शनिवार, 5 जनवरी 2008

तलछट ६: यहाँ से कहाँ जाओगे श्रीनाथ?

नहीं, यूँ ही नहीं दुनिया में आ गया था श्रीनाथ. और दूसरों की कृपा पर जीता भी नहीं है वह. कांदिवली रेलवे स्टेशन के पास एसवी रोड पर तमाम दूकानों में अलस्सुबह अखबार बांटता है. अलग-अलग अखबार दूकानों के शटर में फंसा देता है. दूकान खोलने के साथ-साथ दूकान मालिकों के सामने दुनिया की खबरें भी खुलती जाती हैं. इन्हीं दूकानों में से एक में दिन भर चाकरी भी करता है सत्तर बरस का श्रीनाथ.


जिसे मुम्बई में बेसहारा बुढापा काटना पड़ता है उसे जीना होता है कुछ-कुछ श्रीनाथ की तरह. वहीं पास के फुटपाथ पर एकांत खड़ी झोपड़ी में रोती-झींकती लगभग पागल हो चुकी विकलांग पत्नी और पोलियो से लाचार हो चुकी बड़ी बेटी के साथ जिंदगी काट रहा है वह. गनीमत है कि म्युनिसीपलटी वालों की कुदृष्टि पिछले चार सालों ने नहीं पड़ीं है उसकी झोपड़ी पर.


श्रीनाथ किसी कामचोरी की सज़ा नहीं काट रहा है. रेलवे में अस्थायी ही सही; नौकरी थी उसकी. माता-पिता थे. बड़ा भाई था. मध्य रेलवे के भायखला रेलवे स्टेशन के पास सरकार की तरफ़ से क्वार्टर मिला हुआ था. क्वार्टर क्या था, दडबा था लेकिन सर छिपाने के लिए भगवान की नेमत थी. जीवन की पूरी चाहत के साथ श्रीनाथ बचपन में वहाँ रहकर कुछ पढ़ाई- लिखाई भी करता था.


पिताजी रिटायर हुए तो समझो पूरा घर रिटायर हो गया था. रेलवे में खलासी थे. तनख्वाह भी उस जमाने में 32 रुपया महीना थी. बड़े भाई ने पिताजी के लतियाने पर भी रेलवे स्कूल का मुंह नहीं देखा. स्कूल के नाम पर घर से निकलता था और लोअर परेल की तरफ जाकर बड़े पुल के नीचे गरद पीने वालों के साथ बैठता था.


श्रीनाथ अभी गुणा-बाकी भी न सीख पाया था कि पिताजी रिटायर हो गए और रेलवे क्वार्टर से कूच करने का हुक्म जारी हो गया. पिता को श्रीनाथ अब तक दुनिया सबसे ताकतवर आदमी मानता था क्योंकि लोहे के बड़े-बड़े गर्डर भी वह अपनी भुजाओं के बल से खिसका ले जाते थे, लेकिन सिर छिपाने के लिए एक झोपड़ी का इंतजाम करना भी उनके लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा था. आखिरकार पूरे परिवार को बंबई वीटी (अब मुम्बई सीएसटी) रेलवे स्टेशन के पिछवाडे एक टपरा बनाकर शरण लेनी पड़ी.


वहाँ से भायखला के रेलवे स्कूल जाना अब मुमकिन न था. वैसे भी श्रीनाथ पिछली २ कक्षाओं में चार बार फेल हो चुका था. घर में पिता अपनी जवानी के दिनों के किस्से सुना कर उसे प्रेरित करने की कोशिश करते थे. वह बताते थे कि कैसे वह तमिलनाडु के नागरकोइल से मुम्बई आए थे और कैसे उन्हें एक अंग्रेज साहब ने तरस खाकर रेलवे में खलासी की नौकरी पर रख लिया था.


किस्से सुन-सुन कर श्रीनाथ के दिमाग में भी रेलवे की नौकरी करने का विचार ज़ोर मारने लगा. लेकिन उसकी शिक्षा अंगूठा छाप के ही बराबर थी. फ़िर भी पिता ने उसे अपने पुराने दिनों की सेवा का वास्ता देकर एक मुसलमान साहब से कह-सुन कर श्रीनाथ के लिए खलासी का काम पक्का करवा लिया. अब पुराने दिन तो थे नहीं कि नौकरी मुस्तकिल होती, वह एक दिहाड़ी मजदूर जैसा काम था. लेकिन काम तो काम था. श्रीनाथ ओवरटाइम करके परिवार का पेट पालने लायक मजदूरी हर माह कमा ही लेता था. खैर, वे जवानी के दिन थे जब श्रीनाथ की बाहों की मछलियों पर आकर थकान दम तोड़ देती थी.


इसके बाद का किस्सा श्रीनाथ को याद नहीं आता. वह कडियाँ जोड़ने की कोशिश करता है लेकिन...


हाँ, इसके बाद इतनी याद है कि पिता एक बार सबको अपने मूल गाँव ले गए थे. बड़ा भाई यहीं रह गया था क्योंकि काफी तलाशने के बाद भी वह नहीं मिला था. बाद में पता चला था कि गरद पीने वालों के साथ उसे भी पुलिस उठा ले गयी थी. फ़िर गाँव में ही श्रीनाथ की शादी कर दी गयी थी.


श्रीनाथ को रेलवे में दिहाड़ी करते ५ साल पूरे हो गए थे. उन्हीं दिनों रेलवे ने नौकरों के कुछ क्वार्टर सायन में बनाए थे. एक कमरा उसे भी अलोट कर दिया गया. सब लोग वीटी वाले टपरे से यहाँ रहने आ गए. बीच-बीच में बड़ा भाई भी आ जाता था. माँ से खूब झगड़ा करता और श्रीनाथ की अनुपस्थिति में खाना बनाने के बर्तन तक उठा ले जाता. चरस की लत उसे अपनी गिरफ्त में पूरी तरह ले चुकी थी. उसकी यह हालत देख-देख कर माता-पिता खून के आंसू बहाते थे. और एक दिन वह भी आया जब एक एक कर दोनों इस दुनिया से रोते बिलखते विदा हो गए. पीछे छोड़ गए श्रीनाथ का परिवार छाती पीट-पीट कर कलपने के लिए.


एक दिन वह मध्य रेलवे के कान्जुर मार्ग रेलवे स्टेशन के पास रेल पटरियों पर हथौड़ा चला ही रहा था कि उसे प्लेटफोर्म पर खड़े यात्रियों के अचानक चिल्ला उठाने की आवाज सुनाई दी. कोई लोकल ट्रेन से कट गया था. श्रीनाथ भी मजमें में पहुंचा. एक यात्री ने कहा- 'गर्दुल्ला था, ऑफ़ हो गया साल्ला!' श्रीनाथ के पैरों तले से ज़मीन खिसक गयी. यह उसका बड़ा भाई था शेखर. इतने टुकड़े हुए थे उसके कि किसी तरह से पहचान में नहीं आता था. खैर, श्रीनाथ ने रेलवे अधिकारियों की मदद से उसका कफ़न-दफ़न किया.


इस घटना के बाद काम से उसका मन ऐसा उचटा कि साहब लोग उससे खफ़ा रहने लगे. भाई के इस तरह मरने के शोक ने उसका यह हाल कर दिया था कि वह ड्यूटी से दांडी मारने लगा. आखिरकार उससे कह दिया कि कल से काम पर न आया करे. अब पिताजी तो जीवित थे नहीं कि अपने खून-पसीने का वास्ता देकर उसे बहाल करवा देते. नतीजा यह हुआ कि अधेडावस्था में श्रीनाथ की बेरोजगारी प्रारंभ हो गयी.


रेलवे में काम करते-करते उसे लोहा-लंगड़ से प्यार-सा हो गया था. एक दिन वह दक्षिण मुम्बई के नल बाजार की ओर गया तो उसने एक दूकान में मजदूरी के लिए पूछ लिया. सेठ कच्छी था. उसने श्रीनाथ का अनुभव देखकर उसे काम पर रख लिया. काम हाड़तोड़ था! लोहे के गर्डर, छड़ों के पुलिंदे, लोहे की कटिंग के बोरे एक विशाल तराजू में रखने पड़ते थे. उसके हाथ छिल जाते और दवा-दारू की कोई सुविधा न होने के कारण अगले ही दिन उन घावों में मवाद भर जाता. मामला सीधे हाथ और पेट से जुड़ा था. सो, श्रीनाथ के पास और और कोई चारा नहीं था.


हाथ-पाँव छिलवाकर रोज़ शाम को सायन कोलीवाड़ा वाली झोपड़ी में पहुँच जाता था जो उसने रेलवे का क्वार्टर छूटने के बाद खड़ी की थी. वहाँ पत्नी हल्दी का लेप लगाती थी. उसके प्यार में पता नहीं कहाँ का जादू था कि श्रीनाथ इतने दर्द के बाद भी बिस्तर पर लुढ़कते ही नींद की गोद में पहुँच जाता था.


मुझे मुनव्वर राणा का एक शेर याद आता है-

सो जाते हैं फुटपाथ पर अखबार बिछाकर

मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते.


श्रीनाथ इस दौरान चार बच्चों का पिता बना. तीन बेटियाँ और एक लड़का. झोपड़ी में गुजर करते श्रीनाथ के परिवार को पन्द्रह साल होने को आए थे. इकलौता लड़का वेल्ली मनपा के सायन स्कूल में पढ़ने जाता था. एक दिन स्कूल से लौटा तो ऐसा बीमार पड़ा कि कोई दवा काम न आयी. वैसे भी बड़े अस्पताल में इलाज कराने की कूवत भी कहाँ थी उसके पास. श्रीनाथ ने झाड़-फूंक का सहारा लिया. लेकिन उसी बेहोशी की हालत में एक दिन वेल्ली के प्राण-पखेरू उड़ गए.

'किसी ने वेल्ली के ऊपर तंत्र किया था साहब', कहते हुए होंठ भींच लेता है श्रीनाथ. बेटे की मौत के दिन ही श्रीनाथ इतना बूढ़ा हो गया जैसे अगले चालीस साल उसने उसी दिन तय कर लिए हों. उसका मन तेजी से मौत की ओर बढ़ने लगा. वह जगह उसे एक भी पल ठहरने लायक नहीं लगी. हफ्ते भर बाद झोपड़ी त्यागकर वह अपनी पत्नी और बेटियों के साथ कान्दीवली की तरफ़ चला आया. तब से बस चलता ही चला जा रहा है.

इधर झोपड़ी में पोलियो की शिकार एक बेटी है, दो बेटियाँ लोगों के घरों में झाड़ू-पोंछा लगाती हैं. चार साल पहले बारिश के दौरान एक गटर में गिर जाने के चलते पत्नी कमर तुडाकर झोपड़ी में ही पड़ी रहती है,


'हमारा क्या है साहब. जब तक इधर झोपड़ी है पड़े हुए हैं. लेकिन सुना है कि यह रोड चौड़ी होनेवाली है. देखते हैं कब तक बचे रहते हैं'- चिंता जाहिर करता है श्रीनाथ.


मुझे पता है, श्रीनाथ के लिए दिल से चाहकर भी मैं यह रोड चौड़ी होने से नहीं रोक सकता. आख़िर महानगर की तरक्की का मामला जो ठहरा!

1 टिप्पणी:

  1. बहूत ही भावपूर्ण प्रस्‍तुति । शुरू से अंत तक कविता की तरह लयपूर्ण । धन्‍यवाद ।

    अंग्रेजी नये वर्ष की शुभकामनाओं के साथ ।

    संजीव

    डोंगरगढ की मॉं बगलामुखी-बमलेश्‍वरी

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