मैंने यह कविता १६ अगस्त १९९१ को (पुरानी दस्तयाब डायरी के मुताबिक़) भगवत रावत की कविता, जहाँ तक मेरी स्मृति है; 'गिद्ध' से 'बेहद' प्रभावित होकर अपने गाँव की बाढ़ को बार-बार भोगकर लिखी थी.
'कबाड़खाना' में केदारनाथ जी की कविता पढ़कर इसे खोजना पड़ा. कच्ची कविता समझकर मैंने अपनी कविता को स्वयं निरस्त कर दिया था. लेकिन अब देखता हूँ तो मुझे अपनी यह कविता काम की लगती है. आप सुधीजन हैं-
बाढ़ से घिरे लोग
बाढ़ से घिरे घरों की खपरैल पर
घर-गृहस्थी लेकर टंगे लोग जानते हैं-
कोई नहीं बचायेगा उनकी फसलें,
पानी में डूबते-उतराते ढोर-डंगर,
कोई नहीं मिटाएगा पेड़ों पर लगे बाढ़ के निशाँ
जब पेड़ ही बह गए तो कहाँ से कोई लगायेगा बाढ़ का अनुमान?
बाढ़ रह जायेगी अखबारों की सुर्खियों में
राहत रकम खो जायेगी काग़जात की मुरकियों में
लोग जानते हैं
और कूद पड़ते हैं उफनते पानी में
चलाते रहते हैं अपनी बाहें धारा के ख़िलाफ़
किनारा मिलने तक.
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