गुरुवार, 10 जनवरी 2008

आज वैसे सिरफिरे वैज्ञानिक कहाँ हैं?


बुर्जुआ समाज और संस्कृति-१


(बांग्ला में कभी छपने वाली 'aanrinya' पत्रिका में यह लेख जनवरी, १९८१ में छपा था. यह पत्रिका कुछ प्रगतिशील अध्यापक प्रकाशित किया करते थे. इस लेख के मूल लेखक हैं राधागोविंद चट्टोपाध्याय और अनुवाद प्रमोद बेडिया ने किया है. ज्ञानरंजन जी के सम्पादन में छपने वाली 'पहल' में यह लेख मैंने पढ़ा था और मैं इससे इतना मुतास्सिर हुआ कि आप सबको इसे पढ़वाने की इच्छा जागी. आदरणीय ज्ञान जी की अनुमति लेकर मैं इसे यहाँ कुछ किस्तों में प्रस्तुत कर रहा हूँ-- विजयशंकर)

जिन्हें सरमायेदार सर्वहारा के एकमात्र शत्रु प्रतीत होते हैं, उनके बारे में आलोचना के दौरान फ्रांसीसी विद्वान रेमंड ऑरेन ने कहा है कि पूंजीपतियों को जिस तरह बदजात और षड्यंत्रकारी के रूप में चित्रित किया जाता है, वास्तव में ऐसा है नहीं। ये लोगअपने कारोबार के नफे-नुकसान के अलावा कुछ नहीं समझते हैं. संपत्ति संबन्धी परिचालानाएं छोड़ दें, किस तरह यह विराट मामला परिचालित होगा, इसका कोई बोध इन्हें नहीं होता.


यह विचार आधारहीन नहीं है। क्योंकि मालिक सिर्फ कूपन काटते हैं. अनुपार्जित आय से भोग-विलास भरे जीवन के अलावा कदाचित ही ये किसी दूसरे मामले में सर खपाते हैं. इनके स्वार्थ से जुड़ी सारी चिंताएं और कार्य नौकरीपेशा बुद्धिजीवीगण करते हैं. बुर्जुआ समाज द्वारा अनाचार, अत्याचार और युद्धविग्रह के लिए ये लोग ही जिम्मेदार होते हैं.


बुद्धिजीवी इतने कुकर्म क्यों करते हैं? प्रत्यक्ष और परोक्ष दो कारण हैं। प्रत्यक्ष कारण तो बड़ा सीधा-सा है- ये अपने प्रभाव, सम्मान, अवस्थान और वित्त के लिए बुर्जुआओं पर निर्भर करते हैं. किसी भी व्यक्ति के लिए स्वतन्त्र रूप से शिक्षा का खर्च जुटा पाना सम्भव नहीं हैं. जितने भी निपुण वैज्ञानिक हैं, वे किसी प्रतिष्ठान या सरकार का पुछल्ला बनने को बाध्य हैं.


उद्योगों का अन्तिम उद्देश्य इसमें पैसा लगाने वाले लोग निर्धारित करते हैं। हर उद्योग की अपनी शोध-शाखा होती है. वहाँ ऐसे वैज्ञानिक उद्योगों के फलने-फूलने के लिए शोध करते हैं. मिलावट के उन्नत तरीके खोजते हैं. सरकारी शोध केन्द्रों, विश्वविद्यालयों और विभिन्न संस्थानों आदि में युद्ध में प्रयुक्त विषाक्त जीवाणु, वाष्प या फिर ज्यादा से ज्यादा घातक बम बनाने के लिए शोध होते हैं.


ऐसे लोग कुछ भी अच्छा नहीं करते होंगे, यह तो पता नहीं, लेकिन उन्हें अच्छा-बुरा जैसा भी निर्देश मिलता है, वे जरूर उसे पूरा करते हैं। सरमायेदारों की इच्छा से अलग उनके लिए कुछ भी करना सम्भव नहीं है। स्पष्टतः आधुनिक विज्ञान का उद्देश्य सरमायेदारों या उनकी सरकार द्वारा ही निर्धारित होता है. क्रीमिया युद्ध के दौरान अंग्रेज सरकार ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक माइकल फैराडे को विषाक्त गैस बनाने को कहा था, जिसे उसने सीधे नकार दिया था. आधुनिक युग में फैराडे जैसे 'सिरफिरे' वैज्ञानिक भूखों ही मरेंगे....


(अगली किस्त अगली पोस्ट में)


1 टिप्पणी:

  1. विजय शंकर जी,
    जानकारी की दृष्टि से लेख महत्वपूर्ण कहा जा सकता है, विषय के वस्तुतत्व के दृष्टि से नहीं।
    पूरी पूंजीवादी संरचना के केंद्र में अर्थसत्ता-शक्ति होती है। पूंजी अपनी ताकत और चरित्रगत ध्रुवीकरण के साथ अपने समस्त अवयवों को हांकती है। बुद्धिजीवी भी उस समष्टि का एक अंग होता है, न कि मुख्य खलनायक। जब हम पूंजीवाद या साम्राज्यवाद या सामंतवाद की बात करते हैं तो विषय के केंद्र में कोई एक व्यक्ति या उसका कोई एक पक्ष नहीं होता, बल्कि वह पूरा समूह होता है, और वह समूह भी अविभाज्य रूप से उस वर्ग का हिस्सा होता है, जो दूसरे वर्ग का चरता-निचोड़ता है। यह भेद करना एक गलत व्याख्या होगी कि संरचना में फलां अच्छा होता है, फलां बुरा। शोषण में सबकी अपनी-अपनी साझेदारी होती है, किसी के धन के अधिकार की, किसी के बुद्धि के अधिकार की। दोनों ही पूंजी के गुलाम या चाकर या परजीवी होते हैं. ...फिलहाल इतना ही। अगली किश्त देने जा रहे हों तो साथ-साथ इस साफगोई की तरफ भी आपका ध्यान अपेक्षित होगा। वरना इतने गंभीर और जरूरी विषय को गड्डमड्ड करने के आप भी उतने ही कुसूरवार होंगे, जितना इस लेख को लिखने वाला। (यह टिप्पणी आपके ब्लॉग पर प्रस्तुत सिर्फ उपरोक्त लेख को सामने रखते हुए, आगे क्या प्रसारित करेंगे, तब की तब देखी जाएगी)

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