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गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

रोशन-ख़याली की मिसाल थे बहादुरशाह ज़फ़र

'१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र' पुस्तक का जिक्र मैंने इसी ब्लॉग में पिछले दिनों किया था, उसकी भूमिका है यह. पुस्तक के संकलनकर्ता-संयोजक और लेखक डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने इसे लिखा है. इस भूमिका की यह आख़िरी कड़ी है- विजयशंकर चतुर्वेदी)


(पिछली कड़ी से जारी)

...यह एक अजीब पर इतिहास का विषम तथ्य है कि जिस प्रतापमयी व्यक्तित्व ने अपना देश स्वतन्त्र करने के लिए संघर्ष किया उसकी लाश यथासमय एक विदेशी धरती में दफ़न है. हम और इस पुस्तक में लिखने वाले सभी लोग भारत सरकार से मांग करते हैं कि भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में भाग लेने वाले जियाले सपूतों के महानायक तथा सम्मान योग्य भारतीय सपूत के साथ न्याय किया जाए और उनकी लाश को पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनके पैतृक देश में लाकर दफ़न किया जाए. यह व्यक्तित्व निस्संदेह ही भारत के लिए गौरव का स्रोत है और स्वतन्त्र भारत को इसका आभारी और शुक्रगुज़ार होना चाहिए.

सन् १८५७ की याद में आयोजित किए गए एक सौ पचास वर्षीय समारोह के अवसर पर उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर गुलज़ार ने लाल क़िला परिसर में हमारे मनोभाव का सीधा-सच्चा प्रतिनिधित्व करते हुए सरकार की ओर से आयोजित इस समारोह में यह इच्छा प्रकट की थी कि बहादुरशाह ज़फ़र की लाश को वापस दिल्ली लाया जाए. भारतीय राष्ट्र के विभिन्न चिंतन-समूह के प्रतिनिधियों ने उनके विचारों की खुले मन-मस्तिष्क से प्रशंसा व सराहना की. खेद का विषय है कि इस बड़ी ऐतिहासिक ग़लती के सुधार के लिए कोई क़दम नहीं उठाया गया.

आने वाली पीढियाँ इस बात का निर्णय करती हैं कि राष्ट्र अपने शहीदों के प्रति किस प्रकार का बर्ताव करता है. इस पृष्ठभूमि में देखा जाए तो लगता है कि भारतीय जनता बहादुरशाह ज़फ़र की लाश को भारत लाकर इस धरती में दफ़न करना चाहती है तथा उनके मज़ार पर उचित 'कत्बा' लगाना चाहती है परन्तु भारत के सत्ताधारी लोग इस 'जनमत' को महत्त्व नहीं दे रहे हैं

बहादुरशाह ज़फ़र हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी और पंजाबी भाषाएँ धारा-प्रवाह बोलते थे. उन्होंने इन भाषाओं में अनेक नज़्में, ग़ज़लें कही हैं. इनमें उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता का प्रबल शब्दों में समर्थन किया है तथा धार्मिक उन्माद, कट्टरता, घृणा और असहिष्णुता की खुली भर्त्सना व निंदा की है. आज भारत को ऐसे लोगों की बड़ी आवश्यकता है जो बहादुरशाह ज़फ़र जैसी सोच, व्यापक-हृदयता, सच्चाई और रोशन-ख़याली के प्रतीक हों. मौजूदा हालात में, जब धार्मिक कट्टरता से वातावरण दूषित किया जा रहा है बहादुरशाह ज़फ़र के व्यक्तित्व और कटिबद्धता से सहनशीलता के प्रचार-प्रसार की बड़ी आवश्यकता है.

मेरे पास शब्द नहीं और मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं उन सब महानुभावों को कैसे धन्यवाद दूँ जिन्होंने इस पुस्तक के लिए अपने बहुमूल्य समय में से वक़्त निकालकर हमारे निवेदन पर लेख लिखे और अपने सुझाव भी दिए, मेरी सहायता की और साहस बढ़ाया.

साहिर शीवी और सैयद मैराज जामी की पत्रिका 'सफ़ीरे उर्दू' के द्वारा हमें बहुत से लेख प्राप्त हुए. 'सफ़ीरे उर्दू' का बहादुर शाह ज़फ़र विशेषांक मेरे ही निवेदन पर प्रकाशित किया गया था. बारह वर्ष पूर्व मोइनुद्दीन शाह साहब (मरहूम) ने अपनी पत्रिका 'उर्दू अदब' का बहादुरशाह ज़फ़र विशेषांक प्रकाशित कर ज़फ़र को श्रद्धांजलि दी थी. इस पुस्तक में कुछ लेख उल्लिखित विशेषांक से भी लिए गए हैं. अंत में उर्दू के विश्वसनीय लेखक व प्रकाशक 'खादिम-ए-उर्दू' (उर्दू-सेवक) प्रेमगोपाल मित्तल साहब की सेवाओं को भी नहीं भुलाया जा सकता जिन्होंने प्रस्तुत पुस्तक की साज-सज्जा में अपना बहुमूल्य समय लगाया.(समाप्त)

-डॉक्टर विद्यासागर आनंद

पुस्तक: '१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र', सम्पादक: डॉक्टर विद्यासागर आनंद, प्रकाशक: माडर्न पब्लिशिंग हाउस, ९ गोला मार्केट, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२. पृष्ठ ५७६, मूल्य ६०० रूपए.

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

पंडित नेहरू भी यही चाहते थे: सन्दर्भ ज़फ़र

(पहली कड़ी में चंद अभद्र प्रतिक्रियाएँ मिली थीं. आप कल्पना कर सकते हैं कि ब्लॉग जगत में मौजूद कुछ विशेष मानसिकता के लोगों से बचाव का एक ही तरीका है- टिप्पणी मोडरेटर. जिन लोगों को ज़फ़र या मुस्लिम कौम से नफ़रत है और उनके बारे में यहाँ लिखे जाने से परेशानी है उन्हें चाहिए कि वे मेरी स्वतंत्रता सेनानियों पर लिखी गयी सीरीज इसी ब्लॉग पर ढूंढ कर पढ़ें. जिन अमर शहीदों के नाम भी इन्होंने नहीं सुने होंगे, उनके बारे में लिखा गया है. समयानुसार आगे भी लिखूंगा. यह डॉक्टर विद्यासागर आनंद लिखित भूमिका की दूसरी कड़ी है- विजयशंकर चतुर्वेदी)



पिछली कड़ी से आगे...

...स्वतंत्रता-दीप प्रज्ज्वलित रखने के लिए राष्ट्र को संगठित व अनुशासित रखना आवश्यक था अतः देश के राजनैतिक व धार्मिक पथ-प्रदर्शकों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं ने स्वतंत्रता आन्दोलन को भारत के कोने-कोने तक फैला दिया. इनमें कुछेक तो भारत से बाहर के अन्य देशों तक चले गए तथा वहाँ स्वतंत्रता-आन्दोलन को सुदृढ़ बनाने हेतु सहायता प्राप्त करने के प्रयत्न किए.

इस लंबे स्वतंत्रता-आन्दोलन का उद्देश्य अंततः नब्बे वर्ष बाद १५ अगस्त १९४७ को तब जाकर प्राप्त हुआ, जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बहादुरशाह ज़फ़र के पूर्वजों के लाल क़िले से स्वतन्त्र भारत की घोषणा की. उस ऐतिहासिक दिवस से अब तक साठ वर्ष का (भूमिका लिखे जाते समय) समय बीत चुका है लेकिन खेद की बात है कि इस बीच भारत के राजनेताओं ने इस स्वतंत्रता-संग्राम में देश के बाहर व भीतर शहीद होने वाले जियालों के सम्मान को बढ़ावा देने में ढिलाई बरती और उन्हें वह स्थान नहीं दिया जिसके वे अधिकारी थे.

यहाँ अधिक अफ़सोस की बात यह है कि स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ज़फ़र के अवशेष भारत लाने का समर्थन किया था पर नामालूम कारणों से इस दिशा में कोई क़दम नहीं उठाया गया. १ से ७ अक्टूबर के साप्ताहिक 'हमारी ज़बान' नई दिल्ली में इस विषय पर पंडित नेहरू का एक नोट प्रकाशित हुआ जिसके अनुसार उन्होंने तत्कालीन गृह मंत्री पंडित गोविन्द वल्लभ पन्त को लिखा था:-
“मौलाना साहब (आशय मौलाना अबुल कलाम आज़ाद से है) की राय है कि बहादुरशाह ज़फ़र की लाश को रंगून से लाकर हुमायूं के मक़बरे में दफ़नाया जाए क्योंकि स्वयं उनकी भी अन्तिम इच्छा यही थी. मैं इस विषय में अपनी कैबिनेट के कुछ मंत्रियों से बात कर चुका हूँ और उन्हें इस पर कोई आपत्ति नहीं है."


नेहरू जी ने इसी नोट में आगे लिखा:-
"संभवतः बर्मा सरकार को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं होगी. मैं इस सुझाव के विषय में आपकी प्रतिक्रिया जानना चाहता हूँ, तत्पश्चात् हम इस मामले की और अधिक तफ़्तीश कर सकते हैं."

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बहादुरशाह ज़फ़र की अन्तिम इच्छा का उल्लेख करते हुए हुमायूं के मक़बरे में दफ़न होने की इच्छा बताई है जो किसी भ्रम के कारण है वरना तथ्य यह है कि ज़फ़र ने अपने दफ़न के लिए क़ुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के निकट ही अपने पूर्वजों के पहलू में अपने लिए एक स्थान आरक्षित किया हुआ था. मिर्ज़ा फ़रहतुल्ला बेग अपने बहुचर्चित लेख 'फूल वालों की सैर' (सन् १९३४) में लिखते हैं:-

'देहली के बादशाहों ने आप (हज़रत क़ुतुबुद्दीन बख्तियार काकी) के मज़ार के चारों ओर संगमरमर की जालियाँ, फर्श और दरवाज़े बनवा दिए. दीवारों पर काशानी ईंटों का काम करवाया तथा आसपास मस्जिदें अदि बनवाईं... एक ओर तो संगमरमर की छोटी मस्जिद है और उसके पहलू में अन्तिम समय के बादशाहों के कुछ मज़ार हैं. बीच में शाहआलम द्वितीय का मज़ार है और उसकी एक ओर अकबरशाह द्वितीय की क़ब्र का एक पहलू ख़ाली था, उसमें बहादुरशाह ज़फ़र ने अपना 'सरवाया' (सुरक्षित स्थान) रखा था. विचार था कि मरने के बाद बाप-दादा के पहलू में जा पड़ेंगे, यह क्या मालूम था कि वहाँ क़ब्र बनेगी, जहाँ पूर्वजों का पहलू तो दूर की बात, कोई फ़ातिहा पढ़ने वाला भी न होगा.' (मज़ामीन-ए-फ़रहत (द्वितीय) लेख 'बहादुरशाह ज़फ़र और फूल वालों की सैर', प्रकाशक सरफ़राज़ प्रेस लखनऊ, पृष्ठ ४२).

प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम के एक सौ पचास वर्षीय जश्न के अवसर पर बहादुरशाह ज़फ़र के लाल क़िले (जिसका प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम से निकट का सम्बन्ध रहा है) के समकालीन व्यवस्थापकों को इस विषय पर एक संदेश भेजा गया. इसके अतिरिक्त भारत के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों और प्रवासी भारतीयों से भी हमने संपर्क साधा तथा बहादुरशाह ज़फ़र के अवशेष वापस अपने देश में लाने की मांग पर ध्यान देने का निवेदन किया. हमें इसकी ख़ुशी है कि अनेक लेखकों, शायरों, इतिहासकारों, पत्रकारों तथा बुद्धिजीवियों ने हमारे निवेदन को सहर्ष स्वीकारते हुए हमें अपनी रचनाएं भिजवायीं. इसके साथ ही उन्होंने हमारी इस मांग का समर्थन भी किया कि बहादुरशाह ज़फ़र के अवशेष विदेश से वापस अपने देश लाये जाएँ.


अगली कड़ी में जारी...

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

उनमें ऐसा आदमी था इक बहादुरशाह ज़फ़र

(जिस पुस्तक '१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र' का जिक्र मैंने अपने ब्लॉग 'आज़ाद लब' में पिछले दिनों किया था, उसकी भूमिका है यह. पुस्तक के संकलनकर्ता और संयोजक डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने यह भूमिका लिखी है. आलेख की भाषा अवश्य अधिक चुस्त नहीं है, लेकिन विश्वास है कि इसमें व्यक्त की गयी तीव्र भावना पाठकों को ईमानदार लगेगी. यही भूमिका कुछ कड़ियों में प्रस्तुत की जा रही है- विजयशंकर चतुर्वेदी)
क्या नहीं हमने किया आज़ाद होने के लिए
खून भी अपना बहाया शाद होने के लिए
ताकि हम आज़ाद हों, अपने वतन में शान से
उर दिया बुझने न दें लड़ते रहें तूफ़ान से
हक़ हमारा था कि आज़ादी को फिर हासिल करें
मात अंग्रेज़ों को देने में जिएँ या हम मरें
पेशे-आज़ादी हमारी ज़िंदगी क्या चीज़ है
उर गुलामी को मिटाने जान भी क्या चीज़ है


गुलामी से मुक्ति तथा विदेशी प्रभुत्व व प्रभुसत्ता से आज़ादी पाने के लिए सम्पूर्ण राष्ट्र ने एकजुट होकर स्वतंत्रता-संकल्प लिया था. अपने जान-माल की परवाह किए बिना तथा परिणाम के बारे में सोचे बिना, कफन को लहू में डुबोकर अपने सिरों से बाँध लिया था.

सन १८५७ का भयावह काल वास्तव में भारतीय राष्ट्र की अनगिनत कुर्बानियों व बलिदान की दास्तान है. एक ऐसी दास्तान जिसका आरंभ बहादुरशाह ज़फ़र के व्यक्तित्व से हुआ- वे पवित्र परन्तु क्षीण हाथ- जिन पर सारे हिन्दुओं, मुसलमानों व सिखों ने आस्था रखी, उन पर विश्वास रखा; जिसके कारण ही आज हम भारत को स्वतन्त्र देख रहे हैं. वह वास्तव में हमारे नब्बे वर्ष के लंबे संघर्ष का ही फल है.

आज़ादी की इच्छा एक ऐसी इच्छा थी जिसने विमुखता, अवज्ञा और नाफ़रमानी को जन्म दिया. अंग्रेज़ों ने इसे 'ग़दर' का नाम दिया, जिससे जाग्रति की एक ऐसी किरण फूटी; एक ऐसा सूर्य उदय हुआ जिससे अंग्रेज़ों को अपने पतन का आभास होने लगा. यह एक ऐसा संघर्ष था, एक ऐसा प्रकाश था जिसने अंग्रेज़ों के इरादों को जला देने के लिए चिंगारी का काम किया. तमाम भारतीयों के मन में विदेशी-प्रभुत्व तथा गुलामी का फंदा अपने गले से उतार फेंकने के सुदृढ़ संकल्प थे. किसी ने क्या ख़ूब कहा है-

'रोशनी आग से निकली है जला सकती है.'

सन् १८५७ के बाद बहादुरशाह ज़फ़र को अत्यन्त बेइज्जती एवं तौहीन भरे बर्ताव का सामना करना पड़ा था. आज़ादी का चिराग जलानेवाले इस अन्तिम मुग़ल शासक को रुसवा करके बड़ी दयनीय स्थिति में घर से हज़ारों मील दूर कैदखाने में भेज दिया गया तथा भारतीय नागरिकों पर भी अत्याचारों का पहाड़ तोड़ा गया. उन्हें गोलियों का निशाना बनाया गया. मासूम बच्चों को रौंदा गया तथा पवित्र नारियों की शीलता को तार-तार किया गया. इन अत्याचारों और सख्तियों के कारण भारतीयों में स्वतंत्रता-संग्राम की उमंग और बढ़ गयी, अधिक प्रबलता प्राप्त हुई और वे देश पर मर-मिटने के लिए तैयार हो गए. मजरूह सुल्तानपुरी का एक शेर है-
'सतून-ए-दार प रखते चलो सरों के चराग़
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले.'

इन सामूहिक संकल्पों और निरंतर संघर्ष का तर्क-संगत परिणाम सन् १९४७ में सामने आया. यह एक कठिन समय था जिसमें अनेक उत्त्थान-पतन हुए. आज़ादी की लड़ाई को विभिन्न स्तरों पर लड़ना पड़ा.

बहादुरशाह ज़फ़र को यद्यपि इतिहासकार एक पीड़ित और बेबस बादशाह के रूप में प्रस्तुत करते हैं पर आम व्यक्ति के दिल में उनके लिए स्नेह, मान और हमदर्दी के भाव मिलते हैं. वर्त्तमान में स्वयं को न्यायप्रिय कहलवाने वाला राष्ट्र (यहाँ आशय ब्रिटिश साम्राज्य से है), जिसने भारत में अपना शासन बनाए रखने के लिए, संस्कृति, सभ्यता एवं मानवता के नियमों की धज्जियाँ उड़ा दीं, वह क्रूरतम शासकों में शामिल हुआ. अंगेज़ लेखकों ने उस काल के भयावह हालत का उल्लेख अपने लेखों में शायद ही पूरी ईमानदारी से किया हो. ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ मासूम व बेबस बादशाह अपने बेटों की जाँ-बख्शी की भीख मांगता है तो तानाशाह उसके बेटों के सर काटकर थाल में सजा कर प्रस्तुत करता है;-

दे दिया जिसने आज़ादी का नारा वो ज़फ़र
अपने बेटों के सिरों को जिसने देखा वो ज़फ़र
ये ख़ुदा ही जानता है किस तरह ज़िंदा रहा
दूर जाकर अपने घर से बेनवां होकर मरा
फ़र्ज़ अब अपना है हिन्दुस्तान में लाएं उसे
इज्ज़त-ओ-तकरीम से देहली में दफ़नाएं उसे
परचम-ए-आज़ादी उसकी क़ब्र पर लहराएं हम
ताज-ए-आज़ादी अब उसकी नअश को पहनाएं हम
भूलने पाएं न उसकी याद को हम हश्र तक
आन उसकी कम न हो न माद हो उसकी चमक
हो शहीदों की चिताओं के मज़ारों की ज़िया
औ न हो पाए कभी ख़ामोश आख़िर तक सदा
ऐसे शोहदा जिनको अपनी जान की परवा न थी
देश-भक्ति में फना कर दी जिन्होंने ज़िंदगी
उनमें ऐसा आदमी था इक बहादुरशाह ज़फ़र
बेबसी में थी गुज़ारी जिसने हर शाम-ओ-सहर
उसकी क़ुरबानी को जो भूले नहीं वो आदमी
मीर-ए-आज़ादी को जो भूले, नहीं वो आदमी


अगली कड़ी में जारी...

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें...: ज़फ़र


सन १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में आख़िरी मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र ने जननायक की भूमिका निभाई थी. ज़फर एक महान शायर भी थे. इस बुजुर्ग बादशाह ने अपनी पार्थिव देह दिल्ली की गोद में दफ़न कराने की इच्छा जताई थी. लेकिन मौत आई भी तो रंगून की जेल में. ज़फर की यह इच्छा पूरी करने का बीड़ा उठाया है लन्दन में रह रहे प्रवासी राजनीतिज्ञ एवं साहित्यकार डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने. उन्होंने इसके लिए बाकायदा एक अभियान छेड़ रखा है. इसी कड़ी में प्रकाशित हुई है यह पुस्तक -'१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र'. प्रसिद्ध कवि-लेखक आलोक भट्टाचार्य ने इसकी समीक्षा विशेष तौर पर हमारे लिए की है. यह आख़िरी कड़ी है.

(पिछली कड़ी से जारी)... इन लेखों में एक मिर्ज़ा ग़ालिब लिखित 'दस्तंबू' पर आधारित लेख भी है. 'दस्तंबू' ग़ालिब द्वारा १८५७ की क्रान्ति के विफल हो जाने के बाद अंग्रेजों द्वारा दिल्ली के क्रूर क़त्ल-ए-आम और लूट-पाट का आंखों देखा वर्णन है.

पुस्तक ५ अध्यायों में विभाजित है. पृष्ठ ५ से ३६ तक संक्षिप्त हिस्सों में संदेश, समर्पण, श्रद्धा-सुमन, भूमिका आदि औपचारिकताएं हैं, लेकिन ये भी अत्यन्त पठनीय और उपयोगी हैं. पुस्तक पूर्व सांसद और 'फ्रीडम फाइटर्स एसोसिएशन' के संस्थापक अध्यक्ष पद्मभूषण शशिभूषण जी को समर्पित है. शुभकामना संदेशों में प्रमुख है ब्रिटिश सांसद वीरेन्द्र शर्मा (ईलिंग साउदोल संसद, हाउस ऑफ़ कामंस के सदस्य) का संदेश. डॉक्टर विद्यासागर आनंद की भूमिका भी अवश्य पठनीय है.

'ज़फ़र की पुकार' शीर्षक से जो दूसरा अध्याय है, यही वास्तव में पुस्तक का मूल अंश है. इसमें बहादुरशाह ज़फ़र, १८५७ की क्रान्ति, विभिन्न सेनानी, शहीदों आदि से सम्बंधित 31 लेख हैं जो हमें कई अनजान पहलुओं से परिचित कराते हैं. इनमें पंडित जवाहरलाल नेहरू का मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को लिखा वह पत्र भी शामिल है जिसमें वह बहादुर शाह ज़फ़र की भारतीयता, उनकी महत्ता बताने के साथ-साथ ज़फ़र के पार्थिव अवशेषों को रंगून से लाकर दिल्ली में समाधिस्थ करने की जरूरत पर ज़ोर देते हैं.

हमें यह याद रखना चाहिए कि दिल्ली की मिट्टी में दफ़न होने की इच्छा बहादुरशाह ज़फ़र की तो थी ही, उनकी इस इच्छा की पूर्ति की दिशा में पंडित नेहरू ने पहल भी की थी. ध्यान देने की बात यह है कि भारतीय आज़ादी के निराले योद्धा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की भी यही इच्छा थी; ज़फ़र के अवशेष दिल्ली ही लाए जाएँ. 'आज़ाद हिंद फौज़' के गठन की प्रक्रिया में ही जब नेताजी रंगून गए, तो ज़फर की समाधि पर फूल चढ़ाते हुए उन्होंने भी यही इच्छा जाहिर की, और ज़फर की समाधि से ही नेताजी ने अपना लोकप्रियतम, उत्तेजक, नसों में खून की गति तेज कर देने वाला नारा लगाया- 'दिल्ली चलो.'

एक अध्याय विभिन्न शायरों द्वारा ज़फ़र को श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए रची गई काव्य-रचनाओं का है- 'काव्य-श्रद्धा.' और अन्तिम अध्याय है ज़फ़र की काव्य रचनाओं में से चुनी गईं कुछ रचनाएं- गज़लें, नग्मे, रुबाइयात वगैरह. ज़फ़र एक महान शायर थे. उनकी शायरी में उनकी राजनीतिक विफलता का दुःख तो है ही, अंग्रेजों द्वारा तीन बेटों की हत्या किए जाने का दारुण दुःख, अपनी मार्मिक असहायता, निकटतम मित्रों, बेगमों, रिश्तेदारों की गद्दारी आदि से उपजी भीषण हताशा भी है, लेकिन इन सबके बावजूद साम्प्रदायिक सौहार्द्र, उदार मानवतावाद, भारत की मिट्टी से उनका प्रेम, प्रकृति का असीम सौन्दर्य, ईश्वर के प्रति उनकी आस्था, ईंट-पत्थर के मन्दिर-मस्जिदों की बजाए मनुष्य के ह्रदय के मन्दिर-मसाजिद पर ज्यादा विश्वास जैसी ज़फ़र की अनेक मानवीय-चारित्रिक खूबियाँ भी बड़ी ही शिद्दत के साथ आयी हैं.

उर्दू के अनन्य सेवक 'माडर्न पब्लिशिंग हाउस', नई दिल्ली के स्वत्वाधिकारी प्रेमगोपाल मित्तल अवश्य ही इस अत्यन्त जरूरी, उपयोगी, एक राष्ट्रीय अभियान को गति देने वाली इस दस्तावेजी और विचारोत्तेजक पुस्तक को छापने के कारण प्रशंसा और धन्यवाद के पात्र हैं. पुस्तक तथा पुस्तक के सम्पादक के विषय में मित्तल जी के विचार फ्लैप पर दिए गए हैं. इस पुस्तक के संयोजन एवं प्रकाशन के पीछे जो भावना है वह प्रणम्य है. दो ही चार हिन्दी विद्वानों के अलावा इस पुस्तक के शेष सभी लेखक मुख्यतः उर्दू के विद्वान लेखक हैं. लेकिन उनकी इस महती कृति को हिन्दी पाठकों का आदर और स्नेह अवश्य मिलेगा.

अंत में पुस्तक के प्रकाशन के विषय में कुछ बातें. बहुत ही अच्छे कागज़ पर उत्कृष्ट छपाई, उत्कृष्ट बंधाई के साथ यह पुस्तक भीतर के रंगीन और ब्लैक एंड व्हाइट २९ अमूल्य छाया-चित्रों के साथ-साथ बेहद सुंदर मुखपृष्ठ के लिए पाठकों को अत्यन्त प्रिय लगेगी.

लेकिन पुस्तक पढ़ते समय एक कमी पाठकों को लगातार खटकती रहती है. वह है प्रूफ़ की अशुद्धियाँ. ऐसे प्रामाणिक दस्तावेजी ग्रन्थ में प्रूफ़ की अशुद्धियाँ होना ही नहीं चाहिए. जबकि इसमें इतनी ज्यादा हैं कि खीझ होती है. उद्धरण को उद्धर्न, लगन को लग्न, ऑफसेट को अफ्सेट, प्रेस को प्रैस, सेनानी को सैनानी, फ़ारसी को फार्सी पढ़ते हुए कोफ़्त होती है. ब्रिटिश सांसद का नाम छापा है विरेंद्र शर्मा! यदि वह स्वयं अपने नाम के हिज्जे इस तरह लिखते हों तो आपत्ति नहीं, उनकी मर्जी है, लेकिन भाषा में विरेंद्र तो होता नहीं; वीरेन्द्र ही होता है.

फ्लैप पर जो सामग्री है, उसके अंत में 'इस पुस्तक में' को वाक्य की शुरुआत में लिख दिए जाने के बाद भी फिर वाक्य के अंत में लिखा गया है, जो सही नहीं है. और तो और प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का वह अत्यन्त प्रसिद्ध बहादुर शाह ज़फ़र का शेर- 'गाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की, तख्त-ए-लन्दन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की' ग़लत छापा गया है. तख्त-ए-लन्दन की जगह 'तब तो लन्दन' छपा है. विश्वास है पुस्तक के अगले संस्करण में प्रूफ़ की तमाम भूलें सुधार ली जाएँगी. दस्तावेजी पाठ में हिज्जे की गलतियाँ भ्रम पैदा करती हैं. अतः उन पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए.

पुस्तक: '१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र', सम्पादक: डॉक्टर विद्यासागर आनंद, प्रकाशक: माडर्न पब्लिशिंग हाउस, ९ गोला मार्केट, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२. पृष्ठ ५७६, मूल्य ६०० रूपए.

मेरी नई ग़ज़ल

 प्यारे दोस्तो, बुजुर्ग कह गए हैं कि हमेशा ग़ुस्से और आक्रोश में भरे रहना सेहत के लिए ठीक नहीं होता। इसीलिए आज पेश कर रहा हूं अपनी एक रोमांटि...