बेनामी जी,
आपने सही कहा कि पूरी पूंजीवादी संरचना के केंद्र में अर्थसत्ता-शक्ति होती है। मेरा निवेदन बस इतना-सा है कि अभी यह लेख शुरू ही हुआ है इसलिए कसूरवार ठहराने या कोई तमगा देने के किसी फैसले पर पहुँच जाना शायद उचित नहीं होगा। बुद्धिजीवियों को नायक, खलनायक या मुख्य खलनायक बनाने का सुर भी नहीं लगाया गया है. यह तो हालात के पड़ताल की कोशिश है.
'आपने कहा कि दोनों ही पूंजी के गुलाम या चाकर होते हैं'- यही बात तो लेख के इस हिस्से में कही गयी है। इसमें मतभेद कैसे देख लिया आपने. बात जो हाईलाईट होना चाहिए थी वो यह कि फैराडे जैसे वैज्ञानिक ने पूंजी के हाथ में खेलने से इनकार कर दिया. फैराडे तो महज एक उदाहरण है. ऐसे जाने कितने ही कलाकार, वैज्ञानिक, अध्यापक, विचारक, दार्शनिक हुए हैं जिन्होंने पूंजी के हाथों में खेलने से इनकार किया और उसकी सजा भुगती. कहने का मतलब यह है कि चयन का अधिकार आपके पास है लेकिन आप उसका इस्तेमाल करने की जगह पूंजी का गुलाम बनने का विकल्प चुनते हैं.
हाँ, आपकी एक बात से मैं असहमत होना चाहता हूँ कि किसी समाज संरचना विशेष में यह भेद करना ग़लत होगा कि फलां अच्छा है या बुरा। अगर यही बात है तो हम मौजूदा समाज व्यवस्था में इतनी माथा-पच्ची करने क्यों बैठे हुए हैं? क्यों नहीं मान लेते कि शोषणकर्ता और शोषक एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
ख़ैर, आपको जानकारी की दृष्टि से ही सही; यह लेख अच्छा लगा, मेहरबानी! लेकिन अभी तो जानकारियों का पुलिंदा खुलना बाकी है.
बहरहाल, अगली किस्त पढ़कर बताइयेगा...
आपका ही
विजयशंकर
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शुक्रवार, 11 जनवरी 2008
रविवार, 16 दिसंबर 2007
ज्योतिष के क्षेत्र में हिन्दू-मुस्लिम सम्पर्क
महामना डॉक्टर हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह महत्वपूर्ण लेख पिछले दिनों मेरे हाथ लगा। ज्योतिष के क्षेत्र में हिन्दू-मुस्लिम सम्पर्क पर उनसे बढ़कर भला और कौन लिख सकता था? लेख का आरंभिक अंश आप सबको पढ़वाने की सोची है।
- विजयशंकर चतुर्वेदी।
- विजयशंकर चतुर्वेदी।
शुक्रवार, 30 नवंबर 2007
'तलछट' का ताना-बाना
दोस्तो,
20 अक्टूबर १९७२ को हिन्दी के महान आलोचक स्वर्गीय डॉक्टर रामविलास शर्मा ने स्वनामधन्य आलोचक विजयबहादुर सिंह को एक पत्रोत्तर में लिखा था- 'हिन्दी के 'क्रांतिकारी' लेखकों की विशेषता है कि वे जिंदा मजदूर के बारे में कुछ नहीं जानते, सर्वहारा वर्ग पर घंटों बोल सकते हैं, महीनों लिख सकते हैं। हाड़मास के मजदूर को प्रत्यक्ष जीवन में न जानने वाले सब लेखक idealist हैं, भले ही वे अपने को बहुत बड़ा द्वंद्वात्मक भौतिकवादी मानते हों। उपन्यास न सही, दस मज़दूरों के संक्षिप्त जीवन-चरित लिखो। परिवेश, परिवार जीविकोपार्जन आदि का वृतांत देखकर, पूछकर लिखो। यह कार्य उपन्यास लेखन से कम रोचक न होगा। बोलो, तैयार हो?'
यह सोचकर रोमांच होता है कि उस समय मैं २ साल का रहा हूँगा। यह पत्र मैंने 'वसुधा' में बरसों बाद पढ़ा। सच मानिए, जनसत्ता 'सबरंग' के लिए यह काम मैं साल २००० के पहले सीमित अर्थों में सम्पन्न कर चुका था। मेरा 'लोग हाशिये पर' स्तंभ इसी तरह के चरित्रों पर आधारित था। उसके कुछ चुने हुए चरित्रों को आप सबसे मिलवाने की तमन्ना है 'तलछट' नाम से। तो काम पर लगा जाए?
20 अक्टूबर १९७२ को हिन्दी के महान आलोचक स्वर्गीय डॉक्टर रामविलास शर्मा ने स्वनामधन्य आलोचक विजयबहादुर सिंह को एक पत्रोत्तर में लिखा था- 'हिन्दी के 'क्रांतिकारी' लेखकों की विशेषता है कि वे जिंदा मजदूर के बारे में कुछ नहीं जानते, सर्वहारा वर्ग पर घंटों बोल सकते हैं, महीनों लिख सकते हैं। हाड़मास के मजदूर को प्रत्यक्ष जीवन में न जानने वाले सब लेखक idealist हैं, भले ही वे अपने को बहुत बड़ा द्वंद्वात्मक भौतिकवादी मानते हों। उपन्यास न सही, दस मज़दूरों के संक्षिप्त जीवन-चरित लिखो। परिवेश, परिवार जीविकोपार्जन आदि का वृतांत देखकर, पूछकर लिखो। यह कार्य उपन्यास लेखन से कम रोचक न होगा। बोलो, तैयार हो?'
यह सोचकर रोमांच होता है कि उस समय मैं २ साल का रहा हूँगा। यह पत्र मैंने 'वसुधा' में बरसों बाद पढ़ा। सच मानिए, जनसत्ता 'सबरंग' के लिए यह काम मैं साल २००० के पहले सीमित अर्थों में सम्पन्न कर चुका था। मेरा 'लोग हाशिये पर' स्तंभ इसी तरह के चरित्रों पर आधारित था। उसके कुछ चुने हुए चरित्रों को आप सबसे मिलवाने की तमन्ना है 'तलछट' नाम से। तो काम पर लगा जाए?
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