एक कवि यदि चित्र बनाये तो कैसा होगा? वह जो शब्दों से एक संसार रचता है, वही अब लकीरों और रंगों से संसार रचे तो कैसा होगा? क्या शब्द लकीर ओढ़ लेते होंगे या फिर वहां सिर्फ शब्दातीत ही होता होगा? क्या कवि अपने भीतर के किसी अलग तहखाने से चित्र लाता है और किसी अन्य से कविता? या फिर उसकी कविता का वही संसार एक अलग रूप-रंग में चित्र के रूप में उद्भासित होता है ? इसकी पड़ताल के लिए अलग अलग समय पर अलग अलग कवि-चित्रकारों की कृतियों को परखा गया है और अब तक इस बारे में कोई स्थाई राय नहीं बन पाई है. वजह ये कि हर रचनाकार का अपना सृजन धर्म अलहदा होता है, और यही वह कुंजी है जो विपुल सृजन के विश्व का ताला खोलती और उसे समृद्ध करती है.
देश और दुनिया में ऐसे कवियों की कमी नहीं है जो चित्रकार भी हैं, या थे. उन्हीं तमाम लोगों की कतार में एक और नाम है तुषार धवल का. यूँ तो तुषार धवल को हिंदी के लोग एक कवि के तौर पर जानते हैं, पर चित्रकार के रूप में भी वे सक्रिय हैं, और इसे हममें से कम लोग ही जानते होंगे.
पिछले माह दिनांक 9 अप्रैल से 14 अप्रैल के मध्य मुंबई की प्रतिष्ठित 'सिमरोज़ा आर्ट गैलेरी' में तुषार धवल के चित्रों की प्रदर्शनी आयोजित की गयी जिसका नाम unconscious calling रखा गया. दरअसल यह नाम भी चित्रकार के मन की परतें खोलता प्रतीत होता है! तुषार दरअसल सृजन धर्मिता को अचेतन मन से उठता हुआ पाते हैं. यहाँ उन पर फ्रायड के मनोवैज्ञानिक चिंतन का प्रभाव देखा जा सकता है. प्रदर्शित चित्रों में तुषार धवल के चित्रों की तीन श्रृंखलाओं ने विशेष तौर पर ध्यान आकर्षित किया. ये चित्र श्रृंखलाएं थीं :- शिव, प्रकृति-पुरुष, और वेलेंटाइन्स. इन सभी चित्रों में जहाँ क्रमशः उनकी चित्र यात्रा को देखा जा सकता है वहीँ उनके अचेतन मन पर उठती छवियों को भी समझा जा सकता है. ये सभी चित्र एक ओर स्त्री-पुरुष संबंधों की बौद्धिक, मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और सामाजिक पड़ताल करते हैं तो दूसरी ओर उनमें फंतासी का भी विपुल प्रयोग दीखता है. यहाँ स्त्री-पुरुष अपने शारीरिक आयामों को तोड़ते हुए नज़र आते है, जैसे एक भीतरी तत्त्व इनकी देह रचना को तोड़ बाहर निकल कर खुद को व्यक्त करना चाह रहा है. यहाँ तुषार की ही ये काव्य पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती हैं--
"आओ तन बदल लें
गहरे अंतर में
दरक गए हैं सीमान्त
काल की शिखा से तोड़ लाया यह पल
परिधि को तोड़ निकला
अनंत यात्रा यह भी इस कथा की ...”
अपनी कविताओं की ही तरह अपने चित्रों में भी तुषार भौतिक से पार-भौतिक तक की यात्रा करते हैं. फिर चाहे वह शिव का सूक्ष्म निरूपण हो या फिर ‘शेष 1’, जिसमें उन्हें पहली बार एक नया फॉर्म प्राप्त हुआ, या फिर प्रकृति-पुरुष और वेलेंटाइन्स. सबमें चित्रकार इस भौतिक विश्व के पीछे की उर्जा को तलाश रहा है. अपने नए मुहावरों में तुषार के चित्रित चरित्र 'मुंडा हुआ सर, लम्बी खिंची हुई गर्दन और गोल उठे हुए कंधे' वाले हैं और प्रायः इनकी नाक या आँख नहीं होती है. तुषार का मानना है कि प्राणिमात्र की भाव भंगिमाओं का यदि अध्ययन किया जाये तो उनकी गर्दन के खिंचाव से ही उनके भीतर के भावों को समझा जा सकता है. साथ ही वे मछली, कमल और अर्धचन्द्र को बिम्बों के रूप में लाते हैं. गौरतलब है कि ये बिम्ब तुषार की कविताओं में भी आते हैं. इसी तलाश में अभिव्यक्ति के नए नए फॉर्मों पर वे अभी काम कर रहे हैं. उनकी रेखाओं में एक आंतरिक लय, जो उनकी कविताओं में भी पाई जाती है, स्पष्ट दीखती है. इसके साथ कोमल रंगों के चटख सम्मिलन से वे एक सूक्ष्म विश्व की रचना करते हैं जो प्रायः दृश्यमान नहीं है. एक और बात, अपनी "काला राक्षस" जैसी लम्बी कविता में जिस तरह तुषार ने फंतासी का इस्तेमाल किया है, लगभग वही रूप इन चित्रों में भी नज़र आता है.
इस प्रदर्शनी का उद्घाटन श्रीमती संगीता जिंदल, जो 'आर्ट इंडिया' नामक प्रतिष्ठित कला पत्रिका की संपादक हैं, ने किया. उद्घाटन समारोह में मुंबई और पुणे कला जगत के कई परिचित चेहरों के साथ साथ फिल्म जगत से जुड़े लोग, साहित्य सेवी तथा नौकरशाही से जुड़े लोग शरीक हुए.
यह कहा जा सकता है कि तुषार की कविता और चित्रकारी एक दूसरे की स्पर्धी नहीं बल्कि सहधर्मिणी एवं सहगामिनी हैं तथा कहीं-कहीं एक दूसरे की पूरक भी. जिस तरह एक कलाकार के भीतर अनेक रचनात्मक जगत एक साथ सक्रिय रहते हैं उसी तरह उसके अंतरतम में कई विधाएं एकसाथ प्रस्फुटित होने के इंतज़ार में रहती हैं. कोई कथ्य या विषयवस्तु धरातल पर किस रूप में खिले, यह कह पाना या तय कर पाना हमेशा कठिन होता है. इन अर्थों में तुषार जी की चित्रकारी और कविता एक दूसरे का संबल तथा विस्तार भी है. तुषार एक कवि के रूप में अधिक मुखर होंगे या एक चित्रकार के रूप में, या फिर दोनों ही में उनकी गति सम-इन्द्रधनुषी सिद्ध होगी, यह समय ही सिद्ध करेगा. उनकी इस उज्जवल रचनाधर्मी यात्रा के लिए हमारी शुभकामनायें!
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