ऋगवैदिक कालीन साहित्य में सोमरस का उल्लेख आता है. कुछ विद्वान इसे सुरा या शराब समझते हैं. हालांकि आज तक यह साबित नहीं हो पाया है कि सोमरस शराब था या नहीं. यह बात और है कतिपय लोगों ने इसे बनाने की विधि और रहस्य जान लेने का समय-समय पर दावा किया है. कहते हैं कि इसे सोमलता की पत्तियों से तैयार किया जाता था जिसमें विशेष प्रकार का आटा तथा चूर्ण मिलाया जाता था और इसका स्वाद मीठा होता था लेकिन नशा नहीँ होता था. यज्ञकर्म में देवताओं को यह प्रस्तुत किया जाता था. कहा जा सकता है कि यह एक उच्चकोटि की वाइन थी.
एक पोस्ट भंग का रंग जमा लो चकाचक में मैंने शिवजी की बूटी भांग की महिमा गाई थी. क्या भांग ही सोम रस है? ---नामक लेख में भाई अभय तिवारी ने उस सिल पर निर्मल-आनंद घोंटते हुए सोमरस का उद्गम ढूँढने की कोशिश की थी. वह कुछ-कुछ थाह ले पाये थे. सच कहूं तो उनका लेख पढ़ कर मुझमे गज़ब उत्साह पैदा हुआ. सहयोगी गोताखोर की हैसियत से मैंने भी लंगोट कस कर सोमरस के अथाह सागर में डुबकी लगाई और जो हाथ लगा है, आपके प्यालों में उंडेल रहा हूँ. 'सोमरसभांड' ज़रा बड़ा हो गया है. एक-दो दौर में ख़त्म होगा. लीजिये, नोश फरमाइये-
... सो मुर्गीखेत में जो कथा सनके दिक् मुनि ने मुझसे कही थी वह अब मैं आप श्रवणों से कहता हूँ....
'अगर उचित तरीके से ली जाए तो बढ़िया शराब एक बहुपरिचित जीव है'- विलियम सेक्सपियर.
ओल्ड टेस्टामेंट में भी वाइन का ज़िक्र कई जगह आया है. लेकिन इसे बनाने के प्रथम प्रमाण मध्य-पूर्व एशिया में मिले है.
भारतवर्ष में वैदिक सभ्यता ईसा से ३००० से २००० वर्ष पहले मानी जाती है. इसमें सोम देवता था. सोम को 'द्रव आनंद' (लिक्विड प्लेजर) का देवता माना गया है. ऋगवेद में एक स्थान पर कहा गया है- 'यह सोम है जो शराब बहाता है, जो स्फूर्ति एवं शक्तिदायक है. सोम अंधों को दीदावर बना देता है तथा लंगडों को दौड़ा देता है.'
यहाँ ईश्वर की प्रशस्ति में कहा गया गोस्वामी तुलसीदास का एक दोहा याद आता है-
'मूक होंहिं वाचाल, पंगु चढें गिरिवर गहन,
जासु कृपा सो दयाल, द्रवहुं सकल कलिमल दहन.'
चरक संहिता में सोमरस को अनिद्रा, शोक, सदमा एवं थकान की दवा बताया गया है. चरक संहिता भारत में मौर्यकाल के दौरान लिखी गयी थी. यह लगभग ३०० वर्ष ईसा पूर्व का काल था. चरक का मतलब होता है घुमंतू विद्वान या घुमंतू चिकित्सक. इस संहिता में आठ खंड तथा १२० अध्याय हैं.
भारत के पहले ज्ञात सर्जन सुश्रुत ने सोमरस को एनेस्थीशिया के तौर पर इस्तेमाल करने की सलाह दी है. वहीं चरक भी कहते हैं कि शल्यक्रिया (ऑपरेशन) से पहले मरीज को इच्छानुसार भोजन तथा सोमरस पीने को दिया जाए ताकि वह नश्तर की धार का अनुभव न कर सके और शल्यक्रिया के दौरान बेहोश न होने पाये. चरक ने यह भी कहा है कि सोमरस के पान से भूख, पाचन क्रिया और आनंद में वृद्धि होती है. यह शरीर के प्राकृतिक द्रवों का प्रवाह सुचारू करता है नतीजतन शरीर हमेशा स्वस्थ रहता है. समझा जा सकता है कि ऋगवैदिक काल से लेकर मौर्य काल तक वाइन को सोमरस ही कहा जाता था.
तंत्र एवं शास्त्रों में सोमरस को ईश्वर की मदिरा कहा गया है. प्राचीन चिकित्सक इसे अमृत कहते थे. दिलचस्प बात यह है कि सोमरस और बकरी के दूध को टीबी के इलाज के लिए उपयोग में लाने की सलाह दी जाती थी. पश्चिम के जाने माने विद्वान एमडी गाउल्डर ने वर्ष १९९६ में बताया था कि ईसाई धर्मग्रन्थ 'बांकेल' बयान करती है-
'सोमरस येहोवा की उपाधि थी जिसका मतलब है- प्राचीन युद्ध देवता. वह अपने देवदूत के पंखों वाले सिंहासन पर बैठा था.' इसका अर्थ यह हुआ कि सोमरस शब्द हमें 'जेंद अवेस्तां' ग्रन्थ में तलाशना चाहिए. उससे और स्पष्ट हो जायेगा कि आर्य इसे सोमरस ही क्यों कहते थे?...
पहला भाग यहीं समाप्त होता है.. इतिश्री रेवाखंडे प्रथमोअध्याय समाप्तः...
अपनी पीठ इन्द्रपीठ- यह लेख 'दैनिक भास्कर' की रविवारीय पत्रिका 'रसरंग' में गुजिश्ता २५ मई, २००८ को पंजाब, हरियाणा और पता नहीं कहाँ-कहाँ के संस्करणों में कवर स्टोरी बन कर रोशनी में आ चुका है. सैकड़ों फोन इस आशय के आ चुके हैं कि मैं उन्हें सोमरस बनाने की विधि बता दूँ. मेरा जवाब है लागत लगाओ, बता देंगे. लेकिन कोई खर्चा देने को तैयार नहीं है इसलिए घर में ही महुए का सोमरस बनाना पड़ रहा है.
अब पल्ला झाड़नेवाली सूचना:- यह लेख ब्लॉगकालीन सोमरस की हांडी चढाए रहने के चार घटी, तीन पल बाद ३० अक्षांश, १८३ देशांतर में लिखा गया है. विद्वज्जनों को अगर कोई गफलत पकड़ में आए तो यह मेरी नहीं, सोमरस की जिम्मेदारी मानी जाए.
सत्यकथा:- बीड़ी बीवी ने छिपा दी है उसे ढूँढना वैदिककालीन ऋषि को अतिआवश्यक जान पड़ रहा है...
अब अगले भाग का इंतज़ार करें. इन्द्र का बहुत आवाहन किया लेकिन वह नहीं आया. थक-हार कर ख़ुद ही इन्द्र बनना पड़ा. टूटी खाट में पड़े रहकर ब्लोगिंग नहीं हो पा रही है...