कुछ दिनों से ब्लॉग एग्रीगेटरों पर चंद असमान्यताएं देखकर मन में उबाल आ रहा है. एक मुहावरा भी याद आ रहा है जो शायद दिलीप मंडल ने इस्तेमाल किया है- भकोस-भकोस कर खाना.
दोस्तो, लिखने का सदा ही एक मकसद रहा है, कुछ नया या दुर्लभ पुराना पढ़वाना। यह अपने द्वारा हो सकता है, या फिर दूसरों का अच्छा लिखा हुआ. अच्छा शब्द भी सापेक्ष है. न सिर्फ़ समय सापेक्ष बल्कि बहुत हद तक व्यक्ति सापेक्ष भी. आपका लिखा कोई किस तरीके से लेगा, वह इसके लिए आज़ाद है. फैज़ का शेर है- 'उनका जो काम है वो अहले सियासत जाने, मेरा पैगाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुंचे.'
लेकिन मैं देख यह रहा हूँ कि कुछ लोगों में कूड़ा करने की इतनी हवस है कि वे एग्रीगेटर पर एक ही घंटे में कई बार अलग-अलग ब्लोगों के जरिये एक ही चीज पेश करते रहते हैं. मैं यहाँ यह नहीं कह रहा हूँ कि अगर कोई चाट-पकौडा बनाने की विधि समझा रहा है तो वह बुरा हो गया, बल्कि वह भी किसी की रूचि का क्षेत्र मानूंगा. कोई अगर वामपंथी है तो जाहिर है वह अपनी रूचि के अनुसार लिखेगा. अर्थशास्त्र, क़ानून, चिकित्सा, मीडिया या तकनीक के जानकार लोग अपनी बात कहेंगे. यहाँ तक कि कई लोग एक साथ कई ब्लॉग चलाते हैं, इसमें भी मुझे फ़िलहाल कोई बुराई नज़र नहीं आती.
यह सब बहुत बढ़िया कवायद है. इसी स्वतंत्रता के लिए ही तो लोग तरस रहे थे. लेकिन क्या जो कुछ परोसा जा रहा है उसके लिए ब्लॉग की जरूरत थी? कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन लोगों को संपादकगण उठा कर कूड़े में फेंक देते थे वे अपनी कुंठा निकालने ब्लॉग पर पहुँच गए? अगर ऐसा है तो यह चिंता की बात है.
मेरी नज़र में लिखने का कोई भे क्षेत्र कमतर या बरतर नहीं कहा या माना जा सकता. बात होती है नजरिये की. सम्भव है कि कोई व्यक्ति मालपुए बनाने की विधि समझाये और उसमें इसका इतिहास-भूगोल भी कहता चले. या यह भी बताये कि उसमें प्रयुक्त तत्वों पर क्या बीतती है. वगैरह-वगैरह.
हो यह रहा है कि एक ही सामग्री कई ब्लोगों पर पेलने से कई अच्छी पोस्टें कुछ ही मिनटों में नीचे चली जाती हैं. (माफ़ कीजियेगा मुझे अपनी पोस्ट अच्छी होने का कोई मुगालता नहीं है. यहाँ यह भी जाहिर कर देना समीचीन होगा कि मैने नाना प्रकार के कम से कम ५ हजार लेख-आलेख संपादित करके हिन्दी के एक सर्वमान्य श्रेष्ठ अखबार में छापे होंगे.) समयाभाव के कारण मैं कोई पोस्ट एक चंद घंटों बाद एग्रीगेटर पर ढूँढने निकलता हूँ तो वह रसातल में या पिछले पन्नों पर जा चुकी होती है.
इस समस्या पर एग्रीगेटरों को ध्यान देना चाहिए. अगर एक ही व्यक्ति की वही पोस्ट है तो उसे एक ही बार दिखाना चाहिए, फिर वह चाहे कितने ब्लोगों पर ही क्यों न चढाई गयी हो. इसका प्रबंध करना एग्रीगेटरों की जिम्मेदारी बनती है, मेरा यह आग्रह भी है. फिर कविता या कहानी या ऐसी ही किसी विधा के अंतर्गत आने वाली पोस्टें एक अलग फोल्डर में दिखानी चाहिए, चाहे वह ताजा हों या बासी.
बातें तो बहुत हैं लेकिन फिलवक्त इतना ही कि-
ये हमने कब कहा कि हम अदाकारी नहीं करते
लेकिन जब ब्लॉग करते हैं तो मक्कारी नहीं करते.
-विजयशंकर चतुर्वेदी.
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NICE ARTICLE
जवाब देंहटाएंASHISH JAIN
BHATKAA HUAA HINDUDTAANI
BHADASH.
सही है। iClxldjofbm cgyejk ua >
जवाब देंहटाएंआपकी समस्या का समाधान कुछ हद तक इन दो आलेखों में है -
जवाब देंहटाएंhttp://raviratlami.blogspot.com/2008/01/1.html
तथा
http://chittha.chitthajagat.in/2008/01/blog-post.html
ये समस्या तो है विजयशंकर जी। दरअसल जो कुछ चीज़ों से उत्प्रेरित होकर...वक्त निकाल कर लिखते हैं वो अपने शब्दों की क़ीमत जानते हैं। कई हैं जो खालीपन में बस लिखते छापते जाते हैं। अच्छा शगल है। लेकिन और अच्छा होता कि वे 'कम कहें-प्रभावी कहें' के महत्व को समझते हुए जगह घेरते।
जवाब देंहटाएंइस छपास के बारे में तो कई बार लिखा जा चुका है, अपन भी त्रस्त हैं। भले मित्रगण बुरा माने पर ये प्रथा छापा जगत के छपित लोगों और अकवियों के ब्लॉगजगत में आने के बाद ज्यादा शुरु हुई है।
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