शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

हम ने यह माना, कि दिल्ली में रहें खाएंगे क्या

उर्दू में व्यंग्य का उद्गम तलाशने की सलाहियत मुझमें नहीं है. लेकिन शायरी में व्यंग्य की छटा मीर, ज़ौक, ग़ालिब, सौदा, मोमिन जैसे पुरानी पीढ़ी के शायरों ने जगह-जगह बिखेरी है. मुझे ग़ालिब की एक पूरी की पूरी ग़ज़ल ध्यान में आती है जिसका हर शेर करुणा, आत्मदया और व्यंग्य के उत्कृष्ट स्वरूप में मौजूद है. आप भी गौर फ़रमाइए-



दोस्त ग़मख्वारी में मेरी, स'इ फ़रमाएंगे क्या
ज़ख्म के भरने तलक, नाखुन न बढ़ जाएंगे क्या

बेनियाज़ी हद से गुज़री, बंद: परवर कब तलक
हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमाएंगे क्या

हज़रत-ए-नासेह गर आएं, दीद:-ओ-दिल फ़र्श-ए-राह
कोई मुझको यह तो समझा दो, कि समझाएँगे क्या

आज वाँ तेग़-ओ-कफ़न बांधे हुए जाता हूँ मैं
'उज़्र मेरा क़त्ल करने में वह अब लाएंगे क्या

गर किया नासेह ने हमको क़ैद, अच्छा यूँ सही
ये जुनून-ए-इश्क़ के अंदाज़ छुट जायेंगे क्या

खान: ज़ाद-ए-ज़ुल्फ़ हैं, ज़ंजीर से भागेंगे क्यों
हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा, ज़िन्दाँ से घबराएँगे क्या

है अब इस मा'मूरे में केह्त-ए-ग़म-ए-उल्फ़त, असद
हम ने यह माना, कि दिल्ली में रहें खाएंगे क्या

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब पेशकश ! दिल खुश हुआ इसे पढ़कर

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  2. गालिब के कया कहने। http://chaighar.blogspot.com

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  3. आज वाँ तेग़-ओ-कफ़न बांधे हुए जाता हूँ मैं
    'उज़्र मेरा क़त्ल करने में वह अब लाएंगे क्या

    ... अद्भुत! चचा को सलाम!

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  4. आज वाँ तेग़-ओ-कफ़न बांधे हुए जाता हूँ मैं
    'उज़्र मेरा क़त्ल करने में वह अब लाएंगे क्या

    ... वल्लाह!

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत ख़ूब

    ---
    आप भारत का गौरव तिरंगा गणतंत्र दिवस के अवसर पर अपने ब्लॉग पर लगाना अवश्य पसंद करेगे, जाने कैसे?
    तकनीक दृष्टा/Tech Prevue

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  6. बिल्कुल विनय भाई, यही नहीं बल्कि मैं रोज चाहूंगा कि तिरंगा मेरी छाती पर गड़ा हुआ लहराता रहे.

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