बुर्जुआ संस्कृति और समाज-७
(पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि किस तरह मनुष्य जाति युद्ध के बिना नहीं रह सकती। अब आगे...)
योरोप की तुलना में (युद्ध के मामले में) बाकी देश भी पीछे नहीं हैं। लोगों का भ्रम है कि पश्चिम के देश योरोप की तुलना में युद्धकातर नहीं हैं. इतिहास पर गौर करें तो यह सोच झूठ ही साबित होगा. योरोप की तरह ही चीन और भारत में भी हुआ है. कभी ज्यादा, कभी कम, कभी-कभी अंतराल. विदेशी आक्रमण के प्रतिरोध में युद्ध, साम्राज्य-स्थापना के लिए दो राज्यों में युद्ध, सत्ता के लालच में सेनापति का राजा के विरुद्ध, पिता के विरुद्ध पुत्र और भाई के ख़िलाफ़ भाई के युद्धों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं.
जब जनता लड़ाई करते-करते क्लांत हो जाती है तब शांतिवादी हो जाती है, फिर से बल संचय होते ही युद्ध में कूद पड़ती है। लहरें उठती हैं, गिरती हैं, उसी तरह युद्ध का उत्साह है, लेकिन युद्धलिप्सा का अवसान नहीं होता है.
आधुनिक युग में स्वदेशी सरमायेदारों के 'सेवकों' द्वारा एक अद्भुत नारा दिया गया है कि साम्यवाद की हिंसा भारतीय परम्पराविरोधी है। भारत शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक रास्ते पर चलना चाहता है। यह विमर्श उत्तम राजनीतिक प्रचार होते हुए भी विकृत इतिहास का उत्पादन है।
भारतीय परम्परा में कभी हिंसा का विरोध नहीं है. भारतीय परम्परा कितनी हिंसा विरोधी रही, यह महात्मा गांधी के दीनबंधु एन्ड्रूज को लिखे (६ जुलाई १९१८) के इस पत्र से जाहिर होती है:-
'आपने कहा है कि अतीत में भारत ने सचेतन रूप से हिंसा के विरोध में मानवता का पक्ष लिया है। क्या यह ऐतिहासिक तथ्य है? यहाँ तक कि रामायण और महाभारत में भी इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता. मेरे प्रिय तुलसीदास की रामायण में भी नहीं, हालांकि तुलसीदास में बाल्मीकि से ज्यादा आध्यात्मिक दृष्टिकोण उल्लेखनीय है. यहाँ मैं इन ग्रंथों की तत्वों की व्याख्या में नहीं जाना चाहता.
रामायण और महाभारत में वर्णित ईश्वर के अवतार भी घोर रक्त-पिपासु प्रतिहिंसा-परायण और निर्मम हैं।उनके चरित्र से यह साफ है कि शत्रु को पराजित करने में उन्होंने छल-कपट का आश्रय भी लिया है। जितने भी मरणास्त्रों की कल्पना की जा सकती है, वे सभी उनकी सेना के पास हैं. आधुनिक लेखकों की तरह तत्कालीन रचनाकारों का उत्साह, युद्ध वर्णन के लिए देखते बनता है. राम की प्रार्थना में जो कविता तुलसीदास ने लिखी है, उसमें भी सर्वप्रथम राम के शत्रु-निधन का कृतित्व ही वर्णित है.
फिर मुसलमानों के राज में देखें। युद्ध के लिए मुसलमानों में हिन्दुओं से कम उत्साह नहीं रहा है, हाँ हिन्दुओं की सांगठनिक शक्ति कम रही, क्षणजीवी तथा आत्मकलह से जर्जर होने का प्रभेद दोनों में रहा. आज जैसा सोचते हैं, मनु संहिता में वैराग्य का विधान वैसा नहीं है, बुद्ध का अहिंसा और मैत्री का प्रचार भी व्यर्थ ही साबित हुआ. किंवदंती है कि शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म के विरोध में अवर्णनीय निष्ठुरता के उपाय अपनाए थे और इस तरह भारतवर्ष से बौद्ध धर्म को उजाड़ने में सफल हुए थे.
अंग्रेजों के समय भारतीयों का अस्त्र रखना गैरकानूनी था, लेकिन जिज्ञासा तो बनी ही रही। जैनियों में भी अहिंसा की नीति शोचनीय रूप से परास्त हुई है. रक्तपात के लिए उनमें कुसंस्कार जनित आतंक है. शत्रुवध के लिए उनका भी उत्साह योरोपियन लोगों से कम नहीं है. मैं सिर्फ़ इतना कहना चाहता हूँ कि शत्रु की पराजय से वे भी और लोगों की तरह ही आह्लादित होते हैं.
भारत के सन्दर्भ में सिर्फ़ इतना ही कहा जा सकता है कि कभी-कभी ख़ास व्यक्ति द्वारा अहिंसा के प्रचार की आतंरिक चेष्टाएं हुई हैं, एवं वह कोशिश और राष्ट्रों की तुलना में कुछ ज्यादा सार्थक हुई है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि भारतीयों के हृदय में अहिंसा की नीति दृढ़मूल स्थापित हो चुकी है।'
(इस पत्र में भारतीय परम्परा में हिंसा का स्थान साफ समझ में आ जाता है)।
'पहल' से साभार
(अगली कड़ी में जारी...)
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