मंगलवार, 4 मार्च 2008

गाँव गया था, गाँव से नहीं भागा!

साथियो,
इस बार कई दिन गाँव में डटा रहा. ठंड का लुत्फ़ उठाया. 'होरा' चाबा गया. भुने हुए आलू और भांटा (बैंगन) का भरता खाया गया. लहसन के हरे-भरे ताज़ा पत्ते सहज उपलब्ध थे, धनिया भी. नमक की डली के साथ इसकी चटनी लाजवाब होती है. इन सबका स्वाद लिया. (हरे चने की पुष्ट घेन्टियों को पौधे सहित आग में भून्जने से होरा बनता है. चूंकि यह होली के नजदीक आने का समय होता है इसलिए इसे होरा कहते हैं.)

जब भी गाँव जाता हूँ यही सब खाता-पीता हूँ. गनीमत है कि हमारे यहाँ यह सब अब तक पुराने बीजों वाले रूप में उपलब्ध है. देसी टमाटर का स्वाद मुम्बई में आते ही तरसाने लगता है. तब गाँव की ओर भागता हूँ. मटर और सेम की फलियाँ किसान घर-घर ख़ुद बेच जाते हैं. सुबह इन्हीं की पुकारों से होती है. मूली ऐसी रसीली कि बेचनेवाला किसी छोटे बच्चे का मन रखने के लिए वहीं आधी तोड़ कर पकड़ा देता है. यह मौसम अमरूदों का भी था. देसी अमरूद. ...बचपन में चुरा कर खाए गए इन अमरूदों का स्वाद अब भी ज्यों का त्यों है. कौन जाने यह अपने मूल बीज की कितने करोड़वीं नस्ल है. क्या यही स्वाद हमारी अगली पीढ़ियों के लिए भी बचा रहेगा?

गाँव जाने पर एक और चीज स्थायी भाव की तरह मिलती है. वह है हमारे यहाँ का बस स्टैंड. यह दूसरे बस स्टैनडों से अलग है. यहाँ सब एक दूसरे को जानते-पहचानते हैं. दुआ-सलाम करते हैं. कोई जोड़ीदार शहर की तरफ जा रहा हो तो उसे बस में चढ़ते-चढ़ते तक गालियाँ देते हैं. इस तरह जानेवाले की यात्रा मंगलमय बनाते हैं.

कुछ लोग बस स्टैंड में आपको सुबह के छः बजे से रात के बारह बजे तक मिल जायेंगे. कोई भी ऋतु हो, ये आपको ताश खेलते मिलेंगे. ताश साधारण से लेकर जुआ तक हो सकती है. फिर अगले दिन सुबह की चाय पर बस स्टैंड में सिर्फ़ इस बात पर चर्चा होगी कि अगर कल छठी बाजी में एक्का आ जाता तो मजाल क्या थी कि ठाकुर साहब जीत जाते, या फिर गुलाम ही आ जाता तो तिवारी जी पाँच सौ रुपये जीतकर भला मूंछों पर ताव देते हुए घर कैसे चले जाते?

फिर पूरे दिन यही ताश चर्चा चलेगी. स्कूल जा रहे शिक्षक भी इस चर्चा में शामिल हो जायेंगे. उसके बाद ताश के खिलाड़ियों की तलाश शुरू होगी और रात तक के लिए जम जायेगा जुए का फड़. अगले दिन फिर से वही पछतावा कि अगर बादशाह आ जाता तो... या बेगम फंस जाती तो...

बीच-बीच में धर्म की भी चर्चा कोई छेड़ता है. किसने इलाके में सत्यनारायण की कथा सुनी, श्रीमदभागवत की बैठकी कौन करवा रहा है या कोई पहुंचे हुए बाबाजी किसके घर ठहरे हैं - सारा समाचार यहाँ मिलता जायेगा. फिर कोई कहेगा, अरे भाई धरती में अभी धर्म बचा हुआ है. जिस दिन धर्म न रहा उसी दिन धरती रसातल में चली जायेगी.

ताश के खिलाड़ी जानते हैं कि यह आदमी दिन में दस बार यही बात कहता है. इसलिए वे अपने पत्तों पर नज़र गडाये हूँ-हाँ करते रहते हैं. तमाशबीन भी कम नहीं होते. इन्हीं की वजह से कभी-कभी अचानक झगड़ा भी शुरू हो जाता है. बार-बार हार रहा पत्तेबाज़ चिल्लाएगा- 'अरे यार तुम मेरे पत्ते देखकर दूसरे की ताश बनवा रहे हो!' तमाशबीन कहेगा- 'जीतने पर चाय-पान के पैसे देने का वादा करो तो तुम्हारी ताश भी बनवाऊँ.' फिर ये बातें रबर की तरह बढ़ती जाती हैं. लेकिन कम ही ऐसा होता है कि मारपीट हो जाए. शाम को महुए की दारू भी तो साथ-साथ पीनी है!

आप कितने भी दिनों बाद गाँव गए हों, लोग बस इतना पूछेंगे- अरे भैया, कब आए?' उसके बाद आप चाहे जितने दिन रहो, बस वही 'एक्का-बादशाह-गुलाम-बेग़म' की चर्चा सुनते बैठे रहो. कोई दूसरा विषय नहीं छेड़ेगा. आप कोशिश करेंगे तो बात वहीं ताश के पत्तों पर आकर ठहरेगी. इसीलिए मैं दो-तीन दिनों में ही गाँव से भाग आता हूँ और जनकवि कैलाश गौतम की मशहूर कविता याद करता हूँ- 'गाँव गया था, गाँव से भागा.'

लेकिन इस बार मंजर बदला हुआ था और चर्चा का विषय भी. हुआ दरअसल यह है कि मध्यान्ह भोजन योजना पर निगरानी रखने के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने स्व-सहायता समितियाँ गठित कर दी हैं. इन समितियों में गाँव के ही लोग होते हैं. इनकी कार्यकारिणी होती है. बाकायदा एक अध्यक्ष होता है. पहले यह योजना स्कूल शिक्षक की देखरेख में ही चलती थी. ये लोग छात्रों की मनमानी उपस्थिति दिखाकर राशन का तिया-पांचा करते थे. निर्धारित दिन पर निर्धारित भोजन की जगह कुछ भी सस्ता-मस्ता बनवाकर खिला देते थे और झूठे बिल बनाते थे. प्राथमिक शाला का हर शिक्षक महीने में कम से कम तीन-चार हजार रुपया इस योजना का फायदा उठाकर अवैध तरीके से कमा लेता था.

अब यह सम्भव नहीं हो पा रहा है. शिक्षकों के कलेजे में आग सुलग रही है. वही स्थिति हो गयी है कि रहा भी न जाए, सहा भी न जाए और कहा भी न जाए. स्व-सहायता समिति वाले ही छात्रों की उपस्थिति के हिसाब से राशन बाँटते हैं. निर्धारित दिन के हिसाब से खाद्यान मुहैया करवाते हैं.

दूसरी मुश्किल शिक्षकों के सामने यह भी खड़ी हो गयी है कि पहले जहाँ छात्रों की उपस्थित ९० प्रतिशत से ऊपर दिखा दी जाती थी वह अब घटकर ५०-६० प्रतिशत के आसपास रह गयी है. इससे जिला और ब्लाक स्तर के अधिकारी भी खफा हैं. उनका कहना है कि जुलाई-अगस्त में स्कूल खुलते समय ९०% उपस्थिति थी तो अब परीक्षा के समय २०-३०% छात्र कहाँ गए? यही फर्जीवाड़ा आजकल हमारे बस स्टैंड की चौपाल चर्चा का विषय बना हुआ है.

अब शिक्षक सीधे स्कूल चले जाते हैं क्योंकि उनके साथ ताश खेलनेवाले स्व-सहायता समितियों में आ गए हैं और स्थिति साँप और नेवला वाली हो गयी है. वैसे मुझे पूरा यकीन है कि पैसा खाने के लिए ये साँप और नेवले जल्दी ही हाथ मिला लेंगे और जल्द ही हमारा बस स्टैंड ताश चर्चा से गुलज़ार हो जायेगा.

11 टिप्‍पणियां:

  1. अजगर करवट ले रहा है। समय बदल रहा है, भले ही रफ्तार धीमी हो और उसके साथ बहुत सारे पेंच हों। बहुत ही वस्तुपरक तरीके से अपने अनुभव बांटने के लिए शुक्रिया विजय जी।

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  2. आय हाय...दिल जीत लिया भाई...वही तो खोज रहा हूँ यहाँ भारत में चार माह से...काफी कुछ पा लिया है कृतिम.. :)

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  3. gaon ki sair ghar baithe karvane ke liye dhanyawad,bahut sundar aalekh.

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  4. बदलते गांव का बढ़िया किस्सा। विजय जी, शुक्रिया इसे हम सबके साथ शेयर करने के लिए।

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  5. टिप्पणी के लिए सबका शुक्रिया. वैसे दिलीप अगर आंकड़ेबाजी पर उतर आओ तो मज़ा आ जायेगा.

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  6. जरूर। सोशल सेक्टर पर बजट के दौरान खूब माथा लगाया है। आपको भेजता हूं। उचित लगे तो अपने ब्लॉग पर जगह दीजिएगा।

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  7. गाँव घुमाने का शुक्रिया । बहुत सारी बातें याद आ गई।

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  8. न दादू - बूट त चाबि आय - कौनो खुरचन उर्चन नहिं लाय रामपुर बघेलान के ? -
    बहुत लय में लिखा है - वैसे एक कहानी शिक्षा कर्मियों की भी रही है - सोच रहा था मियां नदारद हैं अपने डेरे ठिकाने से- या के शेर सारे सस्ते हो गए, गम ज़माने से? - मनीष

    धों सुनी - या शब्द पुष्टीकरण के झंझट हटाय लेई - हमहूँ हटाय लिहिन हाँ

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  9. गांव के जीवन को कुछ अलग तरह से समझने का मौका मिला।

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  10. bat-bat me hi gawon ke saundrya ko aapne bakhubee taraas diya hi. bahut sukriya.

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