... गतांक से आगे
रूढिवादी सामाजिक परम्पराओं द्वारा ही असभ्य और बर्बर लोगों में आत्महत्या की प्रवृत्ति का सूत्रपात हुआ था. सामाजिक स्वार्थ व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊंचा है और इसके पालन के बगैर किसी का अस्तित्व सम्भव नहीं था. इसीलिए सामाजिक स्वार्थ के लिए व्यक्ति का आत्मदान बाध्यतामूलक माना गया और उसी समर्थित वातावरण के प्रभाव से इसे प्राकृतिक नियम मानकर आत्महत्याएं हुईं. (एमिली डार्कहाइम/ जुईसाइड, अ स्टडी इन सोशियोलोजी, अंग्रेजी अनुवाद- ए. स्पोल्डिंग एवं जोर्ज सिम्पसन, रूटलेज एंड केगान पॉल लन्दन १९५२, पेज- २१२-२१३).
समाज और संस्कृति परिवर्त्तनशील है. संपत्ति के संबंधों में परिवर्त्तन, संस्कृति के विवर्त्तन को अनिवार्य रूप से प्रभावित करते हैं. उत्पादन की नयी पद्धति पुरानी का स्थानान्तरण करती है, स्वभावतः सामाजिक संबंधों का भी पुनर्विन्यास होता है. संपत्ति की व्यवस्थाएं तथा राष्ट्र नेतृत्व हस्तांतरित होते हैं तथा नए सरमायेदारों के नेतृत्व में नयी व्यवस्था की स्थापना होती है. नए सरमायेदारों की प्रमुख शक्ति उनके अस्त्र बल तो होते ही हैं, लेकिन नयी संस्कृति उन्हें स्थायित्व देती है।
इस तथाकथित नयी संस्कृति के प्रभाव से जनता के ह्रदय में प्राथमिक विरूपता मंद पड़ती जाती है एवं अंततः नयी व्यवस्था ही श्रेष्ठ, चिरंतन आदर्श समाज व्यवस्था के रूप में स्थापित होती है. इस संस्कृति के निर्माता बुद्धिजीवी होते हैं. अनजाने ही वे इस नयी व्यवस्था और शासक-श्रेणी का समर्थन करते जाते हैं. इसीलिए उस युग की संस्कृति उस युग के सरमायेदारों की स्वार्थपूर्ति में सहायक होती है.
युग में शासक श्रेणी (वर्ग) की धारणाओं को, शोषित श्रेणी यथार्थ मानकर स्वीकार कर लेती है; क्योंकि धन की लगाम जिस श्रेणी के हाथ हाथों में होगी, संस्कृति की लगाम भी वही संभालेंगे. जो लोग जनता की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे, मानसिक खुराक (पुस्तक, अखबार, शिक्षण, प्रचार आदि) का इंतज़ाम भी उन्हीं के हाथों होगा. स्वभावत जनता के मानसिक साम्राज्य पर भी उन्हीं का आधिपत्य होगा, क्योंकि संस्कृति के नियामक यही सरमायेदार ही होंगे. कार्ल मार्क्स की भाषा में-
‘The idea of the ruling class in every epoch the ruling ideas because the class which is the ruling material force in society is at the same time it's ruling intellectual force, the class which has the means of material production at it's disposal, has control at the same time over the means of mental production. so that thereby generally speaking the idea of those who lack the means of mental production are subject to it.’ (कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगल्स रचित द जर्मन आइडियोलोजी द्रष्टव्य)।
पूंजीवादी संस्कृति ही बुर्जुआ संस्कृति कहलाती है. यह संस्कृति पूंजीवादी विषम व्यवस्था का उत्पाद है तथा उसके लिए रक्षाकवच भी. इस संस्कृति के प्रभाव से पूंजीवाद द्वारा परिचालित नीति उत्कृष्ट सामाजिक नीति प्रतीत होती है, अतिजघन्य और न्रशंस अत्याचार भी सदाचार-सा लगता है, मूर्तिमान शैतान देवदूत-सी शांति देता है, अच्छे-बुरे का बोध लुप्तप्राय होता जाता है. कई आधुनिक विधि-विधान तो मनुस्मृति के विधानों से अधिक हिंसक हैं. बुर्जुआ समाज के कार्यकलाप आदिम युग के आदमखोर बर्बर लोगों को भी शर्मशार करते हैं. किंतु इस संस्कृति के नशे में हम अत्यन्त स्वाभाविक रूप से सब कुछ स्वीकार करते हैं।
बमवर्षण द्वारा लाखों शिशुओं, वृद्धों और स्त्रियों की हत्याएं क्या हमें गुरुतर अपराध का अहसास भी देती हैं? जबकि बुर्जुआ व्याख्या में इसे धर्मयुद्ध कहा जाता है. जातीय स्वार्थ में युद्ध करना अपराध होकर भी अपराध नहीं माना जाता. मध्ययुग में जो युद्ध धर्म के लिए होते थे, वे अब राष्ट्रीय स्वार्थ में होते हैं. इन युद्धों को हम स्वीकार कर अति उत्साह से समर्थन भी करते हैं।
युद्ध आरंभ होते ही देश के नागरिक खून की अन्तिम बूँद देकर शत्रु को पराजित करने का संकल्प लेते हैं. राष्ट्रीय स्वार्थ के लिए किसी देश के दो लाख शिशुओं का वध हो तो हमारा विवेक सोया रहता है. अपने देश के शिक्षित, स्वस्थ, चुने हुए युवकों को युद्धभूमि में बलि होते देख हमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगता. उनकी अकाल मृत्यु, लाखों संतानों से वंचित माँ-बापों का रुदन, माता-पिताहीन शिशुओं की दुर्गति, विधवाओं का विलाप; सभी राष्ट्रीय स्वार्थ के लिए कुरबान होते हैं।
उपाय भी क्या है? अगर चीन या पाकिस्तान हमले करे तो हम हाथ-पाँव समेट कर बैठे तो नहीं रहेंगे. इसलिए असहाय की भाँति नियति के समक्ष आत्मसमर्पण के सिवाय विकल्प ही क्या है. विश्व-पूँजीवाद की मृत्युफाँस में इस तरह जकड़े हुए हैं कि निकलने का रास्ता नहीं है. ऊपर से मोहग्रस्त बुद्धिजीवीगण इसके असली स्वरूप पर नाना मोहक परदे डालते रहते हैं।
'पहल' से साभार
(...अगली किस्त में ज़ारी)
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