गुरुवार, 27 मार्च 2008

होली के दिन ट्रेन के सफर में रोया टेसू

होली के दिन मैं ट्रेन में था. जब कहीं रेलवे स्टेशन आ जाता था तो कुछ गुब्बारों के भय से हम खिड़कियाँ बंद कर लेते थे. लेकिन खंडवा में कोई ज़ोर न चला. कुछ लोग डिब्बों में घुस आए और उन्होंने रंग-गुलाल फेंकना शुरू किया. हमारे पास कुछ और तो था नहीं, सो पानी की बोतलों से ही काम चलाया. ट्रेन बिहार जा रही थी. कुछ महिला यात्रियों के पास महावर था. उन्होंने अपने पतियों को पानी में महावर घोल कर दे दिया.

महावर का लाल रंग किसी भी रासायनिक रंग को मात कर रहा था. जमकर होली खेली गयी. मुग़लसराय जा रहे एक बुढऊ भी जोश में आ गए. शिवजी की बूटी उन्होंने नासिक रोड स्टेशन पर ही चढ़ा ली थी. उन्होंने अपना सत्तू रंग-गुलाल की तरह इस्तेमाल कर लिया. सत्तू का ही टीका उन्होंने पूरे डिब्बे के यात्रियों को लगा मारा.

इतने में ट्रेन चल पड़ी. कुछ यात्री तो खंडवा में ही उतर गए लेकिन कुछ ट्रेन में ही चढ़े रह गए. उनको भी थोड़ा भांग का नशा था. हमने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है. खाना-पीना इफ़रात है. इटारसी से लौट आना. बस इतना सुनते ही उनका नशा हल्का हो गया और वे चैन खींचकर उतरते बने.

होली का आनंद, उमंग और खुलापन ही ऐसा है कि अगर आप सहज हैं, मनुष्य हैं, खुले हैं, अकुंठित हैं, तो कहीं भी रंगों से वंचित नहीं रहेंगे. चाहे देस हो या परदेस. उन लोगों की कल्पना कीजिये जो अपनों से दूर सीमा पर डटे देश की रक्षा कर रहे होते हैं, या वे लोग जो किसी फ़र्ज़ को निभाते हुए नौकरी या व्यवसाय की वजह से होली खेलने घर नहीं पहुँच पाते. आप क्या समझते हैं, वे रंगों के इस पर्व से वंचित रह जाते हैं? नहीं जनाब, वे आपस में ही होली खेल लेते हैं और रंगों को रूठने नहीं देते. ट्रेन की यात्रा करते वक्त यह भावना मेरे मन में बेतरह डूबती-उतराती रही.

...और तभी खिड़की से वसंत का राजा पुष्प टेसू मुझे नज़र आया. महाराष्ट्र से जैसे ही आप मध्य प्रदेश की सीमा में प्रवेश करते हैं, टेसू के वृक्ष और उन पर लदे फूल, रेल पटरी के दोनों तरफ आपका सफर सुहाना करते हुए साथ-साथ चलते हैं. कहीं भी चले जाइए- मालवा, निमाड़, महाकौशल, विन्ध्य, बघेलखंड, बुंदेलखंड, वे पूरे मध्य प्रदेश में आपके साथ चलेंगे. कुछ-कुछ इस तर्ज़ पर कि- 'तू जहाँ- जहाँ चलेगा मेरा साया साथ होगा'. वसंत ऋतु आते ही टेसू के वृक्ष फूलों से इस तरह लद जाते हैं जैसे किसी ने उन पर लाल-लाल बल्ब लगा दिए हों. किसी-किसी वृक्ष पर आपको एक भी पत्ता नजर नहीं आयेगा- सिर्फ़ फूल ही फूल.

मेरे बगल की सीट पर एक चंचल बच्चा अपनी माँ के साथ बैठा था. बातचीत से जाहिर हुआ कि यह परिवार मुम्बई, बोरीवली (पश्चिम) में रहता है. बच्चा चौथी का इम्तिहान देकर आ रहा था. उसकी माँ बड़े जोश और गर्व में भरकर बता रही थी कि बच्चा अपनी क्लास में पहली से ही अव्वल रहा है. उसने मुझे कुछ अंगरेजी गीत भी सुनवाये जो उसकी किताब में थे. जिज्ञासावश मैंने उस बच्चे से ट्रेन की खिड़की के बाहर कुछ पेड़ दिखाकर उनके नाम जानना चाहे, तो वह बच्चा अचानक गुमसुम हो गया. उसकी माँ घबरा गयी. उसने बच्चे को चिप्स का पैकेट थमाकर उसका मन बहलाया .

जिन पेड़ों का नाम मैंने बच्चे से जानना चाहा था उनमे महुआ, जामुन, कहुआ (अर्जुन) और टेसू आदि थे. मैं यह सोच कर दंग रह गया कि जो पीढ़ी टेसू का वृक्ष नहीं पहचानती, वो यह कैसे समझ पायेगी कि कभी होली के लिए टेसू के फूलों को सुखाकर इसके चूर्ण से टनों रंग बनाया जाता था, जिसके इस्तेमाल से न त्वचा पर छाले पड़ते थे और न ही मन पर. वसंत और रिश्तों की ऊष्मा में टेसू की खुशबू घुल जाती थी, वह अलग.

...और तभी मेरी तंद्रा भंग हो गयी. अगला स्टेशन जो आ रहा था. हम लोग फिर सावधान हो गए. प्लेटफॉर्म के बाहर गाना बज रहा था- 'होली आयी रे कन्हाई रंग बरसे, सुना दे ज़रा बांसुरी...'

4 टिप्‍पणियां:

  1. चीनी भाई [(:-)], नुक्ता इस बात की पड़ताल में हैं - कि क्या नहीं हैं - सहज ?, मनुष्य ?, खुले ?, अकुंठित ?, पानी के रंग रंगों से वंचित तो रहे - बहरहाल टेसू अच्छे याद दिलाये - मनीष

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  2. आपने सही कहा की आजकल के बच्चे इन सबसे अनजान है । और हमे तो लगता है की उस बच्चे की माँ को भी नही पता रहा होगा की टेसू का फूल भी होता है।
    http://mamtatv.blogspot.com/2008/03/blog-post_21.html

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