बुधवार, 9 अप्रैल 2008

'वागर्थ' में छपी हालिया कविता

दोस्तो, भारतीय भाषा परिषद् की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'वागर्थ' के मार्च, २००८ अंक में मेरी छोटी-छोटी ३ कवितायें छपीं थीं. यह उनमें से एक है. इस कविता पर विभिन्न दृष्टिकोणों से ब्लॉग जगत की राय जानना चाहता हूँ:-


ख़रीद-फरोख्त
चुटकी बजाते हुए जब कोई कहता है
कि वह खड़े-खड़े खरीद सकता है मुझे
तो खून का घूँट पीकर रह जाता हूँ मैं।

लेकिन एक सुबह पता चलता है-
मुझे तो रोज़ ही बेच देते हैं सौदागर
कभी इस मुल्क़, तो कभी उस मुल्क़ के हाथों।

मैं जिस दफ़्तर में काम करता हूँ
उससे भी राय नहीं ली जाती
दफ़्तर समेत बेच दिया जाता हूँ।

रोज़ बेच दी जाती है मेरी मेहनत
माता-पिता का दिया मेरा नाम,
जहाँ पैदा हुआ था वह गाँव भी बेच दिया जाता है।
वह क़ब्रिस्तान, वह शमशान भी नहीं बख्शा जाता
जहाँ पड़े हैं हमारे पुरखों के अवशेष।
ड्रायवर से बिना पूछे
बेच दी जाती है उसकी ड्रायवरी।
मज़दूर की निहाई,
मछुआरे का जाल,
बढ़ाई का रंदा,
लोहार की हाल,
तमाम पेशे बेच दिए जाते हैं।

काश्तकार बेच दिए जाते हैं खड़ी फ़सलों समेत
नदियों का हो जाता है सौदा मछलियों से बिना पूछे।
खनिज बेच दिए जाते हैं,
बेच दिया जाता है आकाश-पाताल,
हमारी तन्हाइयां तक नहीं बख्शते बाज़ार के ये बहेलिये।

हमारी नींद, हमारी सादगी
हमारे सुकून की लगाई जाती है बोली,
गर्भ में पल रहे शिशुओं तक का हो जाता है मोलभाव।

यों तो कुछ लोग हमेशा रहते हैं बिकने को आतुर,
लेकिन बिकना नहीं चाहती वह स्त्री भी
जो खड़ी रहती है खम्भे के नीचे ग्राहक के इंतज़ार में।

हमारी ख़रीद-फ़रोख्त में कोई नहीं पूछता हमारी मर्जी
कोई नहीं बताता कि कितने में हुआ हमारा सौदा, किसके साथ।
मेरे जानते तो कोई नहीं लगा सकता मोल आत्मा का
पर वह भी बेच दी जाती है कौड़ियों के मोल बिना हमें बताये।
जिसके बारे में हमें पता चलता है,
एक बिके हुए दिन की पराई सुबह में।
-- विजयशंकर चतुर्वेदी।

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर लिखा है

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  2. sjlbweबहुत अच्छी कविता. बाज़ारवाद पर अत्यन्त सटीक टिप्पणी.

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  3. जो गुस्सा, क्षोभ और असहायता इस बाज़ारवाद ने हमारे अंदर भर दिया है उसका मार्मिक बयान करती है आपकी कविता. आप का लिखा और भी पढना चाहूँगा हो सके तो मिलना भी!

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  4. बहुत खूब - बहुत अच्छी लगी - बाकी दोनों कहाँ हैं ? - मनीष

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  5. सुशील जी, जोशिम जी, अविनाश जी, सांकृत्यायन जी-- कविता पर मूल्यवान राय देने के लिए आप सबका धन्यवाद!

    जोशिम जी, बाकी दो कवितायें 'वागर्थ' में छपी हैं. जानता हूँ, आपको वहाँ अंक मिलना मुश्किल है. आपकी सलाह के मुताबिक टिप्पणी की प्रक्रिया से वर्ड वेरीफिकेशन भी हटा दिया है.

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  6. आज के युग में व्यापार का रूप इतना बदल गया है कि कभी कभी यह नहीं समझ में आता कि वस्तु क्या है और व्यापारी कौन. खरीददार तो यहां हर चीज के बैठे हैं. अंतर्मन को छू गया आपका बाजारवाद. शानदार लेखन

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  7. आज के युग में व्यापार का रूप इतना बदल गया है कि कभी कभी यह नहीं समझ में आता कि वस्तु क्या है और व्यापारी कौन. खरीददार तो यहां हर चीज के बैठे हैं. अंतर्मन को छू गया आपका बाजारवाद. शानदार लेखन

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  8. सही है. हर चीज़ ही बेची जा रही है. आपका दिन, आपकी रात. तनहाई भी. एक दिन की छुट्टी मिलती है, उस पर भी एसएमएस आने लगा है कि छुट्टी के दिन आपके लिए हमने प्लान किया है इस तरह का वीकेंड. हमारी छुट्टी भी वह प्लान कर रहे हैं. हमारा एक-एक सेकंड बेच देने की प्लानिंग है.
    अच्‍छी कविता है. पहली बार आना हुआ है इस ठिकाने पर. आते रहेंगे और पुरानी पोस्ट भी बांचेंगे धीरे-धीरे.

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  9. आपकी कविता अच्छी लगी. खासकर ये पंक्तियाँ-


    यों तो कुछ लोग हमेशा रहते हैं बिकने को आतुर,
    लेकिन बिकना नहीं चाहती वह स्त्री भी
    जो खड़ी रहती है खम्भे के नीचे ग्राहक के इंतज़ार में।

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