लेकिन वर्तमान भारत में ये सारे लक्षण शीर्षासन करने लगे हैं। उपर्युक्त श्लोक विकृत ढंग से विद्यार्थियों से अधिक प्रशासकों पर सटीक बैठ रहा है। अध्यापकों और कुलपतियों की काकचेष्टा, बकोध्यान और श्वाननिद्रा शिक्षेतर गतिविधियों पर केंद्रित होकर रह गई है। राजनीतिक के ओवरडोज ने शैक्षणिक संस्थानों को स्कोर सेटल करने के अखाड़ों में तब्दील कर दिया है और छात्र इस या उस विचारधारा का झंडा उठाने वाले कार्यकर्ता बन कर रह गए हैं!
इसे दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जाए कि भारत के जिन विश्वविद्यालय कैम्पसों को छात्रों के सर्वांगीण विकास का स्वर्ग होना चाहिए था, विभिन्न मान्यताओं, सिद्धांतों और शिक्षण-पद्धतियों का कोलाज बनना था, आज वे बदले की राजनीति, असहिष्णुता, वैचारिक सफाए और दुर्भावनापूर्ण कार्रवाइयों की आश्रय-स्थली बन गए हैं! हिंसा इक्कीसवीं शताब्दी के समाप्त होने जा रहे पहले दशक की अखिल विश्वविद्यालयी परिघटना रही है। अब तो छात्रों को खुलेआम ‘अर्बन नक्सल’ करार दिया जा रहा है और उनकी अभिभावक केंद्र सरकार तथा कुलाधिपति खामोश हैं, असंख्य पूर्व छात्रों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी होने के बावजूद विश्वविद्यालयों के सांस्थानिक रहनुमा धृतराष्ट्र बने बैठे हैं!
छात्रों के विभिन्न गुटों के बीच वैचारिक मतभेद, राजनीतिक सक्रियता, चुनावी झड़पें और युवकोचित हिंसा इन कैम्पसों के लिए कोई नया फिनॉमिना नहीं है। जो लोग छात्रों को सिर्फ अपनी पढ़ाई से ही काम रखने की नसीहतें देते हैं, उन्हें मालूम होना चाहिए कि छात्र राजनीति और छात्र-संघों का सुनहरी इतिहास आजादी से पहले ही लिख दिया गया था। फिर चाहे वह 1920 का असहयोग आंदोलन हो, जिसमें छात्रों ने अपने-अपने शिक्षण संस्थानों का बहिष्कार किया था और कइयों ने पढ़ाई अधर में छोड़ दी थी या 1930 में छिड़े सविनय अवज्ञा आंदोलन का दौर हो, जब छात्र अहिंसक आंदोलन किया करते थे और विदेशी वस्त्रों की होलियां जलाते थे। आजादी के बाद आपातकाल के दौर में जीवनावश्यक वस्तुओं की बढ़ती महंगाई के विरोध में छात्र सड़कों पर उतरे। जेएनयू के छात्रों के विरोध के चलते ‘आयरन लेडी’ इंदिरा गांधी तक को चांसलर का पद छोड़ना पड़ा था। नब्बे के दशक में वीपी सिंह द्वारा लागू किए गए मंडल कमीशन के विरोध की राष्ट्रव्यापी चिंगारी एक छात्र राजीव गोस्वामी ने ही जलाई थी। अन्ना हजारे का आंदोलन हो या निर्भया कांड के खिलाफ पैदा आक्रोश, छात्रों ने बिना किसी पूर्वग्रह के हर जरूरी मौके पर बल भर आवाज बुलंद की है। जेपी आंदोलन से निकले कितने ही छात्र नेता आज केंद्र और राज्य सरकारों का महत्वपूर्ण हिस्सा बन कर अपनी बुजुर्गी काट रहे हैं।
लेकिन हम इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि केंद्र में पीएम मोदी की अगुवाई में दक्षिणपंथी रुझान वाली सरकार का पहला कार्यकाल शुरू होते ही वामपंथी विचारों के दबदबे वाला जेएनयू कैम्पस छात्र हिंसा-चक्र की धुरी बना कर उभारा गया है। उसे 'राष्ट्रविरोधी' गतिविधियों तथा ‘व्यभिचार’ का केंद्र प्रचारित करके लगातार उसकी छवि काली करने की कोशिश की गई है। जबकि जेएनयू ने बार-बार ‘यूनिवर्सिटी ऑफ इक्सीलेंस’ का खिताब जीतकर तमाम दुष्प्रचार को मिथ्या साबित किया है। जेएनयू ही नहीं, दिल्ली विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय, जादवपुर विश्वविद्यालय, अलीगढ़ विश्वविद्यालय, बीएचयू और जामिया मिलिया इस्लामिया समेत केरल के कई विश्वविद्यालय परिसर भी शिक्षेतर वजहों से उपजी हिंसक कार्रवाइयों का शिकार बने हैं। विश्वविद्यालयी हिंसा के नए अध्याय में कैम्पसों के भीतर पुलिस की लाठी-गोली हावी हो चली है। चित्र यही उभरता है कि पठन-पाठन के तीर्थों को अपवित्र किया जा रहा है।
यह भी आईने की तरह साफ है कि देश के अलग-अलग कैम्पसों की हिंसक झड़पों में परस्पर विरोधी विचारपद्धतियों से पोषित एवं संवर्द्धित छात्र संगठनों के बीच होने वाले टकराव की अहम भूमिका रही है। नाम लेकर कहें तो वामपंथी आधार वाले छात्र संगठनों (आइसा, डीएसएफ , डीवायएफआई और एसएफआई आदि), कांग्रेस समर्थित एनएसयूआई और दक्षिणपंथी रुझान वाले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एवीबीपी) की रस्साकसी ने बार-बार इन हिंसक घटनाओं को जन्म दिया है। चूंकि एवीबीपी सत्तारूढ़ दल बीजेपी का छात्र-मोर्चा है, इसलिए हर मामले में उसके सदस्यों को एडवांटेज मिलता है। एवीबीपी का सूत्र-वाक्य है- “छात्र शक्ति, राष्ट्र शक्ति”। लेकिन जान पड़ता है कि वे अपनी परिषद् से बाहर के छात्रों के लिए कोई शक्ति शेष नहीं छोड़ना चाहते! एवीबीपी को मजबूत करने के इरादे से सत्ताधारी खेमे के नेता और संघ प्रचारक अक्सर कैम्पसों के माहौल को 'राष्ट्रवादी' बनाने के लिए प्रशासन की तरफ से कभी 'करगिल विजय दिवस' तो कभी 'दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद' के नाम पर बड़े-बड़े आयोजन करवाते रहते हैं। जेएनयू में तो वीसी जगदीश कुमार ने छात्रों में राष्ट्रवाद की भावना जगाने के लिए तीन साल पहले कैंपस के अंदर सेना का वास्तविक टैंक रखवाने की मांग की थी।
आदर्श स्थिति तो यही है कि हमारे विश्वविद्यालय पूर्ण सरकारी सहयोग और समर्थन से अंतरराष्ट्रीय स्तर की शैक्षणिक गुणवत्ता और शोध के लिए विख्यात हों। उन्हें कद्दावर नेता, राजनयिक, कलाकार और अपने-अपने क्षेत्रों के अधिकारी विद्वान तैयार करने के लिए जाना जाए। लेकिन आज देश-विदेश में इनकी शोहरत- छात्र-आत्महत्या, साजिश के अड्डों, लाठी, पत्थर और लोहे की छड़ें लेकर घूमने वाले नकाबपोशों, होस्टलों में घुस कर किए जाने हमलों, धरना-प्रदर्शनों, गलाफाड़ नारेबाजी, देशद्रोह के मुकदमों, जातिगत भेदभाव, विषमानुपातिक शुल्क-वृद्धि आदि के लिए ज्यादा फैल रही है।
कभी कैम्पसों के माहौल में अकादमिक स्वायत्तता, छात्र-संघों के चुनाव, विश्वविद्यालय प्रशासन में छात्र-संघों का दखल, प्रवेश-प्रक्रिया में बदलाव, पढ़ने-पढ़ाने की भाषा, पुस्तकालयों और अन्य संसाधनों की कमी, अनुदान कटौती और शुल्क-वृद्धि जैसे मुद्दे गरमी पैदा किया करते थे, लेकिन अब कश्मीर की आजादी, अनुच्छेद 370, एनआरसी, पाकिस्तान, अफजल गुरु, जिन्ना, नागरिकता कानून, तिहरा तलाक, राम मंदिर, सबरीमला, मॉब लिंचिंग, मूर्तिभंजन, संविधान का निरादर, चार्जशीट, कंडोम, नियुक्तियों का अतार्किक विरोध जैसे मुद्दे उबाल पैदा करते हैं। इन मुद्दों को राजनीतिक दल अपने-अपने स्वार्थों के चश्मे से देखते-तोलते हैं लेकिन छात्रों की समस्याओं को घोषणा-पत्रों का हिस्सा कभी नहीं बनाते।
विश्वविद्यालय कैम्पस के भीतर अगर छात्र राजनीति करते हैं, तो आप उसे कदाचार का नाम नहीं दे सकते। उच्च शिक्षा का उद्देश्य सरकारी कारकून तैयार करना नहीं बल्कि युवकों का सर्वांगीण व्यक्तिगत और चारित्रिक विकास करना होता है। अगर कल के नीति निर्माता आज की समस्याओं पर विचार-मंथन नहीं करेंगे तो सटीक समाधान निकालने और निर्णय लेने की क्षमता उनमें कैसे विकसित होगी? वंशवाद की राजनीति का खात्मा कैसे होगा? इसीलिए छात्र-राजनीति को समकालीन राष्ट्रीय परिदृश्य का प्रतिबिम्ब कहा जाता है। यह देश को प्रभावित करने वाले मुद्दों से जुड़ाव, नागरिक समस्याओं के प्रति जागरूकता और समाज का वर्गीय प्रतिनिधित्व कैम्पस में ही पैदा कर देती है। शिक्षा का असल मतलब डिग्री हासिल करके कोई नौकरी पकड़ लेना नहीं होता, बल्कि अच्छे और बुरे के बीच चुनाव करने की सलाहियत पैदा करके अच्छाई के हक में आवाज बुलंद करना उसका मूल उद्देश्य होता है।
हमारे कैम्पसों में हिंसा की बाढ़ का कारण शैक्षणिक अथवा राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर होने वाली छात्र राजनीति नहीं है। इस हिंसा का असली कारण सरकार से असहमत छात्रों को भयभीत करने के लिए सत्तारूढ़ दल समर्थित छात्र विंग को शह और अभयदान दिया जाना है। मामला इस हद तक जा पहुंचा है कि जिन छात्र-छात्राओं का माथा फूटता है, एफआईआर उन्हीं के खिलाफ दर्ज करवा दी जाती है! राहत इंदौरी का शेर याद आता है- “अब कहां ढूंढने जाओगे हमारे कातिल / आप तो कत्ल का इल्जाम हमीं पर रख दो।”
अगर कोई हिंसक हथियारबंद भीड़ भारत के सबसे शानदार और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में घुस कर मारकाट और तोड़फोड़ कर सकती है और सुरक्षा में तैनात पुलिस छात्रावास, छात्रों व अध्यापकों की सुरक्षा करने में नाकाम रहती है; अपने आकाओं के इशारों पर उपद्रवी छात्र-छात्राओं को गिरफ्तार नहीं करती, तो ऐसे हालात में आखिर देश का कौन-सा कैम्पस सुरक्षित है? उस पर भी विभिन्न प्रचार-प्रसार माध्यमों के जरिए विरोधी विचारधारा वाले छात्रों को खलनायक, आतंकवादी, देशद्रोही और जाने क्या-क्या साबित करने का राजनीतिक अभियान जारी है। ऐसे में छात्रों पर हिंसक हमलों का खतरा कई गुना बढ़ गया है। लेकिन जो लोग अंधविरोध और समर्थन के वशीभूत होकर किसी भी वैचारिक पक्ष वाले छात्रों के वर्तमान दमन का जश्न मना रहे हैं उन्हें अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि जो समाज छात्रों की पुलिसिया पिटाई और अपने विश्वविद्यालयों में हिंसा का समर्थन करता है, वह अपने भविष्य के तबाह होने की राह पर निकल पड़ता है!
-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
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