This is what i wanted to say today.. 'मोहल्ला' और 'रिजेक्ट माल' हिन्दी ब्लोगों पर काफी दिनों तक जाति और दलित समस्या पर बहस चली. लोगों ने पक्ष और प्रतिपक्ष में अपने तर्क पेश किए. दिलीप मंडल अब भी इस पर तर्क तथा आंकड़े दे-देकर फिजाँ में सनसनी घोले हुए हैं.
जाति एवं अछूत विषय (subject) पर मुझे कुछ कवितायें हाथ लगी हैं. एक लघुपत्रिका 'वक्त बदलेगा' डब्ल्यू जी ४२ बी, इस्लामगंज, जालंधर से निकला करती थी. इसके संस्थापक अनिरुद्ध थे. वर्ष १९९२ में उनका १८ साल १० माह की अवस्था में निधन हो गया था. शहीद भगत सिंह की तरह ही वह भी इस महादेश की पददलित-दमित-शोषित जनता के हालात बदलने का सपना देखने वाले नवयुवक थे. क्रांतिकारी पंजाबी कवि अवतार सिंह 'पाश' की धरती से उनका ताल्लुक था. उनके निधन के बाद सम्पादन का दायित्व तरसेम गुजराल पर आ गया था. 'वक्त बदलेगा' के एक अंक में रामेन्द्र जाखू 'साहिल' की कुछ कवितायें छपी थीं. दो कवितायें प्रस्तुत कर रहा हूँ;-
जाति एक साजिश है JAATI EK SAJISH HAI
जाति.... एक दुर्घटना है
जिसमें शरीर से पहले जख्मी होती है सोच
फिर विवेक.
जाति एक दुर्घटना है
जिसमें शरीर चला जाता है लाइलाज मुद्रा में
फिर कोई मसीहा दवा कम,
देता है कर्मों की दुवायें ज्यादा.
जाति एक हादसा है
जिसमें आदमी से पहले मर जाती है आदमीयत
और बाकी रहता है एक अहसास,
जो गाली की तरह पीछा करता है
बाद मरने के भी दलित का.
जाति एक साजिश है
जो रचते हैं शास्त्र ताकि दलित दलित रहें
न मांग सकें कभी भी-
अपना अधिकार,
अपनी पहचान
अपनी सोच.
अछूत ACHHOOT
वे अछूत हैं
न उन्हें हवा हिला सकती है
न आग जला सकती है
न जल बहा सकता है.
वे सब जगह मौजूद रहते हैं
घर में,
मोहल्ले में,
गाँव में,
शहर में,
देश में,
यहाँ तक कि सोच में भी.
हम उन्हें छू नहीं सकते
छूते हैं तो जल जाते हैं
हाथ उठाते हैं तो हाथ कट जाते हैं.
सब जानते हैं
वे कौन हैं
पर सब चुप हैं
न जाने क्यों?
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जाति एक साजिश है। जाति मर रही है, लेकिन इसे सायास जिंदा रख रहे है हमारे हुक्मरान, राजनीतिक दल ताकि उन्हें सत्ता में पहुंचने के लिए आसान राह मिली रहे। वो अपनी लोकतांत्रिक जवाबदेही से बचना चाहते हैं, इसलिए उग्र जातिवाद को बराबर हवा देते रहते हैं। सवर्ण जातियों में तो अब गोलबंदी का दम नहीं रहा, इसलिए पिछड़ों और दलितों का नाम लेकर राजनीति कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंबढि़या लेख
जवाब देंहटाएंकविताएं बढ़िया हैं। बाकी सब सही है। जाति-वाति सब बेकार की बातें हैं । वक्त पड़ने पर जाति बदल कर सवर्ण नाम धरे गए, बाद में आरक्षण का लाभ लेने के लिए एससी एसटी से लेकर ओबीसी तक के प्रमाण भी पेश किये गए। शहर में तो जाति को कोई पूछता तक नहीं । अलबत्ता गांवों में ज़रूर विद्रूप नज़र आता है। शहर में जाति की राजनीति , क्रान्ति भ्रान्ति का नारा लगानेवाले गांवों में जाकर क्यों नहीं अलख जगाते ? दिल्ली बहुत रास आ रही है ...गांव जाए भाड़ में ।
जवाब देंहटाएंअजित भाई, आप ठीक कह रहे हैं. अवसर का लाभ लेने के लिए ब्राह्मण भी हरिजन हो जाना चाहते हैं. कायस्थ चाहते हैं कि उन्हें ओबीसी में ले लिया जाए. जबकि समाज विकास में हम पाते हैं कि इस वर्ग ने लिखा-पढ़ी का काम हाथ में होने के कारण कभी ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच का वर्ण बनने की कोशिश की थी.
जवाब देंहटाएंआप तो जानते ही हैं कि कई लोग ग़लत जाति प्रमाणपत्र देकर एससी/एसटी के लिए आरक्षित चुनावक्षेत्रों से उम्मीदवार बन जाते हैं क्योंकि किसी भी तरीके से पावर चाहिए. कई बार ऐसा भी हुआ है कि जीते हुए प्रत्याशियों को ग़लत जाति प्रमाणपत्र के कारण घर बैठना पड़ा है.
हम जाति के प्रश्न को किसी व्यक्तिगत द्वेष की वजह न बनाएं. शायद तभी हम इस समस्या को समझ सकेंगे.
कवितायें बेहतरीन है. प्रस्तुति के लिये आभार.
जवाब देंहटाएंसहमत हूं विजय भाई...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ये कवितायें पढ़वाने के लिये। जाति के बारे में अब क्या कहें?
जवाब देंहटाएंसहमत हूं सर...
जवाब देंहटाएंबढ़िया कविता. जति भारतीय समाज और राजनीति में जोंक की तरह समाई हुई है इतनी आसानी से नही जायेगी
जवाब देंहटाएंकविता बहुत ही अछ्छी (घायल जौनपुरी)
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