शनिवार, 17 जनवरी 2009

देख के दिल कै जाँ से उठ रहेला है?

कई बातें कह दूँगा! अव्वल तो कबाड़खाना में शिरीष जी की प्रस्तुत पोस्ट का ये शेर-

कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया
दिल कहां कि गुम कीजे, हमने मुद्दआ पाया

खालिस रोमांटिक शेर है. लेकिन दिक्कत यह है कि गालिब इतना चतुर था कि एक तीर से हज़ार शिकार किया करता था. ग़ालिब उपर्युक्त शेर में भी मोहब्बत की इन्तेहाँ पर है. जैसे कि तब, जब वह यह कहता है-

जहाँ तेरा नक्श-ए-क़दम देखते हैं,
खयाबाँ-खयाबाँ इरम देखते है.

अब रामनाथ सुमन जी के बयान की बात. मैं उनके बखान से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता. क्योंकि ग़ालिब का इस शेर में कहने का मतलब वह नहीं है जो सुमन जी तजवीज करते हैं. ग़ालिब महबूबा के लिए अपना दिल खोल कर दिखाने से सम्बंधित दसियों अश'आर में अलग-अलग तरीकों से कहता आया है.

बहरहाल, शिरीष के 'कबाड़खाना' में ऊपर दिए गए शेर में दरअसल ग़ालिब कह रहा है कि दिल अब मेरे पास है ही कहाँ कि उसके गुल होने का ग़म किया जा सके. यानी वह तो महबूबा के पास पहले से है. लेकिन ऐसे अधिकांश मामलों में ग़ालिब के अश'आर से यह जाहिर होता है कि वह अपनी तरफ़ से यह मान कर चलता है कि महबूबा बेवफ़ा है. यह ग़ालिब की सबसे बड़ी कमजोरी लगती है! आप दीवान-ए-ग़ालिब तलाश लीजिए. इन मामलों में वह महबूबा का उजला पक्ष सामने नहीं रखता. कोई दानिश्वर अगर मेरी इस कमअकली को दुरुस्त कर दे तो मैं सुकून पाऊँ.

'हमने मुद्द'आ पाया' कहकर वह तंज़ कर रहा है कि महबूबा को मालूम है कि दिल उसके ही पास है लेकिन संगदिल कितनी सरकश है कि गोया मेरी मोहब्बत के उस उरूज को, जिसमें मैंने यहाँ तक कह दिया कि 'जाहिर हुआ के दाग़ का सरमाया दूद था' , यह बात उड़ाकर कि महबूबा ने यकीनन दिल पड़ा पाया है, वैसी ही हरकत की है जैसी पत्थरदिल सनम किया करते हैं. हालांकि ग़ालिब के मन में कहीं हिकारत का भाव नहीं है. यह कमाल है! लेकिन ग़ालिब ऐसा क्यों करता था यह पहले इतिहासकारों और मनोवैज्ञानिकों को अध्ययन करना चाहिए.

Please note- (यह संपादित पोस्ट है. पिछली पोस्ट में कई चीज़ें गड्डमड्ड हो गयी थीं).

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