(सर्वप्रथम निवेदन कर दूँ कि 'शुक्रवार का स्तम्भ' के चरित्र काल्पनिक नहीं हैं. ये हाड़-मांस से बने अपने आस-पास रहने वाले लोग हैं, जिन्हें समाज ने हाशिये पर धकेल दिया है. यह स्तम्भ इन लोगों के मुंह से बाकायदा उनकी रामकहानी सुनकर लिखा गया. टीप लिख दीनी चिट्ठाकार विजयशंकर चतुर्वेदी ने, ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आए).
नींद अभी सातवें चरण में है कि किसी ने संकोच भरी दस्तक दी है दरवाज़े पर. हर कोई जानता है कि इस वक्त यह कौन हो सकता है. दरवाज़ा खोलने से पहले आँखें मिचमिचाते हुए एक बरतन ढूंढा जाता है, जिसमें वह दूध डालेगा अपने सधे हुए हाथों से. कंधे पर पीला गमछा, झकाझक सफ़ेद धोती और कुर्ता पहने, तमाखुआये दांतों से भोर का प्रथम नमस्कार करता हुआ हृदय नारायण दुबे. जी हाँ, इस नाका का बच्चा-बच्चा जानता है उन्हें. यह इलाका ठाणे का है.
हृदय नारायण अब पचहत्तर साल के हो चुके हैं. लेकिन कर्तव्यविमुख कभी नहीं हुए. वह सिर्फ़ एक खांटी दूधवाले ही नहीं हैं बल्कि उत्तर भारतीय संस्कृति की उज्जवल परम्परा की मिसाल भी हैं. देह भले ही सूख कर छुहारे जैसी हो गयी है लेकिन कहीं भी रामचरितमानस का पाठ करवा लीजिये; बा-आवाज़े बुलंद शुरू हो जाते हैं. 'दशरथ मरण' का प्रसंग आ जाए तो उनके आंसू छलक पड़ेंगे. 'राम-रावण युद्ध' के प्रसंग में तो वह साक्षात हनुमान हो उठते हैं.
हृदय नारायण जौनपुरिया दुबे हैं. जहाँ मिलेंगे आपको आत्मीयता से भर देंगे. कोई उन्हें दूधवाला 'भैया' कह कर पुकारता है तो वह बिलकुल बुरा नहीं मानते. वह कहते हैं- 'पहले बंबई के बहुत सारे शब्द छाती में बरछी की तरह चुभ जाते थे. अब आदत हो गयी है.' अपने पेशे को लेकर कोई कुंठा या हीनभाव नहीं है हृदय नारायण के मन में.
हृदय नारायण का जीवन कोई दूसरा क्या बखानेगा? वह ख़ुद अपनी कविताई के जरिये अपना जीवनचरित खोलते चलते हैं. ज़रा उनकी अपने ही बारे में रची गयी चौपाइयां सुनें-
उत्तर-प्रदेश राज्य एक भारी जिला जौनपुर है हितकारी.
मडियाहूँ तहसील निवाडिया थाना गाँव सोनारी सब कोऊ जाना.
रामसुचित दुबे के जाए हृदय नारायण नाम कहाए.
रामसुचित के सुत भे जेते कहौं कथा अब सुनहूँ सचेते.
ज्येष्ठ पुत्र श्रीहृदय सुजाना विष्णुभक्त पुर सकल बखाना.
सकल नारायण भे पुनि आयी कीरत जासु जगत में भाई.
तीसर सुत सभाजीत कहावा तामस कछुक हृदय मंह आवा.
मानव स्वयं भाग्यनिर्माता दृढनिश्चय सबकर फलदाता.
हृदय नारायण की यह मानस-कथा पुरखों की नामावली से शुरू होती है. ज़रा विचार कीजिये, आपको अपनी कितनी पुश्तों के नाम पता हैं. हृदय नारायण अपनी बारह पुश्तों का उल्लेख इस स्वरचित जीवनावली में करते हैं. लेकिन उसे लिखना यहाँ विषयांतर होगा. उनका आगे का परिचय तथा जीवनगति उन्हीं के शब्दों में--
द्वादश वर्ष केर अनुमाना बाम्बे नगर कियो प्रस्थाना.
मनपा शाला नाम लिखायो कछुक समय तंह विद्या पायो.
दुग्ध व्यवसाय कीन्ह हम नीके खर्च वहन पर पड़े सुफीके.
न्यू महालक्ष्मी मिल जो भाई वाचमैन पोस्ट तहां हम पायी.
दिवस तीन सौ वहाँ बिताए पर परमानेंट नहीं ह्वै पाये.
इंडियन मिल तब लाग्यौ जाई रहेऊ माह नौ टिक नहीं पायी.
ता पीछे खटाऊ मिल आवा कछुक दिवस हम तहां बितावा.
आई ओ डब्ल्यू में किए कामा वाचमैन गए कांदिवली धामा.
मास अढ़ाई तहां बिताए वेतन अल्प मनहिं नहीं भाये.
एलफिनस्तन डाइंग मंह आवा वर्ष पाँच मैं वहाँ बितावा.
पर मन खिन्न भयाहूँ मम भाई दशा देख चित थिर न रहाई.
सर्विस छांड वतन निज गयऊ देखि लोग मन बिसमय भयऊ.
हृदय नारायण का यह वृतांत काफी लंबा है. पूरा पोथन्ना बन सकता है. आज भी इसमें वह दो-चार चौपाइयां जोड़ रहे हैं. उनका जीवन भी एक-दो दशक का नहीं, पूरे पचहत्तर साल लंबा है. छप्पन साल तो उन्होंने मुम्बई में ही गुजारे हैं.
उनके पिताजी माटुंगा जी आई पी ( डी ग्रेट इंडियन पेनिनसुला) रेलवे में मुलाजिम थे. माटुंगा में ही रहते थे और वहीं उन्होंने आठ-दस गायें पाल रखी थीं. सुबह शाम दूध बेचते थे और राम भजते थे. हृदय नारायण जब बारह साल के हुए तो पिता ने उन्हें बंबई बुला लिया. हृदय नारायण पहले तो पढ़ने गए लेकिन जब लाख कोशिशों के बाद मन बिदक गया तो वह भी पिता के नक्शेकदम पर दूध बेचने लगे.
इसी समय पिता को गर्मियों में गाँव जाना पड़ा. माँ गाँव में ही रहती थीं. दोनों ने मिलीभगत करके हृदय नारायण की शादी करा दी. हृदय नारायण को शादी-ब्याह का मतलब तो पता नहीं था. इधर उनका 'दरवाज़ा-चार' हो रहा था, उधर उनका दिल गाँव के लड़कों के साथ गढा- गेंद खेलने को कर रहा था. खैर, गाँव का कामकाज निबटाकर जब पिता मुम्बई लौटे तो उन्हें भी साथ पकड़े लाये.
हृदय नारायण ने वे दिन भी देखे हैं जब 'गान्ही महात्मा' के गवालिया टैंक आने पर वहाँ बम्बई वालों के जत्थों के जत्थे उमड़ पड़े थे और 'जै हिन' के नारों से आसमान गुंजा रहे थे. यह १९४२ की बात थी. उस दिन गान्ही जी के आगमन के बाद भगदड़ मच गयी थी. जिसको जहाँ जगह मिली, वहीं भागा. हृदय नारायण ग्रांट रोड की तरफ़ भागे थे और रास्ते में ही उन्हें पुलिस ने पकड़ लिया था. फिर कैसे-कैसे छूटे यह अलग कहानी है.
पिता की मौत के बाद हृदय नारायण ने भायंदर के झोपड़े में रहते हुए अपने चार बेटे-बेटियों को पढ़ाने-लिखाने की जी-तोड़ कोशिश की थी. इस दौरान कभी मिल की वाचमैनी छूटी तो कभी दूध का धंधा बंद हुआ. लेकिन स्वभाव की सरलता उनके लिए जैसे वरदान ही थी. फाकाकशी की नौबत आने पर कोई न कोई सज्जन उन्हें वाचमैनी का काम दे ही देता था. अब यह बात दीगर है कि उस पगार में क्या पहनते और क्या निचोड़ते!
कई बार ऐसा भी हुआ कि स्थानीय लोगों ने उनका धंधा बंद कराने की कोशिश की. लेकिन वह किसी धमकी ने नहीं डरे. बच्चे पढ़ते रहे, बेटियों की जैसे-तैसे शादियाँ कीं. लेकिन उन्होंने अपने स्वाभिमान पर कभी आंच नहीं आने दी. 'एक बार तो छोटी बेटी की आँख का ऑपरेशन करवाने के लिए बच्चों की माँ के गहने बेचने पड़ गए थे'- पनीली आंखों के साथ याद करते हैं हृदय नारायण दुबे.
आजकल बड़ा बेटा उनसे अलग रह रहा है. भई, उसका भी परिवार बढ़ रहा है तो इसका मलाल क्या करना! बेटियाँ अपनी-अपनी ससुरालों में है. छोटा बेटा आवारा हो गया है. कहता है मजदूर यूनियन में काम करेगा. अब जिसकी जो मर्जी करे, समझा के थक गए हैं वह. हाँ, अपने काम में हृदय नारायण से कोई चूक नहीं होती. रोज़ सुबह चार बजे उठ जाते हैं. पचीस लीटर दूध से भरी केन साइकल पर टांगते हैं... और पन्द्रह-बीस इमारतों में; कहीं लिफ्ट तो कहीं सीढियाँ नापते हुए आठ बजे के पहले घर वापस.
'यह सिलसिला तब तक ऐसे ही चलाये रखूंगा, जब तक रामजी मेरी साँस चलाये रखेंगे'-- कहना है हृदय नारायण का.
वैसे भी, जिस दिन झकाझक धोती-कुर्ता में ठिगने कद के छुहारा बन चुके हृदय नारायण दूध के लिए संकोच भरी दस्तक दरवाजे पर नहीं देते, हमारी सुबह की 'चा' फीकी पड़ जाती है.
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वाह - क्या खाका खींचा है - ह्रदय नारायण जी का कवित्व बहुत ही प्रभावी लगा -
जवाब देंहटाएं(हाँ और गड़हा - गेंद बहुत दिनों बाद सुना - अगली बार पिटान भी कहीं मिलेगा :-) : मनीष