शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

प्रतियोगी परीक्षाओं का मौसम आया, अभिभावकों के लिए टेंशन लाया

कल जे ई ई मेंस के रिजल्ट आ गए-
जिन सुधी अभिभावकों ने अपने पुत्र-पुत्रियों को उच्च चिकित्सा एवं तकनीकी शिक्षा दिलाने का सपना देख रखा है उनके लिए एक पांव पर खड़े होने का उष्ण मौसम आ गया है. मई और जून 2016 में कई प्रतियोगी परीक्षाएं होने जा रही हैं, जिनमें से प्रमुख हैं- एआईपीएमटी जो 1 मई को होनी है, क्लैट 8 मई को होगी, जेईई एडवांस्ड 22 मई को और सीईटी परीक्षा 2 जून को आयोजित होगी, 4 जून से द इंस्टीट्यूट ऑफ कंपनी सेक्रेटरीज ऑफ़ इंडिया की परीक्षाएं शुरू हो रही हैं, 10 जून से भारतीय बीमा संस्थान की परीक्षाएं होंगी.

इन दिनों धुनी छात्र-छात्राएं कोचिंग क्लासों, स्टडी रूमों, पुस्तकालयों, गार्डनों, छतों, गलियारों आदि को अपना रीडिंग रूम बनाए हुए हैं और इस तपती-चुभती गर्मी में भी मेडिकल, इंजीनियरिंग, कानून और अन्य पाठ्यक्रमों में दाख़िले के लिए दिन-रात पसीना बहा रहे हैं.

माता-पिता उनके टेबल पर सर रख कर सो जाने की आदत पर पैनी नज़र रखे हुए हैं और चाय-पानी की सप्लाई में जरा भी कोताही नहीं बरत रहे. कुछ छात्रों के अभिभावक इस बात को लेकर भी माथा पकड़ कर बैठे हुए हैं कि कैसे उनके बच्चे ऊंची से ऊंची रैंक एवं अंक प्राप्त करें ताकि प्रतिष्ठित और मनचाहे शिक्षा संस्थानों में उन्हें आसानी से दाख़िला मिल जाए. किसी ठंडे पहाड़ी स्थल पर ग्रीष्म ऋतु का लुत्फ़ उठाने का ख़याल फ़िलहाल उनके दिमाग़ से कोसों दूर है.

मेरे एक पीडब्ल्यूडी इंजीनियर मित्र की बेटी को डीएवीवी इंदौर के अंडरग्रेजुएट कोर्स में दाख़िला लेना है. वह इतने बेताब हैं कि बेटी की जगह सीईटी का पूरा कार्यक्रम ख़ुद उन्होंने रट लिया है जबकि परीक्षा को अभी महीना भर से ज़्यादा समय बाक़ी है. वह एक सांस में बताते हैं- ‘कॉमन इंट्रेंस टेस्ट 2 जून को और पहली काउंसलिंग 23 को होनी है. कुल मिलाकर 35 कोर्सेस हैं, जिनके लिए इग्जाम्स 9 शहरों में होने हैं. इनके लिए एप्लीकेशन ऑनलाइन भी भरे जा सकते हैं. हमारा प्लान यही है. अच्छा हो अगर एग्जाम सेंटर अपने ही शहर में मिल जाए.’

इंटीरियर डेकोरेटर शादाब सिद्दीक़ी साहब चाहते हैं कि उनकी बेटी पढ़-लिख कर एमबीबीएस डॉक्टर बने. इसके लिए वह पिछले दो सालों से उसकी एआईपीएमटी (आल इंडिया प्री मेडिकल टेस्ट) की सख़्त तैयारी करा रहे थे. सीबीएसई द्वारा आयोजित इस टेस्ट की तारीख़ 1 मई मुकर्रर की गई है. इसे पास करने पर उनकी बेटी देशभर के मेडिकल कॉलेजों की 15 फीसदी मेरिट पोजीशन में शुमार हो जाएगी, और इस तरह शादाब साहब का सपना भी पूरा हो जाएगा.

नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में दाख़िला पाने ने लिए पेशे से चार्टर्ड एकाउंटेंट बख्शी जी का बेटा जी-तोड़ कोशिश कर रहा है. राजीव गांधी नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ लॉ, पटियाला की तरफ से आयोजित कॉमन लॉ एडमीशन टेस्ट (क्लैट) 8 मई को होना है जिसका नतीजा 23 मई को उसके सामने आ जाएगा. अगर कामयाब हो गया तो 1 जून से उसकी काउंसलिंग शुरू हो जाएगी.

मिसेज बख्शी ने पूरे मोहल्ले में मिठाइयां बांटने की तैयारियां अभी से कर रखी हैं लेकिन उनके मन में किंतु-परंतु भी व्यायाम कर रहा है. शेयर ब्रोकर भरत भाई का ब्लड प्रेशर 22 मई को होने जा रहे ‘द ज्वाइंट एंट्रेंस एग्जामिनेशन (जेईई) एडवांस्ड टेस्ट’ के दोनों पेपरों को लेकर बढ़ा हुआ है क्योंकि उनके बेटे की प्रॉपर तैयारी नहीं हो पाई; जबकि दोनों पेपर अनिवार्य हैं. इस टेस्ट के लिए 29 अप्रैल को रजिस्ट्रेशन शुरू होना है जिसकी स्कैन रिस्पॉन्स शीट 1 जून तक वेबसाइट पर दिखने लगेगी और 12 जून को उनके बेटे की क़िस्मत का फ़ैसला हो चुका होगा. पता नहीं भरत भाई 22 दिन का यह हिमयुग कैसे काटेंगे!

बच्चों की परवाह करने तक तो ठीक है लेकिन ‘थ्री ईडियट्स’ बार-बार देखने के बावजूद कैरियर को लेकर संतान से कहीं ज़्यादा माता-पिता द्वारा इतनी चिंता करना सचमुच चिंताजनक है. हमारे देश में कई प्रतियोगी परीक्षाएं होती रहती हैं. जैसे कि सिविल सेवा परीक्षा, इंजीनियरी सेवा परीक्षा, सीपीएमटी (CPMT), आईआईटी संयुक्त प्रवेश परीक्षा (IIT JEE), अखिल भारतीय इंजिनीयरिंग प्रवेश परीक्षा (AIEEE), सम्मिलित प्रवेश परीक्षा (कॉमन ऐडमिशन टेस्ट / CAT), प्रबंधन योग्यता परीक्षा (MAT), ओपेनमैट (OpenMAT), सार्वजनिक प्रवेश परीक्षा (कॉमन इंट्रैंस टेस्ट / CET), इंजीनियरी में स्नातक अभिरुचि परीक्षा या गेट (GATE), राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (NDA) की परीक्षा, सम्मिलित रक्षा सेवा परीक्षा (CDS), संयुक्त विधि प्रवेश परीक्षा (कॉमन लॉ एडमिशन टेस्ट / CLAT), यूजीसी राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (यूजीसी नेट अथवा NET), केंद्रीय शिक्षक पात्रता परीक्षा‎ (Central Teacher Eligibility Test / CTET), संयुक्त प्रवेश स्क्रीनिंग परीक्षा (Joint Entrance Screening Test / JEST) आदि. उपर्युक्त परीक्षाओं में हम कभी पास होते हैं तो कभी फेल. लेकिन फेल होने पर हमें अपने सपने संतान के जरिए पूरा करने की ख़ब्त-सी सवार हो जाती है जो संतान के भी फेल हो जाने पर लगभग घातक सिद्ध होती है.

यहां किसी के बड़े-बड़े सपने देखने की मुख़ालिफ़त नहीं की जा रही है. लेकिन अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने बच्चे की सही क्षमता पहचानें. कई मामलों में यह क्षमता कम भी हो सकती है. दुनिया का हर बच्चा एकसमान नहीं हो सकता. इसके उलट होता यह है कि माता-पिता प्रतियोगी परीक्षा देने जा रहे बच्चे के फ़ॉर्म तक ख़ुद भरते हैं.

अरे! जो बच्चा अपनी परीक्षा का फ़ॉर्म खुद नहीं भर सकता, बैंक जाकर अपना डीडी नहीं बनवा सकता, उसे प्रशासनिक केंद्र तक कुरियर नहीं कर सकता, अपना इग्जाम सेंटर नहीं खोज सकता; वह आईएएस-आईपीएस या डॉक्टरी-इंजीनियरी का टेस्ट क्या खाकर पास करेगा! लेकिन नहीं साहब, चूंकि पड़ोसी के बच्चे ने अमुक टेस्ट पास किया है इसलिए अपने बच्चे को उससे आगे निकालना आपने अपना धर्म बना लिया है. प्रतिभा जाति-पांत की मोहताज नहीं होती. होना यह चाहिए कि आप अपने बच्चे को स्वाबलंबी बनाएं. उसे अपना काम ख़ुद करने दें और सीखने का मौक़ा दें. अक्सर देखा जाता है कि जो मां-बाप घर में पड़ा अख़बार तक ठीक से नहीं पढ़ते वे किताब में घुसे रहने को लेकर बच्चे के सर पर चौबीसों घंटे सवार रहते हैं. पहले आप मिसाल तो पेश कीजिए. बच्चा मां-बाप से जितना सीखता है, उतना उसे दुनिया की कोई कोचिंग नहीं सिखा सकती.

अभिभावकों द्वारा अपनी संतान से प्रतियोगी परीक्षा की समय-सारिणी के मुताबिक तैयारी कराने, प्रश्न-पत्रों का पैटर्न समझाने और उनके खाने-पीने का पूरा ख़याल रखने में कोई हर्ज़ नहीं है. लेकिन अगर अभिभावक यह मानकर चलने लगें कि सफलता सौ टका मिलनी ही मिलनी है तो यह अपनी ही संतान के साथ अन्याय होगा. कई बार अनेक प्रयासों के बावजूद सफलता नहीं मिलती. इसका अर्थ यह नहीं है कि अभिभावक और संतान की दुनिया ख़त्म हो गई.

पहले अभिभावक को असफलता का महत्त्व समझना पड़ेगा तब कहीं जाकर संतान में संघर्ष करने की शक्ति उत्पन्न होगी और एक दिन वह सफल होकर दिखाएगी. प्रतियोगी परीक्षा में पास होने के लिए अभिभावक को संतान के पीछे लट्ठ लेकर नहीं पड़ना चाहिए बल्कि उसे उचित माहौल और समय देना चाहिए. लेकिन होता यह है कि जैसे-जैसे परीक्षा का दिन नजदीक आता है, बच्चे से ज़्यादा अभिभावकों के दिल की धड़कनें तेज़ होने लगती हैं; जैसे कि उन्हें ख़ुद पर्चा हल करना हो! बच्चा कितनी भी मेहनत क्यों न कर ले, अभिभावक उसको लेकर अक्सर नर्वस नज़र आते हैं.

बड़ी प्रतियोगी परीक्षाओं के इस मौसम में अगर आपका बच्चा भी किसी प्रतियोगी परीक्षा में बैठने जा रहा है तो उसकी आंखें सींच-सींचकर उसे रात-रात भर जगाने की बजाए नींद पूरी कर लेने दें. रात्रि-जागरण करके सुबह परीक्षा देने पहुंचे बच्चों को प्रश्न ही नहीं समझ में आते. आख़िरी मिनट में परीक्षा केंद्र पर पड़ाव डालकर बच्चे की आंखों तले किताबें अड़ाए रखना तो और भी बुरी बात है. आपको भले ही परीक्षा हॉल के गेट तक पूरी तैयारी करवाने की शांति मिल जाए लेकिन बच्चे का दिमाग़ अशांत हो जाएगा. वह भ्रमित भी हो सकता है और पर्चे में पूछे गए प्रश्नों का जवाब निल बटा सन्नाटा हो सकता है…और आपके सपनों पर पानी फिर सकता है. शुभ परीक्षा!

रविवार, 24 अप्रैल 2016

बोतलबंद पानी के बाद अब आया बोतलबंद हवा का ज़माना!

ज़्यादा दिन नहीं गुज़रे हैं जब लोग दूसरों को दिखा-दिखा कर बोतलबंद पानी किया करते थे गोया अमृतपान कर रहे हों! मोबाइल की तरह यह भी एक स्टेट्स सिंबल था. अब बोतलबंद पानी (बोतल 1 की हो या 100 लीटर की) पीना मजबूरी बन गया है. इस बाज़ारू दुनिया में जो इसे नहीं ख़रीद सकते वे तब भी प्यासे मर रहे थे, आज भी मर रहे हैं. भारत की आज़ादी के 70 वर्षों बाद सरकारी उपलब्धि यह है कि जल-स्रोतों को गटर बना दिया गया है और साफ पानी विलासी अमीरों का शग़ल लगता है. इसलिए चौंकिए मत और बोतलबंद पानी के बाद अब बोतलबंद हवा को स्टेटस सिंबल बनाने के लिए तैयार हो जाइए, क्योंकि वायु-प्रदूषण की मारी इस दुनिया में बाक़ायदा इसका व्यापार शुरू हो चुका है और भारत भी हवा व्यापारियों की ज़द में है. वायु-प्रदूषण के विविध कारण और समाधान उनकी चिंता का विषय नहीं हैं. वैसे भी मुनाफ़ापिस्सुओं के लिए हर संकट एक सुनहरी अवसर ही होता है.
विकास की अंधी दौड़ में शामिल चीन जैसे विकसित देशों की ऐसी पर्यावरणीय दुर्गति हुई है कि वहां लाखों लोग अभी से बोतलबंद हवा ख़रीदकर सांस ले रहे हैं. ‘बर्कले अर्थ’ की रपट के अनुसार चीन में वायु-प्रदूषण से रोज़ाना लगभग 4000 मौतें होती हैं! यही भय है कि बीजिंग समेत चीन के कई बड़े शहरों में बोतलबंद हवा का बिजनेस तेज़ी से फल-फूल रहा है. जल्द ही विकासशील भारत भी इससे अछूता नहीं रहेगा. कंक्रीट के जंगल खड़े करने की होड़ ने पर्यावरण में असंतुलन पैदा कर दिया है. इसका नतीजा यह है कि भारत के कुछ राज्यों में अप्रत्याशित 5080 किमी नया वन-क्षेत्र विकसित होने के बावजूद सार्थक परिणाम सामने नहीं आ रहे हैं. महानगरों में अपर्याप्त पर्यावरण संवर्धन व वायु-प्रदूषण पसली का दर्द बना हुआ है. जाहिर है ऐसे में पहाड़ों की ताज़गी देने वाली हवा के लुभावने पैकेट पानी की ही तरह हाथोंहाथ बिकेंगे. देश में बोतलबंद हवा जल्द ही हकीक़त और मजबूरी बन जाएगी. अभी वायु-प्रदूषण से बचने के लिए लोग दस्युओं की तरह घर से नाक-कान-मुंह बांध कर निकला करते हैं लेकिन जल्द ही वे आईसीयू में भर्ती किसी मरीज़ की भांति हवा की छोटी-बड़ी बोतलें गले में लटकाए नज़र आएंगे!
बिजनेसमैन पूरे विश्व में बहुत जल्द संभावनाएं सूंघ लिया करते हैं और उनके सेल्समैन हिमालय में भी बर्फ़ बेच आते हैं. सनातन संस्कृति वाले भारत में ज्ञानियों की धारणा थी कि धरती पर धूप-हवा-पानी सनातन तौर पर मुफ़्त और प्रचुर है लेकिन ‘वैश्वीकरण’ के इस दौर में पानी के बाद अब हवा भी बाज़ार में बिठा दी गई है. कनाडा की ‘वाइटैलिटी एयर बैंफ एंड लेक’ नामक कंपनी ने अपने यहां के चट्टानी पर्वतों और कंचन जल से घिरे प्राकृतिक हरे-भरे स्थलों की ताज़ा हवा बोतलों में बंद करके यूएसए और मध्य-पूर्व के देशों को बेचना शुरू कर दिया है. यह कंपनी कनाडा की दो स्थलों- बैंफ एवं लेक लुइस के निर्मल वातावरण से हवा को बोतलबंद कर रही हैं. ग्राहकी का आलम यह है कि उक्त कंपनी हवा बेचकर मालामाल हो रही है. चीन में तो क्रेज़ इस क़दर बढ़ गया है कि लोग बोतलबंद हवा ख़रीदकर जन्मदिन और शादियों में गिफ़्ट कर रहे हैं.
वाइटैलिटी एयर बैंफ एंड लेक ने शुद्ध हवा के अपने दो ब्रांड बाज़ार में उतारे थे- बैंफ एयर और लेक लुइस. कंपनी के संस्थापक मोजेज लेक ने 2014 में जब इस हवा का पहला पैकेट बेचा था तब उन्हें इसकी कल्पना भी नहीं रही होगी कि हवा का धंधा उनकी किस्मत बदल देगा. चीन में उन्हें इतना बड़ा बाज़ार मिला कि पिछले दिसंबर में दुकान का श्रीगणेश करने के तुरंत बाद ही 500 बोतलें पलक झपकते बिक गई थीं. बीजिंग में बैंफ एयर की 3 लीटर की बोतल आज लगभग 952 रुपए और 7.7 लीटर का बाटला 1542 रुपए में बिक रहा है.
दुनिया में हवा का बाज़ार बढ़ता देखकर ब्रिटेन के 27 वर्षीय लियो डे वाट्स भी ‘आएटहाएर’ कंपनी बनाकर शुद्ध हवा की खेती में कूद पड़े हैं और इस साल के शुरुआती तीन महीनों में ही हज़ारों पाउंड कमा चुके हैं. लियो की टीम शुद्ध हवा भरने सुबह 5 बजे ही ब्रिटेन के समरसेट, डोरसेट तथा वेल्स जैसे प्राकृतिक सुषमायुक्त इलाक़ों में जाती है और ग्राहकों की ख़ास मांगों के अनुरूप सप्लाई कर देती है. हवा के लिए लियो किसी दिन पहाड़ की चोटी पर चढ़ते हैं तो किसी दिन गहरी घाटियों में उतरते हैं. उनका मानना है कि अगर वायु-प्रदूषण का धरती पर यही हाल रहा तो निकट भविष्य में हज़ारों कंपनियां हवा के धंधे में उग आएंगी.
भारत में औद्योगिक शहरों की सांसें पहले से ही थमी हुई थीं, अब छोटे और मझोले शहरों का दम भी घुटने लगा है. केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड की ताज़ा रपट कहती है कि सबसे प्रदूषित शहर मुजफ्फ़रपुर (बिहार) है और उसके बाद लखनऊ का नंबर आता है. यह आश्चर्यजनक है क्योंकि ये दोनों शहर उद्योगबहुल नहीं हैं! रपट से यह भी स्पष्ट हुआ है कि देश के 10 सबसे ज़्यादा प्रदूषित शहरों में से 6 शहर औद्योगिक रूप से पिछड़े उत्तर प्रदेश और बिहार के हैं जबकि औद्योगिक एवं आर्थिक गतिविधियों का केंद्र मुंबई, बंगलुरु और चेन्नई जैसे महानगरों में प्रदूषण उक्त शहरों से कम है. ऐसे में वायु-प्रदूषण को उद्योग-धंधों मात्र से सीधा जोड़ देना तर्कसंगत नहीं लगता. योजनाकारों व पर्यावरणविदों को इसका निदान और इलाज़ खोजना होगा. लखनऊ के बाद घटते क्रम में प्रदूषण-स्तर दिल्ली, वाराणसी, पटना, फ़रीदाबाद, कानपुर, आगरा, गया, नवी मुंबई, मुंबई और पंचकूला (हरियाणा) का है. अर्थात हवा की गुणवत्ता के आधार पर पंचकूला सबसे माकूल शहर है और मुजफ्फ़रपुर सर्वाधिक दमघोंटू!
घर-घर वायु-प्रदूषण के पसमंजर में अगर भारत जल्द ही हवा बेचने का केंद्र बन जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. मौक़े का फ़ायदा उठाने के लिए देसी-विदेशी कंपनियां भारत की नदी-घाटियों एवं पर्वतशृंखलाओं की ख़ाक छानती नज़र आने लगें तो अचंभित मत होइएगा. सरकार पर्यावरण के नियमों को शिथिल कर उन्हें हवा के अंधाधुंध दोहन का लाइसेंस जारी कर दे तब भी चकित मत होइएगा. शुद्ध हवा की पैकेजिंग के नाम पर अगर नदी-पहाड़ों की हवा अशुद्ध कर दी जाए तो उंगली मत उठाइगा. आख़िर यह सब आपकी बेहतरी के लिए किया जाएगा. भले ही आगे चलकर यही कंपनियां दूषित पानी की तर्ज़ पर हवा की जगह बोतलों में धुंआ भरकर बेचने लगें और लोगों को मजबूरी में वही पीना पड़े!
कनाडा की वाइटैलिटी एयर बैंफ एंड लेक कंपनी और ब्रिटेन की आएटहाएर कंपनी की भारत पर बराबर नज़र है. यहां वह किस भाव से हवा बेचेंगे यह समय आने पर जाहिर किया जाएगा. हालांकि विशेषज्ञ भारत में हवा-व्यापार को मुनाफ़े का सौदा नहीं मानते. उनकी आशंका है कि यह संपन्न लोगों का चोंचला ही बन कर रह जाएगा. देश का मध्यवर्ग और ग़रीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले करोड़ों लोग बच्चों का राशन-पानी तो ठीक से ख़रीद नहीं पाते; बाज़ार से हवा ख़रीद कर पीने की औक़ात कहां से पैदा करेंगे! यह और बात है कि पहले वे प्यास से मर रहे थे अब श्वांस से भी मरा करेंगे!

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

यहूदी शाहकारों के बगैर मुंबई का नक्शा पूरा नहीं होता


दक्षिण मुंबई के कोलाबा की चौथी पास्ता लेन के पीछे होरमस जी स्ट्रीट में स्थित चबाड हाउस उर्फ नरीमन हाउस की सड़क पर अब भी जिंदगी का कारोबार चला करता है. नहीं है तो वर्ष 2003 से यह यहूदी केंद्र चलाने वाला युवा दम्पति रब्बी गाव्रियल और उनकी पांच माह की गर्भवती पत्नी रिवका होल्त्जबर्ग, जो बुधवार, 26 नवंबर, 2008 को 9 बजकर 45 मिनट पर हुए आतंकवादी हमले में दुनिया से असमय उठा दिए गए थे.
चबाड हाउस कभी यहूदी समुदाय की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र हुआ करता था. यहां सिनॉगॉग (यहूदी उपासना-गृह और प्रार्थना-मंदिर) था, तोरा सिखाने वाली कक्षाएं चलती थीं, स्थानीय यहूदियों की शादियां तथा नशे की रोकथाम जैसे कई हितकारी क्रियाकलाप सम्पन्न होते थे. यहूदी पर्यटकों और व्यापारियों की तो जैसे यह मुंबई में एकमात्र शरणस्थली थी. ईश्वर से नजदीकी महसूस करने, कोशेर भोजन का जायका चखने या यहूदी छुट्टियां मनाने वालों के लिए चबाड हाउस के दरवाजे हमेशा खुले रहते थे. लेकिन आतंकवादियों की गोलीबारी और धमाकों से जब यह दुनिया उजड़ी थी तो दिन-रात जागने-भागने वाली कोलाहल भरी मुंबई ने जोर से जाना कि इस महानगर में यहूदी भी बसते हैं. यह बात और है कि आतंकवादी हमले के छह साल बाद 26 अगस्त, 2014 को एक और रब्बी इज्रोइल कोज़्लोवस्की और उनकी पत्नी चाया ने उसी नेस्तनाबूद चबाड हाउस को फिर आबाद कर दिया था. राख के ढेर से फीनिक्स पक्षी की तरह फिर जीवित हो उठना दुनिया भर के यहूदियों की बड़ी विशेषता रही है.
सन 1940 का जमाना था जब मुंबई में यहूदी खूब फल-फूल रहे थे और उनकी संख्या 30 हजार के पार हो गई थी. आज वे उंगलियों पर गिनने लायक बचे हैं, जिनमें से ज्यादातर मुंबई और इसके आसपास बसते हैं. लेकिन संख्या पर मत जाइए, मुंबई के इतिहास पर छोड़े गए उनके पूर्वजों के निशान मुंबई के परिदृश्य और भूदृश्य पर आज भी अमिट और स्थायी हैं. बहुत कम लोगों को पता होगा कि भारत का एक लैंडमार्क माने जाने वाला गेटवे ऑफ इंडिया के निर्माण में सबसे बड़ा दानकर्ता एक यहूदी ही था- सर जैकब ससून.
माना जाता है कि मुंबई में यहूदियों के सामूहिक आगमन का श्रीगणेश 18वीं सदी में हुआ. इस संगम में दो बिलकुल अलग धाराएं थीं- बेन इजरायली (इजरायल के लाल) और बगदादी. बेन इजरायली समुदाय कोंकण के गांवों से आया था जिसके बारे में कहा जाता है कि वे उन इजरायली यहूदियों के वंशज हैं जिनका जलपोत 175 ईसा पूर्व में कोंकण तट पर नष्ट हो गया था. जूडिया से आए उस जलपोत में 7 यहूदी परिवार थे. वे यूनानी सम्राट एंटियोकस चतुर्थ एपीफानेस के समय वतन से निकले थे. बगदादी यहूदी वे हैं जो मामलूक वंश के आखिरी शासक दाउद पाशा द्वारा 19वीं सदी की शुरुआत में मचाई गई तबाही और भीषण नरसंहार के बाद इराक से भागे थे.
मुंबई में बसने वाला पहला बगदादी यहूदी जोसफ सेमाह बताया जाता है, जो सन 1730 में सूरत छोड़कर आया था. बेन इजरायली समुदाय के पहले सदस्य सन 1749 में कोंकण के गांवों से यहां पहुंचे. उन दिनों अंग्रेजों द्वारा मुंबई में विकसित किए जा रहे व्यापारिक ढांचागत विकास ने इन्हें बेहद आकर्षित किया था. मुंबई में बसने के बाद इन्हें अपने पूजागृहों की जरूरत भी महसूस हुई. सो कोंकण से आए सैम्युएल इजेकील दिवेकर (मूल नाम सामाजी हसाजी दिवेकर) नामक यहूदी ने मुंबई का प्रथम सिनॉगॉग मई 1796 में स्थापित किया, जिसका नाम था ‘शारे राहामीम’ जिसे गेट ऑफ मर्सी सिनॉगॉग भी कहा जाता है. यह उन्हीं के नाम की गई गली 254, सैम्युअल स्ट्रीट, मुंबई- 400 003 में स्थित है. इसके बाद तो जैसे दूसरे सिनॉगॉगों और प्रार्थना-गृहों की बाढ़ सी आ गई. टनटनपुरा स्ट्रीट में 4 जून 1843 को ‘शारे रेशन’ या नया सिनॉगॉग, सर जेजे मार्ग पर 1861 में ‘मेगन डेविड सिनॉगॉग’, जैकब सर्कल में 1886 में ‘टिफेरेथ इजरायल सिनॉगॉग’ जैसे कुल आठ सिनॉगॉग और प्रार्थना-गृह यहूदियों की बढ़ती आबादी के मद्देनजर सन 1946 तक मुंबई में बनाए जाते रहे.
लेकिन यह 1832 का साल था जब दाउद पाशा के अत्याचारों से तंग आकर डेविड ससून अपने कई यहूदी साथियों के साथ मुंबई आए और यहां के यहूदियों की महिमा एवं इतिहास को हमेशा-हमेशा के लिए बदल कर रख दिया था. उनकी डेविड ससून एंड कंपनी ने देखते ही देखते मुंबई में कपड़ा मिलें तथा अन्य उद्योग-धंधे व संस्थान खड़े कर दिए. लेकिन उनका सबसे बड़ा योगदान था परोपकार के कार्यों में अपार धन लगाने का. उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में डेविड ससून ने डेविड ससून मैकेनिक्स संस्थान, डेविड ससून लाइब्रेरी, विक्टोरिया गार्डेंस (आज का वीरमाता जीजाबाई उद्यान) में क्लॉक टॉवर और विक्टोरिया एंड एल्बर्ट म्यूजियम (आज का भाऊ दाजी लाड संग्रहालय) में ऐतिहासिक स्मारक बनवाने जैसे कई ऐतिहासिक कार्य किए.
सन 1875 में डेविड ससून के बेटे एल्बर्ट ने मुंबई की ऐसी पहली गोदी कोलाबा में बनवाई जिसमें जलपोत तैरने लायक पानी हर हाल में बरकरार रखा जाता है, उसे हम ससून डॉक के नाम से जानते हैं. सन 1884 में सर जैकब ससून ने फोर्ट में केनसेथ इलियाहू सिनॉगॉग बनवाया था, जहां चबाड हाउस शुरू होने के पहले तक ताजमहल और ओबेरॉय होटलों में ठहरने वाले यहूदी आसानी से पहुंचा करते थे. डेविड ससून की विरासत में जेजे हॉस्पिटल परिसर में खड़ा डेविड ससून औद्योगिक एवं सुधार संस्थान, मुंबई का कॉमेथ हाउस जो उनका मुख्यालय भी था, रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बाम्बे फ्लाइंग क्लब, निवारा ओल्ड एज होम, फ्लोरा फाउंटेन और मेसीना हॉस्पिटल जैसे न जाने कितने स्मारक शामिल हैं, जो आज भी हमें मुंबई का पता देते हैं.
डेविड ससून की मृत्यु तो सन 1864 में ही हो चुकी थी लेकिन सामुदायिक गतिविधियां आगे के दशकों तक हंसती-खिलखिलाती रहीं. फिर मातृभूमि के आकर्षण में 50 के दशक के दौरान मुंबई से यहूदियों का बहिर्गमन शुरू हुआ, जो आज तक जारी है. हालत यह है कि इजरायल में पैदा हुए यहूदी भारत के बारे में अधिक नहीं जानते और मुंबई में बचे अधिकांश यहूदी 70 से ऊपर की अवस्था के हैं. 73वर्षीय निसिम मोजेस नामक सज्जन ने भारत के यहूदियों की वंशावली, सामूहिक गान, मराठी-हिब्रू मिश्रित भाषा और खान-पान की एक फेहरिस्त तैयार करने की कोशिश की है और सन 1671 से लेकर आज तक के करीब 40000 यहूदियों का वंशवट खड़ा भी कर लिया है. लेकिन आज पूरे भारत में उनकी आबादी 5000 के आसपास ही बची है और वह भी तेज़ी से खत्म हो रही है. फिर भी इतना तो तय है कि मुंबई का नक्शा यहूदियों के बनाए शाहकारों के बगैर पूरा नहीं होता. गौर से सुनें तो आज भी सूने सिनॉगॉगों में गूंजने वाली उनकी सामूहिक प्रार्थनाएं सुनाई दे जाएंगी.

मेरी नई ग़ज़ल

 प्यारे दोस्तो, बुजुर्ग कह गए हैं कि हमेशा ग़ुस्से और आक्रोश में भरे रहना सेहत के लिए ठीक नहीं होता। इसीलिए आज पेश कर रहा हूं अपनी एक रोमांटि...