बुर्जुआ समाज और संस्कृति-१४
पिछली कड़ी में अपने पढ़ा कि सामान्य मानव-धर्म के बदले सामग्री-धर्म अपनाते-अपनाते मानव-चरित्र के नए दिगंत प्रकट हो रहे हैं। अब आगे...
विक्रेता के रूप में मनुष्य अपनी कार्यक्षमता, मेधा और व्यक्तित्व बेचता है। स्वभावतः क्रेता इसे अपने स्वार्थ में ही उपयोग करता है. क्रेता की पसन्द से ही माल तैयार होता है. पूँजीवाद में साधु, सत्यवादी, स्पष्टवादी, स्वाभिमानी, निष्कपट और सहृदय लोगों की मांग नहीं है. इसलिए इन गुणों की चर्चा भी कोई नहीं करता, वरन कोढ़ की तरह इन्हें गुप्त रखना ही श्रेयस्कर समझता है.
जो हत्या को आत्महत्या मानकर नहीं चल सकते , ऐसे लोग इस समाज में 'स्वर्गीय' ही हैं। खुशामद, बेईमानी, झूठ, खलता, निष्ठुरता और चालाकी आदि 'गुणों' की मांग है- इसलिए इन गुणों की परीक्षा में उत्तीर्ण होने की होड़-सी लगी रहती है. इस समाज में यदि मिलावटहीन द्रव्य, बेईमान व्यापारियों के उत्पातों से परेशान जनता और घूस तथा दुर्नीति से ग्रस्त व्यवस्था है तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. सामग्री से मानव-धर्म की अपेक्षा भी तो नहीं की जाती.
अपनी इच्छाओं का दमन करते हुए, रूचि को ठेंगे पर रखते हुए, दूसरे की पसंद के अनुसार अपने को ढालना सामग्री धर्म की दूसरी नियति है। लगातार दमित होते-होते, अंतर्द्वद्व के फलस्वरूप, सकारात्मक मानसिकता का लोप होता जाता है, हालांकि सांस्कृतिक प्रभाव कुछ ऐसा होता है कि इसका आभास भी नहीं हो पाता. बुर्जुआ संस्कृति में, जहाँ सार्थकता का पैमाना धन है, ऐश्वर्य के प्रति नमन और गरीबी के प्रति अवज्ञा इतनी स्पष्ट है कि हर कोई दरिद्र होना अपमान और हेठी का बायस समझता है. इस सामाजिक वातावरण से पैदा हुई इस सफलता की अवधारणा के फलस्वरूप कोई भी धनोपार्जन कर अपमान और ग्लानि से मुक्त हो, मान-मर्यादा का अधिकारी होना चाहता है.
धनोपार्जन मानव-मन की अन्तर्निहित प्रवृत्ति नहीं है, दूसरी कई प्रवृत्तियों की पूर्ति का उपाय मात्र है। अपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही धन की जरूरत होती है. लेकिन ऐसा करते-करते उपाय ही उद्देश्य हो जाता है. इस प्रक्रिया में अहं और प्रभुत्व आदि नकारात्मक प्रवृत्तियाँ चरितार्थ करते-करते धन की लालसा का नशा सवार होने लगता है. शराबी की ललक जैसे बढ़ती ही जाती है, वैसी ही धनोपार्जन की लालसा भी होती है.
लेकिन सफल होने पर भी अंत में यही लगता है कि कुछ भी नहीं मिला जीवन में. वांछित मूल्यबोध के अभाव में, पारिवारिक संबंधों की हताशा में, यौवन की संध्या में समझ पाता है कि सोने के हिरन के पीछे-पीछे ही सब कुछ बीत गया,. पारिवारिक सुख, प्रेम और मित्रता आदि की उपेक्षित दमित वासनाएं, स्वार्थी मन को निरंतर और भी चंचल और अस्थिर करती हैं. इन अतृप्त वासनाओं से व्यर्थताबोध और आक्रोश पैदा होता है और अपने नुकसान की भरपाई के लिए प्रतिशोध की भावना भड़कती है. पश्चिमी समाज में ऐसी हताशा के फलस्वरूप लाखों तलाक होते हैं. (Mass,Class and Bureasucracy (page-95)- Divorce (in USA) are now so high that they cover one out of every three or four marriages.
न्यूयोर्क के सौ संपन्न लोगों में बीस मानसिक रूप से विक्षिप्त बताये जाते हैं।
शेष अगली पोस्ट में जारी...
'पहल' से साभार