समाज में अक्सर जिन्हें दबा-कुचला समझा जाता है, वे दबंगों के सामने कभी ऊंची आवाज़ में बोलते नहीं देखे-सुने जाते. लेकिन अपनी आत्मा को जीवित रखने के लिए ये लोग प्रतिरोध की नई भाषा गढ़ लेते हैं, जो कभी दबंगों (ऊंची जातियों) के सामने बोल दी जाती है, तो कभी उनकी पीठ पीछे इसका इस्तेमाल किया जाता है.
प्राचीन संस्थागत समाजों में प्रतिरोध की इस भाषा के रूप ज्यादा रचनात्मक होते हैं. जाहिर है, ग्रामीण समाज में इस भाषा और इसके मुहावरों की जड़ें ज्यादा रचनात्मक, ज्यादा गहरी, ज्यादा मारक तथा ज्यादा उपयुक्त होती हैं. मुझे बघेली बोली की एक कहावत याद आती है--- 'इतनै होती कातनहारी, काहे फिरती जाँघ उंघारी.'
(शालीनता का ख़याल रखते हुए यहाँ 'जाँघ' लिखा गया है, असल प्रयोग में 'जांघ' की जगह गुप्तांग का नाम लिया जाता है.)
कहावत का अभिधार्थ यह है कि अगर सूत कातने में इतनी ही प्रवीणता होती तो बिना कपड़ों के क्यों घूमना पड़ता. लेकिन कहावतें अभिधा में कभी नहीं होतीं. इनमें गहरी व्यंजना छिपी होती है. इस कहावत में व्यंजना यह है कि राजाजी इतने ही गुणी होते तो इतनी फजीहत क्यों होती (किसी भी सन्दर्भ में).
अब यह बात राजाजी से आमने-सामने तो की नहीं जा सकती. इसलिए कमज़ोर तबके के लोग या तो आपस में या फिर पीठ-पीछे इस कहावत का इस्तेमाल करके अपनी भड़ास निकाल लिया करते हैं.
बच्चे अपेक्षाकृत सबसे कमज़ोर तबके के माने जाते हैं. लेकिन पिटाई करनेवाले मास्टर जी से बदला चुकाने के लिए वे भी अपनी कवितायें गढ़ लेते हैं जो कभी आपस में खेल-कूद के दौरान या काफी दूर से पंडित जी को जाते देखकर सुनायी जाती है. एक नमूना पेश है-
'पंडित जी, पंडित जी पाँय लागी,
पकड़ चुटैया दै मारी.'
-यानी ऐसे मास्टर जी को प्रणाम करते है, जिनकी चोटी पकड़ कर हम पटक दें.
अब बताइये, ऐसे बच्चों को इसकी भी परवाह नहीं होती कि अगर मास्टर जी ने सुन लिया तो अगले दिन स्कूल में क्या होगा! मुर्गा बनना पड़ेगा, बेंत खाने पड़ेंगे या मेज़ पर खड़ा होना पड़ेगा! लेकिन क्या कीजियेगा, प्रतिरोध की भाषा मनुष्य न गढे तो वह या तो कुंठित हो जायेगा, हीनभावना का शिकार हो जायेगा, या फिर उसका स्वाभिमान ही मर जायेगा. दबी-कुचली जातियाँ प्रतिरोध की इसी भाषा के चलते समाज में अपनी ही नज़रों में गिरने से बची रही हैं और अब जाकर उनमें प्रतिकार की शक्ति भी पैदा हो रही है.
शहरी जीवन में भी ऐसी भाषा का इस्तेमाल देखा जा सकता है. हालांकि इसमें अभिव्यंजना का स्तर उतना गहरा और मारक नहीं होता जितना कि ग्रामीण जीवन में. फिर भी लोग शहर में भी प्रतिरोध की अपनी भाषा विकसित कर ही लेते हैं.
कल 'बेस्ट' की बस में सफर करते वक्त मैंने एक युवक को अपनी प्रेमिका से यह कहते सुना- 'यार मेरा बॉस तो एकदम 'हरी साडू' है.'
प्रेमिका- 'हरी साडू? क्या मतलब?'
प्रेमी- 'हरी यानी एच...ए...आर...आई... और एच फॉर हिटलर, ए फॉर एरोगैंट, आर फॉर रास्कल...'
प्रेमिका- 'अच्छा तो टीवी पर उस नौकरी वाले विज्ञापन का भूत तुम्हारे सिर से अब तक नहीं उतरा... अगर तुम्हारे बॉस को पता चला न तो वह 'हरी साडू' से एकदम 'राज ठाकरे' बन जायेगा. अब बोलो, परप्रांतीय बनना चाहते हो क्या?'
इतना सुनना था कि बस में सवार अन्य लोग बुक्का फाड़ कर हंस पड़े.
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अच्छा है विजय भाई। हम लोग स्कूल में अपने अध्यापकों में से किसी को मच्छर, किसी को कौआ और किसी को खब्ती कहा करते थे। अवध के इलाके में बारात विदा होने पर घर की महिलाएं पुरुषों को स्वांग करके अपनी चिढ़ निकाला करती थीं।
जवाब देंहटाएंvijay jee,
जवाब देंहटाएंaapke lekh ne prabhavit kiya aur aapkee shailee ne bhee.
विजय , एक पंडित जी परसाद देई..... वाला भी होता था - लेकिन
जवाब देंहटाएंजो दो दिन से भन्न भन्न घूम रहा है - आपको पढने के बाद - वो नीचे है - साभार मनीष
"क्या है तुम्हारा प्रतिरोध का स्वर?
आजा़द लब से सवाल आता है ,
रेत से भरा एक बाईस्कोप उन्घाता है
लाल टोपी, हरा पट्टा, नीला हाथी
या हँसिया हथोड़ा, चाँद सितारे वाले साथी
तभी तबीयत को कटखना अहसास धोता है
कहाँ परचम को लहरा कर बहुत इन्साफ होता है
नज़र का आख़री मंज़र अधिकतर साफ होता है"
गाँव की याद दिला दी अपने. सुनकर ही होरा और भरते का स्वाद आ गया. बस अब छुट्टी मिलने का इंतज़ार है तो हम भी जल्दी भागे अपने गाँव.
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