मेहदी हसन साहब का भारत से ऐसा रिश्ता है कि जिसे कहते हैं कि उनकी तो यहाँ नाल गड़ी है. राजस्थान में जहाँ वह पैदा हुए थे उनके लूणा गाँव के पुराने लोग प्यार से उन्हें महेदिया कहकर बुलाते थे. मेहदी हसन अपनी जन्मस्थली से गहरे जुड़े हुए थे. वह विभाजन के बाद तीन बार गाँव आये. वहां अपने दादा की मजार बनवाई. गौर करने की बात यह है कि वह जब भी गाँव आते थे तो गांववालों से शेखावटी बोली में ही बात करते थे. गाँव वालों ने एक एजेंसी को बताया कि मेहदी हसन को गाने के साथ-साथ पहलवानी का भी शौक था और जब पिछली बार वह गाँव आये थे तो उनके बचपन के एक दोस्त अर्जुन जांगिड़ ने मज़ाक-मज़ाक में कुश्ती लड़ने की चुनौती देकर पुरानी यादों को ताज़ा कर दिया था. अब अर्जुन जांगिड़ भी इस दुनिया में नहीं रहे.
.पता नहीं क्यों किसी बड़े फ़नकार के गुज़र जाने के बाद उसे हर माध्यम में ढूंढ और पा लेने की बेचैनी दम नहीं लेने देती. यूं तो मेरे मोबाइल के मेमोरी कार्ड में हसन साहब की कई गज़लें हैं जिन्हें मैं अक्सर सुना करता हूं, लेकिन परसों (13 जून 2012) जब उनके निधन की ख़बर सुनी तो सन्न रह गया और उन्हें बहुत करीब से पा लेने के लिए छटपटाने लगा. इंटरनेट पर विविध सामग्री उनके बारे में पढ़ डाली. यू ट्यूब पर उनकी गायी अमर गज़लें आँख मूंदे सुनता रहा और न जाने किस किस दुनिया की सैर करता रहा.
जिन लोगों ने मेहदी हसन साहब को गाते सुना और देखा है उन्हें मैं भाग्यशाली समझता हूं. टीवी पर स्वरकोकिला लता मंगेशकर, खैय्याम साहब, आबिदा परवीन, हरिहरन, पंकज उधास, तलत अज़ीज़ और अन्य संगीत नगीनों की राय मेहदी साहब के बारे में देखता-सुनता रहा. लता जी ने तो उनके बारे में एक बार कुछ इस तरह कहा था कि मेहदी हसन साहब के गले से ख़ुदा बोलता है.
मैंने इलेक्ट्रौनिक उपकरणों के जरिये ही मेहदी साहब को सुना है लेकिन उनकी आवाज़ मशीन को भी इंसानी गला दे देती है. उनकी आवाज़ में मुलायमियत होने के साथ-साथ वह वज़न भी है जो शायर के शब्दों और भावनाओं को श्रोता की रगों में उतार देता है. यही वजह है कि उनकी गायिकी सरहदों की दूरियां पाट देती है. हवाओं और पानियों में घुलकर एक से दूसरे देस निकल जाती है. बेख़याली के आलम में मैं सुनता रहा- 'रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ, आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ', 'ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं, मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा', 'अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें, जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें,' 'मोहब्बत करने वाले कम न होंगे, तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे', 'पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है, जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है,' 'गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले, चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले', 'दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के, वो कौन जा रहा है शब-ए-ग़म गुज़ार के,' 'आये कुछ अब्र कुछ शराब आये, उसके बाद आये जो अज़ाब आये', 'रफ्ता रफ्ता वो मेरी हस्ती का सामाँ हो गए.....लिस्ट बहुत लम्बी है. लेकिन जब भी मैं उनका गाया 'प्यार भरे दो शर्मीले नैन' सुनता हूँ तो मेरी वाणी मूक हो जाती है. जिस तरह से उन्होंने 'प्यार भरे' की शुरुआत की है वह भला कोई क्या खाकर कर सकेगा.
मेहदी हसन को सुनते हुए कभी अभिजातपन का एहसास नहीं होता. लगता है जैसे अपने ही परिवेश का कोई देसी आदमी पक्का गाना गा रहा हो. उनकी आवाज़ में राजस्थान की गमक को साफ़ महसूस किया जा सकता है (मेहदी हसन का जन्म 18 जुलाई 1927, राजस्थान, जिला-झुंझनू, गाँव-लूणा, अविभाजित भारत में हुआ था). उनकी ग़ज़ल गायिकी शास्त्रीय होते हुए भी मिट्टी की खुशबू से सराबोर है. वह जहां पूरी महफ़िल के लिए गाते प्रतीत होते हैं वहीं एक एक श्रोता के लिए भी और सबसे बढ़कर वह स्वयं में खोकर स्वयं के लिए गाते प्रतीत होते हैं. ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह जी ने मुझसे एक बार मेरे प्लस चैनल के दिनों में कहा था- "नई पीढ़ी के ग़ज़ल गायकों को अगर लम्बी रेस का घोड़ा बनना है तो उन्हें अपना शास्त्रीय आधार पुख्ता करना होगा और यह बात उन्होंने मेहदी हसन साहब से सीखी है."
मेहदी हसन साहब ने बड़ी सादगी से राग यमन और ध्रुपद को ग़जलों में ढाला और ग़ज़ल गायिकी को उस दौर में परवान चढ़ाया जब ग़ज़ल गायिकी का मतलब उस्ताद बरकत अली खान, बेगम अख्तर और मुबारक बेगम हुआ करता था. हालांकि हसन साहब कोई ग़ज़ल गायक बनने का उद्देश्य लेकर नहीं चले थे. आठ साल की उम्र में उन्होंने फाजिल्का बंगला (अविभाजित पंजाब) में अपना जो पहला परफौरमेंस दिया था वह ध्रुपद-ख़याल आधारित था...और उन्हें जब पहला बड़ा मौका मिला 1957 में पाकिस्तान रेडियो पर, तो वह ठुमरी गायन के लिए था. ध्रुपद शास्त्रीय संगीत के कुछ सबसे पुराने रूपों में से एक माना जाता है. खान साहब की ट्रेनिंग ही ध्रुपद गायिकी में हुई थी. उनके पिता उस्ताद अज़ीम खान और चाचा उस्ताद इस्माइल खान साहब बचपन से ही रोजाना उन्हें ध्रुपद का रियाज़ कराते थे. दरअसल मेहदी हसन साहब का पूरा खानदान ही गायिकी परंपरा से जुड़ा चला आ रहा था. वह अक्सर ज़िक्र करते थे कि उनकी पीढ़ी 'कलावंत घराना' की 16वीं पीढ़ी है.
लेकिन रेडियो पाकिस्तान के दो अधिकारियों जेडए बुखारी और रफीक अनवर साहब ने मेहदी हसन की उर्दू शायरी में प्रगाढ़ अभिरुचि को देखते हुए उनका प्रोत्साहन किया और गज़लें गाने का मौका दिया. मेहदी हसन इन दोनों सख्शियतों का सार्वजनिक तौर पर ज़िन्दगी भर आभार मानते रहे. आज दुनिया भर के ग़ज़ल प्रेमी भी उनका आभार मानते हैं कि उन्होंने हमें 'शहंशाह-ए-ग़ज़ल' दिया और ग़ज़ल गायिकी को उसका नया रहनुमा.
मेहदी हसन साहब की ज़िंदगी किसी समतल मैदान की तरह कभी नहीं रही. वह वक़्त के थपेड़ों से दो-चार होते रहे. उनका कलाकारों से भरा-पूरा परिवार आर्थिक संकटों से घिरा ही रहता था. बचपन में मेहदी हसन साहब को अविभाजित पंजाब सूबे के चिचावतनी कस्बे की एक साइकल सुधारने वाली दूकान में काम करना पड़ा. थोडा बड़ा होने पर वह कार और डीजल ट्रैक्टर मैकेनिक का काम सीख गए और परिवार की मदद करते रहे. जव वह २० साल के हुए तो भारत-पाक बंटवारा हो गया और वह परिवार के साथ पाकिस्तान चले गए जहाँ आर्थिक मुश्किलों का नया दौर शुरू हुआ. इस सबके बावजूद उन्होंने संगीत के प्रति अपनी लगन में कमी नहीं आने दी. वहां छोटे-मोटे प्रोग्राम करते रहे. और तभी उनको मिला पहला ब्रेक पाकिस्तान रेडियो पर, जिसका ज़िक्र हम पहले कर चुके हैं.
ग़ज़ल गायिकी में स्थापित होने के साथ ही उन्हें पाकिस्तान फिल्म इंडस्ट्री ने हाथोंहाथ लिया. उनके गाये फ़िल्मी नगमें, दोगाने, गज़लें पाकिस्तानी फिल्म संगीत की विरासत बन गए हैं. मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ के साथ उनका गाया 'आपको भूल जाएँ हम, इतने तो बेवफा नहीं' (फिल्म-तुम मिले प्यार मिला, 1969), नाहीद अख्तर के साथ 'ये दुनिया रहे न रहे मेरे हमदम' (मेरा नाम है मोहब्बत, 1975), 'आज तक याद है वो प्यार का मंजर मुझको' (सेहरे के फूल), 'जब कोई प्यार से बुलाएगा' (ज़िंदगी कितनी हसीं है, 1967), 'दुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं' जैसे सैकड़ों सुपरहिट फ़िल्मी नगमें उनके नाम दर्ज़ हैं.
एक गायक के तौर पर मेहदी हसन कई बार भारत आये. भारत के संगीत रसिकों ने हमेशा उन्हें सर-आँखों पर बिठाया. उनके क्रेज़ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब खान साहब पहली बार भारत आये तब 'टाइम्स ऑफ़ इण्डिया' ने पहले पेज पर किसी राष्ट्राध्यक्ष के आगमन की तरह बड़ी-सी तस्वीर छापी थी और कैप्शन दिया था- 'मेहदी हसन एराइव्स'. सच है, इस कायनात में ग़ज़लों का अगर कोई राष्ट्र होता हो तो वह उसके आजीवन राष्ट्राध्यक्ष ही थे. आख़िरी बार जब वह सन 2000 में भारत आये थे तो जल्द ही फिर आने का वादा करके गए थे लेकिन उनकी फेफड़ों की बीमारी ने ऐसा घेरा कि साँस साथ छोड़ने लगी. खुदा की आवाज़ का एहसास कराने वाले फ़नकार की धीरे-धीरे आवाज़ भी जाती रही और अंततः फ़नकार भी हमसे रुखसत लेकर सदा के लिए दुनिया से चला गया.
मुझे अब भी यह खबर झूठी लग रही है. मगर मृत्यु एक कड़वी सच्चाई है. मेंहदी साहब को श्रद्धांजलि देने के लिए उन्हीं के गाये शब्द उधार लेकर इतना ही कहता हूँ- ‘आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ.....’
बहुत सुन्दर रचना विजय शंकर जी ......मेहंदी साहब के बारे में बहुत सारी जानकारियां मिली
जवाब देंहटाएंधन्यवाद्
I agree, you do write your articles with passion. I hope you get the time to post for me some time in the future.
जवाब देंहटाएंAmazing blog and very interesting stuff you got here! I definitely learned a lot from reading through some of your earlier posts as well and decided to drop a comment on this one!
जवाब देंहटाएंWhat you're saying is completely true. I know that everybody must say the same thing, but I just think that you put it in a way that everyone can understand. I'm sure you'll reach so many people with what you've got to say.
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