बुर्जुआ समाज और संस्कृति-११
(अब तक आपने पढ़ा कि विज्ञापन विशेषज्ञ झूठे प्रचार से लोगों को ठगने का कार्य करते हैं। अब आगे...)
सिर्फ कमज़ोर या ईमानदार लोग ही प्रतियोगिता के फलस्वरूप हाशिये पर आए हों ऐसा नहीं। अनेक बाहुबली भी इससे प्रभावित हो रहे हैं, और उनके दिन ज़्यादा नहीं बचे हैं. जिस समाज की रगों में युद्ध का उन्माद खून की तरह दौड़ता हो, उसका स्थायित्व भंगुर ही होता है. दरअसल बुर्जुआ समाज के लिए 'समाज' शब्द ही अनुपयुक्त है. इसमें समाज के कोई लक्षण ही नहीं हैं. स्वेच्छाचारिता को संयत किए बगैर समाज की रचना असम्भव है. यह भी बुर्जुआ समाज के द्वंद्व में, व्यक्ति-स्वाधीनता के छल से स्वेच्छाचारिता की अनुमति समाज के कतिपय लोगों को मिलती है.
लोकतंत्र की आलोचना में यह बात साफ उभर कर आयी है कि बुर्जुआ समाज में स्वाधीनता सिर्फ़ धनिकों के लिए होती है, ग़रीबों को सिर्फ अनशन करने की स्वाधीनता है. दिखावे के लिए अदालत है लेकिन अमीरों को इसके लंबे हाथ भी नहीं छू पाते. स्पैलंगर के अनुसार- "THE LAW IS ONLY FOR THOSE WHO ARE CUNNING OR POWERFUL ENOUGH TO IGNORE IT".
उच्च न्यायालय में आवेदन करते हुए, हजारों दाँव-पेंचों से गुज़रते हुए एक व्यक्ति का पूरा जीवन न्याय की आशा में बीत जाता है. पुलिस और न्यायाधीश को खुश कर, दिन को रात किया जा सकता है. लक्ष्मी कृपा से, बीच सड़क पर, दिन-दहाड़े हत्या कर बेक़सूर ख़लास हो जाते हैं. बाहुबल और अर्थबल की लड़ाई में कोई फ़र्क नहीं है.
किसी विद्वान ने कहा है- "न्यायालय की न्याय-प्रक्रिया के समर्थन में जितने भी तर्क दिए जाएं, लेकिन विजयी होने के लिए, ऊंची फ़ीस देकर प्रसिद्ध वकील और बैरिस्टर, ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। निरपेक्ष न्याय का ढिंढोरा पीटती हुई जो हमारी न्याय-व्यवस्था बनी थी, उसमें पैसों का यह खेल आने वाली पीढ़ी के लिए चकित करने वाला होगा, इसलिए भी कि प्राचीनकाल में प्रयुक्त बाहुबल की पद्धति से यह कहाँ अलग है. अस्त्र-युद्ध की जगह अर्थ-युद्ध को उत्तरण (उद्धार) तो नहीं ही माना जा सकता है." (एल. टी. हवहाउस/ Morals in Evolutin, भारतीय संसकरण, एशिया पब्लिशिंग हाउस, पेज-१२२).
धनी लोग क़ानून को ठेंगा दिखाते हैं, उनकी काली करतूतों पर क़ानून एक सुहावना परदा है। अन्यथा, सुकरात, ईसा से शुरू कर मार्क्स, डिबेलेरो, नेहरू और गांधी जैसे ज्ञानी, गुणी व्यक्तियों को कानूनन सज़ा नहीं भोगनी पड़ती.
धन के अलावा शब्द जाल भी मनुष्य को मोहित करते हैं। एक ऐसा ही शब्द है- 'व्यक्ति-स्वाधीनता'. पूंजीवाद अपने साथ ही इसका ढिंढोरा पीटता आया था; जनता के नहीं, वरन सरमायेदारों के स्वार्थ में. ज़मींदारी की गुलामी से मुक्त और आत्म-विक्रय की स्वाधीनता प्राप्त कामगारों के बगैर पूंजीवाद की शोषण-व्यवस्था को टिकाए रखना असम्भव ही था. इसलिए सरमायेदारों ने अभिजातों (कुलीनों) से युद्ध कर यह स्वाधीनता दिलाई. तत्पश्चात बुद्धिजीवियों का एक दल इस तथाकथित व्यक्ति-स्वाधीनता का ढोल पीटे जा रहा है.
ज़रा-सा ठहरकर सोचने में हर कोई इसकी टोह पा लेगा कि ढोल जनता के नहीं, सरमायेदारों के पक्ष में पीटे जा रहे हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार के अनुसार स्वाधीनता के प्रति जनता के मन में आकर्षण से ज़्यादा भय है. व्यक्ति अपनी स्वाधीनता सहन नहीं कर पाता है, वरन दूर भागता है. स्वाधीन रूप से रह पाने के लिए जिस शक्ति, साहस, आत्मविश्वास तथा मेधा की ज़रूरत है, वह गिने-चुने लोगों में ही हो सकती है.
निर्भरता आदमी की सहजात वृत्ति है। जन्मपूर्व ही वह माँ के गर्भ के निरापद आश्रय में रहता है. बचपन माँ-बाप और परिजनों के आश्रय में. किशोरावस्था में स्वाधीनता की भावना उछाल मारती भी है तो उसकी भ्रूणहत्या भय से हो जाती है. सामाजिक और प्राकृतिक वातावरण का दबाव, रोग, शोक, मृत्यु एवं दैवी प्रकोप आदि धारणाएं क्रमशः उसकी किशोर मानसिकता में घटाटोप बनाती जाती हैं. जिससे अनिर्वचनीय भय, उद्वेग और अलगाव तथा असाहयता की भावना पैदा होती है, जिससे मुक्ति के लिए वापस माँ के गर्भ का आश्रय भी नहीं रहता तथा परिवार के प्राथमिक संबंधों में टूटन आती है, उसे जोड़ना भी सम्भव नहीं होता.
ऐसी अवस्था में भयभीत किशोर मन कोई निरापद आश्रय चाहता है। इसलिए उसे सबसे पहले ईश्वर पर विश्वास होने लगता है; पूर्वजों से सुनता आ रहा है कि ईश्वर सर्व-सक्तिमान और निरापद है. यह विश्वास गहरे बैठता जाता है. इसी भावना से नेतृत्व के समक्ष आत्मसमर्पण का भाव पैदा होता है. जटिल समस्यायों का समाधान वह नेताओं पर छोड़ निश्चिंत होना चाहता है.
दूसरा विकल्प है सामाजिक संबंधों के विकास द्वारा संगठन की स्थापना। यौवन सहज ही मित्रभाव पैदा करता है. इस तरह एक दूसरे से जुड़ते चले जाने से व्यक्ति-सता की परिपूरक सामाजिक सत्ता का उदय होता है. व्यक्ति अब अकेला नहीं है. किसी संगठन का सदस्य होता है, समाज का अंश है. समाज व्यक्ति को सुरक्षा का आश्वासन देता है. दुखों और तकलीफों को झेलते हुए भी मनुष्य सामाजिक सम्बन्ध बनाए रखता है.
समाज के प्रति यह आकर्षण सिर्फ सभ्यता के विकास और स्वाधीनता की इच्छा से नहीं पैदा होता है, वरन पैदा होता है स्वाधीनता के भय की वजह से। समाज से अलग निस्संग जीवन व्यक्ति के लिए असहनीय होता है.
'पहल' से साभार
(अगली किस्त में ज़ारी)
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