रियाज़ उल-हक़ ने जो कहा है उसे ज्यों का त्यों दे रहा हूँ- (नेट की विकट समस्या है)
लेखक-पत्रकार तभी घटनाओं के बारे में पहले से बता सकते हैं जबकि वे समाज के तमाम अंतर्द्वंद्वों को साफ़-साफ़ समझ सकते हों, चीज़ों को आपस में जोड़ कर देखने की उनके पास नज़र हो और घटनाओं का द्वंद्ववादी विश्लेषण करने की समझ हो. कई लेखक ऐसे रहे हैं कि उन्होंने कमाल की भविष्यवाणियां की हैं. नहीं मैं ज्योतिषवाली भविष्यवाणी की बात नहीं कर रहा, बल्कि भविष्य की दिशा के बारे में कह रहा हूं. इसमें जैक लंडन का नाम शायद सबसे पहले लिया जायेगा. उन्होंने 1908 के अपने उपन्यास आयरन हील में जिस तरह की घटनाओं का ज़िक्र किया है वे बाद में, 1936 तक और उसके बाद तक घटीं. अगर आप देखें तो सोवियत क्रांति, लेनिन जैसे नेता, हिटलर जैसे फ़ासिस्ट और अमेरिकी खुफ़िया पुलिस के गठन जैसी अनेक परिघटनाएं बाद में जो घटीं, उनके बारे में साफ़ साफ़ ज़िक्र आयरन हील में किया गया है. यह किसी चमत्कार के ज़रिये नहीं हुआ और न ही आयरन हील एक फैंटेसी है. यह बेहद यथार्थवादी उपन्यास है. एक कम्युनिस्ट क्रांति इसका विषय है.
इसी तरह शोलोखोव के उपन्यास एंड क्वायट फ़्लोज़ द डोन के बारे में भी कहा जा सकता है जिसमें सोवियत संघ के विघटन के सूत्र आसानी से तलाशे जा सकते हैं.अजित भाई, आपके सवाल का जवाब भी शायद इसी में है.
लगता है कि हमारे देश के अधिकतर समकालीन फ़िक्शन लेखकों के पास वह नज़र या समझ ही नहीं है, भले ही उनके साथ वामपंथी या प्रगतिशील या कम्युनिस्ट होने का टैग लगा हुआ हो. टैग लगा लेने से कोई वही नहीं हो जाता.एक और बात है कि हमारे यहां केवल सांप्रदायिक नहीं होने या इसका विरोधी होने भर से लेखक को वाम या प्रगतिशील लेखक मान लिया जाता, भले की उसके सोच में सामंती तत्व बने हुए हों और वह उतनी सूक्ष्मता से न सोच-देख पाता हो. भ्रम इसलिए भी बनता है.
इसके अलावा हिंदी लेखक जगत में एक बडी़ कमी यह है कि लेखक किसी आंदोलन से जुडे़ हुए नहीं हैं. वे पूरी तरह जनता के संघर्षों से कटे हुई हैं. उन्हें कई बार ज़मीनी हालात का पता भी नहीं होता और वे सिर्फ़ दिल्ली और दूसरे शहरों में बैठ कर बस लिखते रहने को अपने आप में एक महान कार्य समझते हैं. ऐसे में जो हो सकता है वही उनके साथ हो रहा है. न उनके पास वैसी रचनाएं हैं और पाठक.
(यह टिप्पणी मुझे ठीक लगी; सहमत-असहमत होना आपकी मनोदशा हो सकती है, अब कृपया सुधीजन यह न कहें कि मुझे मनोदशा का अर्थ पता है नहीं. पिछले दिनों मैंने ऐसी ही नुक्ताचीनी 'कबाड़खाना' पर देखी है. उसका नुकसान लगभग होते-होते बचा. इस बारे में अब भी भ्रम बना हुआ है. कई लोग उन्हें मनाने की कोशिशें कर रहे हैं).
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
मेरी नई ग़ज़ल
प्यारे दोस्तो, बुजुर्ग कह गए हैं कि हमेशा ग़ुस्से और आक्रोश में भरे रहना सेहत के लिए ठीक नहीं होता। इसीलिए आज पेश कर रहा हूं अपनी एक रोमांटि...
-
आप सबने मोहम्मद रफ़ी के गाने 'बाबुल की दुवायें लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले' की पैरोडी सुनी होगी, जो इस तरह है- 'डाबर की दवा...
-
साथियो, इस बार कई दिन गाँव में डटा रहा. ठंड का लुत्फ़ उठाया. 'होरा' चाबा गया. भुने हुए आलू और भांटा (बैंगन) का भरता खाया गया. लहसन ...
-
इस बार जबलपुर जाने का ख़ुमार अलग रहा. अबकी होली के रंगों में कुछ वायवीय, कुछ शरीरी और कुछ अलौकिक अनुभूतियाँ घुली हुई थीं. संकोच के साथ सूचना ...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें