गुरुवार, 29 मई 2008

अंगरेजी का खतरनाक अंडरवर्ल्ड (अन्तिम)

पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा कि यह बात सही है कि आप भाषा किसी पर थोप नहीं सकते पर राष्ट्रीय भावना के विकास के सहारे राष्ट्रीय भाषा का विचार धीरे-धीरे अपनी जगह ले सकता है। लेकिन विज्ञान और तकनीक की विचारधारा पर जब तक संप्रभु वर्ग का नियंत्रण बना रहेगा तब तक अंगरेजी को भारतीय भाषायें पदच्युत नहीं कर सकतीं। अब आगे....

स्थितियां यह हैं कि भारतीय भाषाएं वैज्ञानिक और तकनीकी संस्कृति के विकास में योगदान नहीं कर पा रही हैं. इससे उनका हाशिये पर चला जाना आश्चर्य की बात नहीं. विशेषज्ञता, विविधता और महत्वपूर्ण होने के बावजूद भारतीय भाषाओं के विद्वानों ने मिल कर काम करने की सीख अब तक नहीं ली. इसीलिए उनकी भाषाओं में अंगरेजी के मुकाबले बुनियादी परिवर्त्तन नहीं हो सका है. भाषा और सत्ता के संबंधों में मौजूदा पैटर्न नहीं बदला जा सका. अंगरेजी की दबंग प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने में भारतीय बुद्धिजीवी नाकामयाब रहे हैं और गाहे-बगाहे अंगरेजी बुद्धिजीवियों की जमात में शामिल होकर दण्डवत मुद्रा में आ जाते हैं.

यहाँ मैं अपने गिरेबान में झांकने का प्रसंग शुरू कर रहा हूँ.
उच्च शिक्षा के लिए हमारे पास वैकल्पिक भाषा या भाषाएं क्या हैं? क्या आईआईटी, आईआईएम्, एमबीए, चिकित्सा या क़ानून की उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों के लिए आधुनिक भारतीय भाषाओं में ज्ञान के शास्त्र लिखे जा रहे हैं, या मौजूद हैं?

सत्ता की भाषा की राजनीति इतनी सूक्ष्म होती है कि अंग्रेजों को हमने दैहिक तौर पर तो भगा दिया लेकिन अंगरेजी को मानसिक तौर पर नहीं हटा पाये. वह दैत्य बनकर हमसे अपना काम करवा रही है. जिसे हम आजादी के बाद पनचक्की समझते थे, वह सचमुच का राक्षस निकला. तुर्की और इजरायल जैसे देशों से हमने कोई सबक हासिल नहीं किया. आज हालत यह है कि अंगरेजी के लिए भारतीय जनता जाने-अनजाने अपनी ही भाषाओं का कत्लेआम मचाये हुए है.


जो लोग बार-बार कहते हैं कि वे अंगरेजी के विरोधी नहीं हैं, समस्या की जड़ वही हैं. उन्हें अंगरेजी आती है और वे अंग्रेजियत का चरम लाभ इस व्यवस्था से उठा रहे हैं. ऐसे में वे अंगरेजी का विरोध क्यों करेंगे? वे अंगरेजी के विरोधी हुए बिना हिन्दी को उरूज पर लाना चाहते हैं! कितने भोले लोग हैं ये! इन्हीं लोगों की वजह से अंगरेजी सिंहासन पर चढ़ती गयी और हिन्दी पददलित होती चली गयी. दूसरी भाषाओं की स्थिति अंगरेजी के बरक्श हिन्दी से कहीं बेहतर है क्योंकि वे यह कभी नहीं कहते कि वे अंगरेजी के विरोधी नहीं है.


अंगरेजी का विरोध जड़ से ही न होने के कारण आज़ादी के ६० सालों में करोड़ों लोग भारतीय भाषाएं नहीं, अंगरेजी सीख गए हैं. ऐसे माहौल में कैसी फसल उग रही है, यह सब देख रहे हैं. इसकी वजह यह है कि भाषा की संरचना समाज संरचना में परजीवीपन, जटिलता और विकृत रुचियाँ विकसित करती जाती है. नतीजतन विज्ञान और तकनीक, शिक्षा तथा भाषा योजना में उन्हीं का बर्चस्व बढ़ता जाता है जिनकी मुखालफत में हम अभियान चला रहे होते हैं.


ज्यादा विकट स्थितियां शोध के क्षेत्र में है. सारे शोध अंगरेजी में हो रहे हैं. ऐसे में कोई शोध भारतीय भाषाओं से तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाता. भाषाई साजिश के तहत भारतीयों के मन में यह बात भर दी गयी है कि वैज्ञानिक शोध और वैज्ञानिक शिक्षा सिर्फ़ और सिर्फ़ अंगरेजी में ही सम्भव है. इसमें सबसे बड़ा खेल सत्ता-संस्थानों, पूँजी के तांडव और राज्य की उदासीनता का है. भारतीय भाषाओं में शोध के लिए न तो पूँजी उपलब्ध है न ही राज्य का प्रोत्साहन, और सत्ता चूंकि अंगरेजी संस्कृति के लोग चलाते है, इसलिए वे सहयोग करने के बजाये अवरोधी कारक बने रहते हैं.


इस पसमंजर में 'भारतीय ज्ञान आयोग' ने पिछले दिनों खतरनाक सिफारिशें की हैं. इनमें सबसे ज़्यादा घातक वह सिफारिश है जिसमें भारतीय स्कूलों में पहली कक्षा से ही अंगरेजी पढ़ाने की बात ज़ोर देकर कही गयी है. यह कदम भारत को वैश्वीकरण के इस दौर में प्रतिष्ठित करने के लिए जरूरी बताया जा रहा है. लेकिन ज़रा कल्पना कीजिये कि अंगरेजी संस्कारों वाली वह भारतीय नस्ल इस देश को विश्व में महान भारतवर्ष के तौर पर प्रतिष्ठित करेगी या पश्चिम और अमेरिका के पिछलग्गू के रूप में?

अंगरेजी की वासना आज इतनी प्रचंड है कि छोटे-छोटे गाँवों तक में टपरे बाँध कर अधकचरे कॉन्वेंट स्कूल खोले जा रहे हैं. मैं अपने अनुभव से बताता हूँ. मेरी आयु अभी ३८ वर्ष है. हमारे बचपन में सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में हिन्दी शिक्षा का डंका बजता था. देखते-देखते निजी स्कूल खुले जिनमें पढ़ाई का माध्यम तो हिन्दी ही रहा लेकिन शिक्षा का स्तर गिरता चला गया. अब टपरा छाप कॉन्वेंट स्कूल जम कर पैसा वसूल रहे हैं लेकिन गाँव वाले इस उम्मीद में अपने बच्चों को निजी स्कूलों से निकाल कर इन कोन्वेंटों में दाखिल करा रहे हैं कि इन्हीं में पढ़ने से उनके बच्चों को नौकरी मिल सकती है.

अगर आप चाहते हैं कि यह स्थिति बदले तो बाज़ार की शक्तियों से टकराना होगा. अंगरेजी के बाज़ार से लड़े बिना अगर आप भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठा दिलाना चाहते हैं तो वह दिवास्वप्न ही साबित होगा. भारतीय भाषाओं के पक्ष में युद्ध छेड़ने वालों के रवैये से स्पष्ट होता है कि अंगरेजी बाज़ार की भाषा बनी रहे तथा हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाएं अस्मिता की भाषा के रूप में प्रतिष्टित हों. विचार करने की बात है कि अगर अंगरेजी बाज़ार और अच्छे रोज़गार (ऊंची नौकरी और बड़े कारोबार) की भाषा बनी रहती है तो आप समाज के लोगों पर कैसे दबाव डालेंगे कि वे अपने बच्चों को मातृभाषा (हिन्दी, मराठी, बांगला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि) में शिक्षा दिलाएं?

आख़िर में यही कहूंगा कि जो लोग इस बात से भयातुर हैं कि जल में रह कर मगरमच्छ से बैर कौन करे तो उनको समझ लेना चाहिए कि मगरमच्छ विदेशी है और जल हमारी मातृभाषा का है. अंग्रेजों से आजीवन भाषाई संग्राम छेड़ने वाले भारतेंदु हरिश्चन्द्र की यह सीख हमेशा याद रखिये-

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को सूल.

3 टिप्‍पणियां:

  1. हिन्दी को कितनी भी सन्जीवनी पिलाने के अभियान चलालें। हिन्दी जब देश की आर्थिक तरक्की से जुड़ेगी, व्यवसाय की भाषा होगी, नौकरी हिन्दी से मिलेगी; तभी कल्याण होगा।
    कालजयी साहित्य लेखन की प्रक्रिया हिन्दी को संजीवनी नहीं पिला सकती।

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  2. हां कथन तो ये सही जान पड़ता है कि जब तक जीविकोपार्जन से सीधे रूप से हिन्दी नहीं जुडेगी तब तक बात शायद नही बने पर इसमे भी वही लोग आड़े आते है जिसका जिक्र आपने पिछली पोस्ट मे किया था.
    निराशा की बात नहीं कर रहा हूँ पर लगता है कि ये तो नियति बन चुकी है.?

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  3. आपके विचारो से सहमत हूँ . आभार

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