शुक्रवार, 30 नवंबर 2007

'तलछट' का ताना-बाना

दोस्तो,
20 अक्टूबर १९७२ को हिन्दी के महान आलोचक स्वर्गीय डॉक्टर रामविलास शर्मा ने स्वनामधन्य आलोचक विजयबहादुर सिंह को एक पत्रोत्तर में लिखा था- 'हिन्दी के 'क्रांतिकारी' लेखकों की विशेषता है कि वे जिंदा मजदूर के बारे में कुछ नहीं जानते, सर्वहारा वर्ग पर घंटों बोल सकते हैं, महीनों लिख सकते हैं। हाड़मास के मजदूर को प्रत्यक्ष जीवन में न जानने वाले सब लेखक idealist हैं, भले ही वे अपने को बहुत बड़ा द्वंद्वात्मक भौतिकवादी मानते हों। उपन्यास न सही, दस मज़दूरों के संक्षिप्त जीवन-चरित लिखो। परिवेश, परिवार जीविकोपार्जन आदि का वृतांत देखकर, पूछकर लिखो। यह कार्य उपन्यास लेखन से कम रोचक न होगा। बोलो, तैयार हो?'

यह सोचकर रोमांच होता है कि उस समय मैं २ साल का रहा हूँगा। यह पत्र मैंने 'वसुधा' में बरसों बाद पढ़ा। सच मानिए, जनसत्ता 'सबरंग' के लिए यह काम मैं साल २००० के पहले सीमित अर्थों में सम्पन्न कर चुका था। मेरा 'लोग हाशिये पर' स्तंभ इसी तरह के चरित्रों पर आधारित था। उसके कुछ चुने हुए चरित्रों को आप सबसे मिलवाने की तमन्ना है 'तलछट' नाम से। तो काम पर लगा जाए?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

मेरी नई ग़ज़ल

 प्यारे दोस्तो, बुजुर्ग कह गए हैं कि हमेशा ग़ुस्से और आक्रोश में भरे रहना सेहत के लिए ठीक नहीं होता। इसीलिए आज पेश कर रहा हूं अपनी एक रोमांटि...