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सोमवार, 25 जुलाई 2011
शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011
प्रोफ़ेसर कमला प्रसाद का जहां से जाना
कल अग्रज कवि और प्रिय भाई कुमार अम्बुज के ब्लॉग पर मैंने यह टिप्पणी पोस्ट की थी--''अम्बुज जी, आपने कमाल की टिप्पणी लिखी है. आज (३१/०३/२०११) के जे सोमैया कॉलेज, विद्याविहार में कमला प्रसाद जी की याद में एक शोक सभा आयोजित की गयी थी. वहां उनके लिखे कुछ सम्पादकीय अंश, उनके बारे में लिखा गया काशीनाथ सिंह जी का संस्मरण, परसाई जी को लेकर किया गया उनका आकलन एवं दीगर सामग्री स्थानीय रचनाकारों ने पढ़कर सुनायी. कार्यक्रम 'सृजन-सन्दर्भ' साहित्यिक पत्रिका एवं सोमैया कॉलेज के हिन्दी विभाग की ओर से प्रोफ़ेसर सतीश पाण्डेय तथा सीईआईएस कॉलेज के प्राध्यापक संजीव दुबे ने आयोजित किया था. यहाँ सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर एमपी सिंह भी उपस्थित थे. कवि-आलोचक विजय कुमार, लेखक शशांक और वरिष्ठ पत्रकार एवं सेवानिवृत्त शिक्षक राधेश्याम उपाध्याय ने अपने-अपने अनुभव एवं संस्मरण साझा किये. मैंने भी एक वक्तव्य टाइप प्रस्तुत किया. साझा बात यह रही कि सब लोगों ने कमला प्रसाद जी को एक कुशल संपादक, अजातशत्रु आलोचक तथा एक अथक संगठक के रूप में याद किया. उनकी स्मृति को प्रणाम ओर विनम्र श्रद्धांजलि!'' आज कुछ लोगों के फोन आये कि वह जो वक्तव्य टाइप मैंने वहां प्रस्तुत किया था उसे अपने ब्लॉग पर चढ़ा दूं. उनके आदेश का पालन कर रहा हूँ----
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मूर्धन्य आलोचक एवं यशस्वी सम्पादक प्रोफ़ेसर कमला प्रसाद जी का दुनिया से चला जाना प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन के लिए एक बड़ा झटका तो है ही मेरे लिए यह एक व्यक्तिगत क्षति भी है. हालांकि कमला प्रसाद जी के लिए व्यक्तिगत जैसी कोई बात नहीं होती थी. उनसे मिलकर सदा यही लगता था कि वह सबके हैं और सब उनके हैं. लेकिन मैं व्यक्तिगत अपनी तरफ से इसलिए कह रहा हूँ कि सतना जिला के जिस धौरहरा गाँव में चौदह फरवरी १९३८ को उनका जन्म हुआ था वह मेरे गाँव से महज २० किमी की दूरी पर है. धौरहरा बघेली का शब्द है जिसका अर्थ होता है श्वेत. और कमाल देखिये कि धौरहरा में जन्म लेने वाले कमला प्रसाद जी का चरित्र आजीवन उज्जवल रहा और कबीर की भाषा में कहें तो उन्होंने जीवन की यह धवल चदरिया ज्यों की त्यों रख दी और हम सबसे शांतिपूर्ण विदा ले कर दुनिया से चले गए. उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता और संगठन क्षमता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने उस महान प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव पद की जिम्मेदारी इतने बरसों से और इतनी कुशलता से संभाल रखी थी जिसकी स्थापना मुंशी प्रेमचंद, फैज़ अहमद फैज़, सज्जाद ज़हीर, मुल्कराज आनंद जैसे महान साहित्यकारों और विचारकों ने की थी.
एक प्रसंग का जिक्र करना यहाँ बहुत आवश्यक जान पड़ रहा है. कमला प्रसाद जी जितना बाहर प्रसन्न नजर आते थे उतना ही वह अन्दर से छलनी व्यक्ति थे. पारिवारिक शोक उनके अन्दर रिसता रहता था. मुझे अपने यहाँ के वरिष्ठों ने बताया है कि उनके एक भाई थे जिनका असमय निधन हो गया था. उनकी स्मृति में उन्होंने बीसों बरस अपने गाँव में नियमित वार्षिक कवि-गोष्ठियां आयोजित कीं. इनमें केदारनाथ अग्रवाल और बैजू काका जैसे बुन्देली - बघेली के जैसे नामी गिरामी कवि कविता पाठ करते थे. यह विन्ध्य क्षेत्र का एक प्रतिष्ठित साहित्यिक आयोजन बन गया था. यह उनके सतना-रीवा क्षेत्र में सक्रिय रहने के दिनों की बात है.
लेकिन जब वह कार्यक्षेत्र बदल जाने पर भोपाल आ गए तो उनकी माता जी भी साथ रहने आयीं. भोपाल में एक यात्रा के दौरान मैं प्रोफ़ेसर कॉलोनी स्थित आवास पर उनसे मिलने गया था. मैंने देखा और सुना कि उनकी माता जी अर्द्ध विक्षिप्त हो चुकी हैं और अपने बरसों पूर्व गुजर चुके बेटे का नाम लेकर बार-बार उसे घर लौट आने को कहती रहती हैं. मैंने कमला प्रसाद जी से इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि जबसे भाई गुजरा है तबसे ही इनकी ऐसी अवस्था है. सोचने वाली बात यह है कि बीसों बरस से अपनी माता जी यह हाल देख कर उनके मन पर क्या गुजरती रही होगी. खैर चार साल पहले उनकी माता जी का स्वर्गवास हो गया था. बाद में कमला प्रसाद जी के एक बेटे को भी मस्तिष्क में गंभीर बीमारी हो गयी थी जिसे लेकर वह इलाज के लिए मारे-मारे फिरते थे. लगभग पागलपन की अवस्था थी. लेकिन ऐसी विकट पारिवारिक परिस्थितियों में भी उन्होंने संगठन के काम को सर्वोपरि रखा और चेहरे पर कभी शिकन नहीं आने दी.
कमला प्रसाद जी ने अपने जीवन में अनेक बड़ी साहित्यिक-सांस्कृतिक जिम्मेदारियां निभाईं. हमने सुना है कि सन् 1976 में उन्होंने सतना में प्रगतिशील लेखक संघ का भव्य समारोह आयोजित किया था जिसमें शिवमंगल सिंह सुमन, हरिशंकर परसाई, मैनेजर पांडेय, ज्ञानरंजन, विजयेन्द्र, काशीनाथ सिंह, धनंजय वर्मा जैसे साहित्यकारों ने शिरकत की थी. तब मेरी उम्र ५-६ वर्ष की रही होगी. कमला प्रसाद जी मध्य प्रदेश की एक और बहुत बड़ी हस्ती मायाराम सुरजन के सानिध्य में भी रहे. सुरजन जी 'देशबंधु' समाचार पत्र के संस्थापक-सम्पादक थे. इनके सहयोग से उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मलेन की गतिविधियाँ बढ़ाईं. बाद में वर्षों तक 'देशबंधु' में कमला प्रसाद जी का नियमित स्तम्भ हम लोगों ने पढ़ा है.
सागर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. करने के बाद उन्होंने सतना और भोपाल में अध्यापन कार्य किया था और आगे चलकर वह रीवा स्थित अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष रहे, केशव अध्ययन एवं शोध संस्थान के अध्यक्ष रहे, मध्य प्रदेश कला परिषद् के सचिव रहे, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा के अध्यक्ष रहे और न जाने कितनी अकादमिक समितियों के महत्वपूर्ण पदों पर रहे, लेकिन वह अपने संगठनकर्ता वाले रूप में सबसे ज्यादा जाने जाते थे. साथी उन्हें सम्मान से ‘कमांडर’ कहकर बुलाते थे. उन्होंने जम्मू-कश्मीर से लेकर केरल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल, मेघालय, असम और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में प्रलेस की इकाइयों का पुनर्गठन किया. मुंबई की एक संगठन सभा का तो मैं साक्षी भी हूँ. वहां सतीश काल्शेकर समेत प्रलेस से जुड़े कई मराठी रचनाकार उपस्थित थे. वह किसी पर कोई जिम्मेदारी थोपते नहीं थे. लोगों से पूछते थे कि वह क्या-क्या कर सकते हैं और बाद में प्यार से नए-पुराने कार्यकर्ताओं को बड़ी जिम्मेदारियां उठाने के लिए मना लेते थे.
कमला प्रसाद जी ने हिन्दी की प्रगतिशील धारा के प्रमुख आलोचकों में अपना स्थान बनाया था. कई विषय तथा व्यक्ति केन्द्रित पुस्तकों का सम्पादन भी किया था. लेकिन वह सिर्फ किताबों तक ही सीमित नहीं रहे. जब वह केशव शोध संस्थान के अध्यक्ष थे मध्यप्रदेश में तो उन्होंने प्रगतिशील धारा के हिन्दी कवियों की नई पौध तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. कर्म क्षेत्र में उतरकर साहित्यिक कार्यकर्ताओं एवं रचनाकारों की फ़ौज तैयार करने तथा उन्हें वैचारिक रूप से सुगठित एवं संगठित करने के प्रयास में वह दिन-रात जुटे रहते थे. कर्मठता ऐसी कि सत्तर की उम्र में भी संगठन के काम से इतनी यात्राएं करते थे कि युवाओं के पसीने छूट जाएँ. हमेशा यही सुनने को मिलता था कि कल जयपुर में थे, परसों रायपुर में, नरसों बनारस में थे, आज इलाहाबाद में हैं तो कल भागलपुर में तो परसों दिल्ली में तो नरसों रीवा में रहेंगे... मैंने ही एक बार अपने ब्लॉग 'आज़ाद लब' में उनके बारे में लिखा था कि उनका एक पैर ट्रेन में रहता है तो दूसरा घर में. शायद इसी अतिसक्रियता ने उनका शरीर तोड़ दिया और तीन-चार माह पहले एक कार्यक्रम में भाग लेने के बाद जयपुर से लौटते ही पता चला कि उन्हें भयंकर कैसर ने जकड़ लिया है.
कमला प्रसाद जी अपना साहित्यिक और वैचारिक गुरु हरिशंकर परसाई को मानते थे. वह बताते थे कि बचपन में संस्कार बनाने का काम तुलसीदास की रामचरित मानस से प्रारम्भ हुआ था. उनके पिता जी तुलसी बाबा के प्रेमी थे इसलिए जैसे ही साक्षर हुए, उनके पिता मानस पढ़कर सुनाने को कहते थे. लेकिन कमला प्रसाद जी का स्पष्ट मानना था कि उनकी साहित्यिक और वैचारिक प्रवृत्तियों को जिसने संगठित, संकलित किया वह परसाई जी ही थे.
परसाई जी की प्रेरणा से कमला प्रसाद जी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े. साहित्यिक, सामाजिक समस्याओं का निदान खोजने के लिए, समाज में रास्ता तलाशने के लिए उन्होंने व्यक्तिगत नहीं बल्कि एक सामूहिक कर्म की खोज की. उसी में से ये विचार पैदा हुआ कि अच्छे साहित्य की, प्रगतिशील साहित्य की पत्रिका निकले. सत्तर के दशक में उन्होंने ज्ञानरंजन जी के साथ मिलकर 'पहल' पत्रिका शुरू की. इसके कुछ सालों बाद ९० के दशक में उन्होंने संगठन के निर्णय पर 'पहल' से अलग होकर 'प्रगतिशील वसुधा' के सम्पादन का दायित्व सम्भाला. यह पत्रिका 'वसुधा' नाम से पहले ही निकल रही थी जिसके संस्थापक-सम्पादक हरिशंकर परसाई थे. 'प्रगतिशील वसुधा' ने हाल के वर्षों में कुछ विशेषांक निकाले हैं जो संग्रहणीय हैं. इनमें परसाई विशेषांक, रामविलास शर्मा विशेषांक, नामवर सिंह विशेषांक, कश्मीरी साहित्य विशेषांक, फिल्म विशेषांक, कहानी विशेषांक और मराठी दलित साहित्य विशेषांक प्रमुख हैं. मृत्यु के कुछ दिनों पहले तक, जब तक वह बेहोश नहीं हो गए, अपने सहयोगियों स्वयं प्रकाश और राजेन्द्र शर्मा के साथ मिलकर 'प्रगतिशील वसुधा' के आगामी अंकों तथा विशेषांकों की योजना बनाने में लगे हुए थे.
मुझे कमला प्रसाद जी और बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व में कम से कम एक समानता तो दिखती ही है. बाबा से जब पूछा जाता था कि वह प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ तथा जन संस्कृति मंच के कार्यक्रमों में एक साथ कैसे दिखाई दे जाते हैं, तो उनका जवाब होता था कि क्या करें तीनों अपने ही बच्चे हैं. लेकिन जब कमला प्रसाद जी से पूछा जाता था कि वह इन तीनों लेखक संघों के साझा कार्यक्रमों को लेकर क्या सोचते हैं तो वह जवाब में प्रलेस के प्रतिनिधियों को जसम के कार्यक्रमों में भेज देते थे. जसम के महासचिव प्रणय कृष्ण ने भी स्वीकार किया है कि कमला प्रसाद जी तीनों वामपंथी संस्कृतिक संगठनों के बीच साझा कार्रवाइयों की संभावना तलाशने के प्रति खुलापन रखते थे.
कमला प्रसाद जी से मेरी पहली मुलाक़ात उनके बेटे के इलाज के दौरान १९९५ की ठंडियों में मुंबई की एक धर्मशाला में हुई थी. उनका जीवन इतना सादा था कि सामान के नाम पर महज एक थैला था और वह धर्मशाला में चटाई बिछाकर सो रहे थे. और संयोग देखिये कि उनसे मेरी आख़िरी मुलाक़ात भी मुंबई में ही यूनिवर्सिटी होस्टल में हुई जहां झुनझुनवाला कॉलेज से रिटायर हो चुके एमपी सिंह भी उपस्थित थे. यही कोई चार-पांच माह पहले की बात है. वही आत्मीय बातें, वही सादगी, न कोई साहित्यिक गुटबाजी की चर्चा न किसी के प्रति मन में कोई दुराव या कड़वाहट. बस 'प्रगतिशील वसुधा' की आगामी योजनाओं पर चर्चा करते रहे. तब उनके चेहरे पर बीमारी का कोई चिह्न नहीं था और कैसी घड़ी है कि आज हम उनकी शोक सभा में शामिल होने आये हैं.
उन्होंने इतना सक्रिय जीवन जिया है कि मेरे पास ही क्या देश में हज़ारों लोगों के पास उनके बारे में कुछ न कुछ कहने के लिए असंख्य बातें हैं, यादें हैं, प्रसंग हैं, प्रेरणाएं हैं. वे मानते थे कि इस दौर में लोगों को जोड़ने की जरूरत है साहित्य या राजनीतिक धाराओं के नाम पर तोड़ने की नहीं. इसलिए अंत में इतना ही कहूंगा कि पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, साम्प्रदायिकता और सामाजिक-आर्थिक शोषण का सांस्कृतिक रूप से प्रतिकार करने के लिए जिस तरह वह बिना थके कार्य करते रहे, उससे हमें प्रेरणा लेनी चाहिए, लेनी होगी. धन्यवाद!
- विजयशंकर चतुर्वेदी
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