बुर्जुआ समाज और संस्कृति-८
(अब तक अपने पढ़ा कि भारतीयों के हृदय में भी हिंसा की वैसी ही हवस है जैसी कि अन्य कुल के नागरिकों में. अब आगे पढ़िये--)
प्राचीन भारत में बुद्धिजीवियों ने हिंसा के विरोध की जगह उसके प्रचार में जिस नैपुण्य का परिचय दिया है, वह अमेरिकी लोगों के लिए डाह का विषय हो सकता है. बचपन से ही हिंसा का पाठ पढ़ाने के लिए पंडितों ने ऐसी पौराणिक कथाएं रचीं, ऐसे पूजा-अनुष्ठानों की स्थापना की कि वे मां की गोद में बैठे-बैठे, कहानियां सुनते हुए, हंसते हुए, बाल्यकाल से हिंसा से परिचित होते जाएं. महिषासुर मर्दिनी, दुर्गा-पूजा, नरमुंड कपालिनी काली पूजा की तरह हिंसा के प्रचार के ऐसे सार्थक उपाय अन्य किसी देश के पंडित शायद ही खोज सके हों.
दुर्गा काली की प्रेरणा से सिर्फ़ लड़कों का ही नहीं, लड़कियों का भी-
'मन करता है इसी भयंकर दंड को धारण कर
नाचूं चामुंडा रूप में इस समर में.'
युद्धरत देवी-देवताओं की जीवंतप्राय प्रतिमूर्ति, ढाक का रणवाद्य, शत्रु के प्रतीक छिन्नमुंड बकरे का ताज़ा रक्त, फ़िर पुरोहित का चंडीपाठ -
दृष्टावराल वदने शिरोमाला विभूषणे.
चामुंडे मुण्ड मथने नारायणी नमोस्तुते.
कुल मिलाकर नितांत भीरु के खूँ में भी उबाल पैदा कर सकता है.
भारतीय परम्परा ने हमें हिंसा-विमुख किया है, यह नितांत झूठ है. हिंसा से हमें कोई परहेज नहीं है. बुर्जुआ रीति में परहेज सिर्फ 'हिंसा' शब्द से है. कहिये शक्तिपूजा, बलवीर्य की साधना, वीरत्व, आत्मरक्षा, देश की सुरक्षा--- कुल मिलाकर इस भयंकर शब्द हिंसा को शब्दकोश से निकाल दें.
कोई कहे उसे लड़ना नहीं आता तो हमें गुस्सा आयेगा. प्रतिद्वंद्वी की चुनौती स्वीकार करने की योग्यता बगैर कोई मर्द हुआ भला! अंग्रेजों के राज में बंगालियों को असामाजिक जाति कहे जाने पर उनमें अपमान की तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी. कायर है, यह कोई भी जाति कहलाना पसंद नहीं करती. मार्क्स ने कहा है कि समाज को व्याधिमुक्त करने का सहज उपाय है कि भाषा से सारे श्रुतिकटु शब्द निकाल दें. इस अभिधान (शब्दकोश) के नए संसकरण के लिए विद्वानों से अनुरोध करना ही काफी होगा. (कार्ल मार्क्स, पावर्टी ऑफ़ फिलोसफी दृष्टव्य).
दरअसल बुर्जुआ समाज में अहिंसा और शांति के नाम पर हिंसा के सिवाय कोई विकल्प भी तो नहीं है. स्वैराचार कर्णकटु है, इसलिए लोकतंत्र में हत्यारे न कहकर सैनिकों को वीर कहना इस धोखे को चलाये जाने का सबसे श्रेष्ठ उपाय है.
मनुष्य की रग-रग में हिंसा की धारा और परम्परा में हिंसा का प्रशस्तिगान- ये बुर्जुआ संस्कृति के उदय में सहायक होते हैं. हिंसा की ऐसी व्यापकता पूर्ववर्ती किसी युग में नहीं थी. यह व्याप्ति संचार-साधनों के अभूतपूर्व विकास, पूंजीवाद के प्रसार और लगातार उन्नत मारक अस्त्र से सम्भव हुई है. इसको नैतिक समर्थन बुर्जुआ संस्कृति से मिलता ही है. विभिन्न समाज-विरोधी प्रवृत्तियों के लगातार फलने-फूलने पर ही पूंजीवाद का अस्तित्व निर्भर करता है और पूंजीवाद की यह जरूरत पूरी करती है बुर्जुआ संस्कृति.
'पहल' से साभार
(अगली किस्त में जारी...)
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