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शुक्रवार, 15 जून 2012

मेहदी हसन: आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

मेहदी हसन साहब का भारत से ऐसा रिश्ता है कि जिसे कहते हैं कि उनकी तो यहाँ नाल गड़ी है. राजस्थान में जहाँ वह पैदा हुए थे उनके लूणा गाँव के पुराने लोग प्यार से उन्हें महेदिया कहकर बुलाते थे. मेहदी हसन अपनी जन्मस्थली से गहरे जुड़े हुए थे. वह विभाजन के बाद तीन बार गाँव आये. वहां अपने दादा की मजार बनवाई. गौर करने की बात यह है कि वह जब भी गाँव आते थे तो गांववालों से शेखावटी बोली में ही बात करते थे. गाँव वालों ने एक एजेंसी को बताया कि मेहदी हसन को गाने के साथ-साथ पहलवानी का भी शौक था और जब पिछली बार वह गाँव आये थे तो उनके बचपन के एक दोस्त अर्जुन जांगिड़ ने मज़ाक-मज़ाक में कुश्ती लड़ने की चुनौती देकर पुरानी यादों को ताज़ा कर दिया था. अब अर्जुन जांगिड़ भी इस दुनिया में नहीं रहे.
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पता नहीं क्यों किसी बड़े फ़नकार के गुज़र जाने के बाद उसे हर माध्यम में ढूंढ और पा लेने की बेचैनी दम नहीं लेने देती. यूं तो मेरे मोबाइल के मेमोरी कार्ड में हसन साहब की कई गज़लें हैं जिन्हें मैं अक्सर सुना करता हूं, लेकिन परसों (13 जून 2012) जब उनके निधन की ख़बर सुनी तो सन्न रह गया और उन्हें बहुत करीब से पा लेने के लिए छटपटाने लगा. इंटरनेट पर विविध सामग्री उनके बारे में पढ़ डाली. यू ट्यूब पर उनकी गायी अमर गज़लें आँख मूंदे सुनता रहा और न जाने किस किस दुनिया की सैर करता रहा.

जिन लोगों ने मेहदी हसन साहब को गाते सुना और देखा है उन्हें मैं भाग्यशाली समझता हूं. टीवी पर स्वरकोकिला लता मंगेशकर, खैय्याम साहब, आबिदा परवीन, हरिहरन, पंकज उधास, तलत अज़ीज़ और अन्य संगीत नगीनों की राय मेहदी साहब के बारे में देखता-सुनता रहा. लता जी ने तो उनके बारे में एक बार कुछ इस तरह कहा था कि मेहदी हसन साहब के गले से ख़ुदा बोलता है.

मैंने इलेक्ट्रौनिक उपकरणों के जरिये ही मेहदी साहब को सुना है लेकिन उनकी आवाज़ मशीन को भी इंसानी गला दे देती है. उनकी आवाज़ में मुलायमियत होने के साथ-साथ वह वज़न भी है जो शायर के शब्दों और भावनाओं को श्रोता की रगों में उतार देता है. यही वजह है कि उनकी गायिकी सरहदों की दूरियां पाट देती है. हवाओं और पानियों में घुलकर एक से दूसरे देस निकल जाती है. बेख़याली के आलम में मैं सुनता रहा- 'रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ, आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ', 'ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं, मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा', 'अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें, जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें,' 'मोहब्बत करने वाले कम न होंगे, तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे', 'पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है, जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है,' 'गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले, चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले', 'दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के, वो कौन जा रहा है शब-ए-ग़म गुज़ार के,' 'आये कुछ अब्र कुछ शराब आये, उसके बाद आये जो अज़ाब आये', 'रफ्ता रफ्ता वो मेरी हस्ती का सामाँ हो गए.....लिस्ट बहुत लम्बी है. लेकिन जब भी मैं उनका गाया 'प्यार भरे दो शर्मीले नैन' सुनता हूँ तो मेरी वाणी मूक हो जाती है. जिस तरह से उन्होंने 'प्यार भरे' की शुरुआत की है वह भला कोई क्या खाकर कर सकेगा.

मेहदी हसन को सुनते हुए कभी अभिजातपन का एहसास नहीं होता. लगता है जैसे अपने ही परिवेश का कोई देसी आदमी पक्का गाना गा रहा हो. उनकी आवाज़ में राजस्थान की गमक को साफ़ महसूस किया जा सकता है (मेहदी हसन का जन्म 18 जुलाई 1927, राजस्थान, जिला-झुंझनू, गाँव-लूणा, अविभाजित भारत में हुआ था). उनकी ग़ज़ल गायिकी शास्त्रीय होते हुए भी मिट्टी की खुशबू से सराबोर है. वह जहां पूरी महफ़िल के लिए गाते प्रतीत होते हैं वहीं एक एक श्रोता के लिए भी और सबसे बढ़कर वह स्वयं में खोकर स्वयं के लिए गाते प्रतीत होते हैं. ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह जी ने मुझसे एक बार मेरे प्लस चैनल के दिनों में कहा था- "नई पीढ़ी के ग़ज़ल गायकों को अगर लम्बी रेस का घोड़ा बनना है तो उन्हें अपना शास्त्रीय आधार पुख्ता करना होगा और यह बात उन्होंने मेहदी हसन साहब से सीखी है."

मेहदी हसन साहब ने बड़ी सादगी से राग यमन और ध्रुपद को ग़जलों में ढाला और ग़ज़ल गायिकी को उस दौर में परवान चढ़ाया जब ग़ज़ल गायिकी का मतलब उस्ताद बरकत अली खान, बेगम अख्तर और मुबारक बेगम हुआ करता था. हालांकि हसन साहब कोई ग़ज़ल गायक बनने का उद्देश्य लेकर नहीं चले थे. आठ साल की उम्र में उन्होंने फाजिल्का बंगला (अविभाजित पंजाब) में अपना जो पहला परफौरमेंस दिया था वह ध्रुपद-ख़याल आधारित था...और उन्हें जब पहला बड़ा मौका मिला 1957 में पाकिस्तान रेडियो पर, तो वह ठुमरी गायन के लिए था. ध्रुपद शास्त्रीय संगीत के कुछ सबसे पुराने रूपों में से एक माना जाता है. खान साहब की ट्रेनिंग ही ध्रुपद गायिकी में हुई थी. उनके पिता उस्ताद अज़ीम खान और चाचा उस्ताद इस्माइल खान साहब बचपन से ही रोजाना उन्हें ध्रुपद का रियाज़ कराते थे. दरअसल मेहदी हसन साहब का पूरा खानदान ही गायिकी परंपरा से जुड़ा चला आ रहा था. वह अक्सर ज़िक्र करते थे कि उनकी पीढ़ी 'कलावंत घराना' की 16वीं पीढ़ी है.

लेकिन रेडियो पाकिस्तान के दो अधिकारियों जेडए बुखारी और रफीक अनवर साहब ने मेहदी हसन की उर्दू शायरी में प्रगाढ़ अभिरुचि को देखते हुए उनका प्रोत्साहन किया और गज़लें गाने का मौका दिया. मेहदी हसन इन दोनों सख्शियतों का सार्वजनिक तौर पर ज़िन्दगी भर आभार मानते रहे. आज दुनिया भर के ग़ज़ल प्रेमी भी उनका आभार मानते हैं कि उन्होंने हमें 'शहंशाह-ए-ग़ज़ल' दिया और ग़ज़ल गायिकी को उसका नया रहनुमा.

मेहदी हसन साहब की ज़िंदगी किसी समतल मैदान की तरह कभी नहीं रही. वह वक़्त के थपेड़ों से दो-चार होते रहे. उनका कलाकारों से भरा-पूरा परिवार आर्थिक संकटों से घिरा ही रहता था. बचपन में मेहदी हसन साहब को अविभाजित पंजाब सूबे के चिचावतनी कस्बे की एक साइकल सुधारने वाली दूकान में काम करना पड़ा. थोडा बड़ा होने पर वह कार और डीजल ट्रैक्टर मैकेनिक का काम सीख गए और परिवार की मदद करते रहे. जव वह २० साल के हुए तो भारत-पाक बंटवारा हो गया और वह परिवार के साथ पाकिस्तान चले गए जहाँ आर्थिक मुश्किलों का नया दौर शुरू हुआ. इस सबके बावजूद उन्होंने संगीत के प्रति अपनी लगन में कमी नहीं आने दी. वहां छोटे-मोटे प्रोग्राम करते रहे. और तभी उनको मिला पहला ब्रेक पाकिस्तान रेडियो पर, जिसका ज़िक्र हम पहले कर चुके हैं.

ग़ज़ल गायिकी में स्थापित होने के साथ ही उन्हें पाकिस्तान फिल्म इंडस्ट्री ने हाथोंहाथ लिया. उनके गाये फ़िल्मी नगमें, दोगाने, गज़लें पाकिस्तानी फिल्म संगीत की विरासत बन गए हैं. मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ के साथ उनका गाया 'आपको भूल जाएँ हम, इतने तो बेवफा नहीं' (फिल्म-तुम मिले प्यार मिला, 1969), नाहीद अख्तर के साथ 'ये दुनिया रहे न रहे मेरे हमदम' (मेरा नाम है मोहब्बत, 1975), 'आज तक याद है वो प्यार का मंजर मुझको' (सेहरे के फूल), 'जब कोई प्यार से बुलाएगा' (ज़िंदगी कितनी हसीं है, 1967), 'दुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं' जैसे सैकड़ों सुपरहिट फ़िल्मी नगमें उनके नाम दर्ज़ हैं.

एक गायक के तौर पर मेहदी हसन कई बार भारत आये. भारत के संगीत रसिकों ने हमेशा उन्हें सर-आँखों पर बिठाया. उनके क्रेज़ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब खान साहब पहली बार भारत आये तब 'टाइम्स ऑफ़ इण्डिया' ने पहले पेज पर किसी राष्ट्राध्यक्ष के आगमन की तरह बड़ी-सी तस्वीर छापी थी और कैप्शन दिया था- 'मेहदी हसन एराइव्स'. सच है, इस कायनात में ग़ज़लों का अगर कोई राष्ट्र होता हो तो वह उसके आजीवन राष्ट्राध्यक्ष ही थे. आख़िरी बार जब वह सन 2000 में भारत आये थे तो जल्द ही फिर आने का वादा करके गए थे लेकिन उनकी फेफड़ों की बीमारी ने ऐसा घेरा कि साँस साथ छोड़ने लगी. खुदा की आवाज़ का एहसास कराने वाले फ़नकार की धीरे-धीरे आवाज़ भी जाती रही और अंततः फ़नकार भी हमसे रुखसत लेकर सदा के लिए दुनिया से चला गया.

मुझे अब भी यह खबर झूठी लग रही है. मगर मृत्यु एक कड़वी सच्चाई है. मेंहदी साहब को श्रद्धांजलि देने के लिए उन्हीं के गाये शब्द उधार लेकर इतना ही कहता हूँ- ‘आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ.....’

बुधवार, 21 मई 2008

मनुष्य का पिशाचयोनि में रूपांतरण अमेरिका में हुआ

बुर्जुआ समाज और संस्कृति-१६

पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि हर सरकार सिर्फ़ समझौते ही नहीं तोड़ती थी, अन्तरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन करने में भी माहिर रही। तानाशाह या लोकतंत्र- सभी का एक ही हाल था. अब आगे-

समसामयिक अन्तरराष्ट्रीय संधियों के विवरण से यह साफ ज़ाहिर है कि इन संधियों का महत्त्व कागज़ के टुकड़े से ज्यादा कभी नहीं रहा। किसी भी पक्ष द्वारा शुरुआत होनी चाहिए. संधि करनेवाले इसे मानने के अभिप्राय से संधियाँ नहीं करते और दूसरा पक्ष भी इसका पालन करेगा, ऐसा विश्वास नहीं पालते थे. राष्ट्रसंघ के सदस्य, इस संस्था के साथ जो समझौते हुए हैं, या परस्पर भी जो हुए हैं- सभी तोड़ चुके हैं.

सरकारें तक आतंरिक मामलों में वादाखिलाफी करती हैं। Gold certificate के स्वर्ण-भुगतान से लेकर अनगिनत सुधार और संशोधन के कार्यक्रमों के नकार की एक सुदीर्घ परम्परा है. प्रतिज्ञा-पालन के नाम पर आया है सुविधावाद (expediency) परिस्थितियों के अनुकूल काम करना. अद्भुत नीति है यह सुविधावाद- मनोरंजन, मद्दपान और नृत्य की तरह वर्त्तमान सुखद होते हुए भी भविष्य अन्धकारमय ही रहता है.

'सुविधावादी सिर्फ समझौते ही नहीं, किसी भी नैतिक या सामाजिक दायित्व को भी नकार सकता है. बाहुबल के स्वीकार के अलावा सामाजिक, धार्मिक और मानवीय मूल्यबोध का नकार है. अगर किसी के पास अस्त्रबल है तो मुनाफ़े के लिए जबरन शर्तें आरोपित की जा सकती हैं. अभी हूबहू यही हालत है. इसलिए अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर नग्न बाहुबल ही मीमांसा का पर्याय हो तो आश्चर्यजनक नहीं है।' (ए. पिटरिन सरोकिन/सोशल डायनामिक्स, संक्षिप्त संस्करण, पृष्ठ: ५६६-६७).

बुर्जुआ संस्कृति समाजविरोधी है, फलतः मानवविरोधी भी है। इस संस्कृति का विकास स्वार्थपरता और हिंसा से कदमताल मिलाकर होता है. अमेरिका की सामाजिक-स्थितियां इसका पूरा अक्स है. हिंसक जंतु और मनुष्य में जो अन्तर है वह अमेरिकी नागरिकों और बची हुई दुनिया के लोगों में उससे भी ज्यादा ही है. मनुष्य का पिशाचयोनि में रूपांतरण अमेरिका में ही सर्वप्रथम हुआ है.

वियतनाम के युद्ध में माँओं के पेट चीर कर गर्भस्थ शिशुओं की हत्या, उनकी योनियों में कांच के टुकड़े और विष धर सौंप डालकर त्रास देना, बंदूक के कुंडे से नवजात शिशु के सिर के टुकड़े करना, असहाय जनता की अंतडियों से फुटबाल खेलना, पानी-हवा और खाद्य वस्तुओं में ज़हर मिलाकर आम नागरिकों की हत्या करना, अस्पतालों, शिक्षा प्रतिष्ठान और प्रसूतिगृहों पर बम वर्षा करने जैसे काम जिन्होंने किए, उन्हें मनुष्य की सामान्य संज्ञा देकर भी मनुष्य कैसे कहें?


अमेरिकी सैनिकों ने वियतनाम में जैसे कारनामे किए हैं, उसके लिए अच्छी-खासी मानसिक तैयारी होनी चाहिए; अचानक ऐसी क्रूरता कोई नहीं कर सकता. वे लोग पूरी तैयारी के साथ ही जाते हैं. दरअसल जैसा वे विदेश जाकर करते हैं, स्वदेश में भी वैसा ही करते हैं, वह भी बिना किसी ऊहापोह के.
(कल्पना कीजिये कि इराक़ में इन्होनें क्या गुल खिलाये होंगे- विजयशंकर)

अमेरिकी अपने यहाँ की शिक्षा, संस्कृति और परम्परा के प्रभाव से जन्म लेते ही इन सब कारनामों में अभ्यस्त होने लगते हैं। जिन अपराधों की कल्पना भी अन्य देशों के लोग नहीं कर पाते, उन्हें वे निहायत ठंडे दिमाग़ से अंजाम देते हैं. कोई भी क्रूरतम कार्य बिना हिचकिचाए करना उनका जातीय चरित्र है.

अगली कड़ी में जारी...

'पहल' से साभार, मूल आलेख (बांग्ला) : राधागोविंद चट्टोपाध्याय, अनुवाद: प्रमोद बेडिया.

सोमवार, 19 मई 2008

पूँजीवाद का शास्त्रीय विधान है स्वार्थ-सिद्धि

बुर्जुआ समाज और संस्कृति-१५

पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि न्यूयॉर्क के सौ संपन्न लोगों में बीस मानसिक रूप से विक्षिप्त हैं। अब आगे-

सामग्री-धर्म का तीसरा परिणाम है, हिंसा और निष्ठुरता का विकास। सामग्री और मनुष्य में कोई फ़र्क नहीं, इसलिए दूसरों के दुःख हमें दुखी नहीं कर पाते। सामग्री से मानवीय सम्बन्ध कैसे हो सकता है? छाते में जाते वक्त छाते को धूप या बारिश से तकलीफ़ होती है, यह क्षणिक सोच भी नहीं हो सकता है.

बाज़ार का नियम पालन करते हुए व्यक्ति को भूलना होता है, उसी तरह व्यक्ति को महत्त्व देने से बाज़ार के नियम नहीं चलेंगे. जिंस की तरह ही व्यक्ति का महत्त्व उसकी उपयोगिता ही निर्धारित करती है. तीसरे दर्जे का भाड़ा अदा कर अध्यापक अपनी विद्वता के लिए या रोगी अपनी लाचारी के लिए प्रथम श्रेणी की सुविधाएं नहीं पा सकता. गरीबों के लिए सस्ते में माल नहीं मिलेगा, यही बाज़ार का नियम है. जोन एटन के अनुसार-

'To consider only oneself and not one's neighbours is the economic law of the market Ideal of humanism and comradeship, if rewarded in heaven are not crtainly rewarded in our capital earth. So, a terrible contradiction tears men between their Ideals as human beings and the economic law of existence in the society, in which they find themselves.'

और इसी नियम की हमें आदत हो गयी है। अधिकांश समाज का जीवन तकलीफ़ से गुज़रता है, यदि वे अनाहार या बगैर इलाज से कीड़े-मकौडों की तरह मरते जाते हैं, पेड़ों के तले रहने को बाध्य होते हैं, अगर उनके बच्चे अनपढ़ रहते हैं, तो हमें जिम्मेदारी की थोड़ी-सी भी अनुभूति नहीं होती है. हमें लगता ही नहीं कि हम किसी पर कोई अत्याचार करते हैं, ऐसा भी नहीं लगता कि कहीं न कहीं हम शोषण में सहायक हो रहे हैं, सिर्फ़ क़ानून-सम्मत बाज़ार के नियम मान कर चलते हैं.

प्राचीनकाल में शास्त्रीय विधान से सामाजिकता निर्धारित होती थी। व्यक्तिगत प्रतिभा के अनुसार उस शास्त्रीय विधान की व्यवस्था और प्रयोग का अधिकार नहीं था। हिन्दू मानते थे ब्राह्मण अवध्य है और मुसलमान सूद को महापाप समझते थे. ऐसी अनेक प्रथाएं थीं, जिनके तार्किक होने के बारे में विचार करने की स्वाधीनता नहीं थी. लेकिन इन नीतियों का उल्लंघन असंभव था.

उस युग में शास्त्रीय विधान की जो मर्यादा थी, बुर्जुआ समाज में बाज़ार के नियम का वही स्थान है। इस विधान में अगर ब्राह्मण-वध लाभदायक है तो वह भी हो सकता है. ब्राह्मण ही क्यों, मुनाफ़े के लिए, वह थोक में नर-हत्याएं कर सकता है, खाने की चीजों में मिलावट कर सकता है, कर-चोरी भी करता है, कुल मिलाकर मनमानी कर स्वार्थसिद्धि करना ही पूँजीवाद का शास्त्रीय विधान समझा गया है.

इस विधान के पालन में व्यक्ति से टक्कर भी होती है। तब भी इसी नियम से साम, दाम. दण्ड, भेद से अपने स्वार्थ साधेगा, ताकत होगी तो विजयी होगा. इससे अलग दूसरी कोई नीति बुर्जुआ समाज की नहीं होती, क़ानून के रंगीन परदे तो इस नीति की ओट मात्र हैं. वैसे ही व्यापार भी होता है. बारिश होने पर धूप नहीं रहने की तरह किसी प्राकृतिक नियम से कुछ नहीं होता है. माल की आमद कम होने से ही बाज़ार-भाव ऊंचा होने लगता है. व्यवसायी, उपभोक्ता की लाचारगी का फ़ायदा उठाते हैं.

आधुनिक शासकों के चरित्र के बारे में सरोकिन ने कहा है- 'बेल्जियम से निरपेक्ष रक्षा के संधिपत्र को रद्दी के कागज़-सा फाड़ कर जर्मनी ने बेल्जियम पर आक्रमण करते हुए प्रथम विश्व-युद्ध का सूत्रपात किया था। फ़िर तो अन्तरराष्ट्रीय समझौते तोड़ने की बाढ़-सी आ गयी. समझौते की स्याही सूख भी नहीं पाती थी कि समझौते तोड़ दिए जाते थे. वर्साई संधि का निरीक्षण होने से पहले ही हस्ताक्षर करने वाले उसमें परिवर्त्तन की मांग करने लगे. फ़िर तो अन्तरराष्ट्रीय संधियों से मुकरने की होड़-सी लग गयी. प्राच्य और पश्चिमी राष्ट्र लगातार संधियाँ तोड़ते गए.'

द्वितीय विश्वयुद्ध में भी यही हाल रहा। हर सरकार सिर्फ़ समझौते ही नहीं तोड़ती थी, अन्तरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन करने में भी माहिर रही. तानाशाह या लोकतंत्र- सभी का एक ही हाल था.

अगली कड़ी में जारी...
'पहल' से साभार, मूल आलेख (बांग्ला) : राधागोविंद चट्टोपाध्याय, अनुवाद: प्रमोद बेडिया.

शनिवार, 17 मई 2008

मानव-मन की अन्तर्निहित प्रवृत्ति नहीं है धनोपार्जन

बुर्जुआ समाज और संस्कृति-१४


पिछली कड़ी में अपने पढ़ा कि सामान्य मानव-धर्म के बदले सामग्री-धर्म अपनाते-अपनाते मानव-चरित्र के नए दिगंत प्रकट हो रहे हैं। अब आगे...


विक्रेता के रूप में मनुष्य अपनी कार्यक्षमता, मेधा और व्यक्तित्व बेचता है। स्वभावतः क्रेता इसे अपने स्वार्थ में ही उपयोग करता है. क्रेता की पसन्द से ही माल तैयार होता है. पूँजीवाद में साधु, सत्यवादी, स्पष्टवादी, स्वाभिमानी, निष्कपट और सहृदय लोगों की मांग नहीं है. इसलिए इन गुणों की चर्चा भी कोई नहीं करता, वरन कोढ़ की तरह इन्हें गुप्त रखना ही श्रेयस्कर समझता है.


जो हत्या को आत्महत्या मानकर नहीं चल सकते , ऐसे लोग इस समाज में 'स्वर्गीय' ही हैं। खुशामद, बेईमानी, झूठ, खलता, निष्ठुरता और चालाकी आदि 'गुणों' की मांग है- इसलिए इन गुणों की परीक्षा में उत्तीर्ण होने की होड़-सी लगी रहती है. इस समाज में यदि मिलावटहीन द्रव्य, बेईमान व्यापारियों के उत्पातों से परेशान जनता और घूस तथा दुर्नीति से ग्रस्त व्यवस्था है तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. सामग्री से मानव-धर्म की अपेक्षा भी तो नहीं की जाती.


अपनी इच्छाओं का दमन करते हुए, रूचि को ठेंगे पर रखते हुए, दूसरे की पसंद के अनुसार अपने को ढालना सामग्री धर्म की दूसरी नियति है। लगातार दमित होते-होते, अंतर्द्वद्व के फलस्वरूप, सकारात्मक मानसिकता का लोप होता जाता है, हालांकि सांस्कृतिक प्रभाव कुछ ऐसा होता है कि इसका आभास भी नहीं हो पाता. बुर्जुआ संस्कृति में, जहाँ सार्थकता का पैमाना धन है, ऐश्वर्य के प्रति नमन और गरीबी के प्रति अवज्ञा इतनी स्पष्ट है कि हर कोई दरिद्र होना अपमान और हेठी का बायस समझता है. इस सामाजिक वातावरण से पैदा हुई इस सफलता की अवधारणा के फलस्वरूप कोई भी धनोपार्जन कर अपमान और ग्लानि से मुक्त हो, मान-मर्यादा का अधिकारी होना चाहता है.


धनोपार्जन मानव-मन की अन्तर्निहित प्रवृत्ति नहीं है, दूसरी कई प्रवृत्तियों की पूर्ति का उपाय मात्र है। अपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही धन की जरूरत होती है. लेकिन ऐसा करते-करते उपाय ही उद्देश्य हो जाता है. इस प्रक्रिया में अहं और प्रभुत्व आदि नकारात्मक प्रवृत्तियाँ चरितार्थ करते-करते धन की लालसा का नशा सवार होने लगता है. शराबी की ललक जैसे बढ़ती ही जाती है, वैसी ही धनोपार्जन की लालसा भी होती है.


लेकिन सफल होने पर भी अंत में यही लगता है कि कुछ भी नहीं मिला जीवन में. वांछित मूल्यबोध के अभाव में, पारिवारिक संबंधों की हताशा में, यौवन की संध्या में समझ पाता है कि सोने के हिरन के पीछे-पीछे ही सब कुछ बीत गया,. पारिवारिक सुख, प्रेम और मित्रता आदि की उपेक्षित दमित वासनाएं, स्वार्थी मन को निरंतर और भी चंचल और अस्थिर करती हैं. इन अतृप्त वासनाओं से व्यर्थताबोध और आक्रोश पैदा होता है और अपने नुकसान की भरपाई के लिए प्रतिशोध की भावना भड़कती है. पश्चिमी समाज में ऐसी हताशा के फलस्वरूप लाखों तलाक होते हैं. (Mass,Class and Bureasucracy (page-95)- Divorce (in USA) are now so high that they cover one out of every three or four marriages.
न्यूयोर्क के सौ संपन्न लोगों में बीस मानसिक रूप से विक्षिप्त बताये जाते हैं।


शेष अगली पोस्ट में जारी...


'पहल' से साभार

मेरी नई ग़ज़ल

 प्यारे दोस्तो, बुजुर्ग कह गए हैं कि हमेशा ग़ुस्से और आक्रोश में भरे रहना सेहत के लिए ठीक नहीं होता। इसीलिए आज पेश कर रहा हूं अपनी एक रोमांटि...