सोमवार, 28 अप्रैल 2008

जाति एक साजिश है और अछूत

This is what i wanted to say today.. 'मोहल्ला' और 'रिजेक्ट माल' हिन्दी ब्लोगों पर काफी दिनों तक जाति और दलित समस्या पर बहस चली. लोगों ने पक्ष और प्रतिपक्ष में अपने तर्क पेश किए. दिलीप मंडल अब भी इस पर तर्क तथा आंकड़े दे-देकर फिजाँ में सनसनी घोले हुए हैं.

जाति एवं अछूत विषय (subject) पर मुझे कुछ कवितायें हाथ लगी हैं. एक लघुपत्रिका 'वक्त बदलेगा' डब्ल्यू जी ४२ बी, इस्लामगंज, जालंधर से निकला करती थी. इसके संस्थापक अनिरुद्ध थे. वर्ष १९९२ में उनका १८ साल १० माह की अवस्था में निधन हो गया था. शहीद भगत सिंह की तरह ही वह भी इस महादेश की पददलित-दमित-शोषित जनता के हालात बदलने का सपना देखने वाले नवयुवक थे. क्रांतिकारी पंजाबी कवि अवतार सिंह 'पाश' की धरती से उनका ताल्लुक था. उनके निधन के बाद सम्पादन का दायित्व तरसेम गुजराल पर आ गया था. 'वक्त बदलेगा' के एक अंक में रामेन्द्र जाखू 'साहिल' की कुछ कवितायें छपी थीं. दो कवितायें प्रस्तुत कर रहा हूँ;-

जाति एक साजिश है JAATI EK SAJISH HAI

जाति.... एक दुर्घटना है
जिसमें शरीर से पहले जख्मी होती है सोच
फिर विवेक.

जाति एक दुर्घटना है
जिसमें शरीर चला जाता है लाइलाज मुद्रा में
फिर कोई मसीहा दवा कम,
देता है कर्मों की दुवायें ज्यादा.

जाति एक हादसा है
जिसमें आदमी से पहले मर जाती है आदमीयत
और बाकी रहता है एक अहसास,
जो गाली की तरह पीछा करता है
बाद मरने के भी दलित का.

जाति एक साजिश है
जो रचते हैं शास्त्र ताकि दलित दलित रहें
न मांग सकें कभी भी-
अपना अधिकार,
अपनी पहचान
अपनी सोच.


अछूत ACHHOOT

वे अछूत हैं
न उन्हें हवा हिला सकती है
न आग जला सकती है
न जल बहा सकता है.

वे सब जगह मौजूद रहते हैं
घर में,
मोहल्ले में,
गाँव में,
शहर में,
देश में,
यहाँ तक कि सोच में भी.

हम उन्हें छू नहीं सकते
छूते हैं तो जल जाते हैं
हाथ उठाते हैं तो हाथ कट जाते हैं.

सब जानते हैं
वे कौन हैं

पर सब चुप हैं
न जाने क्यों?

शनिवार, 26 अप्रैल 2008

सूने में बुझ गए कन्हाईलाल दत्त की गाथा 'शहीद गाथा-१'

This is a new series on unknown martyrs of India. मित्रो, भारत को स्वतंत्रता दिलाने में जिन महान सेनानियों का योगदान रहा है उनमें शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक़उल्ला खाँ, सुखदेव, खुदीराम बोस, चाफेकर बंधु, राजेन्द्र नाथ लाहिडी, भगवती चरण बोहरा आदि को तो कमोबेश हम सब जानते हैं, लेकिन हजारों शहीद ऐसे हैं जो सूने में ही बुझ गए। इस सीरीज में ऐसे ही चंद अमर सेनानानियों के बारे में संक्षिप्त जानकारी देने की कोशिश कर रहा हूँ.

इस कड़ी में सबसे पहले प्रस्तुत है अमर शहीद martyr कन्हाईलाल दत्त की कहानी-

कन्हाईलाल दत्त Kanai lal Dutt का जन्म १८८८ में हुआ था. माता-पिता मुम्बई Mumbai में रहते थे इसलिए उनका लालन-पालन और शिक्षा उसी प्रवास में हुई. आगे वह मुम्बई से कोलकाता विश्वविद्यालय Calcutta university में आ गए. कुछ कर गुज़रने की ललक से वह क्रांतिकारी संगठन से जुड़ गए. कोलकाता विश्वविद्यालय से डबल बीए ऑनर्स double BA honours की उपाधि digree प्राप्त की. यहीं उनकी मुलाक़ात अमीर आदमी के बेटे नरेन्द्रनाथ गोस्वामी से हुई।

३० अप्रैल १९०८ को खुदीराम बोस Khudiram Bose और प्रफुल्ल चन्द्र चाकी ने मजिस्ट्रेट किंग्स फोर्ड Kings Ford की घोड़ा गाड़ी पर बम फेंक कर उसकी जान लेने की कोशिश की। निशाना चूक गया जिससे किंग्सफोर्ड तो बच गया लेकिन उसकी गाड़ी में बैठी २ अंग्रेज़ महिलायें मारी गयीं। इसे ही 'अलीपुर षडयंत्र केस' 'Alipore conspiracy' कहा जाता है. खुदीराम और प्रफुल्ल तो वहाँ से भाग निकले लेकिन बाद में छापों के दौरान इस केस के सिलसिले में जो लोग पकडे गए उनमें कन्हाईलाल दत्त, बारीन्द्रकुमार घोष, इंदुभूषण रॉय, उल्लासकर दत्ता, उपेन्द्रनाथ बैनर्जी, विभूतिभूषण सरकार, नागेन्द्रनाथ गुप्ता, धरणीनाथ गुप्ता, अशोकचन्द्र नंदी, बिजोयरत्न सेन गुप्ता, मोतीलाल बोस, निरापद रॉय, अरबिन्दो घोष, अबनीशचन्द्र भट्टाचार्जी, शैलेन्द्रनाथ बोस, हेमचन्द्र दास, दीनदयाल बोस, निर्मल रॉय, सत्येन्द्रनाथ बसु , नरेन्द्रनाथ गोस्वामी आदि थे।

खुदीराम बोस बाद में पकड़े गए लेकिन प्रफुल्लचन्द्र चाकी ने पुलिस के हाथ में आने से पहले ही ख़ुद को गोली मार कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। जल्द ही मुकदमा शुरू हो गया। इस case में ४९ लोग अभियुक्त थे, २०६ लोगों की गवाही हुई, ४०० से ज्यादा दस्तावेज documents दाखिल किए गए. बमों, रिवाल्वरों और तेज़ाब जैसी ५००० चीजें पेश की गयीं. क्रांतिकारियों के वकील युवा चित्तरंजन दास थे.

जेल में यातनाओं से तंग आकर नरेन्द्र गोस्वामी पुलिस की तरफ से सरकारी गवाह बनने को दबी ज़बान से तैयार हो गया. यह ख़बर कन्हाईलाल दत्त को जेल में ही मिली. उन्होंने गोस्वामी को फटकारा. पकड़े गए क्रांतिकारियों के बीच आपसे मशविरा हुआ कि तालाब की इस गंदी मछली का क्या किया जाए. सरकारी गवाह बनने के बाद नरेन्द्र गोस्वामी अस्पताल भेज दिया गया था.

इस बीच अरबिन्द घोष की बहन सरोज ३० अगस्त १९०८ को बारीन्द्र घोष से मुलाक़ात के बहाने जेल आयी और जेल अधिकारियों की आंखों में धूल झोंककर बारीन्द्र को एक पिस्तौल देकर चली गयी. नरेन्द्र गोस्वामी के साथ सत्येन्द्रनाथ बसु भी आ मिले और दोस्ती का वास्ता देकर गोस्वामी का बयान रटने के बहाने उससे मांग लिया।

योजना के अनुसार ३० अगस्त को पेट दर्द का बहाना बनाकर उपेन्द्र नाथ बैनर्जी अस्पताल के पलंग पर जाकर लेट गए. कन्हाईलाल दत्त ने भी सख्त खांसी की शिकायत की और उन्हें भी जेल के उसी अस्पताल भेज दिया गया. नरेन्द्र गोस्वामी और सत्येन्द्रनाथ बसु ३१ अगस्त १९०८ को एक टेबल पर लिखा-पढ़ी के बहाने आमने-सामने बैठे. अचानक टेबल के नीचे से गोली चली. नरेन्द्र गोस्वामी भागा. उसके पैर में गोली लग चुकी थी. लेकिन उसका पीछा करते हुए कन्हाईलाल दत्त पहुंचे और पिस्तौल की बाकी गोलियाँ भी दाग दीं. नरेन्द्र गोस्वामी ने वहीं प्राण त्याग दिए।

जब यह ख़बर जेल से बाहर देशवासियों तक पहुँची तो खुशी की लहर दौड़ गयी. नरेन्द्र गोस्वामी के सरकारी गवाह बनने से लोगों में आक्रोश और क्षोभ था. कन्हाईलाल दत्त और सत्येन्द्रनाथ बसु गिरफ्तार कर लिए गए थे. आनन-फानन 'अलीपुर षड़यंत्र केस' में कन्हाईलाल दत्त को फांसी की सज़ा सुना दी गयी।

१० नवम्बर, १९०८ की सुबह कन्हाईलाल दत्त को फांसी के तख्ते पर खड़ा किया गया. जब जल्लाद ने उनके गले में फांसी का फंदा डाला तो उन्होंने मुस्करा कर पूछा- 'क्या यह रस्सी थोड़ी मुलायम नहीं हो सकती थी! बड़ी खुरदरी और सख्त है. गरदन में चुभती है भाई!'

इष्टमित्र जब लाश लेने पहुंचे तो एक अँग्रेज सिपाही ने धीरे से कहा कि जिस देश में ऐसे वीर जन्म लेते हैं वह देश धन्य है. मरते दम तक कन्हाईलाल दत्त के चहरे पर मुस्कान रही, भय के चिह्न आंखों में उतरे ही नहीं. उनकी शव यात्रा जनता ने बड़ी धूमधाम से निकाली. असंख्य लोगों ने श्रद्धांजलियाँ अर्पित कीं।

सत्येन्द्रनाथ बसु को २१ नवम्बर १९०८ को फांसी दी गयी। लेकिन जनता के आक्रोश के भय से उनके माता-पिता को मजबूर किया गया कि वे सत्येन्द्र का अन्तिम संस्कार अलीपुर जेल के अन्दर ही करें.

इन अमर शहीदों की भावनाएं व्यक्त करने के लिए ही एक क्रांतिकारी ने लिखा था-

इलाही वह भी दिन होगा जब अपना राज देखेंगे,
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा।


और शहीदों का यह सपना सच होकर रहा।

'मीरा-भायंदर दर्शन' द्वारा प्रकाशित 'शहीदगाथा' से साभार, प्रस्तुतकर्ता- सीपी सिंह 'अनिल'

गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

भंग का रंग जमा लो चकाचक!

This article is about lord shiva's booti 'bhang'. भारतवर्ष में भांग को 'शिवजी की बूटी' कहा और माना जाता है। भांग की महिमा में कई भजन और गीत भी रचे गए हैं, जिन्हें अनेक अवसरों पर खुलेआम गाया जाता है. समाज में भांग को सम्माननीय दर्ज़ा प्राप्त है. इसके उलट शराब liquer को नीची नज़र से देखा जाता है; और शराबी को तो ख़ैर नरक का कीड़ा मानता है समाज. मज़े की बात यह है कि भांग और शराब दोनों दिमाग़ में नशा पैदा करते हैं. और नशा करना भारतीय परम्परा Indian tradition में वर्जित है. कहा गया है कि नशा व्यक्ति को अंधा बना देता है. नशे में व्यक्ति विवेक खो बैठता है, वह पशु एवं नराधम हो जाता है. नशे में व्यक्ति अच्छे-बुरे और जायज-नाजायज का भेद करना भूल जाता है.

लेकिन पिछले दिनों मुझे मिले मेरे एक मित्र के पत्र ने भांग के प्रति मेरे मन में सम्मान पैदा कर दिया। मित्र खानदानी वैद्य हैं. उनका नाम है बृजेश शुक्ल. बहरहाल यह पत्र उन्होंने महाराष्ट्र सरकार Maharashtr government तक अपनी गुहार पहुंचाने के इरादे से लिखा है. मुख्तसर में कहूं तो वह दुखी हैं कि जब यह सरकार ताड़ी-माड़ी, देसी-विदेशी शराब के ठेकों को लाइसेंस ज़ारी करती है तो भांग को क्यों नहीं? आख़िर यूपी-एमपी UP, MP में तो भांग के ठेके दिए जाते हैं. वहाँ इसके शौकीन सुबह-शाम लाइन लगाकर ठंडई के बहाने सेवन करते हैं और मस्त रहते हैं.

निवेदन:- मित्र का महाराष्ट्र सरकार से अनुरोध है कि अगर भांग के ठेके खोल दिए जाएं तो उसे अन्य मादक द्रव्यों की ही तरह इससे आबकारी शुल्क Excise Duty मिलेगा और सरकारी ख़जाने Exchequer को लाभ होगा। दूसरे शराब और ताड़ी-माड़ी से जो स्वास्थ्य हानि होती है वह भी नहीं होगी क्योकि भांग एक आयुर्वेदिक औषधि है. मेरे यह वैद्य मित्र भी भांग की उपलब्धता कुछ औषधियों के निर्माण के लिए चाहते हैं.

मित्रो, हमारे वैद्यराज की बात में दम लगता है. गोस्वामी तुलसीदास Tulsidas ने रामचरितमानस Ramcharitmanas के बालकाण्ड में दोहा लिखा है-
नाम राम को कलपतरु, कलि कल्याण निवास,
जो सुमिरत भयो भांग ते, तुलसी तुलसीदास.
(दोहा क्रमांक- २६).

भांग के Medical लाभ:-
१) बवासीर piles, fishure & fistula (खूनी या वादी) में पीसकर गुदामार्ग में लेप करने से दर्द व जलन में राहत मिलती है.
२) इसके बीजों का तेल निकाल कर लगाने से चर्म रोगों skin deseases में आराम मिलता है.
३) इसके सेवन से मधुमेह Diabetes नहीं होता.
४) इसके सेवन से मर्दानगी Potency बनी रहती है।


मित्र का दावा है कि भांग एक सम्पूर्ण वनस्पति compelete hurb है। भांग की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्राचीन ग्रंथों में यह श्लोक shloka मिलता है:-

जाता मंदरमंथानाज्जलनिधौ, पीयूषरूपा पूरा,
त्रैलोक्यई विजयप्रदेती विजया, श्री देवराज्ज्प्रिया,
लोकानां हितकाम्या क्षितितले, प्राप्ता नरैः कामदा,
सर्वातंक विनाश हर्षजननी, वै सेविता सर्वदा।


कथा है कि मंदराचल पर्वत से जब समुद्रमंथन किया गया था तब अमृत Nectur रूप से भांग की उत्पत्ति हुई थी। त्रिलोक विजयदायिनी होने से इसका नाम विजया हुआ. यह देवराज इन्द्र को प्यारी है.

मेरी दिलचस्पी बढ़ी तो मैंने यह जानकारी निकाली-- "भांग के पौधे नर व मादा दो प्रकार के होते हैं। नर पौधों के पत्तों से भांग मिलती है. उत्तरप्रदेश, राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश, हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में भांग की खेती के लिए अनुकूल जलवायु होती है. इसके पत्ते नीम के पत्तों की भांति लंबे और कंगूरेदार होते हैं; लेकिन आकार में कुछ छोटे. हर डंठल पर ६-७ पत्ते होते हैं. भांग का अर्क खींचने से एक प्रकार का तेल निकलता है जो अर्क पर तैरता है, उसमें भी भांग के समान खुशबू आती है और रंग कहवे की तरह होता है.

एक जानकारी और- 'भारतवर्ष के हेम्प ड्रेज कमीशन ने वर्ष १८९३-९४ में यह निर्णय दिया था कि भांग का साधारण उपयोग कोई शारीरिक हानि नहीं पहुंचाता और न ही इसका दिमाग़ पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यूनानी मत से भी यह उत्तम वनस्पति है जो कई रोगों का समूल विनाश कर देती है।'

भांग को कई नामों से जाना जाता है- अजया, विजया, त्रिलोक्य, मातुलि, मोहिनी, शिवप्रिया, उन्मत्तिनी, कामाग्नि, शिवा आदि। बांग्ला में इसे सिद्धि कहते हैं. अरबी में किन्नव, तमिल में भंगी, तेलुलू में वांगे याकू गंज केटू और लैटिन में इसको कैनाबिस सबोपा कहते हैं.

किसी कवि ने भांग की महिमा में कवित्त रचा है:-

मिर्च, मसाला, सौंफ कांसनी मिलाय भंग,
पीये तो अनेक रंग, अंग को उबारती.
जारती जलोदर, कठोदर भागंदर,
बवासीर, सन्निपात बावन बिदारती.
दाद के शिवराज खाज को ख़राब करे,
सईन की छींक, नासूर को निकारती.
काम के रोग, शोक, सेवत ही दूर करे,
कमर के दर्द को गारद कर डारती।


भाई साहब, इस भंग महिमा के बाद भी अब कहने को कुछ बचता है क्या? हमारी दिली इच्छा है कि महाराष्ट्र सरकार का कोई नुमाइंदा भी इसे पढ़े और हमारे वैद्यराज मित्र के हृदय की पीड़ा दूर करे.

सोमवार, 21 अप्रैल 2008

कितने साल बाद मरोगे?

This is an article talking about a life insurance policy in a humerous way. मेरा कल एक जीवन बीमा एजेंट life insurance policy agent से साबका पड़ गया। मुझे उसने कुछ पोलिसियाँ बताईं. उनका नफ़ा-नुकसान बताने लगा. इनमें एक पॉलिसी ऐसी थी जिसमें किस्त का हिसाब मुझे उल्टा लगा.


आम तौर पर लम्बी अवधि की पॉलिसी लेने पर प्रीमियम premium कम आता है, फ़िर चाहे वह मनीबैक पॉलिसी moneyback policy हो या endoment policy. लेकिन एजेंट की बताई इस पॉलिसी का प्रीमियम अवधि लम्बी होने के साथ-साथ ही बढ़ता जाता है. यानी ज्यादा समय की पॉलिसी तो ज्यादा बड़ी किस्त. मैंने एजेंट से इसका कारण पूछा.


एजेंट मुझे समझाने लगा- 'देखिये यह पॉलिसी उन लोगों के लिए है जिनके ऊपर कुछ लाइबेलिटीज libilities हैं। मसलन, बड़ा क़र्ज़, बेटी की शादी, बच्चों की उच्च शिक्षा higher education आदि. मान लीजिये कि घर के मुखिया की असमय मृत्यु हो गयी, तो कौन भरेगा क़र्ज़? वह माफ़ तो नहीं हो जायेगा. कौन करेगा बेटी की शादी? वह घर पर तो नहीं बैठी रहेगी. ऐसे में यह पॉलिसी साथ देती है.'


मैं तसल्लीबख्श होते हुए कहने लगा- 'चलो अच्छा है, मेरा भी इसी पॉलिसी के तहत बीमा कर दीजिये। नहीं मरा तो पैसा कहाँ जायेगा?'


इस पर एजेंट ने मुझे चौंका दिया- 'अगर बीमा की अवधि समाप्त होने से पहले मृत्यु नहीं हुई तो पैसा वापस नहीं मिलेगा। अगर ऐसा होने लगे तो लोग पाँच-दस वर्षों के लिए करोड़ों का बीमा करवा कर क्लेम claim नहीं कर लेंगे?. यही इस पॉलिसी की खासियत है कि जितनी लम्बी अवधि, उतना ज्यादा प्रीमियम.'


मैंने इसके पहले कभी जिंदगी और मौत के बारे में इस तरह से नहीं सोचा था। हिसाब लगाने लगा कि कम से कम कितने साल की पॉलिसी कराऊँ ताकि प्रीमियम भी बरदाश्त कर सकूं और मरने के बाद ज़्यादा पैसा परिवार को मिले. अभी मेरी उम्र ३८ वर्ष है. अगर कम प्रीमियम के लालच में १० साल की पॉलिसी ले लूँ तो कैसा रहेगा? लेकिन क्या मैं अगले १० सालों के अन्दर महज ४८ साल की अवस्था में ही मर जाऊंगा? और अगर नहीं मरा तो दस सालों तक भरा पूरा प्रीमियम व्यर्थ जायेगा. फ़िर सोचा कि २० साल की ले लूँ, लेकिन फ़िर वही ख़याल कि क्या ५८ की उम्र में मर जाऊंगा? यानी मैं मौत की आशंका से घबराने लगा. जितने अगले सालों के बारे में सोचता जाता था, मौत अगले ही पल खड़ी दिखाई देती थी॥


इसी मानसिक अवस्था में कई विचार आए-गए। गालिब Mirza Ghalib का शेर भी याद आया-

'था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ,

उड़ने से पेश्तर भी मेरा रंग ज़र्द था।'


इस शेर से थोड़ा तसल्ली हुई तो यक्ष का पांडवों Pandvas से पूछा प्रश्न 'किं आश्चर्यम? और युधिष्ठिर Dharmraj Yudhishthir द्वारा दिया गया उसका जवाब भी याद आ गया, जिसका भावानुवाद यहाँ दे रहा हूँ- 'दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि मानव यह जानते हुए भी कि एक दिन सबको मरना है, दुनिया भर के धतकरम ऐसे करता रहता है जैसे उसे कभी मरना ही नहीं है.' मेरी तो जान में जान आ गयी।


मैंने तुरत 'जीवेत शरदः शतम' वाला भारतीय आशीर्वाद गुना और एजेंट से अनुरोध किया- 'भाई, मेरा सौ साल के लिए इस पॉलिसी के तहत बीमा कर दो.'

रविवार, 20 अप्रैल 2008

'रिजेक्ट माल' में छपे लेख का जोड़ उर्फ़ भय को भूत न बनाएं

जिन मानसिक-शारीरिक बीमारियों को लोग भूत लग जाना समझ लेते हैं, उसका खुलासा दो-तीन घटनाओं के माध्यम से लेखक ने करने की कोशिश की है। लेकिन ये घटनाएँ, ऐसा लगता है कि एक थीम को किसी तरह साबित कर देने की जिद के तहत घटी हैं.

दरअसल लेख में आपकी मूल स्थापना से मैं सहमत हूँ कि भूत-प्रेत का हव्वा खड़ा करके सदियों से चालाक लोग अशिक्षित (और कई बार तो श्रेष्ठी वर्ग को भी) लोगों को ठगते एवं उनका शोषण करते रहे हैं। यह शोषण कई स्तरों पर होता आया है., लैंगिक शोषण भी.

आपको आश्चर्य होगा कि भारत में बौद्ध धर्म के पतन का एक प्रमुख कारण यह भी था। ये लोग उत्तर वैदिककाल की जिस बुराई के विरोध में पनपे थे, उसी का शिकार हो गए. अधिकांश बौद्ध मठ तंत्र-मन्त्र, जादू-टोना, भोगविलास का अड्डा बन गए थे. मठों में महिलाओं के प्रवेश ने धर्म का पतन और तीव्र कर दिया. अथर्ववेद के तंत्र-मन्त्र-यंत्र से घबराकर अधिकांश जनता जिस सरल धर्म की तलाश में बौद्ध धर्म की शरण में आयी थी, बौद्धों ने उसे फिर उसी जटिल हिन्दू धर्म के जंजाल में धकेल दिया था, जहाँ अंधविश्वास थे और तंत्र-मन्त्र के डरावने कर्मकांड भी. पतन की बाकी बातें राजनीतिक तथा सत्ता के कुचक्रों का नतीजा थीं.

लेख में अगर भूत-प्रेत की अवधारणा का चिट्ठा खोला जाता और इस अवधारणा की मौजूदगी की जेनुइन वजहें तलाशी जातीं तो संभवतः कई दिलचस्प बातें सामने आतीं।

याद आता है कि किस तरह एक गुरु घंटाल नागपुर से एक जज की बीवी को यह यकीन दिलाकर भगा ले गया था कि वह जज की बीवी के पूर्व जन्म में उसका पति था। और जज ने यकीन भी कर लिया था. संभवतः भूत-प्रेतों की मौजूदगी स्वीकारने के लिए दिमाग ऐसी ही किसी अवस्था में चला जाता होगा. ऐसे ढेरों उदाहरण समाज में आपको मिल जायेंगे. सम्मोहन भी इसका एक रूप है.

बचपन में कई बार मुझे ऐसा लगा भी कि 'श्श्श्श् कोई है' ...तो बड़े-बूढ़ों ने सदा यही कहा कि यह मन का भ्रम है। भूत-प्रेत नहीं होते. अगर वे मुझे ओझा या गुनिया के पास झाड़-फूंक के लिए पकड़ ले जाते तो मैं जिंदगी भर 'धजी को सांप' समझता रहता. लेकिन इस विश्वास का बीज बचपन में ही नष्ट कर दिया गया. बाद में कभी इस तरह के ख़याल का पौधा नहीं उगा.

आज पत्र-पत्रिकाओं, नाना प्रकार के टीवी चैनलों तथा सम्पर्क-अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों के ज़रिये हमारे बीच भूत-प्रेतों की दुनिया आबाद की जा रही है। बच्चों के कोमल दिमाग पर इसका क्या दुष्प्रभाव पड़ता है, कभी सोचा है? आप गौर करेंगे कि भूत-प्रेतों और जिन्नात की दुनिया वाले रिसाले उन लोगों के बीच ज्यादा खपते हैं जिनका विकसित और आधुनिक दुनिया से ज्यादा लेना-देना नहीं होता. सारा बिजनेस उसी बंद समाज से चलता है. किस्मत बदलने के लिए तांत्रिक की अंगूठी, बाज़ का पंजा, मर्दानगी बढ़ाने के लिए शिलाजीत जैसी अनेक चीजें वहीं खपती है. लेकिन मार्केट बढ़ाने के लिए जरूरत है कि यह तिलिस्म वृहत्तर शहरी समाज को भी अपनी गिरफ्त में ले ले. आश्चर्य की बात नहीं है कि आजकल अधिकांश हिन्दी चैनल शाम ढलते ही रामसे की फिल्मों के सेट में तब्दील हो जाते हैं.

इन भूत-प्रेत आधारित कार्यक्रमों (क्रियाकर्मों पढ़ें) को देखने के बाद बच्चों के मन पर क्या बीतती होगी? क्या बड़ा होकर वे भूत-प्रेत की संकल्पना से मुक्त हो सकेंगे? और फिर वे अपने बच्चों को क्या दे जायेंगे? यह सही है कि अन्य मनोविकारों की ही तरह मनुष्य के मन में भय उपस्थित रहता है. काम, क्रोध, मद लोभ, ईर्ष्या की तरह ही भय भी हमारे 'सॉफ्टवेयर' में 'इनबिल्ट' है. परन्तु मित्रो, हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम भय को भूत न बनाएं.

शनिवार, 19 अप्रैल 2008

आशिक़ की बद्दुआ

आप सबने मोहम्मद रफ़ी के गाने 'बाबुल की दुवायें लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले' की पैरोडी सुनी होगी, जो इस तरह है- 'डाबर की दवाएं लेती जा, जा तुझको पति बीमार मिले'। लेकिन मुझे इस गाने की ताज़ा पैरोडी दस्तयाब हुई है. यह हैदराबाद से छपने वाले उर्दू मासिक 'शगूफा' में शाये हुई थी. पागल आदिलाबादी ने इसे तैयार फ़रमाया है. आप सबकी नज़र करता हूँ:--

आशिक की दुवाएं लेती जा, जा तुझको पति कंगाल मिले
खिचड़ी की कभी न याद आए, जा तुझको चने की दाल मिले.
गारत हो किचन में हुस्न तिरा, ये रूप तेरा हो बासी कढी
चीखे तू कुड़क मुर्गी की तरह, हर एक मिनट, हर एक घड़ी
तू झिडकियां खाए शौहर की, शौहर भी गुरु-घंटाल मिले.
खिचड़ी की कभी न याद आए, जा तुझको चने की दाल मिले.
गालों में तिरे पड़ जाएं गड्ढे, लग जाए जवानी में ऐनक
ये रेशमी जुल्फें झड़ जाएं और मुंह पे निकल आए चेचक
ससुरा भी तुझे खूंखार मिले और सास बड़ी चंडाल मिले.
खिचड़ी की कभी न याद आए, जा तुझको चने की दाल मिले.
तरसे तू लिपस्टिक, पाउडर को और याद करे तू काजल को
रेशम की तुझे साड़ी न मिले, मोहताज रहे तू मलमल को
मेक-अप की तुझे फुरसत न मिले, जा जी का तुझे जंजाल मिले.
खिचड़ी की कभी न याद आए, जा तुझको चने की दाल मिले.
शादी का किया मुझसे वादा, धनवान से शादी कर डाली
रन आउट मुझे करवा ही दिया और सेंचुरी अपनी बनवा ली
दिल तूने जो तोड़ा पागल का, जा तुझको पति कव्वाल मिले.
खिचड़ी की कभी न याद आए, जा तुझको चने की दाल मिले।


मेरी दिलजलों से गुजारिश है कि वे अपनी पूर्व या भूतपूर्व महबूबा को ऐसी बद्दुआ तो हरगिज़ न दें.

बुधवार, 9 अप्रैल 2008

'वागर्थ' में छपी हालिया कविता

दोस्तो, भारतीय भाषा परिषद् की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'वागर्थ' के मार्च, २००८ अंक में मेरी छोटी-छोटी ३ कवितायें छपीं थीं. यह उनमें से एक है. इस कविता पर विभिन्न दृष्टिकोणों से ब्लॉग जगत की राय जानना चाहता हूँ:-


ख़रीद-फरोख्त
चुटकी बजाते हुए जब कोई कहता है
कि वह खड़े-खड़े खरीद सकता है मुझे
तो खून का घूँट पीकर रह जाता हूँ मैं।

लेकिन एक सुबह पता चलता है-
मुझे तो रोज़ ही बेच देते हैं सौदागर
कभी इस मुल्क़, तो कभी उस मुल्क़ के हाथों।

मैं जिस दफ़्तर में काम करता हूँ
उससे भी राय नहीं ली जाती
दफ़्तर समेत बेच दिया जाता हूँ।

रोज़ बेच दी जाती है मेरी मेहनत
माता-पिता का दिया मेरा नाम,
जहाँ पैदा हुआ था वह गाँव भी बेच दिया जाता है।
वह क़ब्रिस्तान, वह शमशान भी नहीं बख्शा जाता
जहाँ पड़े हैं हमारे पुरखों के अवशेष।
ड्रायवर से बिना पूछे
बेच दी जाती है उसकी ड्रायवरी।
मज़दूर की निहाई,
मछुआरे का जाल,
बढ़ाई का रंदा,
लोहार की हाल,
तमाम पेशे बेच दिए जाते हैं।

काश्तकार बेच दिए जाते हैं खड़ी फ़सलों समेत
नदियों का हो जाता है सौदा मछलियों से बिना पूछे।
खनिज बेच दिए जाते हैं,
बेच दिया जाता है आकाश-पाताल,
हमारी तन्हाइयां तक नहीं बख्शते बाज़ार के ये बहेलिये।

हमारी नींद, हमारी सादगी
हमारे सुकून की लगाई जाती है बोली,
गर्भ में पल रहे शिशुओं तक का हो जाता है मोलभाव।

यों तो कुछ लोग हमेशा रहते हैं बिकने को आतुर,
लेकिन बिकना नहीं चाहती वह स्त्री भी
जो खड़ी रहती है खम्भे के नीचे ग्राहक के इंतज़ार में।

हमारी ख़रीद-फ़रोख्त में कोई नहीं पूछता हमारी मर्जी
कोई नहीं बताता कि कितने में हुआ हमारा सौदा, किसके साथ।
मेरे जानते तो कोई नहीं लगा सकता मोल आत्मा का
पर वह भी बेच दी जाती है कौड़ियों के मोल बिना हमें बताये।
जिसके बारे में हमें पता चलता है,
एक बिके हुए दिन की पराई सुबह में।
-- विजयशंकर चतुर्वेदी।

मेरी नई ग़ज़ल

 प्यारे दोस्तो, बुजुर्ग कह गए हैं कि हमेशा ग़ुस्से और आक्रोश में भरे रहना सेहत के लिए ठीक नहीं होता। इसीलिए आज पेश कर रहा हूं अपनी एक रोमांटि...