This article narrates things about Vedik and Indus civilisation. शास्त्री जेसी फिलिप ने एक पोस्ट में मैसूर से श्रीलंका तक प्रचलित फणम या पणम PANAM सिक्कों coins का ज़िक्र किया था। उनकी यह पोस्ट काफी जानकारियां देती है. उसमें मैं भी कुछ जोड़ना चाहूंगा.
ऋगवैदिक काल Rigvedic period में व्यापार trade पर जिस समूह group का एकाधिकार monopoly था उसे 'पणि' कहकर पुकारते थे। प्रारंभ में व्यापार विनिमय barter system द्वारा होता था लेकिन बाद में निष्क Nishk नामक आभूषण का प्रयोग एक सिक्के के रूप में होने लगा था. लेकिन तब भी गायों की संख्या से किसी वस्तु का मूल्य आँका जाता था, जैसा कि ऋगवेद के एक मन्त्र में इन्द्र Lord Indra द्वारा गायें देकर प्रतिमा लेने का उल्लेख आया है. लेकिन उस काल के आर्यों Aryans के विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध होने के प्रमाण नहीं मिलते हैं.
उत्तरवैदिक काल में बड़े व्यापारियों को श्रेष्ठिन कह कर बुलाया जाने लगा। निष्क के अलावा शतमान, कर्षमाण आदि सिक्के भी प्रचलन में आ गए थे.
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि ऋगवैदिक काल में व्यापारियों को 'पणि' कहा जाता था। तब शास्त्री जी द्वारा सुझाया गया नाम फणम या पणम का मूल कहीं वही 'पणि' तो नहीं? द्रविड़ कुल की भाषाओं में अधिकांशतः संस्कृत की विभक्तियों का प्रयोग किया जाता है. अतः पणि से पणम या फणम हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं.
शास्त्री जी ने लिखा है कि तमिल Tamil और मलयालम Malyalam में पणम का मतलब होता है धन। ये दोनों द्रविड़ कुल की भाषाएं हैं. इससे एक कड़ी और जुड़ती है.
सिंधु घाटी की सभ्यता एक नगर सभ्यता थी। विद्वानों में अभी एकराय नहीं है लेकिन अधिकांश यही मानते हैं कि यह द्रविड़द्रविड़ सभ्यता थी। सिंधु घाटी से उत्खनन में मातृ देवी तथा शिव (पशुपतिनाथ) की मूर्तियाँ मिली हैं. इसे मातृसत्तात्मक समाज माना जाता है। यहाँ के निवासी काले रंग के थे। इनका व्यापार बहुत बढ़ा-चढ़ा हुआ था.
दक्षिण भारत में भी मातृसत्तात्मक समाज रहा है और मलयाली समाज में तो अब तक इसके अवशेष मिल जाते हैं. इन समाजों में शिव की पूजा होती है।
इसके विपरीत आर्यों के न तो विदेशो से व्यापारी सम्बन्ध थे न ही इनके पास कोई देवी थी, लगभग सारे देवता पुरूष थे। चूंकि सिंधु सभ्यता की लिपि आज तक पढ़ी नहीं जा सकी है इसलिए यह कहना कठिन है कि वे लोग व्यापारियों को क्या कह कर बुलाते थे. लेकिन यह स्थापित हो चुका है कि सिंधु सभ्यता के लोगों के व्यापारिक सम्बन्ध विदेशों से थे. इस काल के लोगों के व्यापारिक सम्बन्ध मिस्र, ईरान तथा बेबीलोनिया तक से थे. व्यापार जल और थल दोनों मार्गों से होता था.
सुमेरिया में ऐसी मोहरें प्राप्त हुई हैं जो हड़प्पा और मोहनजोदाडो में उत्खनन से प्राप्त मोहरों से समानता रखती हैं। मेसोपोटामिया में भी सिंधु सभ्यता के अनेक अवशेष तथा वस्तुओं का प्राप्त होना दोनों सभ्यताओं के सम्पर्क का प्रमाण है. इराक़ के एक स्थान पर वस्त्रों की गाँठें मिली हैं जिन पर सिंधु की मोहरों की छाप है. कहने का तात्पर्य यह कि सिंधु सभ्यता में एक बड़ा व्यापारी वर्ग मौजूद था.
अब बात आर्यों की करते हैं। यह भी लगभग सिद्ध हो चुका है कि आर्य मध्य एशिया से आए थे. जर्मन विद्वान मैक्समूलर के अनुसार ईरान के धार्मिक ग्रन्थ 'अवेस्ताँ' तथा आर्यों के धार्मिक ग्रन्थ 'वेद' में पर्याप्त समानता है अतः अधिक प्रतीत यह होता है कि दोनों जातियाँ पास-पास रहती होंगी. पशुपालन तथा कृषिकर्म आर्यों का प्रमुख व्यवसाय था जो विशाल मैदानों में ही सम्भव है. घास के ये विशाल मैदान मध्य एशिया में ही प्राप्त होते हैं. इसके अलावा आर्यों के देवता भी मध्य एशिया के देवी-देवताओं से काफी समानता रखते थे.
आर्यों के देवता इन्द्र को नगरों का नाश करने वाला कहा गया है। याद रखना चाहिए कि इन्द्र ऋगवैदिक काल में आर्यों का प्रधान देवता था. लेकिन ऋगवैदिक सभ्यता में नगर थे ही नहीं. ऋगवैदिक आर्य भवन निर्माण कला और नगर योजना भी नहीं जानते थे. ये लोग कच्चे या घास-फूस के मकान बनाते थे. यह एक पूरी तरह ग्रामीण सभ्यता थी. तब इन्द्र ने कौन से नगरों को नष्ट किया था? जाहिर है सिंधु सभ्यता के नगरों को. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आगे चलकर यही इन्द्र एक पीठ बन गया था जैसे कि आज के शंकराचार्य.
गार्डन वाइल्ड तथा व्हीलर के मत में सिंधु सभ्यता के पतन का मुख्य कारण आर्यों का आक्रमण था। दोनों विद्वानों के अनुसार सिंधु सभ्यता के नगरों में सड़कों, गलियों तथा भवनों के आंगनों में मानव अस्थिपंजर मिले हैं जिससे सिद्ध होता है कि बाहरी आक्रमणों में अनेक लोग मारे गए थे.
अब प्रश्न यह उठता है कि ऋगवैदिक सभ्यता में व्यापारियों को पणि कहा गया तो यह शब्द आया कहाँ से?यहाँ एक बात उल्लेखनीय है की सिंधु सभ्यता के लोगों को लेखन का ज्ञान था लेकिन वैदिक आर्य लेखन से अपरिचित थे। सिंधु घाटी में उत्खनन से अब तक २४६७ लिखित वस्तुएं प्राप्त हो चुकी हैं. इनकी लिपि इडियोग्राफिक (भावचित्रक) है. कुछ विद्वानों के मुताबिक यह चित्र लिपि है. प्रोफेसर लैगडैन का मानना है कि यह मिस्र की चित्र लिपि से अधिक समानता रखती थी.
आर्यों ने आक्रमण करके सिंधु सभ्यता के नगरों को क्रमशः नष्ट किया होगा। यह कोई एक दिन में तो हो नहीं गया था. आर्य सिंधु सभ्यता के सम्पर्क में आए होंगे. ऋग्वेद में ऐसे लोगों का उल्लेख मिलता है जिनका रंग काला है और नाक चपटी. जाहिर है ये सिंधु सभ्यता के लोग थे. ऐसे में आर्यों को वहाँ से सुनकर अनेक शब्द मिले होंगे. जब सिंधु लिपि पढ़ ली जायेगी तब पता चलेगा कि आर्य कुल की भाषाओं में कितने शब्द सिंधु लिपि के समाये हुए हैं. अंदाजा लगाया जा सकता है कि सिंधु सभ्यता में व्यापारियों को पणि कहा जाता रहा होगा.
गौर करने की बात यह भी है कि सिंधु घाटी से जो लगभग ५५० मुद्राएं मिली हैं उनका आकार गोलाकार तथा वर्गाकार दोनों तरह का है। मुद्राओं पर एक ओर पशुओं के चित्र बने हैं तथा दूसरी ओर कुछ लिखा हुआ है. इन मुद्राओं को कहीं पणम तो नहीं कहा जाता रहा होगा? जैसा कि द्रविड़ कुल के तमिल और मलयालम समाज में धन! पणि यानी व्यापारी और पणम माने मुद्रा! यह संयोग मात्र नहीं हो सकता कि मैसूर से लेकर श्रीलंका तक फणम या पणम नामक सिक्के चलते थे.
द्रविड़ मानते हैं कि श्रीलंका में सिंहली लोगों से पहले उनकी ही बस्तियां थीं। हो सकता है कि आर्यों के आक्रमण के बाद सिंधु घाटी की बची-खुची जातियाँ जान बचाकर दक्षिण भारत से भी परे श्रीलंका में जा बसी हों. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि सिंधु घाटी के निवासी समुद्र से परिचित थे लेकिन आर्य नदियों को ही समुद्र कहते थे. सिंधु घाटी का समाज मूलतः व्यापार आधारित समाज था और नदियों में नौकाओं तथा समुद्र में जहाजों के जरिये इनका व्यापार चलता था. हो सकता है यही द्रविड़ जातियाँ पणम जैसे अनेक शब्द समुद्र पार कर श्रीलंका तक अपने साथ ले गयी हों.
कुल मिलाकर यह दूर की कौड़ी लाने की कोशिश ही है.
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सोमवार, 5 मई 2008
सोमवार, 4 फ़रवरी 2008
हिन्दी में आधुनिक ज्ञान के शास्त्र तो लिखिए!
पिछले दिनों 'रिजेक्ट माल' और 'कबाड़खाना' में भाषा पर चर्चा चली। इसमें भाई इरफान, अभय तिवारी और उदयप्रकाश से लेकर किसी जनसेवक जी महाराज तक के विचार आप जान चुके। मैंने भी हिन्दी के प्रयोग को लेकर कुछ फुटकर विचार रखे थे. इन्हें आप उपर्युक्त ब्लोगों में पढ़ चुके हैं. अब अपने ब्लॉग पर डाल रहा हूँ. कृपया गौर फरमाएं-)
मेरी जानकारी में हिन्दुस्तानी अमीर खुसरो के समय उन सिपाहियों के बीच से उभरी है जो मुग़ल सेना में साथ-साथ रहते थे. इनमें कुछ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तथा अधिकांश ईरान, खुरासान, तुर्की और आज के अफगानिस्तान तथा उज़बेकिस्तान के जवान हुआ करते थे. इनकी आपसी बोल-चाल के मिश्रण से जो भाषा उभरी वह उत्तर भारत में पसरती गयी. यही रोजमर्रा के कामकाज में इस्तेमाल होने लगी और आगे चलकर इसी में व्यापार होने लगा, नौकरियाँ मिलने लगीं. आम सैनिक कार्रवाइयों तथा जनता के बीच अहम ऐलानों की भाषा भी यही बनती गयी. इसे ही उर्दू कहा जाता है. तत्कालीन शासकों को भी अरबी-फारसी की दुरूहता के आगे जनता की इस बोली-ठोली को तसलीम करना पड़ा.
उत्तर और पूर्वी भारत के जिस इलाके में जिस बोली का असर था, उसने उर्दू को अपना लहजा, अपना तेवर दिया. जैसे पछांही, अवधी, ब्रज, मगही, बघेली, बुन्देली, बांग्ला, उड़िया, इत्यादि.
वो कहते हैं न कि जिस भाषा में धंधा हो सकता है वही भाषा जिंदा बचती है. यह बात आज भी सच है. इसलिए मैं इसे हिन्दी-उर्दू या हिन्दी-अंग्रेजी के झगड़े से जोड़ कर नहीं देख पाता क्योकि इबारत स्पष्ट है. जो लोग इसे हिन्दू-मुस्लिम की भाषा या भारतीय-विदेशी का संघर्ष बताते हैं, उनका ऐसा करना समझ में आता है.
और अब तो हिन्दी-उर्दू के नाम पर कई सफ़ेद हाथी पल रहे हैं. ये कैसे मूल बात समझने देंगे?
मेरे जानते फारसी या संस्कृत आमजन की भाषा कभी नहीं रही. भारतेंदु हरिश्चन्द्र के ज़माने में जब हिन्दी पद्य से भाषा का गद्य में संक्रमण हुआ तब भाषा कुछ वैसी होती थी जैसी कि आज भी कर्मकांडी पंडित सत्यनारायण की कथा सुनते हुए उपयोग में लाते हैं-- (एक नमूना)-- 'तो सुकदेव जी महराज नारद जी से कहते भये.'
हिन्दी की शुरुआती कहानियों में (रानी केतकी की कहानी) यही हिन्दी आपको मिलेगी. इसे हिन्दी या उर्दू न कहकर खड़ी बोली कहा गया. यानी पद्यात्मक और घुमावदार न होकर जो थोड़े प्रयत्न से सीधे-सीधे बोली और लिखी जा सके. अगर हिन्दी की यात्रा इसी रास्ते चलती तो आज हिन्दी-उर्दू का झगड़ा शुरू न होता, न ही संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का पचड़ा सामने आता. क्योकि उस भाषा में अद्भुत प्रवाह था और वह भाषा के संक्रमण की स्वाभाविक प्रक्रिया थी.. उसे काशी के पंडित नहीं आगे बढ़ा रहे थे. वह सदल मिश्र, लल्लूलाल और इंशा अल्लाह खान तथा भारतेंदु जैसे जनता के लोगों के हाथ में थी.
लेकिन यहीं से उस हिन्दी -उर्दू का दुर्भाग्य शुरू होता है. इसे संस्कृत के पंडों ने झपट लिया. जैसे तुलसी दास को भाषा (अवधी) में रामचरितमानस लिखने पर काशी और अयोध्या के पंडों ने (मानस का हंस) जाति बाहर करने की कोशिशें की थीं, उसी तरह हिन्दी को विद्वज्जनों की भाषा में ढाल दिया गया. उधर उर्दू वालों ने अरबी-फ़ारसी के शब्द और शब्द बन्ध ठूंसने शुरू किए. नतीजा ये हुआ कि यह जनता के लिए दोनों तरफ से एक दुरूह भाषा बनती गयी. आगे चलकर इसे हिन्दुओं और मुसलमानों की भाषा का जामा पहना दिया गया. दोनों तरफ से सियासत शुरू हुई. अंग्रेजों ने इसे हवा दी और आज आज़ाद भारत में जिस तरह मुस्लिम राजनीति पस्त है उसी तरह उर्दू भी.
लेकिन हिन्दी ने इस भाषिक जकडन से मुक्त होने की कोशिश लगातार की है. परीक्षा में पास-फेल होने का झंझट ख़त्म होने के बाद कई लेखकों और अन्य क्षेत्र के जानकारों ने इसी हिन्दी का दामन थामा है. महात्मा गांधी इसी हिन्दी के हिमायती थे और इसे हिन्दुस्तानी कहते थे. मज़े की बात तो यह है कि जनता नेताओं के भाषण इसी हिन्दुस्तानी में समझती थी.
जैसा कि मैंने ऊपर याद दिलाया है कि भाषा वही ज़िंदा रहती है जिसमें धंधा चलता हो. इसमें यह और जोड़ लीजिये कि लोग उसी भाषा की ओर लपकते हैं जिसमें रोज़गार मिलता हो. आज कितने मुसलमान उर्दू पढ़ना चाहते हैं और कितने हिन्दू हिन्दी?
मैं जिस शहर में रहता हूँ, वहाँ शिवसेना मराठी के अलावा और कुछ चलने नहीं देना चाहती. लेकिन लोकल ट्रेन में उसका वश नहीं चलता. शिवसेना के कट्टर से कट्टर आदमी की बगल में मराठी आदमी भी बैठा हो तो वह हिन्दी में ही बात शुरू करता है. फिर यहाँ की हिन्दी का स्वरूप और उसका विकास देखना भी दिलचस्प है.
उलझन यह है कि लिखते समय आप किस तरह की हिन्दी का उपयोग करें? यह लिखने के स्वरूप पर निर्भर करता है. अगर औपचारिक लेखन है तो उसमें भाषा, शब्द-पद, वाक्य और व्याकरण के ख़ास नियमों को ध्यान में रखा जाना चाहिए. लेखन अगर अनौपचारिक है तो इन सारे बंधनों से छूट मिलनी चाहिए. ब्लॉग लेखन को लोग फिलहाल अनौपचारिक मान रहे हैं. तब इतनी हाय-तौबा क्यों? जो मर्जी लिखिए, हिंग्लिश में लिखिए, मुम्बईया में लिखिए, महमूद की हैदराबादी हिन्दी में लिखिए, या टिपिकल बिहारी में लिखिए.
जहाँ तक नुक्ते की बात है तो मेरा मत यह है कि या तो सही जगह नुक्ता लगाइये, या इसे भूल ही जाइए. ग़लत जगह नुक्ता लगाने से अर्थ का अनर्थ हो सकता है. अगर हम 'ख़ुदा' को 'खुदा' और 'ज़ेब' को 'जेब' लिखेंगे तो वही फ़जीहत होगी जो 'बदन' और 'वदन' का फ़र्क न कर पाने से होती है. यहाँ बता देने में कोई गुरेज नहीं है- ज़ेब का अर्थ है शोभा और अगर कभी आपकी जेब कटी होगी तो जेब का अर्थ आप जानते ही होंगे. बदन का अर्थ है देह, और वदन का अर्थ मुख.
हिन्दी भाषा की प्रकृति अविरल बहने की ही रही है.चाहे इसे विद्वानों ने कितना भी अपने कब्जे में करना चाहा, यह नदी के उद्दाम वेग की तरह आगे बढ़ती रही है. संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्द इसी में आपको मिलेंगे. अंग्रेजी के कितने ही शब्द हिन्दी कुल में शामिल हो चुके हैं. कुछ शब्द तो ऐसे हैं कि आपको सिर्फ इसी हिन्दी में मिलेंगे. जैसे जुगाड़मेंट. इसी हिन्दी में कई शब्द आपको उर्दू के लग सकते हैं लेकिन वे हैं असल में तुर्की, पुर्तगाली या फ्रांसीसी के.
अरबी, फ़ारसी और अग्रेज़ी से आए शब्दों की फेहरिस्त लम्बी है. इसकी वजह यह है कि इन्होंने भारत पर बड़े अरसे तक शासन किया. यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मुग़ल तुर्क थे इसलिए तुर्की के शब्द भी हिन्दी में बहुत मिलेंगे. कुछ उदाहरण पेश करता हूँ-
अंग्रेज़ी शब्द- साकइल, रेल, टिकट, स्टैंप, पुलिस, निब, स्टोव, टेलीफोन, फोटो, सिनेमा आदि.
फ़ारसी शब्द- औरत, खजांची, खुशामद, जमीन, सरकार, सिफारिश, अंगूर, आबाद, आस्तीन, गुलाब, चपाती, जंजीर, दरी, नमक, नाश्ता, परदा, प्याला आदि.
तुर्की शब्द- तोप, तमगा, दारोगा, बारूद, बंदूक, कुली, बेगम, बहादुर, लाश आदि.
फ्रांसीसी- रेस्तरां, कूपन, अंग्रेज़ी, कारतूस, रिपोर्ताज आदि.
जापानी- रिक्शा
पुर्तगाल- गिरजा, पादरी, काजू, चाबी, बिस्किट, कमीज़, तौलिया आदि.
उत्तर तथा पूर्वी भारत की बोलियों के तो हजारों शब्द हिन्दी में घुले-मिले हुए हैं. इन सबके हिन्दी में आने की एक यात्रा रही है. देवभाषा से पाली, प्राकृत और अपभ्रंस होते हुए.
फिर भी अगर कोई जिद करे कि वह तो पूर्वी हिन्दी लिखेगा. तो उसे किसने रोका है? कोई कहे कि वह संस्कृतनिष्ठ हिन्दी लिखेगा तो उसे कौन मना करता है? लेकिन उससे जब नफ़ा-नुकसान होगा तो वह ख़ुद राह लग जायेगा.
रही बात ज्ञान-विज्ञान की. तो भाई, पहले हिन्दी में आधुनिक ज्ञान के शास्त्र लिखो, नयी-नयी खोजें करो, तब न अपनी शब्दावालियां बनाओगे? या खाली कूदते रहोगे कि कम्यूटर अंग्रेजी में क्यों पढ़ाया जाता है या जीव विज्ञान के शब्द-पद ऐसी अबूझ हिन्दी में क्यों है? समझना चाहिए कि ये शब्द-पद या तो पर्यायवाची हैं या समानार्थी. अगर आपका शोध नहीं है तो आपकी शब्दावली भी नहीं होगी. तब तो ऐसे ही रट्टा मारना पड़ेगा और हिन्दी का रोना उसी तरह रोना पड़ेगा जिस तरह उर्दू वाले रोते हैं.
फिर भी हिन्दी की यह उदारता है कि स्पुतनिक तथा सॉफ्टवेयर जैसे शब्द लगते ही नहीं कि ये रूसी और अंग्रेज़ी के हैं. है न ये अजस्र और अविरल धारा!
मेरा सुझाव यह है कि फिलहाल आप इसी हिन्दी का इस्तेमाल करें, जिसका बखान मैं ऊपर कर आया हूँ. और हो सके तो इसमें कुछ योगदान करते चलें.
मेरी जानकारी में हिन्दुस्तानी अमीर खुसरो के समय उन सिपाहियों के बीच से उभरी है जो मुग़ल सेना में साथ-साथ रहते थे. इनमें कुछ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तथा अधिकांश ईरान, खुरासान, तुर्की और आज के अफगानिस्तान तथा उज़बेकिस्तान के जवान हुआ करते थे. इनकी आपसी बोल-चाल के मिश्रण से जो भाषा उभरी वह उत्तर भारत में पसरती गयी. यही रोजमर्रा के कामकाज में इस्तेमाल होने लगी और आगे चलकर इसी में व्यापार होने लगा, नौकरियाँ मिलने लगीं. आम सैनिक कार्रवाइयों तथा जनता के बीच अहम ऐलानों की भाषा भी यही बनती गयी. इसे ही उर्दू कहा जाता है. तत्कालीन शासकों को भी अरबी-फारसी की दुरूहता के आगे जनता की इस बोली-ठोली को तसलीम करना पड़ा.
उत्तर और पूर्वी भारत के जिस इलाके में जिस बोली का असर था, उसने उर्दू को अपना लहजा, अपना तेवर दिया. जैसे पछांही, अवधी, ब्रज, मगही, बघेली, बुन्देली, बांग्ला, उड़िया, इत्यादि.
वो कहते हैं न कि जिस भाषा में धंधा हो सकता है वही भाषा जिंदा बचती है. यह बात आज भी सच है. इसलिए मैं इसे हिन्दी-उर्दू या हिन्दी-अंग्रेजी के झगड़े से जोड़ कर नहीं देख पाता क्योकि इबारत स्पष्ट है. जो लोग इसे हिन्दू-मुस्लिम की भाषा या भारतीय-विदेशी का संघर्ष बताते हैं, उनका ऐसा करना समझ में आता है.
और अब तो हिन्दी-उर्दू के नाम पर कई सफ़ेद हाथी पल रहे हैं. ये कैसे मूल बात समझने देंगे?
मेरे जानते फारसी या संस्कृत आमजन की भाषा कभी नहीं रही. भारतेंदु हरिश्चन्द्र के ज़माने में जब हिन्दी पद्य से भाषा का गद्य में संक्रमण हुआ तब भाषा कुछ वैसी होती थी जैसी कि आज भी कर्मकांडी पंडित सत्यनारायण की कथा सुनते हुए उपयोग में लाते हैं-- (एक नमूना)-- 'तो सुकदेव जी महराज नारद जी से कहते भये.'
हिन्दी की शुरुआती कहानियों में (रानी केतकी की कहानी) यही हिन्दी आपको मिलेगी. इसे हिन्दी या उर्दू न कहकर खड़ी बोली कहा गया. यानी पद्यात्मक और घुमावदार न होकर जो थोड़े प्रयत्न से सीधे-सीधे बोली और लिखी जा सके. अगर हिन्दी की यात्रा इसी रास्ते चलती तो आज हिन्दी-उर्दू का झगड़ा शुरू न होता, न ही संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का पचड़ा सामने आता. क्योकि उस भाषा में अद्भुत प्रवाह था और वह भाषा के संक्रमण की स्वाभाविक प्रक्रिया थी.. उसे काशी के पंडित नहीं आगे बढ़ा रहे थे. वह सदल मिश्र, लल्लूलाल और इंशा अल्लाह खान तथा भारतेंदु जैसे जनता के लोगों के हाथ में थी.
लेकिन यहीं से उस हिन्दी -उर्दू का दुर्भाग्य शुरू होता है. इसे संस्कृत के पंडों ने झपट लिया. जैसे तुलसी दास को भाषा (अवधी) में रामचरितमानस लिखने पर काशी और अयोध्या के पंडों ने (मानस का हंस) जाति बाहर करने की कोशिशें की थीं, उसी तरह हिन्दी को विद्वज्जनों की भाषा में ढाल दिया गया. उधर उर्दू वालों ने अरबी-फ़ारसी के शब्द और शब्द बन्ध ठूंसने शुरू किए. नतीजा ये हुआ कि यह जनता के लिए दोनों तरफ से एक दुरूह भाषा बनती गयी. आगे चलकर इसे हिन्दुओं और मुसलमानों की भाषा का जामा पहना दिया गया. दोनों तरफ से सियासत शुरू हुई. अंग्रेजों ने इसे हवा दी और आज आज़ाद भारत में जिस तरह मुस्लिम राजनीति पस्त है उसी तरह उर्दू भी.
लेकिन हिन्दी ने इस भाषिक जकडन से मुक्त होने की कोशिश लगातार की है. परीक्षा में पास-फेल होने का झंझट ख़त्म होने के बाद कई लेखकों और अन्य क्षेत्र के जानकारों ने इसी हिन्दी का दामन थामा है. महात्मा गांधी इसी हिन्दी के हिमायती थे और इसे हिन्दुस्तानी कहते थे. मज़े की बात तो यह है कि जनता नेताओं के भाषण इसी हिन्दुस्तानी में समझती थी.
जैसा कि मैंने ऊपर याद दिलाया है कि भाषा वही ज़िंदा रहती है जिसमें धंधा चलता हो. इसमें यह और जोड़ लीजिये कि लोग उसी भाषा की ओर लपकते हैं जिसमें रोज़गार मिलता हो. आज कितने मुसलमान उर्दू पढ़ना चाहते हैं और कितने हिन्दू हिन्दी?
मैं जिस शहर में रहता हूँ, वहाँ शिवसेना मराठी के अलावा और कुछ चलने नहीं देना चाहती. लेकिन लोकल ट्रेन में उसका वश नहीं चलता. शिवसेना के कट्टर से कट्टर आदमी की बगल में मराठी आदमी भी बैठा हो तो वह हिन्दी में ही बात शुरू करता है. फिर यहाँ की हिन्दी का स्वरूप और उसका विकास देखना भी दिलचस्प है.
उलझन यह है कि लिखते समय आप किस तरह की हिन्दी का उपयोग करें? यह लिखने के स्वरूप पर निर्भर करता है. अगर औपचारिक लेखन है तो उसमें भाषा, शब्द-पद, वाक्य और व्याकरण के ख़ास नियमों को ध्यान में रखा जाना चाहिए. लेखन अगर अनौपचारिक है तो इन सारे बंधनों से छूट मिलनी चाहिए. ब्लॉग लेखन को लोग फिलहाल अनौपचारिक मान रहे हैं. तब इतनी हाय-तौबा क्यों? जो मर्जी लिखिए, हिंग्लिश में लिखिए, मुम्बईया में लिखिए, महमूद की हैदराबादी हिन्दी में लिखिए, या टिपिकल बिहारी में लिखिए.
जहाँ तक नुक्ते की बात है तो मेरा मत यह है कि या तो सही जगह नुक्ता लगाइये, या इसे भूल ही जाइए. ग़लत जगह नुक्ता लगाने से अर्थ का अनर्थ हो सकता है. अगर हम 'ख़ुदा' को 'खुदा' और 'ज़ेब' को 'जेब' लिखेंगे तो वही फ़जीहत होगी जो 'बदन' और 'वदन' का फ़र्क न कर पाने से होती है. यहाँ बता देने में कोई गुरेज नहीं है- ज़ेब का अर्थ है शोभा और अगर कभी आपकी जेब कटी होगी तो जेब का अर्थ आप जानते ही होंगे. बदन का अर्थ है देह, और वदन का अर्थ मुख.
हिन्दी भाषा की प्रकृति अविरल बहने की ही रही है.चाहे इसे विद्वानों ने कितना भी अपने कब्जे में करना चाहा, यह नदी के उद्दाम वेग की तरह आगे बढ़ती रही है. संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्द इसी में आपको मिलेंगे. अंग्रेजी के कितने ही शब्द हिन्दी कुल में शामिल हो चुके हैं. कुछ शब्द तो ऐसे हैं कि आपको सिर्फ इसी हिन्दी में मिलेंगे. जैसे जुगाड़मेंट. इसी हिन्दी में कई शब्द आपको उर्दू के लग सकते हैं लेकिन वे हैं असल में तुर्की, पुर्तगाली या फ्रांसीसी के.
अरबी, फ़ारसी और अग्रेज़ी से आए शब्दों की फेहरिस्त लम्बी है. इसकी वजह यह है कि इन्होंने भारत पर बड़े अरसे तक शासन किया. यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मुग़ल तुर्क थे इसलिए तुर्की के शब्द भी हिन्दी में बहुत मिलेंगे. कुछ उदाहरण पेश करता हूँ-
अंग्रेज़ी शब्द- साकइल, रेल, टिकट, स्टैंप, पुलिस, निब, स्टोव, टेलीफोन, फोटो, सिनेमा आदि.
फ़ारसी शब्द- औरत, खजांची, खुशामद, जमीन, सरकार, सिफारिश, अंगूर, आबाद, आस्तीन, गुलाब, चपाती, जंजीर, दरी, नमक, नाश्ता, परदा, प्याला आदि.
तुर्की शब्द- तोप, तमगा, दारोगा, बारूद, बंदूक, कुली, बेगम, बहादुर, लाश आदि.
फ्रांसीसी- रेस्तरां, कूपन, अंग्रेज़ी, कारतूस, रिपोर्ताज आदि.
जापानी- रिक्शा
पुर्तगाल- गिरजा, पादरी, काजू, चाबी, बिस्किट, कमीज़, तौलिया आदि.
उत्तर तथा पूर्वी भारत की बोलियों के तो हजारों शब्द हिन्दी में घुले-मिले हुए हैं. इन सबके हिन्दी में आने की एक यात्रा रही है. देवभाषा से पाली, प्राकृत और अपभ्रंस होते हुए.
फिर भी अगर कोई जिद करे कि वह तो पूर्वी हिन्दी लिखेगा. तो उसे किसने रोका है? कोई कहे कि वह संस्कृतनिष्ठ हिन्दी लिखेगा तो उसे कौन मना करता है? लेकिन उससे जब नफ़ा-नुकसान होगा तो वह ख़ुद राह लग जायेगा.
रही बात ज्ञान-विज्ञान की. तो भाई, पहले हिन्दी में आधुनिक ज्ञान के शास्त्र लिखो, नयी-नयी खोजें करो, तब न अपनी शब्दावालियां बनाओगे? या खाली कूदते रहोगे कि कम्यूटर अंग्रेजी में क्यों पढ़ाया जाता है या जीव विज्ञान के शब्द-पद ऐसी अबूझ हिन्दी में क्यों है? समझना चाहिए कि ये शब्द-पद या तो पर्यायवाची हैं या समानार्थी. अगर आपका शोध नहीं है तो आपकी शब्दावली भी नहीं होगी. तब तो ऐसे ही रट्टा मारना पड़ेगा और हिन्दी का रोना उसी तरह रोना पड़ेगा जिस तरह उर्दू वाले रोते हैं.
फिर भी हिन्दी की यह उदारता है कि स्पुतनिक तथा सॉफ्टवेयर जैसे शब्द लगते ही नहीं कि ये रूसी और अंग्रेज़ी के हैं. है न ये अजस्र और अविरल धारा!
मेरा सुझाव यह है कि फिलहाल आप इसी हिन्दी का इस्तेमाल करें, जिसका बखान मैं ऊपर कर आया हूँ. और हो सके तो इसमें कुछ योगदान करते चलें.
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