ़ी के कवियों से यह उम्मीद है कि कोई रास्ता निकलेगा. अब भी साहित्य में समर्पित लोग बचे हुए हैं ...और २०१० में तो नहीं, पर लगता है कि अगले ५-१० वर्षों में साहित्य की दिशा तय हो जायेगी.<br /><br /><strong>निलय उपाध्याय (कवि, हालिया कविता-संग्रह 'कटौती’):</strong> इन दिनों मैं बहुत निजी किस्म का जीवन जी रहा हूँ. मेरा कोई सामाजिक जीवन नहीं है. अभी जिन संकटों के दौर से गुज़र रहा हूँ उसमें सार्वजनिक जीवन के लिए कोई जगह नहीं है. पिछला साल जो बीता है उससे मेरी यही अपेक्षा थी कि मेरे परिवार को दो जून का भोजन मिलता रहे. मेरे बच्चों की पढ़ाई चलती रहे...और २००९ में यह पूरा हुआ. आने वाले साल में मैं यह चाहता हूँ कि इन जिम्मेदारियों से अलग होने का वक्त मिले, जिसमें मैं अपने मन के भीतर बसी दुनिया के बारे में लोगों को बता सकूं...कुछ कवितायें लिख सकूं... और जो विकास-क्रम अथवा परिवर्त्तन मेरे भीतर आया है, उसको बता सकूं.<br /><br />साहित्यकारों से मेरा मोहभंग हो चुका है. अपने अपहरण काण्ड में फंसने की घटना की असलियत मैं अच्छी तरह से जान चुका हूँ. मैं अस्पताल में कंपाउंडर था और वेतन का आधा खर्च पत्र-पत्रिकाएं खरीदने...सदस्य बनने और साहित्यिक यात्राओं में ख़र्च करता था. किन्तु एक मुसीबत आने के बाद जिस तरह प्रेम कुमार मणि से लेकर राजेन्द्र यादव तक ने मुझे सवर्ण करार दे दिया, उससे मेरे दिल को बहुत गहरा धक्का पहुंचा. मुझे पहली बार ये अहसास हुआ कि ये लोग रचनाकार भले ही बहुत अच्छे हों, आदमी बुरे हैं. मैं कवि-लेखक बनकर न रहूँ तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन हिन्दी साहित्य के इन ढपोरशंखियों से अगले साल क्या, पूरी उम्र कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहता. ये लोग साहित्य के पाँव में मोजे की तरह महक रहे हैं और उनके बारे में सोचने पर इनकी ये गंध ज्यादा परेशान करती है. यही लोग हैं जो जनता और साहित्य के बीच बैठकर एक दूरी पैदा कर रहे हैं.<br /><br />अगले साल मैं जो भी करना चाहता हूँ वह मेरी पारिवारिक परिस्थिति पर निर्भर करेगा. मैं बिहार सरकार की नौकरी से निकाल दिया गया था... और ४५ साल की उम्र में किसी नई जगह, किसी नई विधा में जड़ें जमाना आसान नहीं होता. पहले मैं बिहार के एक गाँव का निवासी था लेकिन मुझे अगर वक्त मिला तो अब मैं जिस जगह पर हूँ...पूरे देश के गाँवों से आए लोग यहाँ हैं...मैं उनकी पीड़ा, उनकी यातना और उनके जीवन में प्रवेश करने का प्रयास करूंगा...और अपनी कविताओं में यह बताऊंगा कि चाय पीते वक्त उनकी चीनी क्यों कम पड़ जाती है और दाल खाते वक्त नमक.<br /><br /><br /><strong>शिरीष कुमार मौर्य (कवि,अनुवादक, हालिया कविता-संग्रह 'पृथ्वी पर एक जगह'):</strong><br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0q_Ghk-b7I/AAAAAAAAAYs/p_EGLqEaWfw/s1600-h/Shirish+photo.jpg"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 104px; height: 104px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0q_Ghk-b7I/AAAAAAAAAYs/p_EGLqEaWfw/s320/Shirish+photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5425358819934760882" /></a><br />सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर तब्दीलियों को लेकर मैं किंचित हताश हूँ. देखना बहुत कुछ चाहता हूँ. एक कवि-नागरिक होने के नाते चाहता हूँ कि नए साल में चीज़ों में सुधार आये. समाज कुछ और मानवीय बने, राजनीति कुछ विचारपरक हो, बाज़ारवाद का छद्म कुछ और उजागर हो, दृष्टिकोण- ख़ास तौर पर स्त्रियों और दलितों के प्रति सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण में वांछित बदलाव आये. रही सुकून की बात तो आम आदमी को आज सुकून से ज़्यादा अपने जीवन में घट रही घटनाओं के प्रति जागरूकता और एक गहरी बेचैनी की ज़रुरत ज़्यादा है- सुकून की मंज़िल फ़िलहाल एक स्वप्न है.<br /><br />साहित्य जगत से मैं महज एक ऐसी अर्थवान आलोचना की उम्मीद करूंगा जो तथाकथित बड़े आलोचकों के घिसे-पिटे पुराने मूल्यों से परे हो और किसी को कुछ बना देने या उसे मिटा देने के थोथे अहंकार से मुक्त भी. कविगण (ख़ासकर युवा कवि) भी हिंदी के इन चाँद-तारों की छाया से बाहर आकर रचनात्मक ऊर्जा के अपने भीतर के सूर्य को पहचानें. हिंदी पट्टी के पाठकों के प्रति उनका खोया विश्वास दुबारा जागे.<br /><br /><strong>गीत चतुर्वेदी (कवि-कथाकार):</strong><br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0q_TpI184I/AAAAAAAAAY0/zskxl0dBg5M/s1600-h/Geet+Chaturvedi+photo.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 113px; height: 150px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0q_TpI184I/AAAAAAAAAY0/zskxl0dBg5M/s320/Geet+Chaturvedi+photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5425359045302547330" /></a><br /><br />१. इंडिया और भारत का तथाकथित भेद मिट जाए/कम हो जाए.<br /><br /><br />२. कुछ अच्छी किताबें.<br /><br /><br /><strong>चंद्रभूषण (कवि, कविता-संग्रह 'इतनी रात गए'):</strong> इस साल मैं चाहूंगा कि बहुत सारे उद्योगों में जो छंटनी हो रही है और जो उद्योग मंदी का शिकार हैं, वहां दोबारा काम शुरू किया जाए. वहां लोगों के अधिकार सुरक्षित हों. मंहगाई से सबको राहत मिले.<br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0q_3aBLZ8I/AAAAAAAAAY8/1No2UhzewT8/s1600-h/CHANDRABHUSHAN.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 180px; height: 240px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0q_3aBLZ8I/AAAAAAAAAY8/1No2UhzewT8/s320/CHANDRABHUSHAN.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5425359659719157698" /></a><br />साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में स्वाभाविक इच्छा है कि अच्छी रचनाएँ आयें. आम लोगों से, मेहनतकश लोगों से जो दूर जाने की प्रवृत्ति बढ़ी है वह घटे. कामना यह भी है कि दिल्ली में जो राष्ट्रकुल खेल होने जा रहे हैं वे अच्छी तरह से संपन्न हों और देश की साख को कोई बट्टा न लगे.<br /><br /><br /><br /><br /><br /><br /><strong>सुन्दर चंद ठाकुर (कवि, हालिया कविता-संग्रह 'एक दुनिया है असंख्य'):</strong> पहली बात तो यह है कि २००८ का अंतिम हिस्सा और लगभग पूरा २००९ मंदी की मार से आक्रान्त रहा. हज़ारों नौजवान सड़क पर आ गए, इनमें कई पत्रकार भी शामिल थे. नए लड़कों को नौकरियाँ नहीं मिलीं. उम्मीद है कि २०१० में ये स्थितियां पलट जायेंगी.<br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0rAQLk7WYI/AAAAAAAAAZM/lMNcdncRbbE/s1600-h/Suner+Chand+Thakur+photo.jpg"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 90px; height: 96px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0rAQLk7WYI/AAAAAAAAAZM/lMNcdncRbbE/s320/Suner+Chand+Thakur+photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5425360085339298178" /></a><br />साल २०१० में मैं जिस तरह का बदलाव देखना चाहूंगा उसे यूटोपिया कह सकते हैं. लेकिन मन में बहुत बड़ा संशय है कि वह अगले साल तो क्या आनेवाले कई सालों में या इस देश में या पृथ्वी पर जीवन के रहते घटित हो पायेगा अथवा नहीं. दुर्योग से देश को चलाने के लिए जरूरी सारी ताक़त और धन राजनीति के हाथों में केन्द्रित हो गया है. ऐसे में अगर राजनीतिज्ञ समाज की जरूरतों को समझ पायें, नेतागण अपने नागरिक होने के कर्तव्यों को निभा पायें...तो संभवतः वे पिछड़े तबकों और जरूरतमंदों का लिहाज करेंगे और उन्हें सौंपी गयी ताक़त के जरिये नौकरशाहों को मजबूर करेंगे कि विकास का पैसा विकास के लिए ही इस्तेमाल हो.<br /><br />हिन्दी साहित्य से मुझे सबसे बड़ी उम्मीद यह है कि वह हकीक़त को समझेगा और परम्पराओं में ढोई जाती रही नैतिकताओं और थोथे आदर्शों से बाहर निकलेगा. हिन्दी कविता में दुर्भाग्य से उन विषयों पर नहीं लिखा जा रहा जो हमारे रोज़मर्रा के जीवन और रिश्तों को प्रभावित करते हैं. आधुनिक जीवन की त्रासदियों को व्यक्त कर पाने वाले औजार वहां से नदारद दिखते हैं. आनेवाले वर्ष में अगर ऐसा हो पाए तो हिन्दी कविता विश्वमंच पर अपनी उपस्थिति जरूर दर्ज़ करेगी और कम से कम वह अपने ही समाज में अलोकप्रिय नहीं रहेगी.<br /><br /><br /><strong>सिद्धेश्वर सिंह (कवि, समीक्षक, अनुवादक):</strong> कैलेन्डर बदलने से उम्मीदें नहीं बदलतीं. बड़ी उम्मीदें बड़ी जगह, समय के बड़े हिस्से, बड़ी और लगातार कोशिशों तथा बड़े विचार से ही पूरी होती हैं. यह समय छोटी चीजों का है. हमारे गिर्द 'लघु-लघु लोल लहरें' उठती हैं और उनकी फेनिल आभा हमें समन्दर में गहरे उतरने से रोकती है, बहकाती है, बरजती है. फिर भी साहित्य की दुनिया में हाथ-पाँव मारते हुए यह यकीन कायम है कि शब्द में दम है और उम्मीद पर जहाँ कायम है.<br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0rAbrdMhoI/AAAAAAAAAZU/Q4ScJHoKiXw/s1600-h/Siddheshvar+photo.jpg"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 320px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0rAbrdMhoI/AAAAAAAAAZU/Q4ScJHoKiXw/s320/Siddheshvar+photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5425360282875364994" /></a><br />हम सब जिस दुनिया और भूगोल के जिस हिस्से में रह रहे हैं वहाँ रोजमर्रा की परेशानियों का रोजनामचा नई-नई इंदराजों से भरता रहता है. इस समय खाने-पीने की चीजों के दाम जिस तरीके से बढ़ रहे हैं उससे हर स्तर के इंसान की रचनात्मकता/उत्पादकता या उसके आस्वादन/उपभोग का दायरा संकुचित, शिथिल व विकृत हुआ है. इसका असर कार्यक्षमता, कार्यप्रणाली और क्रियात्मकता पर भी पड़ा है.<br /><br />छोटे-छोटे कस्बों में लगने वाले पुस्तक मेलों से उम्मीद बढ़ी है क्योंकि इनसे अच्छॆ साहित्य के वितरण का प्रक्षेत्र बढ़ा है फिर भी साहित्य सृजन, पुस्तक प्रकाशन और सही पाठक के बीच के पुल को सुगम, चौड़ा और सीधा बनाने की सख्त जरूरत है. नए रचनाकारों के समक्ष पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने का संकट अवश्य कम हुआ है क्योंकि खूब पत्रिकायें निकल रही हैं. हिन्दी ब्लॉग की भी एक बनती हुई दुनिया है जो साहित्य के लिए बहुत ही संभावनाशील माध्यम है. इसे साहित्यकारों को बहुत गंभीरता से लेने की जरूरत है.<br /><br />गौर करने लायक बात यह है कि साहित्य की दुनिया में प्रलोभन और प्रपंच बढ़ा ही है. बड़े-बड़े नामों की कोई कमी नहीं है. उनके बड़े-बड़े कारनामे भी आत्मकथ्यों और संस्मरणों के माध्यम से खूब आ रहे हैं किन्तु हमारे पास बड़ी रचनाओं की कमी है. वैसे इस समय हिन्दी की नई पीढ़ी की रचनात्मकता उफान पर है. आइए दुआ करें कि उसे सही रहगुजर, सही रहबर और सही काफिला मिले.<br /><br />बची हुई है उम्मीद की डोर. याद है न? हर रात के बाद भोर.<br /><br /><strong>वीरेन डंगवाल (वरिष्ठ कवि):</strong><br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0xtuPv7vrI/AAAAAAAAAZc/kPV9JaM2edU/s1600-h/Viren+Dangwal.jpg"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 77px; height: 110px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0xtuPv7vrI/AAAAAAAAAZc/kPV9JaM2edU/s320/Viren+Dangwal.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5425832292343594674" /></a><br />हालिया वर्षों में हमारा महादेश कई सारे आशातीत परिवर्तनों से रूबरू हुआ है. कुछ तब्दीलियों को समाज ने अच्छे से आत्मसात कर पाने में सफलता प्राप्त की है. मिसाल के तौर पर सूचना क्रान्ति ने समाज, संस्कृति और अर्थव्यवस्था पर जो प्रभाव डाला है उसके सारे धनात्मक परिणामों ने अभी अपने आप को पूरी तरह प्रकट करना बाकी है. सभी धरातलों पर मूल्य बदल रहे हैं और मुझे लगता है कि आने वाले साल में यह क्रम और भी तेज़ी से चलता ही रहना है. मैं चाहता हूं कि सामाजिक और नैतिक मूल्यों में ह्रासोन्मुखता कम हो क्योंकि प्रत्यक्षतः सामाजिक और नैतिक मूल्य ही बाक़ी सारी चीज़ों को तय करते हैं.<br /><br />साहित्य के क्षेत्र में; खासतौर पर हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में हमारे रचनाकारों को अधिक कर्मठ होने की ज़रूरत है. हमारे यहां 'बातें ज़्यादा और काम कम’ पर अधिक तवज्जो दी जाती रही है. फ़िज़ूल के सम्मेलन, पुरस्कार, विमोचन, गुटबाज़ी के चलते हिन्दी का जो नुकसान हुआ है, उसकी थोड़ी बहुत ही सही, भरपाई कर पाने के लिए कर्मठता सबसे ज़रूरी गुण है. जब रचना न हो पा रही तो अनुवाद किया जाना चाहिये. अनुवाद के मामले में हिन्दी अन्य तमाम भाषाओं से बेहद पिछड़ी हुई है. स्तरीय अनुवादों की भीषण कमी है. जब तक साहित्यकार स्वयं अनुवाद नहीं करते, स्थिति जस की तस बनी रहनी है. इसके अलावा हिन्दी के हर साहित्यकार को कम्प्यूटर का न्यूनतम ज्ञान प्राप्त करने का जतन करना चाहिये. समय के साथ बने रहने के लिये यह एक ज़रूरी औज़ार है. हिन्दी ब्लॉगिंग के क्षेत्र में जैसा क्रान्तिकारी कार्य हुआ है, उसे एक मिसाल के तौर पर देखे जाने की ज़रूरत है.<br /><br /><br /><strong>प्रत्यक्षा सिन्हा (कथाकार, कहानी-संग्रह 'जंगल का जादू तिल तिल'):</strong> मानवीय गुण अमानवीय गुणों पर भारी पड़ें, सँभावनायें हर क्षेत्र में बनी रहें, सपने देखने का भोलापन बरकरार रहे.<br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0xt8RBeMAI/AAAAAAAAAZk/IFGy8y7CAYo/s1600-h/pratyaksha+sinha+photo-compressed.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 154px; height: 160px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0xt8RBeMAI/AAAAAAAAAZk/IFGy8y7CAYo/s320/pratyaksha+sinha+photo-compressed.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5425832533203759106" /></a><br />सामाजिक राजनीतिक स्तर में प्रतिबद्धता और उत्तरदायित्व बढ़े, सांस्कृतिक स्तर पर कुछ तोड़फोड़ की उम्मीद रखती हूँ, बने बनाये खाँचों के बाहर, अनदेखे रास्तों पर चलने का दीवानापन दिखे- ऐसी आकांक्षा है.<br /><br />साहित्यजगत से बहुत भोली उम्मीदें हैं... मन की बेचैनियों का ईमानदार प्रतिवर्तन हो, कुछ अपनी अंतरतम दुनिया में मगन, एक्सर्टर्नल्स की परवाह किये बगैर अपनी रचनात्मकता में धूनी रमायें लोगों का कुनबा हो, अच्छा गंभीर सार्थक लेखन हो, कुछ बच्चे सा भोला उत्साह इन सब को स्फूर्ति देता रहे...बस इतना, इतना ही...<br /><br /><br /><strong>हरेप्रकाश उपाध्याय (कवि, प्रथम कविता संग्रह 'खिलाड़ी दोस्त और अन्य कवितायें'): </strong> मेरी वर्ष २०१० से पहली उम्मीद तो यही है कि लोग २००९ से सबक लेंगे.<br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0xuF1p_bAI/AAAAAAAAAZs/IvLhcQ5q_mA/s1600-h/Hareprakash+photo.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 193px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S0xuF1p_bAI/AAAAAAAAAZs/IvLhcQ5q_mA/s320/Hareprakash+photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5425832697656208386" /></a><br />कोई राठौर किसी रुचिका पर हाथ डालने से पहले कम से कम १० बार सोचेगा. कोई नारायण दत्त राजभवन की मर्यादा के बारे में ज्यादा संवेदनशील रहेगा. यानी सत्ता के जोश में लोग होश नहीं खोएंगे आदि, इत्यादि...<br /><br />बाकी एकदम से तो यह नहीं लगता कि सचमुच का कोई बदलाव एकायक आ जाएगा नए साल में. अदालतें थोड़ी सुस्ती कम करें और बिजली गाँवों में चली जाए...लोग देश में निर्भय होकर कहीं भी आयें-जाएँ...यह सब हो तो कितना अच्छा, पर हो पायेगा क्या?<br /><br />साहित्य जगत में यह हो कि सम्पादक लोगों का यह भरम टूटे कि साहित्य उनका हरम है...कोई सम्पादक किसी लेखक को अपमानित नहीं करे... नामवर लोग झूठ नहीं बोलें और लोगों का भरोसा बना रहने दें साहित्य पर. चौकी और चौके के जो अलग-अलग मानक हैं वे मिट जाएँ...सुधीशों की बकवास से मुक्ति मिले हिन्दी साहित्य को.<br /><br />इस साल लेखकों को लिखने के लिए पुरस्कार थोड़ा कम मिलें...थोड़ी सजा मिले ताकि प्रसंग का धुंधलका साफ हो सके.<br /><br /><strong>आलोक धन्वा (वरिष्ठ कवि):</strong> मैं यह चाहता हूँ कि राष्ट्र की जो धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकतें हैं वे साम्राज्यवाद के विरुद्ध एकजुट हों. जितने भी वामपंथी संगठन हैं उनको भी इस मोर्चे में शामिल होना चाहिए. उन्हंं आपसी मतभेद स्थगित करके अपना एक व्यापक संयुक्त मोर्चा बनाना चाहिए क्योंकि राष्ट्र के सामने साम्प्रदायिक ताकतें आतंकवाद और दूसरी कई शक्लों में हमारी राष्ट्रीय एकता को तहस-नहस कर रही हैं. हमारी राष्ट्रीय संप्रभुता, हमारी धर्मंनिरपेक्ष साझा-संस्कृति और हमारी लोकतांत्रिक उपलब्धियां ; आज सब भयावह चुनौतियों और ख़तरों से घिरी हैं. भारत को फिर से साम्राज्यवाद का नया उपनिवेश बनाने की साजिश रची जा रही है.<br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S08HvYVZJnI/AAAAAAAAAZ0/r7iM_XkiPEs/s1600-h/Alok+Dhanva+Photo.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 314px; height: 320px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S08HvYVZJnI/AAAAAAAAAZ0/r7iM_XkiPEs/s320/Alok+Dhanva+Photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5426564586572162674" /></a><br />राजनीति और संस्कृति, दोनों क्षेत्रों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपने नए बाज़ार तैयार कर रही हैं...अब भारत का पूंजीपति वर्ग भी उस राष्ट्रीय चरित्र से वंचित हो रहा है जो भारत के स्वाधीनता संग्राम में महात्मा गांधी के नेतृत्व में उसने हासिल किया था. हमारा भारतीय समाज बाहर के हमलों की अपेक्षा अन्दर के हमलों से बहुत ज्यादा टूट रहा है. अलगाववाद की सुनियोजित साजिशें हमारे संघीय स्वरूप के ताने-बाने को नष्ट कर रही हैं.<br /><br />हमारा सांस्कृतिक परिदृश्य भी संतोषजनक नहीं है. इस क्षेत्र में भी रचना विरोधी घात-प्रतिघात का माहौल विभिन्न माध्यमों के जरिये बनाया जा रहा है. हमारी जो प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थाएं हैं उनमें भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हस्तक्षेप शुरू हो चुका है. इसका सबसे ताज़ा उदाहरण साहित्य अकादमी के भीतर घुसपैठ करके सैमसंग कंपनी के द्वारा 'रवीन्द्रनाथ ठाकुर पुरस्कार' दिए जाने की घोषणा है.<br /><br />इस सबके बावजूद जनता के सुख-दुःख के लिए सार्थक लेखन करने वाले साहित्यकारों की भी हमारे देश में कमी नहीं है. यह देखना सुखद है कि भारत के बेहद संकटपूर्ण माहौल में बहुमत जनता अपनी स्वाभाविक मानवीय सृजन-शक्ति के साथ सक्रिय है. नए वर्ष के लिए मेरी शुभकामनाएं हैं, साथ ही मैं यह चाहता हूँ कि आधुनिक भारत का जो गौरवशाली और संघर्षमय अतीत रहा है, हम उससे हमेशा प्रेरित होते रहें.<br /><br />बीसवीं सदी एक महान सदी थी. देश और विदेश दोनों जगहों पर आज़ादी की बड़ी लड़ाइयां लड़ी गयीं. कई देशों ने उपनिवेशवाद से मुक्ति हासिल की जिनमें भारत भी शामिल है. फ़ासीवादी विरोधी युद्ध में विश्व भर की शांतिप्रिय और लोकतांत्रिक ताकतों ने मानवीय उत्कर्ष के नए महाकाव्य रचे.<br /><br />बीसवीं सदी में एक ऐसी घटना घटी जो मानव इतिहास में कभी नहीं घटी थी. रूस में पहली बार मजदूरों और किसानों ने अपनी सत्ता कायम की जिसका प्रभाव पूरी दुनिया के लोकतंत्र पर पड़ा. बीसवीं सदी वैज्ञानिक विचारधाराओं की सदी थी. यह वही सदी थी जिसमें एक ओर लेनिन काम कर रहे थे तो दूसरी ओर महात्मा गांधी भी सक्रिय थे...एक ओर वर्टरैंड रसेल जैसे बड़े मानवतावादी दार्शनिक थे वहीं मैक्जिम गोर्की जैसे मजदूरों के बीच से आनेवाले लेखक थे. यह सदी नाज़िम हिकमत, पाब्लो नेरूदा, बर्तोल्त ब्रेख्त की सदी थी...साथ ही वह हमारे स्वाधीन भारत के सबसे बड़े सांस्कृतिक नेता प्रेमचंद और महाकवि निराला की भी सदी थी. हमारे स्वाधीन भारत की जो ज्ञान-संपदा है उसे जितना भारतीय बुद्धिजीवियों ने समृद्ध किया उतना ही विश्व के दूसरे बुद्धिजीवियों ने भी समृद्ध किया.<br /><br />ज्ञान एक विश्वजनीन प्रक्रिया है, उसमें देशी-विदेशी का विभाजन छद्म है. अल्बेयर कामू, फ्रेंज़ काफ़्का और ज्यां पॉल सार्त्र जैसे बड़े लेखकों ने पूंजीवादी चिंतन प्रणाली को और उसकी सत्ता के तमाम अदृश्य यातना-गृहों को न सिर्फ उजागर किया बल्कि पूंजीवादी सत्ता को कटघरे में खड़ा करके उससे लगातार जिरह की. इससे लोकतंत्र के नए पाठ सामने आये.<br /><br />बीसवीं सदी में हमारे देश में जहां राहुल सांकृत्यायन, रामचंद्र शुक्ल, फैज़ अहमद फैज़, फ़िराक गोरखपुरी, मक़दूम, रामविलास शर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, नामवर सिंह जैसे बड़े साहित्य चिन्तक सक्रिय थे वहीं बांग्ला में रवीन्द्रनाथ ठाकुर, शरतचंद्र, काज़ी नज़रुल इस्लाम, विभूतिभूषण बन्दोपाध्याय, माणिक बंदोपाध्याय, जीवनानंद दास, सुभाष मुखोपाध्याय, सुकांत भट्टाचार्य जैसी विभूतियाँ सक्रिय थीं. इसी तरह पश्चिम और दक्षिण भारत में भी बड़े चिन्तक जनता के बीच काम कर रहे थे.<br /><br />यहाँ नाम गिनाना मेरा उद्देश्य नहीं है बल्कि दरअसल मैं बीसवीं सदी के उस महान कारवां की मात्र कुछ झांकियां प्रस्तुत कर रहा हूँ क्योंकि आज हमारे बीच देश और विदेश दोनों जगहों पर ऐसे बुद्धिजीवी मंच पर सामने आ रहे हैं जो फिर से मध्ययुग के अर्द्धबर्बर समाज को कायम करना चाहते हैं. बाबरी मस्जिद के ध्वंस और गुजरात का भयावह नरसंहार, कश्मीर और पंजाब में हजारों निर्दोष लोकतांत्रिक नागरिकों का क़त्लेआम, ईराक़ और अफगानिस्तान पर निरंतर हमले...ये सारी घटनाएँ उसी मध्ययुगीन अर्द्धबर्बर सोच को सामने रखती हैं. यह एक ऐसा भयानक समय है जहां ज्ञान से पलायन की प्रवृत्ति बढ़ रही है.<br /><br />ओसामा बिन लादेन और हमारे हिन्दू तालिबान लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी, मुरली मनोहर जोशी, अशोक सिंघल, प्रवीण तोगड़िया, आरएसएस के मोहन भागवत, इनके बीच कोई बुनियादी फर्क़ नहीं है. ये न हिन्दू हैं न मुसलमान, बल्कि ये उसी मध्ययुगीन अर्द्धबर्बर सोच के कारिंदे हैं.<br /><br />कोसी की बाढ़ से विस्थापित लोगों के पुनर्वास के लिए जब मेधा पाटकर पटना आयीं तो एक पत्रकार वार्ता में पिछले वर्ष मैंने कहा कि जिसको प्राकृतिक आपदा कहते हैं दरअसल वह मानव-निर्मित आपदा है और पर्यावरण का मुद्दा भी लोकतंत्र का ही मुद्दा है. जो ताकतें नैसर्गिक सुषमा और प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर रही हैं वही ताकतें प्रेमचंद के देश में हज़ारों किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर रही हैं.<br /><br />आज शिक्षण संस्थाओं में भी एक ऐसी प्रतियोगिता जारी है जहां हमारे प्रतिभाशाली नौजवानों में लगातार भय, आत्महीनता और आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. हमारी शिक्षा-प्रणाली का उद्देश्य एक ज्यादा मानवीय और संवेदनशील मानव समाज बनाना नहीं बल्कि नए बाज़ार के लिए ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा मुहैया कराना हो गया है. तो क्या २१ वीं सदी की शुरुआत आत्महत्याओं की सदी की शुरुआत है?<br /><br />मैंने मेधा पाटकर से यह बात भी कही थी कि पर्यावरण के मुद्दे को पूरे समाज के दूसरे मुद्दों से जोड़कर देखा जाना चाहिए जो कि वैज्ञानिक सोच का एक नैतिक आधार है. जो आज हमारे जंगलों को काट रहा है वही आदिवासियों को भी ख़त्म करना चाह रहा है. शत्रुता, भय और हिंसा से आक्रान्त ऐसा सामाजिक परिदृश्य आधुनिक मानव सभ्यता में जल्दी दिखाई नहीं देता जहां सत्य और न्याय के लिए प्रतिरोध करनेवाली ताक़तें भी विसर्जन का शिकार होती जा रही हैं.<br /><br />चूंकि मैं एक कवि हूँ इसलिए मैं अपने कवि भाइयों से, साथियों से यह विनम्र आग्रह करना चाहता हूँ कि हमारे बीच जो विरासत भारतेंदु हरिश्चंद्र,आचार्य शिवपूजन सहाय, यशपाल,महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सुभद्राकुमारी चौहान,रामधारी सिंह दिनकर,पंडित बालकृष्ण शर्मा नवीन,रामवृक्ष बेनीपुरी, रांगेय राघव,हरिवंश राय बच्चन,हरिशंकर परसाई, भीष्म साहनी, निर्मल वर्मा,फणीश्वर नाथ रेणु, धूमिल, श्रीलाल शुक्ल,राजकमल चौधरी,विजयदान देथा, अमरकांत, मोहन राकेश, मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन,कुंवर नारायण, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह,मलय, सोमदत्त, ज्ञानरंजन, विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे,अशोक वाजपेयी,मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियम्बदा, कात्यायनी,नासिरा शर्मा, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, अनिता वर्मा, स्वयं प्रकाश, उदयप्रकाश, ऋतुराज, विजेंद्र, कुमार विकल,शानी, असगर वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, नरेश सक्सेना, देवताले जैसे कई बड़े साहित्यकारों ने हमें सौंपी है, हम उसे कैसे आगे बढ़ायें...उसके प्रति अपना दायित्व-बोध कैसे निभाएं. <strong>(इनमें से कई नाम आलोक धन्वा जी ने बाद में फोन पर जुडवाए और कह रहे थे कि यह सूची अभी अधूरी है.- विजयशंकर)</strong><br /><br />हमारे साथ भी जो लोग लिख रहे हैं वे कम प्रतिभाशाली नहीं हैं. अब हमारे बाद दो पीढ़ियाँ आ चुकी है कवियों की...उनसे भी मैं बेहद प्रभावित हूँ.<br /><br />इस नए वर्ष में मेरी अपेक्षा यह रहेगी कि हम न्याय के पक्ष में ज्यादा से ज्यादा काम करें...हर तरह की हिंसा के विरुद्ध सार्थक संवाद शुरू करें...लोकतंत्र और समाजवाद की बेहद जटिल चुनौतियों से जूझने की, सृजन करने की दिशा में सक्रिय हों.<br /><br />मुझे याद आता है कि २००७ में जब हम लोगों ने पटना में शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की जन्म शताब्दी के लिए समारोह समिति तैयार की उस मोर्चे में ४० से ज्यादा धर्मंनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक जन-संगठन शामिल थे. जब हमने शुरुआत की तो हमें यह पता नहीं था कि भगत सिंह जन्म शताब्दी के समारोहों में वर्ष भर तक जनता की इतनी व्यापक हिस्सेदारी होगी. भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, अशफाक उल्ला खान, रामप्रसाद बिस्मिल, जैसे हमारे महान शहीद देश भक्तों की लोकप्रियता निरंतर बढ़ती चली गयी. मेरे लिए यह एक ऐसा अनुभव था जिससे मैं बेहद अभिभूत हुआ. यह भारतीय समाज के जीवंत और कृतज्ञ होने का एक उज्जवल उदाहरण था.<br /><br />इन समारोहों ने यह जाहिर किया कि स्वाधीनता की चेतना को ख़त्म नहीं किया जा सकता. मनुष्य स्वाधीनता के पथ पर अपने सतत संघर्ष से जितनी यात्रा कर चुका है वहां से वह पीछे नहीं जाएगा. वह आगे ही जाएगा.धन्यवाद!<br /><br /><strong>त्रिनेत्र जोशी (वरिष्ठ कवि, अनुवादक):</strong>साल २०१० में जो राजनीति है वह एशिया और अफ्रीका केन्द्रित अधिक हो जायेगी. इसलिए कि एशिया तो अभी विकासशील राष्ट्रों की पांत में आगे है. ख़ास तौर पर भारत-चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया. अफ्रीका इस सदी के उत्तरार्द्ध में विकासशीलों की दौड़ में शामिल होगा. इससे एक क़िस्म का जो ग्लोबल बाज़ार बना है उसके चलते इन देशों में विकसित देशों का हस्तक्षेप और बढ़ेगा; यानी जिसे वित्तीय सामाज्यवाद कहते हैं. इसमें पूंजीवादी तौर-तरीकों से काम होता है, सेना भेजने की ज़रूरत नहीं पड़ती. शायद इसीलिये लेनिन ने कहा था-'साम्राज्यवाद पूंजीवाद का सर्वोत्तम मंच है.'<br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1Rc2D5ZZLI/AAAAAAAAAZ8/tipBhqsD_0M/s1600-h/trinetra+joshi+photo.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 248px; height: 320px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1Rc2D5ZZLI/AAAAAAAAAZ8/tipBhqsD_0M/s320/trinetra+joshi+photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5428065534717027506" /></a><br />साल २०१० में बाज़ारों के लिए मारामारी अधिक बढ़ेगी, जिसका अर्थ यह है कि विकासमान और अल्प विकसित देशों में वित्तीय साम्राज्यवादी खून-ख़राबा बढ़ेगा और पूंजीवादी तौर-तरीके समाज पर हावी होंगे. इसमें कई विकासशील और अल्प विकसित देश साम्राज्यवादी लूट-खसोट का अड्डा बनेंगे और हो सकता है यह साम्राज्यवाद कई नए किस्म के इराक़ खड़े कर दे. लेकिन उम्मीद इस बात पर है कि एशिया और लैटिन अमेरिका के विकासमान देश इस अचानक आक्रमण से टक्कर लेंगे और इकतरफा विश्व में शक्ति संतुलन कायम कर पायेंगे. लेकिन इसमें भारत-चीन और ब्राज़ील जैसे देशों की रणनीतिक एकता, एक महत्वपूर्ण मुकाम होगी. जैसे कि आसार हैं आपसी प्रतिद्वंद्विता के बावजूद भारत और चीन एक दूसरे के निकट आने को मजबूर होंगे जिससे निश्चय ही रणनीतिक परिदृश्य बदलेगा.<br /><br />जहां तक साहित्य का सवाल है, पश्चिमी हवाएं उसकी शैली पर यहाँ तक कि विषय-वस्तु पर भी अपना असर बढ़ाएंगी और साहित्य बाज़ारवाद में अपनी भूमिका निभाने को विवश सा लगेगा. इसका एकमात्र विकल्प यह है कि विकासशील देश और अल्प विकसित देशों के लेखक समाज के प्रति अपनी संवेदनात्मक प्रतिबद्धता बढ़ायें क्योंकि देश-काल के हिसाब से इस <strong>'अग्रगामिता'</strong> के शिकार विकासशील और अल्प विकसित देशों या राष्ट्रों के समाज ही होंगे. हालांकि यह एक उम्मीद भर है. इसके बिना साहित्य अपनी बुनियादी भूमिका को सुरक्षित रख पाए, यह अनिश्चित है. लेकिन इस ओर साहित्य प्रवृत्त हो इसकी अपेक्षा करना शोषक और शोषित के बीच शोषित का पक्ष लेने की एक अनिवार्य ज़रुरत है.<br /><br />यही वजह है कि साहित्यकारों के बीच संवादहीनता बढ़ रही है और मीडिया हर प्राकृतिक कोमल भाव को एक सनसनी में बदल रहा है जिसके भीतर अधिकाँश लोग सादिस्तिक आनंद पा रहे हैं. यह एक पतनशील समाज की पहली पहचान है. अगर साहित्यकार सचमुच साहित्यकार रहना चाहते हैं तो उन्हें इस संवेदनशील परिदृश्य से दो-दो हाथ करना होंगे अन्यथा जो निराशाजनक परिदृश्य है वह और भी गहन हो जाएगा.<br /><br />इस सबके बावजूद कहना यह है कि न समय रुकता है, न दमन कम होता है- फिर भी यह उक्ति काफी मायने रखती है कि जहां दमन है वहां प्रतिरोध भी अवश्यम्भावी है. इसी उम्मीद के साथ हमें २०१० का आगाज़ करना चाहिए और समय रहते अपनी भूमिका तय कर लेना चाहिए.<br /><br /><br /><strong>विवेक रंजन श्रीवास्तव (कवि-व्यंग्यकार-नाटककार):</strong> <br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1RdE-mKzDI/AAAAAAAAAaE/nyWthJTkihM/s1600-h/vivek+ranjan+compressed.jpg"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 108px; height: 160px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1RdE-mKzDI/AAAAAAAAAaE/nyWthJTkihM/s320/vivek+ranjan+compressed.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5428065790992239666" /></a>सैद्धांतिक और बौद्धिक स्तर पर हम किसी से कम नहीं हैं, वैश्विक मंदी के दौर में भी भारत ने स्वयं को बचाए रखा, २००९ में जो खोया जो पाया वह सब सामने है ही. मेरी कामना है कि वर्ष 2010 में हम कुछ ऐसा कर दिखाएं जिससे मंहगाई नियंत्रित हो जिससे मेरे प्रथम व्यंग्य संग्रह का किरदार 'रामभरोसे', जो महात्मा गाँधी का अंतिम व्यक्ति है, चैन की रोटी खा सके, उसे प्यास बुझाने को पानी खरीदना न पड़े. पड़ोसी देशो की कूटनीति पर हमें विजय मिले, कॉमनवेल्थ खेलों का आयोजन भर नहीं बल्कि कुछ ऐसी नीतिगत खेल व्यवस्था हो कि हम पदक तालिकाओ में भी नजर आयें.<br /><br />यह तो था मेरा कवि-नाटककार वाला अवतार. अब व्यंग्यकार के चोले में प्रवेश करता हूँ. एक व्यंग्यकार होने के नाते मेरी नए वर्ष से कुछ मांगें इस प्रकार हैं-<br /><br /><strong>1.वात्स्यायन (कामसूत्र वाले) पुरस्कारों की स्थापना हो </strong><br /><br />जब से हमारे एक प्रदेश के ८६ वर्षीय (अब पूर्व और अभूतपूर्व हो चुके) महामहिम जी पर केंद्रित शयन शैया पर निर्मित फिल्म (पता नहीं 'असल या नकल') का प्रसारण एक टी वी चैनल पर हुआ है, जरूरत हो चली है कि वात्स्यायन पुरस्कारों की स्थापना हो ही जाए. वानप्रस्थ की जर्जर परम्परा और जरावस्था को चुनौती देते कथित प्रकरण से कई बुजुर्गों को इन सद्प्रयासों से नई उर्जा मिलेगी और उनमें साहस का संचार होगा. प्राचीन समय से हमारे ॠषि-मुनि और आज के वैज्ञानिक चिर युवा बने रहने की जिस अनंत खोज में लगे रहे हैं, उस दिशा में यह एक सार्थक, रात्रि-स्मरणीय एवं अनुकरणीय उदाहरण होगा!<br /><br /><strong>2.आतंकवाद के रचनात्मक पहलू पर ध्यान दिया जाए</strong><br /><br />कभी बेचारे आतंकवादियों के दृष्टिकोण से भी तो सोचिये. कितनी मुश्किलों में रहते हैं वे! गुमनामी के अंधेरों में, संपूर्ण डेडिकेशन के साथ अपने मकसद के लिये जान हथेली पर रखकर, घर-परिवार छोड़ जंगलों में प्रशिक्षण प्राप्त कर, भारी जुगाड़ करके श्रेष्ठतम अस्त्र-शस्त्र जुटाना खाने का काम नहीं है. पल दो पल के धमाके के लिये सारा जीवन होम कर देना कोई इन जांबांजों से सीखे! आत्मघात का जो उदाहरण हमारे आतंकवादी भाई प्रस्तुत कर रहे हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है. अपने मिशन के पक्के दृढ़प्रतिज्ञ हमारे आतंकी भाई जो हरकतें कर रहे हैं वे वीरता के उदाहरण बन सकती हैं. जरूरत बस इतनी है कि कोई आपके जैसा महान लेखक या ब्लॉगर उन पर अपनी सकारात्मक कलम चला दे.<br /><br /><strong>3.भ्रष्टाचार को नैतिक समर्थन मिले</strong><br /><br />सरवाइवल आफ फिटेस्ट के सिद्धांत को ध्यान में रखें, तो हम सहज ही समझ सकते हैं कि तमाम कोशिशों के बावजूद जिस तरह से भ्रष्टाचार दिन दूनी रात चौगुनी गति से फल फूल रहा है, उसे देखते हुये मेरा मानना है कि अब समय आ गया है कि विश्वगुरु भारत को भ्रष्टाचार के पक्ष में खुलकर सामने आ जाना चाहिये. हमें दुनिया को भ्रष्टाचार के लाभ बताना चाहिये. पारदर्शिता का समय है, विज्ञापन बालायें और फिल्मी नायिकायें पूर्ण पारदर्शी होती जा रही हैं. पारदर्शिता के ऐसे युग में भ्रष्टाचार को स्वीकारने में ही भलाई है और हर नस्ल के भ्रष्टाचारियों की मलाई ही मलाई है.<br /><br /><strong> अरुण आदित्य (कवि,उपन्यासकार):</strong><br /><br /><em>आनन्दोत्थं नयनसलिलम्यत्र नान्यैर निमित्तैर<br />नान्यस तापं कुसुमशरजाद इष्टसंयोगसाध्यात<br />नाप्य अन्यस्मात प्रणयकलहाद विप्रयोगोपपत्तिर<br />वित्तेशानां न च खलु वयो यौवनाद अन्यद अस्ति॥</em><br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1bQ-AQ2xbI/AAAAAAAAAaM/gSPCPBoQIXA/s1600-h/Arun+Aditya+photo.jpg"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 140px; height: 160px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1bQ-AQ2xbI/AAAAAAAAAaM/gSPCPBoQIXA/s320/Arun+Aditya+photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5428756164482876850" /></a><br />कालिदास ने मेघदूतम् की उपर्युक्त पंक्तियों में जिस तरह के लोक-काल की कल्पना की है, जहां आनंदाश्रुओं के सिवाय कोई आंसू न हो, वैसी कोई कल्पना नए वर्ष के संदर्भ में कर पाना आज मुश्किल लगता है. हम सब जानते हैं कि वर्ष बदल जाने से कुछ नहीं बदला है. दीवार वही है, जिस पर कैलेंडर नया टांग दिया गया है. पिछले साल ने दरकी हुई दीवार विरासत में दी है, अब हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि अगली जनवरी में जब एक और नया कैलेंडर टांगने की बारी आए तो दीवार वैसी ही न रहे, जैसी अभी है. इस वर्ष भले ही नई दीवार न बना सकें, लेकिन कम से कम पुरानी दीवार की मरम्मत तो करा ही सकें.<br /><br />अमेरिका बदल जाएगा या ओसामा सुधर जाएगा, इसकी उम्मीद नहीं कर सकते, पर इनके इरादों के सामने डटकर खड़े रहने का जज्बा जिंदा रहे, यह स्वप्न तो देखा ही जा सकता है. आसमान में दहकता हुआ नए वर्ष का नया सूरज पूरी दुनिया को अपनी रोशनी से लालम-लाल कर देगा, इसकी उम्मीद नहीं है फिर भी उससे इतनी उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि वह अंधेरे से जंग का अपना हौसला तो बनाए ही रखेगा.<br /><br />साहित्य में रचनाधर्मिता पर विवाद हावी नहीं होंगे, पुरस्कारों में जोड़-तोड़ नहीं होगी, यह उम्मीद तो नहीं कर सकते, लेकिन इन सब के बीच कभी-कभी सच्ची रचनाओं और रचनाकारों को भी पहचाना जाता रहेगा, यह उम्मीद तो कर ही सकते हैं. उम्मीद है कि गत वर्ष की तरह इस वर्ष भी पकी हुई पीढ़ी के थके हुए लोग सुविधाओं की सेज पर आराम फरमाते रहेंगे. उनसे मुझे कुछ नहीं कहना है. वैसे भी उस पीढ़ी के लोग सुनने से ज्यादा सुनाने में यकीन रखते हैं. हां, देश के बच्चों से मुझे अब भी उम्मीद है और उन्हें मैं कवि मंगलेश डबराल की इन काव्य-पंक्तियों को संदेश रूप में देना चाहता हूं:<br /><br /><strong>‘प्यारे बच्चो जीवन एक उत्सव है जिसमें तुम हँसी की तरह फैले हो.<br />जीवन एक हरा पेड़ है जिस पर तुम चिडिय़ों की तरह फडफ़ड़ाते हो.<br />जैसा कि कुछ कवियों ने कहा है जीवन एक उछलती गेंद है और<br />तुम उसके चारो ओर एकत्र चंचल पैरों की तरह हो.<br />प्यारे बच्चो अगर ऐसा नहीं है तो होना चाहिए.’</strong><br /><br />जानता हूं कि <strong>'ऐसा नहीं है तो होना चाहिए'</strong> एक कठिन कामना है. पर इस कठिन समय में कुछ कठिन कामनाएं भी तो करनी ही होंगी… और अगर यह उम्मीद भी <strong>‘आनन्दोत्थं नयनसलिलम्यत्र नान्यैर निमित्तैर’</strong> जैसी कुछ कठिन लग रही हो तो इतनी उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि कि भले ही वैसी व्यवस्था न निर्मित हो सके, कम से कम इतना तो हो जाए कि हरि मृदुल जैसे किसी युवा कवि को फिर से यह न लिखना पड़े कि-<br /><br /><strong>‘अव्वल तो काम मिलना कठिन<br />काम मिल गया तो टिकना कठिन<br />टिक गए तो काम कर पाना कठिन<br />किसी तरह काम कर पाए तो<br />वाजिब मेहनताना कठिन.’</strong><br /><br />नए साल से यह कोई बहुत बड़ी उम्मीद तो नहीं है न!<br /><br /><strong>सूरज प्रकाश (वरिष्ठ कथाकार, अनुवादक):</strong> आज के वक्त की सबसे बड़ी तकलीफ यही है कि भाग-दौड़, आपा-धापी और तकनीकी उन्नयन के नाम पर अंधी दौड़ और तथाकथित टार्गेट के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है दुनिया भर में...और ख़ास तौर पर भारत में, उसमें आम आदमी कहीं नहीं है. उसे कोई नहीं पूछ रहा जबकि सारे के सारे नाटक उसी के नाम पर, उसी के हित के नाम पर और उसी की जेब काट कर हो रहे हैं. सारे महानगर ऐसे लाखों लोगों से भरे पड़े हैं जिनके लिए दो जून की रोटी जुटाना, एक गिलास पानी जुटाना और एक कप चाय जुटाना तक मुहाल हो रहा है़. आम आदमी से सब कुछ छीन लिया गया है- पीने का पानी तक. कई बार चौराहों पर बेचारगी से घूमते गांववासियों को देखता हूं तो सोच में पड़ जाता हूं कि बेचारा गांव की तकलीफों, बेरोजगारी, भुखमरी और जहालत से भाग कर यहां आया है तो उसे एक गिलास पानी पीने के लिए और एक कप चाय पीने के लिए कितने लोगों के आगे हाथ फैलाना पड़ेगा! उस भले आदमी से उसका चेहरा ही छीन लिया गया है.<br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1ftwOAIuSI/AAAAAAAAAas/LJUM1f790VA/s1600-h/Surajprakash+photo.jpg"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 171px; height: 187px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1ftwOAIuSI/AAAAAAAAAas/LJUM1f790VA/s320/Surajprakash+photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5429069288466594082" /></a><br />ये सब हुआ है जीवन के हर क्षेत्र में आये अवमूल्यन के कारण. जब तक इस देश में हत्यारे मुख्यमंत्री बनते रहेंगे और रिश्वतखोर केंद्रीय मंत्री, हम कैसे उम्मीद करें कि एक ही साल में कोई क्रांतिकारी सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक अथवा राजनीतिक स्तर पर कोई तब्दीलियाँ होंगी.<br /><br />बीए में अर्थशास्त्र पढ़ते हुए एक सिद्धांत हमें पढ़ाया गया था कि बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है. मतलब ये कि अगर आपकी जेब में दस रुपये का पुराना नोट हो और कहीं से आपके हाथ में दस रुपये का नया नोट आये तो आप जेब में रखे पुराने नोट की जगह नया नोट रख लेंगे और जेब वाला पुराना नोट सर्कुलेशन में डाल देंगे. हर आदमी यही करता है और सारे नोट जेबों में चले जाते हैं और बेचारे पुराने नोट जस के तस सर्कुलेशन में बने रहते हैं, बल्कि इनमें लोगों की जेब से निकले पुराने नोट भी शामिल हो जाते हैं. आज जीवन के हर क्षेत्र में यही हो रहा है. सब कुछ जो अच्छा है, स्तरीय है, मननीय है, वह चलन से बाहर है. कभी स्वेच्छा से, कभी मजबूरी में और कभी हालात के चलते. आज हमारे आस-पास जो कुछ भी चलन में है, वह औसत है, बुरा है और कचरा है. हम उसे ढो रहे हैं क्योंकि बेहतर के विकल्प हमने खुद ही चलन से बाहर कर दिये हैं. साहित्य में ये सबसे ज्यादा हो रहा है. पाले-पोसे घटिया लेखक, उनकी किताबें और उनके रुतबे ही सर्कुलेशन में हैं. हम ही जानते हैं कि एक-एक घटिया किताब के छपने पर कितने पेड़ों को बलि देनी पड़ती है.<br /><br />हम ही देखें कि ऐसा क्यों हो रहा है और कब तक हम ऐसा होने देंगे.<br /><br /><strong>विभा रानी (कथाकार, नाटककार, रंगकर्मी, अनुवादक):</strong><br /><a href="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1bSLYUYwyI/AAAAAAAAAaU/Lt1gSFOzOsI/s1600-h/Vibha+Rani+photo.jpg"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 94px; height: 130px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1bSLYUYwyI/AAAAAAAAAaU/Lt1gSFOzOsI/s320/Vibha+Rani+photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5428757493790065442" /></a><br />नए साल में मेरी आशाएं बहुत अधिक नहीं हैं. सबसे पहली आशा तो अपने साहित्यकार बन्धुओं से ही है कि वे आपस की मारामारी छोड़कर साहित्य और समाज के लिए कुछ सोचें. अपने ही लेखन को सर्वश्रेष्ठ और दूसरों के लेखन को निहायत घटिया न मानें. अपनी साहित्यिक गैर ज़िम्मेदारियों से बाज़ आएं. अगर वे ऐसा कर लेंगे तो निश्चय ही साहित्य और इसके माध्यम से समाज और साहित्य के पाठकों का बड़ा भला होगा. बस इतनी सी ही आशा है. धन्यवाद. <br /><br /><strong>निरंजन श्रोत्रिय (कवि-कथाकार):</strong> साल २०१० हमारे लिए वह सब लेकर आये जिसके हम हकदार हैं. साहित्य, संस्कृति और राजनीति में लगातार हो रही गिरावट रुके.<br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1bSZ3-sxrI/AAAAAAAAAac/EdbMnuhzE1s/s1600-h/Niranjan+Shrotriya+photo.jpg"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 150px;" src="http://4.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1bSZ3-sxrI/AAAAAAAAAac/EdbMnuhzE1s/s320/Niranjan+Shrotriya+photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5428757742807205554" /></a><br />भूमंडलीकरण की प्रक्रिया पर अंकुश लगे और वह सब न हो जो हो रहा है और जिसे नहीं होना चाहिए था.<br /><br />दरअसल आज की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि जो जिसके लायक है उसे वह नहीं मिल रहा है. हर जगह भृष्टाचार, चापलूसी और मक्कारी है. साहित्य, राजनीति, खेल, अर्थ सभी जगह. नया साल हमें इन सभी से मुक्ति दिलाए. कम से कम कोशिश तो शुरू हो. <br /><br />एक समय था जब साहित्य, कला, संस्कृति कलाकार से पूर्णकालिक साधना की माँग करती थी. अब सब जगह नेटवर्किंग और मैनेजमेंट है. सब कुछ प्रायोजित. यदि नया साल संस्कृतिकर्मी की पहचान लौटा सके तो यह हमारे समय क़ी बड़ी उपलब्धि होगी.<br /><br /><strong>विजय गौड़ (कवि, हालिया कविता संग्रह 'सबसे ठीक नदी का रास्ता'):</strong><br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1fsmCJL-kI/AAAAAAAAAak/Lt8Sphvok3g/s1600-h/Vijay+Gaud+Photo.jpg"><img style="float:right; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1fsmCJL-kI/AAAAAAAAAak/Lt8Sphvok3g/s320/Vijay+Gaud+Photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5429068013973011010" /></a><br />साल २०१० हो या निकट भविष्य का अगला समय, तय है कि दुनिया के बुनियादी चरित्र के बदलाव; जिसमें न कोई शोषित हो न शासित यानी सत्ताविहीन समाज का समय आने से पूर्व के कई जरूरी चरणों से गुजरना होगा. साल २०१० उस तरह के बदलावों को गति देने में एक अहम बिंदु हो यह उम्मीद करना चाहता हूं. लेकिन जानता हूं कि सिर्फ़ उम्मीदें पालने से कुछ हो नहीं सकता.<br /><strong>योगेन्द्र आहूजा (कथाकार):</strong><a href="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1qlWuXnUsI/AAAAAAAAAbM/z2mjIDvXJzU/s1600-h/Yogendra+Ahuja+photo.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 118px; height: 89px;" src="http://2.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/S1qlWuXnUsI/AAAAAAAAAbM/z2mjIDvXJzU/s320/Yogendra+Ahuja+photo.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5429834110571336386" /></a>इतिहास की गति और प्रक्रिया को इतना अवश्य जानता-समझता हूं कि मानव जाति के बेहतर भविष्य में यकीन रख सकूं. लेकिन यदि केवल इस वर्ष की बात करनी हो तो मुझे कोई खास उम्मीदें नहीं- बेशक तमन्नायें और ख्वाहिशें, ऐसी कि उनमें से हर एक पर `दम निकले', तमाम हैं.<br /><br />जानता हूं कि इस देश के अधिसंख्य के हिस्से में आयी गरीबी और अन्याय का सिलसिला इस बरस भी जारी रहेगा. सामान्यजन के जीवन में लज्जा और अपमान का ढेर लगता रहेगा. करोड़ों भूखे या आधे पेट सोते रहेंगे. विजातीय प्रेमियों में से कुछ शायद इस बरस भी पेड़ों पर लटकाये जायें, बाकायदा पंचायतों के द्वारा फैसला दिया जाकर. कुछ और टी वी बाबा प्रकट होंगे और उनके प्रवचनों में भीड़ पहले से ज्यादा होगी. मन्दिरों से सर्वदा की तरह चप्पलें चोरी होती रहेंगी. अत्याचारियों के धंधे जारी रहेंगे. किसानों की आत्महत्यायें थमेंगी या लोगों का अपने घरों और ज़मीनों से बेदखल किया जाना रुकेगा, इसके कोई संकेत नहीं. झूठ, पाशविकता, बेइंसाफी और उत्पीड़न में इस बरस भी इजाफा होगा. लेकिन इन सबके साथ निशंक रूप से यह भी जानता हूं कि उत्पीड़ित तबकों की लड़ाइयां जारी रहेंगी और हर दिन प्रखरतर होंगी.<br /> <br /><div style="BORDER-TOP: rgb(92,138,100) 5px solid; FONT-WEIGHT: bold; FONT-SIZE: 13pt; FLOAT: left; PADDING-BOTTOM: 5px; MARGIN: 10px; WIDTH: 230px; LINE-HEIGHT: 100%; PADDING-TOP: 5px; BORDER-BOTTOM: rgb(92,138,100) 5px solid; TEXT-ALIGN: left">आपने उम्मीदों के बारे में जानना चाहा है, इसलिये तमन्नाओं का जिक्र यहां असंगत होगा, फिर भी सिर्फ एक. . . चाहता हूं कि यह बरस इस देश के किसी भी हिस्से या कोने में सामान्यजन की कोई एक विजय, कोई छोटी सी जीत दिखा सके.</div><br />हमारी हिन्दी में अब बौद्धिक, वैचारिक, अवधारणापरक बहसें नहीं होतीं. उनकी जगह गासिप्स ने ले ली है. साहित्यिक अवधारणाओं और सौन्दर्य संबधी मूल्य दृष्टियों की लड़ाइयां थम गई हैं. सारे विचारों में लगता है एका हो चुका है, वे मंच पर गलबहियां डाले नज़र आते हैं. नतीजा यह हुआ है कि रचनाओं की परख और मूल्यांकन के मानदण्ड धुंधले पड़ गये हैं . हम देखते हैं एक छोर पर सस्ती, आसान, तर्करहित प्रशंसायें और दूसरे पर विरोधियों को नेस्तनाबूद कर देने, उनका वंशनाश कर डालने की मुद्रायें. अब बहसें नहीं होतीं, सीधे हमले होते हैं. आलोचना के नाम पर निशंक भाव से निर्णय देने और किन्हीं काल्पनिक सूचियों में नामों को ऊपर नीचे या दाख़िल ख़ारिज करने का जो एक सस्ता, निरर्थक, अश्लील खेल जारी है, मैं उसका नाश चाहता हूं. <br /> <br />एक सचेत कोशिश जारी है ऐसी रचनाओं को प्रतिष्ठापित करने की जिनमें कोई चिन्ता न हो, विचार न हो, कोई पक्ष न हो, किसी तरह की बौद्धिक मीमांसा न हो और वे महज लफ़्ज़ों का खेल हों. मैं ऐसी कोशिशों और साजिशों का भी नाश चाहता हूँ. <br /><div style="BORDER-TOP: rgb(92,138,100) 5px solid; FONT-WEIGHT: bold; FONT-SIZE: 13pt; FLOAT: right; PADDING-BOTTOM: 5px; MARGIN: 10px; WIDTH: 230px; LINE-HEIGHT: 100%; PADDING-TOP: 5px; BORDER-BOTTOM: rgb(92,138,100) 5px solid; TEXT-ALIGN: right">साफ पोजीशन लेने से बचना और केवल हवाई किस्म की गोल मोल, अमूर्त और बेमतलब मानवीयता से काम चलाना, यह दरअसल आततायियों के पक्ष में जाता है. वे यही तो चाहते हैं. स्पेन के महान फिल्मकार लुई बुनुअल की साफ उद्घोषणा थी कि उनके सारे कृतित्व का एकमात्र उद्देश्य रहा है 'शक्तिशालियों के आत्मविश्वास में छेद करना'.</div><br />चाहता हूं कि हमारे वक्त की रचनायें अपने वक्त का केवल बयान न करें, बल्कि स्पष्टतः अपना पक्ष बतायें. उनमें सवाल हों, सपने हों, क्रोध और विरोध हो. साफ पोजीशन लेने से बचना और केवल हवाई किस्म की गोल मोल, अमूर्त और बेमतलब मानवीयता से काम चलाना, यह दरअसल आततायियों के पक्ष में जाता है. वे यही तो चाहते हैं. स्पेन के महान फिल्मकार लुई बुनुअल की साफ उद्घोषणा थी कि उनके सारे कृतित्व का एकमात्र उद्देश्य रहा है 'शक्तिशालियों के आत्मविश्वास में छेद करना'. उसके बरक्स हिन्दी में नामचीनों की बाडी लैंग्वेज जरा देखें - पावर और सत्ता के सामने हमेशा विनत, नतमस्तक. हर साल की तरह इस बरस भी अच्छी बुरी रचनायें आयेंगी, लेकिन चाहता हूं कि इस साल में हमारे शीर्ष लेखक, आलोचक और विचारक कम से कम इरैक्ट चलना सीख सकें.<br /> <br />धन्यवाद!विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-22411113076963015352009-12-21T02:18:00.000-08:002010-01-27T01:54:34.038-08:00दुनिया-ए-फ़ानी से बेलौस गुज़र गए नीरज कुमार<div style="BORDER-TOP: rgb(92,138,100) 5px solid; FONT-WEIGHT: bold; FONT-SIZE: 12pt; FLOAT: right; PADDING-BOTTOM: 5px; MARGIN: 10px; WIDTH: 380px; LINE-HEIGHT: 100%; PADDING-TOP: 5px; BORDER-BOTTOM: rgb(92,138,100) 5px solid; TEXT-ALIGN: center">मैं सैनिकों के रानीखेत क्लब में पर्वतराज हिमालय की ओर मुंह किये नंदा देवी की मनोरम चोटी को अपलक निहार रहा था, जो मुझे मिस्र के किसी बच्चा पिरामिड की तरह लग रही थी. वह सोमवार की जोशीली सुबह थी. <a href=" http://kabaadkhaana.blogspot.com/" target="_blank"><strong> 'कबाड़खाना'</strong></a> वाले अशोक भाई खुद को फुर्ती से भरकर मित्रों के साथ थोड़ी ही दूर पर चहलकदमी कर रहे थे और लखनऊ वाले कामता प्रसाद बगल की कुर्सी पर बैठे दवाइयां खा रहे थे. इसी बीच बरगद उखड़ जाने का एसएमएस आया. लिखा था- नीरज कुमार कल शाम नहीं रहे. दिल का भीषण दौरा पड़ने से नीरज जी का निधन इतवार को हो गया था. यह भी एक संयोग ही था कि उनकी मौत की तारीख ६ दिसंबर थी और बाबरी मसजिद ढहाए जाने की बरसी पूरे देश में तारी थी. सन्देश पढ़ते ही मेरे भीतर कड़ाक की आवाज़ के साथ कुछ टूट गया.</div><br /><br />मेरा लटका हुआ मुंह देखकर अशोक भाई ने पूछा भी कि क्या हुआ है, मैंने वह दुखद समाचार कह सुनाया. अशोक भाई ने याद किया- 'अच्छा, अच्छा! वही नीरज कुमार, जिनका जिक्र आप कल शाम कर रहे थे.' मैंने कहा 'हाँ' और एक सर्द आह मेरे मुंह से निकल गयी. अब इसे संयोग कहें कि कुछ और, जिस समय नीरज जी के प्राण मुंबई में निकल रहे थे, लगभग उसी समय मैं उनका एक शेर रानीखेत में अशोक भाई और उनके मित्रों को सुना रहा था. शेर था- <br /><br /><strong>'मीना बाज़ार सा न मेरा रखरखाव था<br />फुटपाथ की दुकाँ थी बड़ा मोल-भाव था.'</strong><br /><br />यह शेर नीरज जी की ज़िंदगी पर सौ फ़ीसद खरा उतरता है. बहरहाल, बदहवाश होकर मैंने फ़ौरन वहीं से गोपाल शर्मा, सिब्बन बैजी और सैय्यद रियाज़ को मुंबई फोन लगाया. पूछा कि कुछ पता है कि क्या हुआ था. फोन आलोक भट्टाचार्य को भी लगाया लेकिन वह उस वक्त लगा नहीं. ये लोग एक समय के हमप्याला और हमनिवाला थे. मुंबई का एक दुखद पहलू यह भी है कि यह एक बार लोगों को अलग करती है तो सालों मिलना-जुलना नहीं हो पाता. सबके रास्ते अलग-अलग हो जाते हैं. दसियों साल एक साथ करने वाले लोग काम की जगह बदल जाने पर यहाँ बीसियों साल तक नहीं मिल पाते. फिर नीरज जी के पास तो कोई काम भी नहीं था. वह वर्षों से बेरोज़गार थे. <br /><br />यह समाचार मिलते ही ये लोग कुर्ला की तरफ भागे, जहां जरी-मरी इलाके की एक बैठी चाल में नीरज जी रहा करते थे. लेकिन तब तक सारा खेल ख़त्म हो चुका था. वह मुस्कुरा कर बात करने वाला पका हुआ तांबई चेहरा, वह गर्व से उठा हुआ चौड़ा माथा और उस माथे का गहरा बड़ा तिल, वह तंज करती मुहावरेदार हिन्दुस्तानी भाषा, वह हमेशा पुराने लगनेवाले पैंट-शर्ट में नई-नई सी लगने वाली रूह पता नहीं कहाँ रुखसत हो चुकी थी. मुझे गहरी उदासी ने घेर लिया था रानीखेत में. फिर दिन यंत्रवत चलता रहा. हलद्वानी लौटते समय पूरे रास्ते मेरी देह कार में थी और दिमाग में यादों का बगूला उठ रहा था.<br /><br />वे मेरे अंडे से निकलने के दिन थे. कान्वे प्रिंटर्स का 'नया सिनेमा' साप्ताहिक वरली नाका की रेडीमनी टेरेस नामक इमारत से निकलता था. 'उर्वशी' के सम्पादक रह चुके आलोक सिसोदिया इस रंगीन और सचित्र साप्ताहिक के सम्पादक थे. मैं यहाँ उप-सम्पादक नियुक्त हुआ था. यह १९८९-९० का वर्ष था. नीरज जी से मेरी पहली मुलाक़ात और पहली भिड़ंत भी इसी दफ़्तर में हुई. दरअसल वह मेरे चतुर्वेदी होने का अपनी विशेष शैली में मज़ा लेने लगे और मैं आग-बबूला हो उठा. वह तो बहुत बाद में मुझे अहसास हुआ कि वह मुझे प्रगतिशीलता का पहला पाठ पढ़ा रहे थे. लेकिन गाँव से आये संस्कारी ब्राह्मण नवयुवक विजयशंकर को वह बेहद नागवार गुजरा और अत्यंत जूनियर होने के बावजूद उसने पर्याप्त उत्पात उनके साथ मचाया.<br /><br />उसी समय एक ऐसी घटना घटी कि किसी लेख पर सम्पादक जी के साथ मैंने बहस फंसा ली और लगा कि नौकरी गयी. लेकिन नीरज जी ने मेरा हर तरह से साथ देकर मुझे बचा लिया और उनकी इस कार्रवाई से प्रभावित होकर उस दिन से मैं उनकी बातें ध्यान से सुनने लगा. वह जिस तरह से ईश्वर, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषा के ब्राह्मणत्व की धज्जियां उड़ाते थे, उसे सुन-सुन कर मैं दंग था. ऐसी क्रांतिकारी स्थापनाएं मैंने जीवन में पहली बार सुनी थीं. मैं गहरे रोमांटिसिज्म के नशे में गिरफ्तार हो गया और शीघ्र ही उनका फैन बन गया. फिर तो जल्द ही उन्होंने सीनियर-जूनियर का फर्क मिटा दिया और जहां भी जाते अपने साथ ले जाते. उन्हीं के साथ मैंने मुम्बई का वह 'अंडरवर्ल्ड' देखना शुरू किया जिसमें देसी दारू के अड्डे, हिजड़े, वेश्यालय, जुआ खाने, सटोरिये, चौपाटियाँ, मुम्बई रात की जगमगाती बांहों में, नंगी सड़कें, झोपड़पट्टियां और मुशायरे तक की बेपनाह दुनिया थी.<br /><br />इसके बाद की दास्ताँ बयान करने के लिए एक उम्र भी कम है और कलेजा भी चाहिए. इसमें नीरज जी की तंगहाली, स्वाभिमान, मानसिक उलझनें, भावनात्मक टूटन, पारिवारिक बियाबान और बरजोरी के अनेक किस्से है. आखिरकार स्थायी बेरोज़गारी से आज़िज आकर उन्हें मुंबई त्याग कर रोजी की उम्मीद में पटना जाना पड़ा. वह कृष्ण होते तो लोग 'रणछोड़' नाम दे देते. लेकिन चमचमाती दुनिया के कामयाब साथी उन्हें कब का मुंहफट और शराबी करार देकर उनसे कन्नी काट चुके थे. अधिकाँश लोगों को तो पता भी नहीं था कि पिछले १० वर्षों से नीरज जी कहाँ हैं. इस हालत पर उनका ही एक शेर कितना मौजूं है-<br /><br /><strong>'शाइस्ता यारों ने उसको पत्थर करके छोड़ दिया,<br />जंगल का इक शख्स शहर में इन्सां बनने आया था.'</strong> <br /><br />इस दरम्यान नीरज जी साल-छः माह में मुंबई आते-जाते रहते थे. मुंबई उन्हें जबरदस्त तौर पर खींचती थी. दो-चार मुलाकातें इस बीच की मुझे याद हैं जो पहले जैसी ही आवारगी और गर्मजोशी और सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक बहस और गर्मागर्मी और झगड़ों से भरी हुई थीं. पिछले वर्ष नीरज जी हमेशा के लिए अपनी प्यारी मुंबई आ गए थे. बेटी की शादी हो चुकी थी और बेटा पढ़ाई कर रहा था.<br /> <br />एक दिन हम मिले- मैं, सैयद रियाज़ और नीरज जी. मेरे घर पर ही बैठक हुई. माँ की लगातार बिगड़ती तबीयत और सायन अस्पताल में होने जा रहे ऑपरेशन को लेकर वह बहुत चिंतित थे. फिर भी उन्होंने कहा- 'ज़रा जी को सुकून और मुझे दुनिया से फुर्सत मिले तो आराम से बैठेंगे विजय... और ऐसे वक्त में जब दोस्तों के घर चाय की प्याली भी नसीब नहीं, तुम्हारा घर शराब के लिए भी खुला रहता है. जीते रहो! फिर आज तो गाना-बजाना भी नहीं हुआ'.<br /><br />सुबह जल्द उठकर वह कुर्ला चले गए और हम सोते ही रह गए. मुझे याद आया कि नीरज जी की आवाज़ कितनी सुरीली और तरन्नुम कितना दिलकश था. जब वह मस्ती में होते तो अपना एक रोमांटिक शेर ऐसे दर्द और अवसाद भरे तरन्नुम में गुनगुनाते कि कलेजा मुंह को आता-<br /><br /><strong>'अक्सर तुम्हें देखा है, तुम देख के हंसते हो<br />ज़रा अपना पता देना, किस बस्ती में बसते हो.'</strong><br /><br />छपने-छपाने की तरफ से वह किस कदर लापरवाह थे इसका एक सबूत यह है कि उनकी सारी गज़लें और नज्में न तो किसी किताब में मिलेंगी, न किसी दोस्त के पास और न ही उनके घरवालों के पास. उनकी शायरी में मुद्दों की गहरी समझदारी, पैनी राजनीतिक दृष्टि, महीन व्यंग्य, साम्प्रदायिकता विरोध और भविष्य में तीखे जनवादी संघर्ष का आशावादी दृष्टिकोण साफ़ नजर आता है. दरअसल वह दुष्यंत कुमार के बाद की पीढ़ी के चंद उम्दा शायरों में से एक थे. पेश हैं उनके चंद अश'आर-<br /><br /><strong>'पुल क्या बना शहर से आफ़त ही आ गयी<br />इस पार का जो कुछ था उस पार हो गया.' <br /><br />'बादल सहन पे छायें तो किसी गफ़लत में मत रहना<br />हवा का रुख बदलते ही घटा का रुख बदलता है.'<br /><br />'यूं ही इधर-उधर न निशाने खता करो<br />मौसम फलों का आयेगा ढेले जमा करो.'<br /> <br />'कुछ शरीफों ने कल बुलाया है<br />आज कपड़े धुला के रखियेगा.'<br /><br />'हमको पता यही था के सलमान का घर था<br />वो कह रहे हैं हमसे मुसलमान का घर था.' <br /><br />'गुज़रो तो लगेंगी ये शरीफ़ों की बस्तियां<br />ठहरो तो लगे आबरू अब कैसे बचाएं.'<br /><br />'आपसे हुई थी इल्म बेचने की बात<br />रह-रह के क्यों ईमान मेरा तोल रहे हैं.'<br /> <br />'रोज़ी तलाशने सभी शोहदे शहर गए<br />पनघट से छेड़छाड़ का मंजर गुज़र गया.'</strong><br /><br />नीरज जी के बारे में मेरे पास लिखने और कहने को बहुत अधिक है. तमाम ऐसे किस्से हैं जिनसे हमारी आवारगी और बदमिजाजी का गुमाँ होता है. कितनी ऐसी छेड़ें हैं जो यारों और अय्यारों के साथ चली आती थीं. लेकिन वह कहानी फिर सही...<br /><br />हमारी आख़िरी बैठकबाज़ी यही कोई चार माह पहले हुई थी. उन्हें किसी ने पुराना मोबाइल दे रखा था जिसका बैलेंस ख़त्म होने के बाद करीब दो माह से बातचीत भी नहीं हो पा रही थी. सैयद रियाज़ से ही मैं पूछा करता था कि नीरज जी से मुलाक़ात हुई या नहीं. इधर कुछ दिनों से उनका अपने सबसे पुराने यार सैयद रियाज़ से भी कुछ ठीक नहीं चल रहा था. रियाज साहब ने मुझसे कहा था कि अब वह नीरज जी से कभी मिलना नहीं चाहेंगे. वजह वही दारू की टेबल पर हुए झगड़े की, दोस्ती की, स्वाभिमान की, वही पाक-साफ़ होने के अनुपात की. मैं जानता हूँ कि न मिलने की ऐसी कसमें जाने कितनी बार टूटी हैं. इस बार भी टूटतीं. लेकिन इस बार तो नीरज जी ने ही कोई मौक़ा नहीं दिया और दुनिया-ए-फ़ानी से चले गए. अकबर इलाहाबादी ने शायद नीरज जैसे कबीरों के बारे में ही कहा है-<br /><br /><strong>'इस ख़ाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊंगा बेलौस<br />साया हूँ फ़क़त नक्श-ब-दीवार नहीं हूँ.'</strong>विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-59583042349107321802009-10-15T03:37:00.000-07:002009-10-15T03:51:56.068-07:00एक नदी जो बना दी गयी अछूत<div style="BORDER-TOP: rgb(92,138,100) 5px solid; FONT-WEIGHT: bold; FONT-SIZE: 12pt; FLOAT: right; PADDING-BOTTOM: 5px; MARGIN: 10px; WIDTH: 380px; LINE-HEIGHT: 100%; PADDING-TOP: 5px; BORDER-BOTTOM: rgb(92,138,100) 5px solid; TEXT-ALIGN: center"> पिछले दिनों मैं हिन्दी समाचार एजेंसियों की एक रपट पढ़ रहा था. उसे पढ़कर झटका लगा. मनुष्यों का मनुष्यों को ही अछूत बना देना तो हम देखते-सुनते-पढ़ते आ रहे हैं लेकिन नदियों को अछूत बना देना! वह भी भारत जैसे देश में जहां पेड़-पौधों, नदी-पहाड़ों यहाँ तक कि कण-कण में ईश्वर का वास होना बताया और माना जाता रहा है, माना जाता है! यह रपट उत्तराखंड से सम्बंधित थी</div><br />यों तो उत्तराखंड को देवभूमि माना जाता है और यह भी मान्यता है कि यहाँ के पर्वत, वन, नदियों, टीलों तक में देवता वास करते हैं. गंगा, यमुना जैसी सतत प्रवाहिनी नदियों का उद्गम भी इसी के ग्लेशियर क्षेत्र से हुआ है. इस क्षेत्र की अन्य नदियों को भी पवित्र माना गया है और यहाँ की लगभग सभी नदियों के साथ गंगा प्रत्यय जोड़ने की परम्परा रही है. लेकिन इसी देवभूमि में एक नदी ऐसी भी है जिसे अछूत माना गया है, और उसका पानी पीना तो दूर, पानी को छूना तक निषेध है!<br />यह नदी है टौंस. टौंस के बारे में मान्यता यह है कि पौराणिक काल में एक राक्षस का वध किये जाने पर उसका रक्त इस नदी में गिर गया था, जिससे यह दूषित हो गयी. यही वजह है कि इसे तमसा भी कहा जाता है.<br /><br />उत्तरकाशी जनपद में दो नदियाँ रुपीन और सुपीन देवाक्यारा के भराड़सर नामक स्थान से निकलती हुई अलग-अलग दिशाओं में प्रवाहित होती हैं. रुपीन फते पट्टी के १४ गाँवों से गुजरती है जबकि पंचगाई, अडोर व भडासू पट्टियों के २८ गाँवों से जाती है. लेकिन इन गाँवों के लोग न तो इन नदियों का पानी पीते हैं और न ही इनसे सिंचाई की जाती है. नैटवाड़ में इन नदियों का संगम होता है और यहीं से इसे टौंस पुकारा जाता है.<br /><a href="http://3.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/Stb78Gmm20I/AAAAAAAAAVk/Z8PxpHAKklY/s1600-h/river+achhoot.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 180px; height: 120px;" src="http://3.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/Stb78Gmm20I/AAAAAAAAAVk/Z8PxpHAKklY/s320/river+achhoot.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5392774613806013250" /></a><br />लोकमान्यताओं के अनुसार रुपीन, सुपीन और टौंस नदियों का पानी छूना तक प्रतिबंधित किया गया है. वजह धार्मिक मान्यताएं भी हैं. कहते हैं कि त्रेता युग में दरथ हनोल के पास किरमिरी नामक राक्षस एक ताल में रहता था. उसके आतंक से स्थानीय जन बेहद परेशान थे. लोगों के आवाहन पर कश्मीर से महासू देवता यहाँ आये और किरमिरी को युद्ध के लिए ललकारा. भयंकर युद्ध के बाद महासू देव ने आराकोट के समीप सनेल नामक स्थान पर किरमिरी का वध कर दिया. उसका सर नैटवाड़ के पास स्थानीय न्यायदेवता शिव के गण पोखू महाराज के मंदिर के बगल में गिरा जबकि धड़ नदी के किनारे. इससे टौंस नदी के पानी में राक्षस का रक्त घुल गया. तभी से इस नदी को अपवित्र तथा तामसी गुण वाला माना गया है.<br /><br />एक अन्य मान्यता के अनुसार द्वापर युग में नैटवाड़ के समीप देवरा गाँव में कौरवों व पांडवों के बीच हुए युद्ध के दौरान कौरवों ने भीम के पुत्र घटोत्कच का सिर काट कर इस नदी में फेंक दिया था. इसके चलते भी इस नदी को अछूत माना गया है. मान्यता है कि इस नदी का पानी तामसी होने के कारण शरीर में कई विकार उत्पन्न कर देता है यहाँ तक कि अगर कोई लगातार दस साल तक टौंस का पानी पी ले तो उसे कुष्ठ रोग हो जाएगा!<br />सामाजिक कार्यकर्त्ता मोहन रावत, सीवी बिजल्वाण, टीकाराम उनियाल और सूरत राणा कहते हैं कि नदी के बारे में उक्त मान्यता सदियों पुरानी है और पौराणिक आख्यानों पर आधारित है. वे कहते हैं कि हालांकि इस नदी के पानी के सम्बन्ध में किसी तरह का वैज्ञानिक शोध नहीं है लेकिन स्थानीय जनता की लोक परम्पराओं में यह मान्यता इस कदर रची बसी हुई है कि कोई भूलकर भी इसका उल्लंघन नहीं करता.<br /><br /><em><strong>नोट: यह पूरी रपट एजेंसियों की है. इसे यहाँ प्रस्तुत करने के अलावा इसमें मेरा कोई योगदान नहीं है.</strong></em>विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-21207528357347929932009-10-08T21:22:00.000-07:002009-10-08T22:28:44.128-07:00रमन सिंह के साथ चित्र ही दिखा दें- कमला प्रसाद<div style="BORDER-TOP: rgb(92,138,100) 5px solid; FONT-WEIGHT: bold; FONT-SIZE: 12pt; FLOAT: right; PADDING-BOTTOM: 5px; MARGIN: 10px; WIDTH: 380px; LINE-HEIGHT: 100%; PADDING-TOP: 5px; BORDER-BOTTOM: rgb(92,138,100) 5px solid; TEXT-ALIGN: center">हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में प्रोफेसर कमला प्रसाद ने महत्वपूर्ण कार्य किया है. पिछले कई वर्षों से वह प्रगतिशील 'वसुधा' का सम्पादन कर रहे हैं और वर्त्तमान में प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव हैं. उन्होंने जाने कितने ही कवियों-लेखकों को पुष्पित-पल्लवित किया है. कमला प्रसाद जी की राष्ट्रीय स्तर पर सक्रियता देखते ही बनती है. खराब स्वास्थ्य के बावजूद संगठन के कार्यों के लिए उनका एक पैर घर में तो दूसरा ट्रेन में होता है. लेकिन पिछले दिनों 'वसुधा' और प्रलेस के दामन पर आरोपों के कुछ छीटें पड़े तो उनका दुखी होना स्वाभाविक था. उन्होंने बेहद संयत ढंग से फोन पर अपनी बात कुछ इस अंदाज़ में रखी-</div><br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/Ss7G5zjNkpI/AAAAAAAAAVc/F_F3i8qU6OQ/s1600-h/Pro-Kamla-Prasad.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 173px; height: 191px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/Ss7G5zjNkpI/AAAAAAAAAVc/F_F3i8qU6OQ/s320/Pro-Kamla-Prasad.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5390464500401803922" /></a><br />पहली बात तो यह है कि जो राशि 'वसुधा' को पुरस्कारस्वरूप मिली थी वह फोर्ड फ़ाउंडेशन की नहीं थी. चूंकि 'वसुधा' प्रगतिशील लेखक संघ की पत्रिका है इसलिए उसे इस तरह के आरोपों एवं विवादों से बचाने के लिए हमने एक पत्र के साथ समूची राशि चेक के जरिये वापस कर दी है. यह फैसला भी मेरा निजी फैसला नहीं, सम्पादक मंडल की बैठक में लिया गया फैसला था. दूसरे जो आरोप हैं वे कमला प्रसाद पर व्यक्तिगत रूप से नहीं हैं, प्रगतिशील लेखक संघ पर हैं. उन आरोपों पर संगठन चर्चा करेगा और जो भी फैसला होगा वह प्रेस को बता दिया जाएगा.<br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/Ss7E_cDf0iI/AAAAAAAAAVU/uj4NKQ4NX0Y/s1600-h/Pramod_verma_samman_02.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 160px; height: 120px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/Ss7E_cDf0iI/AAAAAAAAAVU/uj4NKQ4NX0Y/s320/Pramod_verma_samman_02.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5390462398150726178" /></a><br />रही ज्ञानरंजन जी की बात, तो अगर वह कहते हैं कि मैंने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के साथ मंच साझा कर लिया है तो वह इसका सबूत प्रस्तुत करें. वह सुनी-सुनाई बातों पर आरोप लगाया करते हैं. वह मेरा रमन सिंह के साथ एक चित्र ही दिखा दें.<br /><br />मेरा कहना है कि सामूहिक जीवन जनतंत्र की सबसे बड़ी ताकत होती है. समूह या सामूहिक जीवन को खंडित करना उचित बात नहीं है. जिसे कोई बात कहानी है उसे एक कार्यकर्ता की तरह बात करना चाहिए..विचारक की तरह नहीं..संगठन के बाहर के आदमी की तरह आरोप नहीं लगाना चाहिए. कमला प्रसाद अकेले प्रलेस नहीं चला रहे हैं, पूरा संगठन है. इसीलिये न तो कोई फैसला व्यक्तिगत कहा जा सकता और न ही आरोप व्यक्तिगत हो सकता है. इसीलिये मैं फिर कह रहा हूँ कि जो भी बातें प्रगतिशील लेखक संघ के बारे में पिछले दिनों सामने आयी हैं उन पर संगठन के अन्दर विचार किया जाएगा. इस सम्बन्ध में जल्द ही कार्यकारिणी की बैठक होने जा रही है. प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह और फोर्ड फाउंडेशन वाले विवाद पर मैं पहले ही विस्तृत प्रतिक्रिया दे चुका हूँ जो <a href="http://mohallalive.com/2009/09/25/statement-of-professor-kamla-prasad/" target="_blank"><strong>ब्लागों</strong></a> और समाचार पत्रों में छप चुकी है इसलिए उसे यहाँ दोहराने का अधिक अर्थ नहीं है. पिछले कुछ दशकों से मैं प्रलेस का कार्यकर्त्ता रहा हूँ और अब भी हूँ. जो जिम्मेदारियों दी जाती हैं उन्हें शक्ति भर निभाने का प्रयास करता हूँ. फिलहाल इतना ही...<br /><br /><em><strong>ऊपर चित्र प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह का है जिसमें कमला प्रसाद (बाएँ), आलोचक भगवान सिंह (पुरस्कार लेते हुए) और अशोक वाजपेयी (दायें) नजर आ रहे हैं. यह चित्र 'हिंद युग्म' से साभार लिया गया है.</strong></em>विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4194829957225159901.post-54769519659596344062009-10-05T04:41:00.000-07:002009-10-05T04:56:50.853-07:00मैंने म.प्र. प्रलेस इसलिए छोड़ा- ज्ञानरंजन<div style="BORDER-TOP: rgb(92,138,100) 5px solid; FONT-WEIGHT: bold; FONT-SIZE: 12pt; FLOAT: right; PADDING-BOTTOM: 5px; MARGIN: 10px; WIDTH: 380px; LINE-HEIGHT: 100%; PADDING-TOP: 5px; BORDER-BOTTOM: rgb(92,138,100) 5px solid; TEXT-ALIGN: center"> ज्ञानरंजन का नाम साहित्य जगत में बड़े आदर के साथ लिया जाता है. उनके सम्पादन में हाल-फिलहाल तक निकलनेवाली प्रतिष्ठित लघु-पत्रिका 'पहल' का महत्त्व किसी से छिपा नहीं है. एक कथाकार के रूप में ज्ञान जी ने हिन्दी साहित्य को कई अनमोल कहानियां दी हैं. वह मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के वरिष्ठ और सम्मानित सदस्यों में शुमार रहे हैं. लेकिन पिछले दिनों जब उन्होंने अचानक इस लेखक संघ से नाता तोड़ने का निर्णय लिया तो हिन्दी जगत के लिखने-पढ़ने वालों को एक झटका लगा. सबके मन में एक ही प्रश्न था कि आखिर इतने बड़े निर्णय के पीछे क्या वजह रही होगी? यही प्रश्न मेरे मन में भी था, सो मैंने ज्ञान जी से बातचीत करने की सोची. इस पर ज्ञान जी ने जो कहा वह आपके सामने ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ-</div><br /><a href="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/SsnePSHMT2I/AAAAAAAAAVM/Xyd03SGJj3Q/s1600-h/31Gyan-Ranjan_1208.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 150px; height: 150px;" src="http://1.bp.blogspot.com/_EfGk5RcqPUs/SsnePSHMT2I/AAAAAAAAAVM/Xyd03SGJj3Q/s320/31Gyan-Ranjan_1208.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5389082783266918242" /></a><br />"ये स्थितियां पिछले पांच-दस वर्षों से लगातार बनती चली आ रही थीं. प्रगतिशील लेखक संघ का सांस्कृतिक विघटन जारी है. मुझे तो यह लगता है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद जिस तरह की लूट-खसोट हर क्षेत्र में मची थी, उसी तरह का माहौल पिछले दिनों से प्रलेस में चल रहा है. लोगों को ऐसा लगता है कि अब हमारे सामने कोइ मॉडल बचा नहीं है इसलिए जहां से जितना मिले लूट-खसोट लो. कम्युनिस्ट पार्टियों के भारतीय राजनीति में हाशिये पर आने के बाद हमारे सांस्कृतिक मोर्चे के जो नेता हैं उनमें ये कैफियत पैदा हो गयी दिखती है.<br /><br />पिछले वर्षों में जिस तरह वामपंथी गढ़ ढहे, दूसरी तरफ नव-पूंजीवाद, अमेरिकी दादागिरी और उपभोक्तावाद का शिकंजा जिस तरह से कसता गया है, उसके दबाव और आकर्षण में हमारा प्रगतिशील नेतृत्त्व प्रेमचंद की परम्परा कायम नहीं रख सका और एक विचारहीनता का परिदृश्य तैयार करता रहा.<br />आप देखिये कि प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष नामवर सिंह जसवंत सिंह से लेकर सुमित्रा महाजन जैसे फासिस्ट और दक्षिणपंथी विचारधारा वाले लोगों के साथ मंच साझा कर रहे हैं और इस बात पर ज़ोर देते हैं कि विचारधारा की अब कोई जरूरत नहीं बची. इस घालमेल से नए रचनाकारों को घातक संकेत और प्रेरणा मिलती रही है. संयोग देखिये कि प्रलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने जो किया उसी के नक्श-ए-क़दम पर चलते हुए राष्ट्रीय महासचिव ने भी छत्तीसगढ़ के भाजपाई मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह के साथ मंच साझा कर लिया. इस आचरण और प्रवृत्ति का विस्तार होता जा रहा है...और संगठन के पदाधिकारी अपने आचरण को तर्कसंगत बताने का प्रयास कर रहे हैं.<br /><br />भारतवर्ष में इन दिनों अनेक विदेशी एजेंसियां वित्तीय सहायता देकर अनेक संगठनों, पत्रिकाओं और व्यक्तियों की प्रतिबद्धता तथा सृजनात्मक शक्ति को, उनकी विचारशीलता को कुंद करने का प्रयास कर रही हैं. इस सन्दर्भ में फोर्ड फ़ाउंडेशन द्वारा संचालित एक पुरस्कार, जो 'कबीर चेतना' के नाम से पिछले दिनों सुर्खियों में आया है, मध्य प्रदेश प्रलेस की पत्रिका 'वसुधा' ने भी हस्तगत कर लिया. यह बात फोर्ड फ़ाउंडेशन की रपट में खुले आम छपी है. मेरे पास वह रपट है.<br />विदित हो कि प्रलेस ने दस वर्षों तक म.प्र. में फोर्ड फ़ाउंडेशन के कारनामों के खिलाफ लंबा संघर्ष किया था, प्रस्ताव पारित किये थे और समय-समय पर सुप्रसिद्ध 'कला का घर' भारत-भवन का बहिष्कार भी किया था. विचार कीजिये कि प्रेमचंद का प्रलेस अब कहाँ पहुंचा दिया गया है.<br /><br /><div style="BORDER-TOP: rgb(92,138,100) 5px solid; FONT-WEIGHT: bold; FONT-SIZE: 12pt; FLOAT: right; PADDING-BOTTOM: 5px; MARGIN: 10px; WIDTH: 200px; LINE-HEIGHT: 100%; PADDING-TOP: 5px; BORDER-BOTTOM: rgb(92,138,100) 5px solid; TEXT-ALIGN: center"> प्रलेस में लेखकों की रचनाओं पर गोष्ठियां होती थीं, नवोदित लेखकों को प्रोत्साहित किया जाता था, अब वह सब बंद है. जैसे कोई ज़मीन या मकान पर कब्ज़ा कर लेता है उसी तरह चंद लोगों ने म.प्र. प्रलेस पर कब्ज़ा कर लिया है, वह भी अपने हित साधने के लिए. जिस मिशन और संविधान के साथ प्रलेस शुरू हुआ था वे सारी चीज़ें धूमिल हो गयी हैं और सत्ता तथा धन के साथ जुड़ाव प्रबल हो गया है. म.प्र. प्रलेस में आतंरिक लोकतत्र के लिए कोई स्थान नहीं बचा है.</div><br />मैंने व्यक्तिगत स्तर पर कई बार प्रलेस की संगठन बैठकों में प्रयास किया कि चीज़ें पटरी पर आयें, अगर कोई गलत बात हो रही हो तो उसे चर्चा करके ठीक कर लिया जाए, लेकिन ऐसा भी संभव नहीं रह गया. यही वजह है कि मैं पिछले पांच वर्षों से उदासीन हो गया था और अंततः मुझे त्यागपत्र देने का अप्रिय निर्णय लेना पड़ा.<br /><br />यह चिंता सिर्फ प्रलेस से जुड़े साहित्यकारों की ही नहीं बल्कि पूरे लेखक समुदाय की होनी चाहिए... क्योंकि आज सांस्कृतिक संगठनों में पतनोन्मुखता का बोलबाला होता जा रहा है."<br /><br /><strong>ज्ञान जी ने यह खुलासा भी किया कि स्वास्थ्य कारणों से 'पहल' को इंटरनेट पर ले जाने का विचार उन्होंने त्याग दिया है.</strong>विजयशंकर चतुर्वेदीhttp://www.blogger.com/profile/12281664813118337201noreply@blogger.com9