कोई ऐसा मानसून नहीं गुजरता जो देश के किसी न किसी नगर अथवा महानगर में तबाही न मचाता हो. हर कोई जानता है कि अगले मानसून में क्या होने जा रहा है. लेकिन जैसे ही जिंदगी पटरी पर लौटती है, शहर के लोग और स्थानीय प्रशासन उस तबाही को ऐसे भूल जाते हैं, जैसे कि वह प्राचीन ग्रंथों में वर्णित कोई किस्सा हो! हर बार ड्रेनेज, नालियों की साफ-सफाई और बाढ़ से निबटने के लिए आपदा-प्रबंधन का पहले से ज्यादा बजट बनता है और स्वाहा हो जाता है. हर बार मानसून से ठीक पहले नालियों और ड्रेनेज का कचरा निकालकर उसी के बगल में छोड़ दिया जाता है और बरसात होने पर उसी में समा जाता है. हर बार मंत्री-संत्री इंद्रदेव का अचानक कोप हो जाने का रोना रोते हैं, जो उस शहर के बाशिंदों और देश की आंखों में धूल झोंकने से ज्यादा कुछ नहीं है.
भारतीय मायथालॉजी में कहा गया है कि जब किसी नगर की रचना दोषपूर्ण हो जाती थी तो भगवान इंद्र अपना पुरंदर रूप धारण करके उस नगर को नष्ट कर देते थे. अधिकारियों को इस कथा से सबक हासिल करना चाहिए क्योंकि नगर की संरचना को दोषमुक्त बनाए रखना और बेहतर जल-निकासी की योजनाएं बनाना उनके हाथ में ही होता है. अल्पावधि में अत्यधिक वर्षा को शहर डुबाने का जिम्मेदार ठहराने का सीधा मतलब भू-माफिया, राजनीतिज्ञों, बिल्डरों, पूंजीपतियों के गठजोड़ को पाप की भागीदारी से मुक्त करना है, जो आधुनिक नगर-संरचनाओं को विकृत करने में वर्षों से जुटे हुए हैं. यह गठजोड़ शहरों के बीच की खुली जगहों को नगर-प्रशासन के नियंत्रण से मुक्त करवाता है, उन पर अवैध कब्जा होने देता है, समुद्र और बड़ी नदियों के किनारे की दलदली भूमि और मैंग्रोव्स कटवाता-पटवाता है, व्यावसायिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए वहां गगनचुम्बी इमारतें, मल्टीप्लेक्स और शॉपिंग कॉम्प्लेक्स वगैरह खड़े करवा देता है.
इसका सीधा असर यह हुआ है कि वर्षा का जो जल खुली जगहों की जमीन से होता हुआ भू-गर्भ में संचित हो जाता था, या बाढ़ का जो अतिरिक्त पानी नदी-नालों से होता हुआ सागरों तक पहुंच जाता था, उसके रास्ते अवरुद्ध हो गए हैं. हम देख रहे हैं कि प्राचीन नगर-संरचनाओं की बुनियाद पर खड़े कोलकाता और पटना जैसे कई आधुनिक शहर भी चोक हो चुके हैं. शहरों के भीतर मौजूद छोटी-मोटी जलधाराएं, नदियां, कुदरती नाले, कुएं, तालाब, जोहड़, बावड़ियों जैसी संरचनाएं भी जल-संचयन, बाढ़ को नियंत्रित करने अथवा अतिरिक्त जल की प्राकृतिक-निवृत्ति में बड़ी सहायक होती थीं. लेकिन अब इन समतल की जा चुकी जगहों को राजनेता और बिल्डर प्राइम लोकेशन बताकर ऊंचे दामों पर बेचते हैं और पीने का पानी गंगा (दिल्ली में), कृष्णा (हैदराबाद में), कावेरी (बैंगलुरु में) जैसी दूर-दराज की नदियों से लाया जाता है!
मुंबई के अंदर मीठी और ओशिवरा समेत 7 नदियां थीं जो नेशनल पार्क से निकलकर विभिन्न खाड़ियों में जा गिरती थीं. वर्षा जल का दबाव कम करने में इनकी बड़ी भूमिका थी. लेकिन रासायनिक और औद्योगिक कचरे, इमारतों के मलबे, प्लास्टिक और तरह-तरह के भंगार से पटी ये नदियां बाढ़ का पानी सड़कों पर उड़ेल कर बीच में ही लुप्त हो जाती हैं. मुंबई का ड्रेनेज सिस्टम 21 सदी की शुरुआत में तब की विरल बसाहट के हिसाब से यह सोच कर डिजाइन किया गया था कि अगर प्रतिघंटे अधिकतम 25 मिलीमीटर वर्षा हुई तो आधा पानी मिट्टी में जज्ब हो जाएगा. लेकिन आज वर्षा का अवरुद्ध पानी रेल की पटरियों को नदियां बना देता है.
दिल्ली की बात करें तो आज जहां व्यस्ततम आईटीओ रोड है वहां से एक नाला बहा करता था और बाढ़ का पानी यमुना में ले जाता था. लेकिन आज पहली बारिश में ही यह इलाका जलमग्न होता है. रिंग रोड बनाते समय दिल्ली के स्लोप को ध्यान में नहीं रखा गया, न ही इस बात का इंतजाम किया गया कि वर्षा का अतिरिक्त जल किधर से कहां जाएगा. राजधानी के जितने भी बस स्टैंड हैं, लगभग सबके सब जल-एकत्रित होने की जगहों को पाट कर बनाए गए हैं. कभी दिल्ली में नजफगढ़ झील, डाबर इलाके और यमुना पार समेत लगभग 800 जगहों पर स्थायी तौर पर पानी संग्रहीत रहता था, आज इनमें से अधिकांश जल-स्रोत गायब हैं और वहां कब्जा या निर्माण हो चुका है.
स्वभावतः पानी अपना रास्ता स्वयं खोज और बना लेता है. कोसी नदी का हर साल मानवनिर्मित तटबंध तोड़ कर रास्ते बदल लेना इसका जीवंत उदाहरण है. लेकिन पटना के बीच नागरिकों द्वारा की गई अवैध घेराबंदी को तोड़ कर वर्षा का जल आखिर कहां जाए, क्या करे! मजबूर होकर वह हहराता हुआ आपके-हमारे ड्राइंग रूम में घुसता चला आता है. इस स्थिति से बचने के लिए, शहर में जब कोई निजी मकान या बहुमंजिला इमारत बनाता है तो उसे उस प्लॉट और प्रभावित क्षेत्र द्वारा जज्ब किए जाने वाले वर्षा जल का विकल्प तैयार करना चाहिए, वरना वह आस-पास के इलाके में संचित होकर बाढ़ ला देगा. इमारत के आस-पास पार्किंग और फुटपाथ पर कंक्रीट व अस्फाल्ट के बजाए पत्थर बिछाना, वृक्षारोपण और प्राकृतिक ड्रेनेज के अनुसार ही सड़कें बनाना समझदारी का काम है. इसके लिए हम पाटिलपुत्र की नगर-रचना की ओर देख सकते हैं. कहते हैं कि जब महाराजा अजातशत्रु वैशाली के वज्जि गणसंघ को जीतने के लिए पाटलिपुत्र किले के निर्माण हेतु गंगा की तटबंदी करा रहे थे, तब गौतम बुद्ध वहां का पधारे थे और शहर को आशीर्वाद देते हुए आगाह किया था कि किसी नगर के ह्रास के कारण होते हैं- आग, पानी, और शहरवासियों में कलह. अजातशत्रु और बाद के मगध-शासकों ने इस बात का ध्यान रखा था लेकिन आज का शासक-वर्ग उस शिक्षा को भूल चुका है. कलिकाता गांव आज विशाल कोलकाता में तब्दील हो चुका है लेकिन जलनिकासी हुगली नदी के रहमोकरम पर ही है.
बाढ़ में फंसे असहाय लोगों और निरीह पशु-पक्षियों की तस्वीरें और कहानियां हम सबने देखी-सुनी हैं. सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का जुहू (मुंबई) स्थित घर जल-प्लावित होते देखा है. पटनावासी बिहार के उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी को परिवार सहित सड़क पर खड़ा देख चुके हैं. लेकिन हम लोग अब भी यह नहीं समझ रहे हैं कि बादल जितना भी पानी बरसाते हैं, वह भू-जल बनने के लिए होता है, बाढ़ लाने के लिए नहीं. उसे बाढ़ के रूप में हम और आप बदलते हैं, क्योंकि बेकार में बही एक-एक बूंद बाढ़ लाने में योगदान करती है. हमारे शहर वर्षा के अतिरिक्त जल को क्यों बर्दाश्त नहीं कर पाते, इसे समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है. पर्याप्त जल-संचयन, उचित जल-संरक्षण और सटीक जल-प्रबंधन करने की प्राचीन-कला सीख कर आज भी हम बाढ़ की विभीषिका से निबट सकते हैं. लेकिन जनता के पैसे से बनी हर योजना में से अपना हिस्सा निकाल लेने और आग लगने पर ही कुआं खोदने की हमारी आदत जाती नहीं है!
-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
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