।। हम देखेंगे।।
पक्का है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका है वचन मिला
जो "विधि विधान" में है कहा गया
जब पाप का भारी पर्वत भी
रुई की तरह उड़ जाएगा
हम भले जनों के चरणों तले
जब धरती धड़ धड़ धड़केगी
और राजाओं के सिर ऊपर
जब बज्जर बिजली कड़केगी
जब स्वर्गलोक के देव राज्य से
सब पापी संहारे जाएंगे
हम मन के सच्चे और भोले
गद्दी पर बिठाए जाएंगे
सब राजमुकुट उछाले जाएंगे
सिंहासन ढहाए जाएंगे
बस नाम रहेगा "परमेश्वर" का
जो साकार भी है और निराकार भी
जो दृश्य भी है और दर्शक भी
उट्ठेगा “मैं ही ब्रह्म" का एक नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगा "पूर्णब्रह्म"
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
हम देखेंगे!
आम जनता के दुख-दर्द, उसके संघर्ष, समाजी व सियासी मसाइल और टूटे हुए दिलों की तड़प को अपनी शायरी में पिरोने वाले इंकलाबी और रूमानी शायर फैज अहमद फैज एक मुहावरे के मुताबिक अपना ही यह बारीक शेर याद कर करके कब्र में बेचैनी से करवटें बदल रहे होंगे कि “वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था/वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है”. मुहावरे का हवाला इसलिए दे रहा हूं कि फैज तरक्कीपसंद शायरी का मरकज थे और आदमी के खुदा नामक ख्वाब में उनका यकीन नहीं था. ऐसे में कब्र, जन्नत, खल्क-ए-खुदा, अनल-हक, अर्ज-ए-खुदा और बुत जैसे अल्फाज के मानी उनके लिए वही नहीं थे, जो शब्दकोश में लिखे होते हैं. इंसान की जिजीविषा ही उनके लिए पहली और आखिरी हस्ती थी. फैज के लिए ‘बुत’ का मतलब किसी देवता की ‘मूर्ति’ नहीं है, बल्कि इस जमीन पर रहने वाले उन लोगों से है, जो खुद को खुदा समझते हैं और लोगों पर जुल्म-ओ-सितम ढाते हैं. बहरहाल, उनकी शायरी पर तजकिरा पेश करना यहां हमारा मकसद नहीं है, लिहाजा हम सीधे मुद्दे की बात पर आते हैं.
फैज की एक बड़ी मकबूल नज्म है- “हम देखेंगे”. इसे तमाम ऐसे लोग एक हथियार की तरह प्रयोग करते आए हैं, जो हर किस्म की निरंकुशता और जोर-ओ-जब्र की मुखालिफत किया करते हैं; हिंदुस्तान में भी और पाकिस्तान में भी. पिछले दिनों नागरिकता कानून के विरोध में कानपुर आईआईटी के छात्रों ने रैली निकाली, जिसे नाम दिया गया था- ‘इन सॉलिडैरिटी विद जामिया’. उसमें जब फैज की इस नज्म को पढ़ा गया, तो फैकल्टी के कुछ सदस्यों ने इसके संदेश को भारत विरोधी, हिंदू विरोधी और सांप्रदायिक करार देते हुए बाकायदा एक जांच समिति गठित करवा दी! आपत्ति जताने वाले लोग नज्म की इन पंक्तियों- “जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से/सब बुत उठवाए जाएंगे/हम अहल-ए-सफा मरदूद-ए-हरम/मसनद पे बिठाए जाएंगे/सब ताज उछाले जाएंगे/सब तख्त गिराए जाएंगे/बस नाम रहेगा अल्लाह का”- पर खास ऐतराज जता रहे हैं. उनको लगता है कि नज्म में इस्लाम का कोई कट्टर अनुयायी काल्पनिक जन्नत का दृश्य प्रस्तुत करते हुए अपनी गहरी आस्था के मुताबिक हश्र के दिन का वर्णन कर रहा है और ‘बुत’ उठवाने की चाह जता कर हिंदुओं की मूर्तिपूजा का विरोध कर रहा है!
मशहूर शायर व फिल्म लेखक-गीतकार जावेद अख्तर तथा खुद फैज साहब की बेटी सलीमा हाशमी ने कहा है कि फैज और इस नज्म को हिंदू विरोधी बताना इतना दुखद, अजीब और हास्यास्पद है कि इसके बारे में कोई गंभीर प्रतिक्रिया भी नहीं दी जा सकती. मशहूर-ओ-मारूफ शायर मुनव्वर राणा ठीक ही कह रहे हैं कि हमारे देश के जो मौजूदा हालात हैं, उसमें हर चीज को सांप्रदायिक बनाए बिना सियासतदानों का काम नहीं चलता और नफरत इस देश में आजकल आक्सीजन का काम करती है. अगर यही नज्म राष्ट्रकवि दिनकर या मधुशाला वाले बच्चन साहब ने लिखी होती, तो कोई हंगामा नहीं होता.
मुनव्वर राणा की बात में दम है. आजकल सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं और संगठनों में ऐसे लोगों का कब्जा हो चुका है जो एक खास किस्म से सोचने के लिए प्रशिक्षित किए गए हैं. जिन्हें साहित्य का ‘स’ नहीं मालूम, वे मीर-ओ-गालिब को खारिज कर देते हैं और कबीर-तुलसी-निराला की कविता को इलेक्ट्रिक शॉक देकर परखना चाहते हैं. दरहकीकत फैज ने कहा है कि धरती पर जो भी तानाशाह मौजूद हैं, उन सभी के बुत उठवा दिए जाएंगे. जनता की क्रांति आएगी और सिर्फ एक ताकत राज करेगी, जो ‘खल्क-ए-खुदा’ यानी खुदा की बनाई जनता ही होगी. लेकिन इतनी सी बात भी समझ पाना ‘असाहित्यिक’ और ‘जनविरोधी’ दिमागों के वश की बात नहीं है. कवि-पत्रकार मित्र चंद्रभूषण की राय में उपमाएं कवि के सोचने का तरीका हैं. लेकिन अपनी औकात के पार जाने के लिए उसे रूपकों के जोखिम भरे कारोबार में उतरना पड़ता है, जहां किसी भी बात का कुछ भी अर्थ लगाया जा सकता है.
जाहिर है कि जब खुद कवि के लिए यह चुनौतीपूर्ण कार्य है तो पाठक की विकृत मानसिक बुनावट अनर्थ करने में उत्प्रेरक की भूमिका ही निभाएगी. “हम होंगे कामयाब” पंक्ति का हासिल किसी क्रांतिकारी, भ्रष्ट नेता अथवा डाकू के लिए एकसमान नहीं हो सकता. आखिरकार सब अपने-अपने तरीके से कामयाब ही होना चाहते हैं. इसमें कवि या शायर का क्या दोष है? जिनके मस्तिष्क में ग्रांड कैनियन से भी गहरे सांप्रदायिक सोच वाला तंत्रिका पथ खोद दिया गया है, वे सिंधु और गंगा-यमुना के बहते हुए पानी में भी हिंदू-मुसलमान के रंग खोज लेते हैं. कविता के सकारात्मक और गूढ़ निहितार्थ समझने की तरफ उनकी सोच जा ही नहीं सकती. इस दिशा में प्रशिक्षण देने वाली कोई शाखा भी भारत में नहीं चलाई जा रही है कि उनकी सोच वाला तंत्रिका पथ बदला जा सके.
मजे की बात है कि ऐतराज जताने वाले लोग अपने ड्रांइग रूमों में फैज की रूमानी गजलें सुनकर अपना गम गलत करते हैं लेकिन उनकी शायरी के इंकिलाबी तेवर से परहेज करते हैं. यानी मीठा-मीठा गड़प और कड़वा-कड़वा थू! मेहदी हसन गा दें कि “कर रहा था गम-ए-जहां का हिसाब/आज तुम याद बे-हिसाब आए”, तो इन्हें तन्हाई में महबूबा की बेवफाई याद आ जाएगी और अगर ये शेर सामने पड़ जाए कि “निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहां/ चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले”, तो इन्हें सांप सूंघ जाएगा!
किस्सा ये है कि फैज ने “हम देखेंगे” नज्म पाकिस्तान को धार्मिक कट्टरता की जहालत में ठेलने वाले तानाशाह जिया उल हक की कारस्तानियों के विरोध में प्रतीकात्मक ढंग से लिखी थी. इसमें उनका कोई धार्मिक दृष्टिकोण नहीं था. अगर यह नज्म हिंदू विरोधी होती तो पाकिस्तान में महिलाओं के साड़ी पहनने तक को प्रतिबंधित करने वाला यह निष्ठुर जनरल इस नज्म को सेंसर करवा कर फैज को जेल में न ठूंसता बल्कि उन्हें ईनाम-ओ-इकराम से नवाजता. जेल में ही बेफिक्र होकर फैज ने लिखा था- “बोल कि लब आजाद हैं तेरे/बोल जबां अब तक तेरी है/तेरा सुतवां जिस्म है तेरा/बोल कि जां अब तक तेरी है”. सच तो यह है कि जिया उल हक की वजह से फैज पाकिस्तान में चैन से नहीं रह पाए. कभी उनको फिलिस्तीन में शरण लेनी पड़ती थी, तो कभी सोवियत रूस में अनुवाद करके पेट पालना पड़ता था, क्योंकि फैज की शायरी भूख, गरीबी, अत्याचार का खात्मा करने के लिए पाकिस्तानी अवाम का आवाहन करती थी और सच का साथ देने वालों के दिलों में सड़क पर संघर्ष करने की आग पैदा करती थी. आजादी के फरेब का पर्दाफाश करते हुए ऐलान करती थी- “ये दाग-दाग उजाला, ये शबगजीदा सहर, वो इंतजार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं”. लब्बोलुबाब यह कि फैज ने हर मुश्किल वक्त में अपनी आवाज बुलंद की और कई पीढ़ियों के मुंह में जबान डाल दी.
यही एक चीज नज्म पर आपत्ति उठाने वालों को खल रही है. स्पष्ट है कि या तो ये लोग सत्ता के साथ हैं या सत्ता से भयभीत हैं. अविभाजित भारत के सियालकोट में जन्मे फैज ने जीते जी पाकिस्तान के हुक्मरानों और मुल्लाओं से पत्थर खाए और मरने के बाद भारत में गालियां खा रहे हैं. फैज की शायरी सियासी सरहदों को लांघने वाली शायरी है. उसे हिंदुस्तान और पाकिस्तान की मौजूदा बायनरी में कैद करके नहीं देखा जा सकता. क्या दिन आ गए हैं कि शेर-ओ-शायरी की किस्मत सरकारी मशीन के चंद पुर्जे तय करने लगे हैं! इस नुक्ते पर मिर्जा गालिब का यह शेर याद आता है- “या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मिरी बात/ दे और दिल उनको जो न दे मुझको जबां और.”
-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
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