सच कहूं तो मैं लीडरों के के प्रति इतनी बे-नाकामी से घिरा था कि यह अद्भुत कविता याद ही नहीं आयी. कल एक चैनल तो सीधे हमारी ब्लॉग कम्युनिटी से बाबा की 'मंत्र' कविता के कुछ अच्छे लोगों द्वारा (मैं इरफ़ान के ब्लॉग से वहां गया था) गाए गए अंश सुना रहा था और बेशर्मी से उस गाने वाली टीम का क्रेडिट भी नहीं दिया गया. अब यहाँ पेश है बाबा की वो कविता जो दरअसल टिकेट पा लेने का सिनेरियो है. अब इस बहुत बड़े कवि की खासियत ये है कि यह कविता आज होने वाले फैसले की जान है. अब बाबा-
'स्वेत-स्याम-रतनार' अँखियाँ निहार के
सिंडकेटी प्रभुओं की पग धूर झार के
लौटे हैं दिल्ली से कल टिकेट मार के
खिले हैं दांत ज्यों दाने अनार के
आये दिन बहार के!
बन गया निजी काम-
दिलाएंगे और अन्न दान के, उधार के
टल गए संकट यूपी-बिहार के
लौटे टिकट मार के
आये दिन बहार के!
सपने दिखे कार के
गगन-बिहार के
सीखेंगे नखरे, समुन्दर पार के
लौटे टिकट मार के
आए दिन बहार के!
मैं समझता हूँ बाबा की इस कविता को चुनाव बाद के आरंभिक परिदृश्य तक ले जाया जा सकता है जो उनका प्रमुख ध्येय था. बकिया आप लोग समझदार हैं.
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शुक्रवार, 15 मई 2009
गुरुवार, 6 नवंबर 2008
एक लीटर खून
दोस्तो,
देर हुई आने में. करिए क्षमा!
एक लीटर खून
सुनते आए हैं शरीर में होता है कई लीटर खून
कहते हैं काले के शरीर में होता है गोरे से एक लीटर ज्यादा खून
यह एक लीटर बेसी खून ज्यादा उबाल मारता है
और निर्णायक क्षणों में भारी पड़ जाता है
गोरे लोग शायद इसीलिए बहाना चाहते थे
मार्टिन लूथर किंग जूनियर और उसके जैसे देह के काले फरिश्तों का खून.
...अब ये एक लीटर खून बहाने का मामला था
या खून से खून का जोश ख़त्म करने का...
हिसाब-किताब बराबर करने का तो यहाँ कोई समीकरण भी नहीं बनता
क्योंकि गोरे की नज़र में खून तो काला था ही;
काले व्यक्ति की आत्मा भी काली थी
सच्चाई यह है कि सभ्यता ने इंतजार किया
और तय फ़रमाया कि लंबे समय तक बहाते रहना है काले व्यक्ति का खून
हमारी पीढ़ियों को भी लगता रहा है कि उनकी रगों में
सदियों से बनता आया है कई-कई लीटर अधिक खून
और बहाया जाता रहा है सड़कों पर इस कदर
कि युद्धों में बहे खून को पसीना आ जाए!
लेकिन हमारे खून का हिसाब-किताब दर्ज़ नहीं है किसी इतिहास में
इधर चुन-चुन कर बधिया किया जा रहा है देश के चंद बाशिंदों को
कि वे ठंडा करें अपने खून का जोश
या तैयार रहें धरती पर रहने का इरादा छोड़ने के लिए
वरना बिखरा दिया जायेगा चाँद का खून उनके आँगन में
क्या हुआ जो उनके शरीर में नहीं है एक बूँद भी ज्यादा खून!
-विजयशंकर चतुर्वेदी
देर हुई आने में. करिए क्षमा!
एक लीटर खून
सुनते आए हैं शरीर में होता है कई लीटर खून
कहते हैं काले के शरीर में होता है गोरे से एक लीटर ज्यादा खून
यह एक लीटर बेसी खून ज्यादा उबाल मारता है
और निर्णायक क्षणों में भारी पड़ जाता है
गोरे लोग शायद इसीलिए बहाना चाहते थे
मार्टिन लूथर किंग जूनियर और उसके जैसे देह के काले फरिश्तों का खून.
...अब ये एक लीटर खून बहाने का मामला था
या खून से खून का जोश ख़त्म करने का...
हिसाब-किताब बराबर करने का तो यहाँ कोई समीकरण भी नहीं बनता
क्योंकि गोरे की नज़र में खून तो काला था ही;
काले व्यक्ति की आत्मा भी काली थी
सच्चाई यह है कि सभ्यता ने इंतजार किया
और तय फ़रमाया कि लंबे समय तक बहाते रहना है काले व्यक्ति का खून
हमारी पीढ़ियों को भी लगता रहा है कि उनकी रगों में
सदियों से बनता आया है कई-कई लीटर अधिक खून
और बहाया जाता रहा है सड़कों पर इस कदर
कि युद्धों में बहे खून को पसीना आ जाए!
लेकिन हमारे खून का हिसाब-किताब दर्ज़ नहीं है किसी इतिहास में
इधर चुन-चुन कर बधिया किया जा रहा है देश के चंद बाशिंदों को
कि वे ठंडा करें अपने खून का जोश
या तैयार रहें धरती पर रहने का इरादा छोड़ने के लिए
वरना बिखरा दिया जायेगा चाँद का खून उनके आँगन में
क्या हुआ जो उनके शरीर में नहीं है एक बूँद भी ज्यादा खून!
-विजयशंकर चतुर्वेदी
सोमवार, 21 जुलाई 2008
विश्वास मत: फ़िल्म की कहानी का अंत बता दूँ?

लोकसभा में २२ जुलाई २००८ का ड्रामा देखने का रोमांच ख़त्म हो गया है. दरअसल अगर जासूसी फ़िल्म की कहानी का अंत बता दिया जाए तो फ़िल्म क्या देखनी! लेकिन वह अंत बताने से पहले मैं अपने दिल की बात करना चाहूंगा
२० और २१ जुलाई को मैं ठाणे लोकसभा क्षेत्र में था. वहाँ मैंने घूम-घूम कर कई लोगों से बातचीत की. घोड़बन्दर रोड गया, भायंदर गया, मीरा रोड में थमा, ठाणे शहर में घूमा, कलवा गया, दिवा गया, कल्याण फिरा, मुम्ब्रा में तहकीकात करता रहा. एटमी करार के बारे में बात की, मंहगाई के बारे में पूछा. लोगों को एटमी डील के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था, लेकिन मंहगाई के बारे में सबने शिकायत की. अलबत्ता मीरा रोड और मुम्ब्रा में किसी ने मुसलमानों को यह बता रखा था कि यह डील मुसलमानों के खिलाफ़ है क्योंकि बुश के साथ हो रही है. बुश कौन है, इस पर ज्यादातर लोगों ने चुप्पी साध रखी थी. इसका मतलब पता ही नहीं! (यहाँ स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मैंने जिन लोगों से बात की उनमें से ९०% लोग सड़क पर मिले.)

इस पर मैं लोगों में धंसा और मैंने लोगों से जानना चाहा कि क्या किसी राजनीतिक दल ने, उसके किसी भी स्तर के पदाधिकारी ने राय ली है कि लोकसभा में विश्वासमत के दौरान क्षेत्र का सांसद एटमी डील पर किस गठबंधन की तरफ मतदान करे? एनडीए समेत नए गठजोड़ की तरफ या यूपीए की तरफ? जवाब था कि इस बारे में वे लोग सिर्फ टीवी चैनलों में देख-सुन रहे हैं या अख़बारों में पढ़ रहे हैं.

मेरा कहना यह है कि जब सांसद वोट माँगने घर-घर जा सकते हैं तो एटमी डील जैसे गंभीर मुद्दे पर घर-घर से राय क्यों नहीं ले सकते? या अपने पदाधिकारियों से राय क्यों नहीं मंगा सकते? उसके बाद उन्हें अपना मन बनाने का पूरा अधिकार है. (कुछ आशंकाओं-कुशंकाओं सहित).
हम सभी जानते हैं कि हमारा सांसद चुन कर जब गया था तब मुद्दे कुछ और थे, विश्वासमत के दौरान मुद्दा कुछ और है. क्या एनडीए या यूपीए के सांसद अपने मतदाताओं से यह पूछना जरूरी नहीं समझते कि आख़िर एटमी डील पर वे क्या सोचते हैं? या फिर क्या ये सांसद यह समझते हैं कि उनके मतदाताओं की इतनी औकात है कि वे एटमी डील पर अपनी कोई राय दे सकें? जब ये लोग चुने गए थे तब एटमी डील मुद्दा नहीं था, ऐसे में क्या इनका अपने मतदाताओं से यह पूछना लाजिमी नहीं है कि इस मुद्दे पर वे क्या करें?
लोकसभा में चुन कर गए सांसदों को अपना मत बेचने का क्या अधिकार है? क्या इसका अर्थ यह न लगाया जाए कि चुन कर जाने के बाद उन्होंने अपने लाखों मतदाताओं को धर बेचा है? हो सकता है कि मन्दिर-मस्जिद और हिन्दू-मुस्लिम जैसे भावनात्मक मुद्दों पर सांसद चुन कर भेजने वाला मतदाता एटमी डील पर अपनी कुछ और राय रखता हो! ऐसे में नाकारा सांसदों को संसद से वापस बुलाने की जनता की पहल का विचार इन सौदेबाजों की नज़र में कितना निरर्थक है, यह सहज ही समझ में आता है.
और अब फ़िल्म का अंत...
मेरे एक दिल्ली स्थित सूत्र ने बताया है कि अजित सिंह और देवगौड़ा को यह सौदा करके बीएसपी खेमे में भेजा गया है कि तुम्हारे बेटे का मंत्री पद पक्का है, कल तक नाराज़ होने का अभिनय करो ताकि दुश्मन मुगालते में रहे. लेकिन इंतजाम इतना हो चुका है कि देवगौड़ा के बगैर भी मनमोहन सरकार नहीं गिरनेवाली.
अब तेल देखो और तेल की धार देखो. कल मिलेंगे ...शाम को!
गुरुवार, 29 मई 2008
अंगरेजी का खतरनाक अंडरवर्ल्ड (अन्तिम)
पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा कि यह बात सही है कि आप भाषा किसी पर थोप नहीं सकते पर राष्ट्रीय भावना के विकास के सहारे राष्ट्रीय भाषा का विचार धीरे-धीरे अपनी जगह ले सकता है। लेकिन विज्ञान और तकनीक की विचारधारा पर जब तक संप्रभु वर्ग का नियंत्रण बना रहेगा तब तक अंगरेजी को भारतीय भाषायें पदच्युत नहीं कर सकतीं। अब आगे....
यहाँ मैं अपने गिरेबान में झांकने का प्रसंग शुरू कर रहा हूँ.
उच्च शिक्षा के लिए हमारे पास वैकल्पिक भाषा या भाषाएं क्या हैं? क्या आईआईटी, आईआईएम्, एमबीए, चिकित्सा या क़ानून की उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों के लिए आधुनिक भारतीय भाषाओं में ज्ञान के शास्त्र लिखे जा रहे हैं, या मौजूद हैं?
सत्ता की भाषा की राजनीति इतनी सूक्ष्म होती है कि अंग्रेजों को हमने दैहिक तौर पर तो भगा दिया लेकिन अंगरेजी को मानसिक तौर पर नहीं हटा पाये. वह दैत्य बनकर हमसे अपना काम करवा रही है. जिसे हम आजादी के बाद पनचक्की समझते थे, वह सचमुच का राक्षस निकला. तुर्की और इजरायल जैसे देशों से हमने कोई सबक हासिल नहीं किया. आज हालत यह है कि अंगरेजी के लिए भारतीय जनता जाने-अनजाने अपनी ही भाषाओं का कत्लेआम मचाये हुए है.
जो लोग बार-बार कहते हैं कि वे अंगरेजी के विरोधी नहीं हैं, समस्या की जड़ वही हैं. उन्हें अंगरेजी आती है और वे अंग्रेजियत का चरम लाभ इस व्यवस्था से उठा रहे हैं. ऐसे में वे अंगरेजी का विरोध क्यों करेंगे? वे अंगरेजी के विरोधी हुए बिना हिन्दी को उरूज पर लाना चाहते हैं! कितने भोले लोग हैं ये! इन्हीं लोगों की वजह से अंगरेजी सिंहासन पर चढ़ती गयी और हिन्दी पददलित होती चली गयी. दूसरी भाषाओं की स्थिति अंगरेजी के बरक्श हिन्दी से कहीं बेहतर है क्योंकि वे यह कभी नहीं कहते कि वे अंगरेजी के विरोधी नहीं है.
अंगरेजी का विरोध जड़ से ही न होने के कारण आज़ादी के ६० सालों में करोड़ों लोग भारतीय भाषाएं नहीं, अंगरेजी सीख गए हैं. ऐसे माहौल में कैसी फसल उग रही है, यह सब देख रहे हैं. इसकी वजह यह है कि भाषा की संरचना समाज संरचना में परजीवीपन, जटिलता और विकृत रुचियाँ विकसित करती जाती है. नतीजतन विज्ञान और तकनीक, शिक्षा तथा भाषा योजना में उन्हीं का बर्चस्व बढ़ता जाता है जिनकी मुखालफत में हम अभियान चला रहे होते हैं.
ज्यादा विकट स्थितियां शोध के क्षेत्र में है. सारे शोध अंगरेजी में हो रहे हैं. ऐसे में कोई शोध भारतीय भाषाओं से तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाता. भाषाई साजिश के तहत भारतीयों के मन में यह बात भर दी गयी है कि वैज्ञानिक शोध और वैज्ञानिक शिक्षा सिर्फ़ और सिर्फ़ अंगरेजी में ही सम्भव है. इसमें सबसे बड़ा खेल सत्ता-संस्थानों, पूँजी के तांडव और राज्य की उदासीनता का है. भारतीय भाषाओं में शोध के लिए न तो पूँजी उपलब्ध है न ही राज्य का प्रोत्साहन, और सत्ता चूंकि अंगरेजी संस्कृति के लोग चलाते है, इसलिए वे सहयोग करने के बजाये अवरोधी कारक बने रहते हैं.
इस पसमंजर में 'भारतीय ज्ञान आयोग' ने पिछले दिनों खतरनाक सिफारिशें की हैं. इनमें सबसे ज़्यादा घातक वह सिफारिश है जिसमें भारतीय स्कूलों में पहली कक्षा से ही अंगरेजी पढ़ाने की बात ज़ोर देकर कही गयी है. यह कदम भारत को वैश्वीकरण के इस दौर में प्रतिष्ठित करने के लिए जरूरी बताया जा रहा है. लेकिन ज़रा कल्पना कीजिये कि अंगरेजी संस्कारों वाली वह भारतीय नस्ल इस देश को विश्व में महान भारतवर्ष के तौर पर प्रतिष्ठित करेगी या पश्चिम और अमेरिका के पिछलग्गू के रूप में?
अंगरेजी की वासना आज इतनी प्रचंड है कि छोटे-छोटे गाँवों तक में टपरे बाँध कर अधकचरे कॉन्वेंट स्कूल खोले जा रहे हैं. मैं अपने अनुभव से बताता हूँ. मेरी आयु अभी ३८ वर्ष है. हमारे बचपन में सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में हिन्दी शिक्षा का डंका बजता था. देखते-देखते निजी स्कूल खुले जिनमें पढ़ाई का माध्यम तो हिन्दी ही रहा लेकिन शिक्षा का स्तर गिरता चला गया. अब टपरा छाप कॉन्वेंट स्कूल जम कर पैसा वसूल रहे हैं लेकिन गाँव वाले इस उम्मीद में अपने बच्चों को निजी स्कूलों से निकाल कर इन कोन्वेंटों में दाखिल करा रहे हैं कि इन्हीं में पढ़ने से उनके बच्चों को नौकरी मिल सकती है.
अगर आप चाहते हैं कि यह स्थिति बदले तो बाज़ार की शक्तियों से टकराना होगा. अंगरेजी के बाज़ार से लड़े बिना अगर आप भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठा दिलाना चाहते हैं तो वह दिवास्वप्न ही साबित होगा. भारतीय भाषाओं के पक्ष में युद्ध छेड़ने वालों के रवैये से स्पष्ट होता है कि अंगरेजी बाज़ार की भाषा बनी रहे तथा हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाएं अस्मिता की भाषा के रूप में प्रतिष्टित हों. विचार करने की बात है कि अगर अंगरेजी बाज़ार और अच्छे रोज़गार (ऊंची नौकरी और बड़े कारोबार) की भाषा बनी रहती है तो आप समाज के लोगों पर कैसे दबाव डालेंगे कि वे अपने बच्चों को मातृभाषा (हिन्दी, मराठी, बांगला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि) में शिक्षा दिलाएं?
आख़िर में यही कहूंगा कि जो लोग इस बात से भयातुर हैं कि जल में रह कर मगरमच्छ से बैर कौन करे तो उनको समझ लेना चाहिए कि मगरमच्छ विदेशी है और जल हमारी मातृभाषा का है. अंग्रेजों से आजीवन भाषाई संग्राम छेड़ने वाले भारतेंदु हरिश्चन्द्र की यह सीख हमेशा याद रखिये-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को सूल.
स्थितियां यह हैं कि भारतीय भाषाएं वैज्ञानिक और तकनीकी संस्कृति के विकास में योगदान नहीं कर पा रही हैं. इससे उनका हाशिये पर चला जाना आश्चर्य की बात नहीं. विशेषज्ञता, विविधता और महत्वपूर्ण होने के बावजूद भारतीय भाषाओं के विद्वानों ने मिल कर काम करने की सीख अब तक नहीं ली. इसीलिए उनकी भाषाओं में अंगरेजी के मुकाबले बुनियादी परिवर्त्तन नहीं हो सका है. भाषा और सत्ता के संबंधों में मौजूदा पैटर्न नहीं बदला जा सका. अंगरेजी की दबंग प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने में भारतीय बुद्धिजीवी नाकामयाब रहे हैं और गाहे-बगाहे अंगरेजी बुद्धिजीवियों की जमात में शामिल होकर दण्डवत मुद्रा में आ जाते हैं.
यहाँ मैं अपने गिरेबान में झांकने का प्रसंग शुरू कर रहा हूँ.
उच्च शिक्षा के लिए हमारे पास वैकल्पिक भाषा या भाषाएं क्या हैं? क्या आईआईटी, आईआईएम्, एमबीए, चिकित्सा या क़ानून की उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों के लिए आधुनिक भारतीय भाषाओं में ज्ञान के शास्त्र लिखे जा रहे हैं, या मौजूद हैं?
सत्ता की भाषा की राजनीति इतनी सूक्ष्म होती है कि अंग्रेजों को हमने दैहिक तौर पर तो भगा दिया लेकिन अंगरेजी को मानसिक तौर पर नहीं हटा पाये. वह दैत्य बनकर हमसे अपना काम करवा रही है. जिसे हम आजादी के बाद पनचक्की समझते थे, वह सचमुच का राक्षस निकला. तुर्की और इजरायल जैसे देशों से हमने कोई सबक हासिल नहीं किया. आज हालत यह है कि अंगरेजी के लिए भारतीय जनता जाने-अनजाने अपनी ही भाषाओं का कत्लेआम मचाये हुए है.
जो लोग बार-बार कहते हैं कि वे अंगरेजी के विरोधी नहीं हैं, समस्या की जड़ वही हैं. उन्हें अंगरेजी आती है और वे अंग्रेजियत का चरम लाभ इस व्यवस्था से उठा रहे हैं. ऐसे में वे अंगरेजी का विरोध क्यों करेंगे? वे अंगरेजी के विरोधी हुए बिना हिन्दी को उरूज पर लाना चाहते हैं! कितने भोले लोग हैं ये! इन्हीं लोगों की वजह से अंगरेजी सिंहासन पर चढ़ती गयी और हिन्दी पददलित होती चली गयी. दूसरी भाषाओं की स्थिति अंगरेजी के बरक्श हिन्दी से कहीं बेहतर है क्योंकि वे यह कभी नहीं कहते कि वे अंगरेजी के विरोधी नहीं है.
अंगरेजी का विरोध जड़ से ही न होने के कारण आज़ादी के ६० सालों में करोड़ों लोग भारतीय भाषाएं नहीं, अंगरेजी सीख गए हैं. ऐसे माहौल में कैसी फसल उग रही है, यह सब देख रहे हैं. इसकी वजह यह है कि भाषा की संरचना समाज संरचना में परजीवीपन, जटिलता और विकृत रुचियाँ विकसित करती जाती है. नतीजतन विज्ञान और तकनीक, शिक्षा तथा भाषा योजना में उन्हीं का बर्चस्व बढ़ता जाता है जिनकी मुखालफत में हम अभियान चला रहे होते हैं.
ज्यादा विकट स्थितियां शोध के क्षेत्र में है. सारे शोध अंगरेजी में हो रहे हैं. ऐसे में कोई शोध भारतीय भाषाओं से तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाता. भाषाई साजिश के तहत भारतीयों के मन में यह बात भर दी गयी है कि वैज्ञानिक शोध और वैज्ञानिक शिक्षा सिर्फ़ और सिर्फ़ अंगरेजी में ही सम्भव है. इसमें सबसे बड़ा खेल सत्ता-संस्थानों, पूँजी के तांडव और राज्य की उदासीनता का है. भारतीय भाषाओं में शोध के लिए न तो पूँजी उपलब्ध है न ही राज्य का प्रोत्साहन, और सत्ता चूंकि अंगरेजी संस्कृति के लोग चलाते है, इसलिए वे सहयोग करने के बजाये अवरोधी कारक बने रहते हैं.
इस पसमंजर में 'भारतीय ज्ञान आयोग' ने पिछले दिनों खतरनाक सिफारिशें की हैं. इनमें सबसे ज़्यादा घातक वह सिफारिश है जिसमें भारतीय स्कूलों में पहली कक्षा से ही अंगरेजी पढ़ाने की बात ज़ोर देकर कही गयी है. यह कदम भारत को वैश्वीकरण के इस दौर में प्रतिष्ठित करने के लिए जरूरी बताया जा रहा है. लेकिन ज़रा कल्पना कीजिये कि अंगरेजी संस्कारों वाली वह भारतीय नस्ल इस देश को विश्व में महान भारतवर्ष के तौर पर प्रतिष्ठित करेगी या पश्चिम और अमेरिका के पिछलग्गू के रूप में?
अंगरेजी की वासना आज इतनी प्रचंड है कि छोटे-छोटे गाँवों तक में टपरे बाँध कर अधकचरे कॉन्वेंट स्कूल खोले जा रहे हैं. मैं अपने अनुभव से बताता हूँ. मेरी आयु अभी ३८ वर्ष है. हमारे बचपन में सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में हिन्दी शिक्षा का डंका बजता था. देखते-देखते निजी स्कूल खुले जिनमें पढ़ाई का माध्यम तो हिन्दी ही रहा लेकिन शिक्षा का स्तर गिरता चला गया. अब टपरा छाप कॉन्वेंट स्कूल जम कर पैसा वसूल रहे हैं लेकिन गाँव वाले इस उम्मीद में अपने बच्चों को निजी स्कूलों से निकाल कर इन कोन्वेंटों में दाखिल करा रहे हैं कि इन्हीं में पढ़ने से उनके बच्चों को नौकरी मिल सकती है.
अगर आप चाहते हैं कि यह स्थिति बदले तो बाज़ार की शक्तियों से टकराना होगा. अंगरेजी के बाज़ार से लड़े बिना अगर आप भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठा दिलाना चाहते हैं तो वह दिवास्वप्न ही साबित होगा. भारतीय भाषाओं के पक्ष में युद्ध छेड़ने वालों के रवैये से स्पष्ट होता है कि अंगरेजी बाज़ार की भाषा बनी रहे तथा हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाएं अस्मिता की भाषा के रूप में प्रतिष्टित हों. विचार करने की बात है कि अगर अंगरेजी बाज़ार और अच्छे रोज़गार (ऊंची नौकरी और बड़े कारोबार) की भाषा बनी रहती है तो आप समाज के लोगों पर कैसे दबाव डालेंगे कि वे अपने बच्चों को मातृभाषा (हिन्दी, मराठी, बांगला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि) में शिक्षा दिलाएं?
आख़िर में यही कहूंगा कि जो लोग इस बात से भयातुर हैं कि जल में रह कर मगरमच्छ से बैर कौन करे तो उनको समझ लेना चाहिए कि मगरमच्छ विदेशी है और जल हमारी मातृभाषा का है. अंग्रेजों से आजीवन भाषाई संग्राम छेड़ने वाले भारतेंदु हरिश्चन्द्र की यह सीख हमेशा याद रखिये-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को सूल.
बुधवार, 28 मई 2008
अँगरेजी का अंडरवर्ल्ड
भारतीय भाषाओं की एक विराट दुनिया है। संविधान की आठवीं अनुसूची में २२ भाषाओं को मान्यता दी जा चुकी है लेकिन भारत में १००० से ज्यादा भाषाएं एवं बोलियाँ अस्तित्व में हैं।
आँकड़े बताते हैं कि विश्व में हर वर्ष औसतन एक भाषा मृतप्राय हो जाती है। और जब कम्यूटर तकनीक का हमला अपने उफान पर है तब भारतीय भाषाओं का क्षरण तीव्रतर हो रहा है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि महानगरीय क्षेत्रों में जो कम्प्यूटर कार्यशालाएं चलती हैं उन्हें ज़िला, तहसील तथा गाँव स्तर तक लाया जाए। इन कार्यशालाओं के दौरान क्षेत्रीय भाषाओं में डेमो दिखाए जाएं और इन्हें संचालित करने के लिए क्षेत्रीय स्तर पर ही स्वयंसेवक तैयार किए जाएं. साथ ही सस्ते में कम्प्यूटर मुहैया कराये जाएं और इनका प्रशिक्षण भी मुफ्त हो.
इस दिशा में व्यक्तिगत स्तर पर काम हो रहा है। मैंने पिछले दिनों बैंगलौर में हुई एक ऐसी ही कार्यशाला की रपट पढ़ी थी. यहाँ साइंस एज्यूकेशन' के नागार्जुन जी। ने बताया कि वह माइक्रोसोफ्ट जैसी विदेशी कंपनियों की मिल्कियत वाले फोंटों के मुकाबले वैकल्पिक, निःशुल्क तथा स्वतन्त्र आधार पर देवनागरी फॉण्ट विकसित कर रहे हैं. एम्. अरुण नमक सज्जन एक सम्पूर्ण मलयालम आधारित संचालन-प्रणाली विकसित करने में जुटे हैं; जो जीएनयू लिनक्स के वितरण पर काम करती है, इसे नॉपिक्स के नाम से जाना जाता है.
भारतीय फोंटों पर लगभग डेढ़ दशकों से काम चल रहा है। इनमें देवनागरी के अलावा कन्नड़, तमिल, मलयालम और तेलुगु भाषाओं के फॉण्ट शामिल हैं। लेकिन ये प्रयास व्यक्तिगत हैं और बेहद नाकाफी हैं. वैश्वीकरण के इस दौर में अफ्रीका और एशिया की भाषाओं को अंगरेजी नाना प्रकार के तकनीकी अवतार लेकर नेस्तनाबूद करने में जुटी है. ऐसे में भारतीय भाषाओं के फॉण्ट न तो वह विकसित होने देगी न ही भारत में किसी शोध को समर्थन देगी. यहाँ तक कि आज जर्मन और फ्रांसीसी भी अंगरेजी से भयाक्रांत है. जिन भाषाओं की मौखिक परम्परा है, लिपि नहीं है, उनका इस सदी के अंत तक नामोनिशान बच पाना मुश्किल है. अंगरेजी चाहती है कि पूरे विश्व में ५० से ज्यादा भाषाओं का अस्तित्व नज़र ही आना नहीं चाहिए.
भारतीय भाषाओं के परिप्रेक्ष्य में मूल समस्याओं और संकट को समझने के लिए अंगरेजी के अंडरवर्ल्ड को समझना जरूरी है। भारतीय भाषाओं के खलनायक वही हैं जो समाज के अन्य क्षेत्रों में होते हैं। समाज के दबंग, बाहुबली, आर्थिक संसाधनों पर कब्जा जमाये बैठे लोग ही भाषा का भविष्य तय करते हैं। इन्हें हम इलीट (संप्रभु) तबका कहते हैं. भाषाशास्त्री या भाषाओं से जुड़े अन्य लोग सिर्फ सुझाव दे सकते हैं. भाषाई नीति बनाने और उसे अमल में लाने की हैसियत इनकी नहीं होती. ऐसे में यह और महत्वपूर्ण हो जाता है कि वृहत्तर भारतीय समाज में भाषाओं की अवस्था पर हम 'क्रिटिकल पर्सपेक्टिव' रखें.
भारतीय भाषाओं का भविष्य उज्जवल बनाने के लिए मैं डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के फार्मूले पर सहमत हूँ। शिक्षा, अदालती कामकाज, विधानसभा और स्थानीय निकायों की भाषा क्षेत्रीय भाषा में हो तथा राष्ट्रीय स्तर का कामकाज हिन्दी में। लेकिन दुःख की बात है कि ऐसा आज़ादी के ६० वर्षों बाद भी मुमकिन नहीं हो सका है.
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (कांग्रेस) ने तमिलनाडु में हिन्दी चलाने की कोशिश की, उनके बाद कामराज ने भी, तो वहाँ अन्नादुरै हिन्दी के विरोध के दम पर द्रविड़ मुनेत्र कझगम ले आए। नतीजा ये है कि दक्षिण भारत में जो स्थान हिन्दी को मिलना था उस पर एक विदेशी भाषा अंगरेजी विराजमान है।
यह बात सही है कि आप भाषा किसी पर थोप नहीं सकते लेकिन राष्ट्रीय भावना के विकास के सहारे राष्ट्रीय भाषा का विचार धीरे-धीरे अपनी जगह ले सकता है। लेकिन विज्ञान और तकनीक की विचारधारा पर जब तक संप्रभु वर्ग का नियंत्रण बना रहेगा तब तक अंगरेजी को भारतीय भाषायें पदच्युत नहीं कर सकतीं।
शेष अगली पोस्ट में जारी ...
शोषकों की भाषा अंगरेजी भारतीय भाषाओं को वहाँ ले जाकर मारती है जहाँ पानी न मिले। आप विश्वबैंक या अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की भाषा देखिये. किसी भी विकासशील देश को क़र्ज़ इस अंदाज में देते हैं जैसे दान दे रहे हों. हमारे समाचार-पत्र उस भाषा को ही छापते हैं जो इन दैत्यनुमा वित्तीय संस्थानों से उन्हें मुहैया कराई जाती है. क्रेडिट कार्ड कंपनियों की भाषा और शर्तें तो कोई वित्त-विशेषज्ञ ही समझ सकता है. इनकी भाषाई चालें साहूकारों को भी शर्मिन्दा करती हैं. साहूकार की तो बहुत क्रोध आने पर आप लाठी मार कर हत्या कर सकते थे, लेकिन क्रेडिट कार्ड के निजाम में तो आप सिर्फ आत्महत्या कर सकते हैं.
आँकड़े बताते हैं कि विश्व में हर वर्ष औसतन एक भाषा मृतप्राय हो जाती है। और जब कम्यूटर तकनीक का हमला अपने उफान पर है तब भारतीय भाषाओं का क्षरण तीव्रतर हो रहा है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि महानगरीय क्षेत्रों में जो कम्प्यूटर कार्यशालाएं चलती हैं उन्हें ज़िला, तहसील तथा गाँव स्तर तक लाया जाए। इन कार्यशालाओं के दौरान क्षेत्रीय भाषाओं में डेमो दिखाए जाएं और इन्हें संचालित करने के लिए क्षेत्रीय स्तर पर ही स्वयंसेवक तैयार किए जाएं. साथ ही सस्ते में कम्प्यूटर मुहैया कराये जाएं और इनका प्रशिक्षण भी मुफ्त हो.
इस दिशा में व्यक्तिगत स्तर पर काम हो रहा है। मैंने पिछले दिनों बैंगलौर में हुई एक ऐसी ही कार्यशाला की रपट पढ़ी थी. यहाँ साइंस एज्यूकेशन' के नागार्जुन जी। ने बताया कि वह माइक्रोसोफ्ट जैसी विदेशी कंपनियों की मिल्कियत वाले फोंटों के मुकाबले वैकल्पिक, निःशुल्क तथा स्वतन्त्र आधार पर देवनागरी फॉण्ट विकसित कर रहे हैं. एम्. अरुण नमक सज्जन एक सम्पूर्ण मलयालम आधारित संचालन-प्रणाली विकसित करने में जुटे हैं; जो जीएनयू लिनक्स के वितरण पर काम करती है, इसे नॉपिक्स के नाम से जाना जाता है.
भारतीय फोंटों पर लगभग डेढ़ दशकों से काम चल रहा है। इनमें देवनागरी के अलावा कन्नड़, तमिल, मलयालम और तेलुगु भाषाओं के फॉण्ट शामिल हैं। लेकिन ये प्रयास व्यक्तिगत हैं और बेहद नाकाफी हैं. वैश्वीकरण के इस दौर में अफ्रीका और एशिया की भाषाओं को अंगरेजी नाना प्रकार के तकनीकी अवतार लेकर नेस्तनाबूद करने में जुटी है. ऐसे में भारतीय भाषाओं के फॉण्ट न तो वह विकसित होने देगी न ही भारत में किसी शोध को समर्थन देगी. यहाँ तक कि आज जर्मन और फ्रांसीसी भी अंगरेजी से भयाक्रांत है. जिन भाषाओं की मौखिक परम्परा है, लिपि नहीं है, उनका इस सदी के अंत तक नामोनिशान बच पाना मुश्किल है. अंगरेजी चाहती है कि पूरे विश्व में ५० से ज्यादा भाषाओं का अस्तित्व नज़र ही आना नहीं चाहिए.
भारतीय भाषाओं के परिप्रेक्ष्य में मूल समस्याओं और संकट को समझने के लिए अंगरेजी के अंडरवर्ल्ड को समझना जरूरी है। भारतीय भाषाओं के खलनायक वही हैं जो समाज के अन्य क्षेत्रों में होते हैं। समाज के दबंग, बाहुबली, आर्थिक संसाधनों पर कब्जा जमाये बैठे लोग ही भाषा का भविष्य तय करते हैं। इन्हें हम इलीट (संप्रभु) तबका कहते हैं. भाषाशास्त्री या भाषाओं से जुड़े अन्य लोग सिर्फ सुझाव दे सकते हैं. भाषाई नीति बनाने और उसे अमल में लाने की हैसियत इनकी नहीं होती. ऐसे में यह और महत्वपूर्ण हो जाता है कि वृहत्तर भारतीय समाज में भाषाओं की अवस्था पर हम 'क्रिटिकल पर्सपेक्टिव' रखें.
भारतीय भाषाओं का भविष्य उज्जवल बनाने के लिए मैं डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के फार्मूले पर सहमत हूँ। शिक्षा, अदालती कामकाज, विधानसभा और स्थानीय निकायों की भाषा क्षेत्रीय भाषा में हो तथा राष्ट्रीय स्तर का कामकाज हिन्दी में। लेकिन दुःख की बात है कि ऐसा आज़ादी के ६० वर्षों बाद भी मुमकिन नहीं हो सका है.
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (कांग्रेस) ने तमिलनाडु में हिन्दी चलाने की कोशिश की, उनके बाद कामराज ने भी, तो वहाँ अन्नादुरै हिन्दी के विरोध के दम पर द्रविड़ मुनेत्र कझगम ले आए। नतीजा ये है कि दक्षिण भारत में जो स्थान हिन्दी को मिलना था उस पर एक विदेशी भाषा अंगरेजी विराजमान है।
यह बात सही है कि आप भाषा किसी पर थोप नहीं सकते लेकिन राष्ट्रीय भावना के विकास के सहारे राष्ट्रीय भाषा का विचार धीरे-धीरे अपनी जगह ले सकता है। लेकिन विज्ञान और तकनीक की विचारधारा पर जब तक संप्रभु वर्ग का नियंत्रण बना रहेगा तब तक अंगरेजी को भारतीय भाषायें पदच्युत नहीं कर सकतीं।
शेष अगली पोस्ट में जारी ...
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