बुर्जुआ समाज और संस्कृति-4
(...गतांक से आगे)
पुरुषों के बहु-विवाह की ही तरह औरतों में भी यह रिवाज, कई देशों में स्वीकृत था। धार्मिक इतिहास के पन्नों के विवरण बताते हैं कि कुसंस्कार के प्रभाव से शायद ही कोई कुकृत्य बचा हो जो मनुष्य जाति से बचा रहा हो. ऐसी किसी भी प्रथा की कल्पना असम्भव है जो किसी समय किसी न किसी देश में प्रचलित न रही हो.
संसार में जीवित रहना हर कोई चाहता है। लेकिन सामाजिक वातावरण के प्रभाव से प्राणों को तुच्छ समझ, स्वेच्छा से मृत्युवरण भी मनुष्य ही चाहता है. आत्महत्या के इतिहास के लेखक एमिल डार्कहाइम ने लिखा है कि विभिन्न युगों में अलग-अलग सामाजिक अवस्थाओं में समाज के प्रति श्रद्धा-ज्ञापन हेतु मनुष्य ने आत्महत्या की है और इसे प्राणोत्सर्ग, आत्माहुति या आत्म-वलिदान इत्यादि विशेषणों से आभूषित किया गया है.
डेनिश योद्धाओं की धारणा थी कि उम्र के भार से जर्जर होकर बिछौने पर पड़े-पड़े मरना कायरता और मर्यादाहीनता है। इस लान्छना से बचने के लिए वे आत्महत्या करना ही पसंद करते थे. गोथ जाति के लोगों में यह धारणा थी कि जिनकी स्वाभाविक मृत्यु होती है, वे परलोक में विषाक्त कीड़े-मकौडों के बीच अंधेरे गह्वर में अनन्त काल तक यंत्रणा भोगते हैं.
किसी गोथ राज्य की सीमा पर 'पितृ पुरुषों की शिला (राक ऑफ़ फोरफादर्स)' नामक एक ऊंचा पर्वत था। जराग्रस्त होते ही इस पर से कूदकर लोग मुक्ति प्राप्त करते थे. थ्रेसियन, हेसली इत्यादि अनेक गोष्ठियों (समुदायों) में यह प्रथा प्रचलित थी. सिलवियास इतालिपकस ने लिखा है- 'स्पेन में 'kailtik' उपजाति के लोगों में रक्त और प्राणदान का अदम्य उत्साह था. बलवीर्य इत्यादि से परिपूर्ण होते ही वार्धक्य की सीमा तक इंतज़ार करना उन्हें अपमानजनक लगता था. उनका विश्वास था कि सबल अवस्था में जो लोग मृत्युवरण करते हैं, वे स्वर्गवासी होते हैं तथा जराग्रस्त हो वृद्धावस्था में प्राण त्यागने से नरक यंत्रणा भोगनी होती है.
भारत वर्ष में भी ऐसी आत्महत्याओं का प्रचलन था। वैदिक काल की नहीं भी हो, फिर भी काफी पुरानी प्रथा थी. प्लूटार्क और क्विन्ट्स कार्टीपास ने भारतीय संन्यासियों और ब्राह्मणों द्वारा अग्नि में प्राणाहुति का उल्लेख किया है. ब्राह्मणों के शास्त्र में ऐसा उल्लेख है कि निष्प्राण देह दग्ध होने से अग्नि अपवित्र होती है तथा व्याधिग्रस्त और निष्क्रिय होकर मृत्युवरण हीन माना जाता था.
हालांकि मनु स्मृति में कई शर्तों की पूर्ति के बाद ही आत्महत्या का प्रावधान है। गृहस्थ जीवन में शास्त्रोचित कर्त्तव्य पूरे करने के बाद व्याधिग्रस्त होकर जीने से उत्तम देहत्याग ही माना गया है. (मनु ६/१-४).
न्यू देवीडीज तथा फिजी द्वीपों में भी यही प्रथा प्रचलित थी। सिएरा द्वीप में, एक निश्चित आयु पूर्ण होने पर, सभी वृद्ध, फूलों के मुकुट धारण कर, एक जगह समवेत हो, हैमलाक विषपान द्वारा आत्महत्या करते थे. सदाचार के लिएप्रसिद्ध टौगलोडाईट और सेरी लोगों में भी यही रिवाज था.
उपर्युक्त जातियों में स्त्रियों के लिए भी पति की चिता में जल जाने का विधान था। कई देशों में जैसे 'गल' के राजा और सेनापति की मृत्यु पर उनके अनुचरों के लिए भी मृत्यु की प्रथा थी. हेनरी वार्तिन ने लिखा है कि युद्ध में मृत मुख्य नायकों की मृत देह के साथ उनके अनुचर, दास-दासी, अस्त्र-शस्त्र, गहने और बर्तन इत्यादि सभी एक महोत्सव में अग्नि के सुपुर्द कर दिए जाते थे.
प्रभु की मृत्यु के पश्चात उनके अनुचर, पत्नी, दास- दासियों को जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं था। अफ्रीका के 'असान्ति' कबीले में राजा की मृत्यु के बाद उसके मित्र, सहयोगियों को जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं था. हवाई द्वीप में भी यही प्रथा थी. टाइटस लिवी सीजर, वेलीरियए एवं मैक्सीयस बर्बर गाल और जर्मन लोगों द्वारा धीर, स्थिर और शांति से मृत्युवरण की तारीफ की गयी है. पोलेनेशिया के लोग तुच्छ कारणों से आत्महत्या कर लेते हैं. उत्तर अमेरिका के रेड इंडियन कबीले का भी यही रिवाज है. जापान में हाराकिरी (पेट चीरकर आत्महत्या) कर अपराध के प्रायश्चित्त की परम्परा है.
'पहल' से साभार
(...शेष अगली किस्त में)
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विजय जी, अच्छी सामग्री उपलब्ध कराई है आपने। पहल-वहल हम लोग देख नहीं पाते। सबसे अच्छी बात यह हुई कि मुझे अपनी इस सोच का अब एक ऐतिहासिक संदर्भ मिल गया है कि अशक्त हो जाने के बाद नहीं जीना चाहिए। उससे पहले ही हिमालय की ऊंची बर्फीली चोटियों से कूद जाना चाहिए।
जवाब देंहटाएंरघुराज जी, सविनय करबद्ध निवेदन है कि इस लेख का मक़सद आपको इस परिणिति तक पंहुचाने का क़तई नहीं है. कृपया इन तथ्यों एवं विवरणों को आप इस पूरे लेख के परिप्रेक्ष्य में देखें! धन्यवाद!
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