शुक्रवार, 14 दिसंबर 2007

तलछट-३: वह लड़ रहा है अपने चोर से


पलक झपकते ही माल साफ कर देता था पोन्नामैया. ऐसा कुशल चोर कि अच्छे-अच्छों की आँख से सुरमा चुरा ले. यह बात दीगर है कि आजकल कोई आंखों में सुरमा नहीं लगाता. लेकिन जब पोन्नामैया चोरी-चकारी करता था तब सुरमा खूब लगाया जाता था. वह तीस साल पहले की बात है. अब उसे सुरमा चुराने की जरूरत नहीं. मुम्बई में इन दिनों वह साहब की गाड़ी चलाता है.

''मजबूरी थी साहब! अंधी माँ कहती थी कि बेटा खाना ले आ.''

बालक पोन्नामैया नेल्लूर की तंग गलियों में दिन भर सरपट दौड़ता फिरता. लेकिन उसे कोई न पैसे देता था, न काम. सांझ होते ही घर पहुंचता तो माँ बेहोश मिलती. ख़ुद उसका हाल बेहाल हो जाता. तब वह नुक्कड़ के हलवाई की दूकान के सामने पड़े जूठे दोने इकट्ठा करता. किसी दोने से भजिये का टुकड़ा, किसी से इडली, किसी से दोसे का जूठन. यह सब एक दोने में जमा करके माँ के पास ले जाता. उसके मुंह पर पानी के छींटे मारकर उसे होश में लाता और ये पकवान खिलाता. रोज-रोज पोन्नामैया यही करता था. अब दस-बारह साल के छोकरे पर हलवाई भी चंद तेलुगु गालियों के सिवा और क्या बरसा सकता था. फिर पोन्नामैया इस बहाने हलवाई की गंदगी भी तो साफ कर जाता था.

हलवाई का एक पेशा और भी था. वह चोरी से पेट्रोल बेचता था. एक दिन उसने पोन्नामैया को लालच दिया कि अगर वह बड़ा बाज़ार की पेट्रोल टंकी से ५ लीटर पेट्रोल रोज़ रात में लाकर देगा तो वह उसकी माँ को खाना मुफ्त में देगा. पोन्नामैया को यह बड़ा सस्ता सौदा मालूम हुआ. उसने फौरन हाँ कर दी.

पोन्नामैया नेल्लूर की इस अंधी गली में कब और कैसे पैठ गया, उसे कुछ याद नहीं. तब पिताजी जिंदा थे और माँ अंधी थी. शराब पी-पीकर जब पिताजी स्वर्ग सिधारे तो माँ का भार उस पर आ गया. 'अच्छे-बुरे का भेद तब नहीं था'- कहता है पोन्नामैया. बस एक ही उद्देश्य था कि माँ भूखों न मरने पाये. लेकिन मौत को रोक पाना उसके वश में कहाँ था. साल भर बेहद बीमार रहने के बाद आखिरकार माँ ने भी उससे मुंह फेर लिया.

'माँ की हालत देखकर लगता था कि अब अगर वह मर ही जाए तो अच्छा, उसकी तकलीफ देखी नहीं जाती थी.'- एक गहरी उसांस भरकर याद करता है पोन्नामैया.

जब माँ मरी तब तक पोन्नामैया की पहचान शहर के नामी चोरों में हो चुकी थी. उसका अपनी खोली में जीना मुहाल होने लगा था. चोर मण्डली में तो उसका रुतबा बढ़ रहा था लेकिन पुलिस की आंखों में वह चढ़ चुका था. बस्ती के लोग भी उससे बचाकर चलने लगे थे. लेकिन उसे अपने काम में कुछ भी बुरा नहीं नजर आता था.

अब तो शहर के कुछ 'बड़े' लोगों के ऑफर भी उसे मिलने लगे थे. प्रलोभन भी बड़े थे. स्थानीय गैंग उसे अपने साथ रखने की स्पर्द्धा कर रहे थे. कुछ लोग पोन्नामैया से डरते भी थे. उनके माल छिपाने के अड्डे उसे मालूम थे. पुलिस को वह इस सबकी सूचना दे सकता था. लेकिन वह इस सबसे बेखबर हलवाई के लिए हाईवे से टैंकरों का डीजल-पेट्रोल चुराने में लगा रहा.

पोन्नामैया से डरनेवालों में एक लड़की भी थी क्योंकि उसे मालूम था कि रात के अंधेरों में वह कहाँ-कहाँ जाती है. कमाल तब हुआ जब उस लड़की ने पोन्नामैया को अपना भाई बना लिया ताकि उसके बारे में वह कहीं मुंह न खोल सके. पोन्नामैया ने भाई-धर्म निभाया भी.

इन्हीं दिनों उसका एक दोस्त चेन्नई ( तब मद्रास) में चोरियाँ करके खूब माल बना रहा था. कभी नेल्लूर आता तो उसकी चकाचौंध देखते ही बनती. पोन्नामैया ने सोचा कि चोरी के मामले में उसके सामने यह दोस्त कुछ भी नहीं है, इसलिए क्यों न चेन्नई चलकर हाथ की सफाई दिखाई जाए! आख़िर नेल्लूर में अब रखा भी क्या है. माँ तो रही नहीं, बस एक खोली है. लेकिन इससे वह चिपका रहा तो चोरी का कैरियर ख़त्म हो जायेगा.

...और जल्दी ही उसे नेल्लूर छोड़ना भी पड़ गया. इसका कारण उसका चेन्नई वाला दोस्त नहीं बल्कि वह पुलिस थी, जो शहर में हुई किसी बड़ी चोरी के शक में उसके पीछे हाथ धोकर पड़ी हुई थी. राशन का एक ट्रक उड़ा लिया गया था और शक पोन्नामैया पर था. पुलिस ने उसे दबोच कर खूब मज़े ले-लेकर धुलाई की. तीन-तीन डंडे टूट गए, लेकिन पुलिसवालों ने पीटना नहीं बंद किया. वह तो जब पोन्नामैया बेहोश हो गया तब पिटाई का अहसास ही जाता रहा. इसे ही कहते हैं- 'दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना.'

पोन्नामैया की धाक 'खलमण्डली' में अचानक घटने लगी थी. इसलिए नहीं कि उसने मार खाई थी बल्कि इसलिए कि वह इतनी आसानी से पुलिस के हत्थे चढ़ गया था. 'असली चोर वही है जो लोगों के हाथों चाहे जितना पिट जाए लेकिन पुलिस के हाथों न पड़े'- अनुभव बांटता है पोन्नामैया.

चोर बिरादरी में घटती प्रतिष्ठा के चलते उसने नेल्लूर छोड़ने का फैसला कर लिया था. अब वह २६ वर्ष का हो चुका था. उसके भरोसे शहर में रात-रात भटकने वाली वह बहन भी उसे रोक नहीं सकी. चलते वक्त उस बहन ने इतना जरूर कहा था-'लाइन चेंज करो. वरना बुढ़ापे तक सिवा टूटी हड्डियों के कुछ जमा न कर सकोगे.' पोन्नामैया ने यह बात गाँठ बाँध ली और चेन्नई के बजाए उसने मुम्बई की रेलगाड़ी पकड़ी. यहाँ उसके किसी चोर-मित्र के मिलने की संभावना नहीं थी. मुम्बई आया पोन्नामैया चोर नहीं था. वह एक बदला हुआ शख्स था. यह और बात है कि यह साबित करने में उसे पूरे चार साल लग गए.

इन चार सालों में उसने शेट्टीयों के उड़पी होटलों में जूठे बरतन साफ किए, फर्श और मोरियाँ चमकायीं. माटुंगा, दादर, चेम्बूर, चर्नी रोड, बोरीवली, अंधेरी के एक-एक होटल उसकी उँगलियों पर हैं. लेकिन इसी दौरान एक होटल मालिक ने उसे गाड़ी चलाना भी सिखा दिया. बस यहीं से पोन्नामैया की लाइन सचमुच चेंज हो गयी. उसी होटल मालिक ने बाद में पोन्नामैया को अपना ड्रायवर रख लिया.

जब मैं पोन्नामैया से चर्चगेट स्थित आयकर भवन के सामने मिला तब वह किसी बैंक अधिकारी का ड्रायवर था और साहब का इंतज़ार कर था. इसी वक्फे में मैंने उससे जितना हो सका; बाहर निकालने की कोशिश की. तभी आयकर भवन से उसका साहब आता दिखाई दिया. जाते-जाते उसने बड़े प्यार से हाथ मिलाया और कहा- ''मैं जिंदगी भर अपने चोर से लड़ता रहा हूँ. अक्सर मैंने उसे पटखनी दी है. लेकिन आज चालीस साल बाद भी कभी-कभी मेरे भीतर का चोर मुझे उठाकर पटक देता है."

2 टिप्‍पणियां:

  1. एक बार फिर बहुत ही बढ़िया कहानी। कहीं पोन्ना मैय्या और नेल्लूर तो कहीं धीरेन और उनका बंगाली लहजे में हिन्दी में "बाबा मार गिया कि जिन्दा है पता नहीं" कहना...
    आपका यह अंदाज अनूठा है।

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