डॉक्टर विद्यासागर आनंद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
डॉक्टर विद्यासागर आनंद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

रोशन-ख़याली की मिसाल थे बहादुरशाह ज़फ़र

'१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र' पुस्तक का जिक्र मैंने इसी ब्लॉग में पिछले दिनों किया था, उसकी भूमिका है यह. पुस्तक के संकलनकर्ता-संयोजक और लेखक डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने इसे लिखा है. इस भूमिका की यह आख़िरी कड़ी है- विजयशंकर चतुर्वेदी)


(पिछली कड़ी से जारी)

...यह एक अजीब पर इतिहास का विषम तथ्य है कि जिस प्रतापमयी व्यक्तित्व ने अपना देश स्वतन्त्र करने के लिए संघर्ष किया उसकी लाश यथासमय एक विदेशी धरती में दफ़न है. हम और इस पुस्तक में लिखने वाले सभी लोग भारत सरकार से मांग करते हैं कि भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में भाग लेने वाले जियाले सपूतों के महानायक तथा सम्मान योग्य भारतीय सपूत के साथ न्याय किया जाए और उनकी लाश को पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनके पैतृक देश में लाकर दफ़न किया जाए. यह व्यक्तित्व निस्संदेह ही भारत के लिए गौरव का स्रोत है और स्वतन्त्र भारत को इसका आभारी और शुक्रगुज़ार होना चाहिए.

सन् १८५७ की याद में आयोजित किए गए एक सौ पचास वर्षीय समारोह के अवसर पर उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर गुलज़ार ने लाल क़िला परिसर में हमारे मनोभाव का सीधा-सच्चा प्रतिनिधित्व करते हुए सरकार की ओर से आयोजित इस समारोह में यह इच्छा प्रकट की थी कि बहादुरशाह ज़फ़र की लाश को वापस दिल्ली लाया जाए. भारतीय राष्ट्र के विभिन्न चिंतन-समूह के प्रतिनिधियों ने उनके विचारों की खुले मन-मस्तिष्क से प्रशंसा व सराहना की. खेद का विषय है कि इस बड़ी ऐतिहासिक ग़लती के सुधार के लिए कोई क़दम नहीं उठाया गया.

आने वाली पीढियाँ इस बात का निर्णय करती हैं कि राष्ट्र अपने शहीदों के प्रति किस प्रकार का बर्ताव करता है. इस पृष्ठभूमि में देखा जाए तो लगता है कि भारतीय जनता बहादुरशाह ज़फ़र की लाश को भारत लाकर इस धरती में दफ़न करना चाहती है तथा उनके मज़ार पर उचित 'कत्बा' लगाना चाहती है परन्तु भारत के सत्ताधारी लोग इस 'जनमत' को महत्त्व नहीं दे रहे हैं

बहादुरशाह ज़फ़र हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी और पंजाबी भाषाएँ धारा-प्रवाह बोलते थे. उन्होंने इन भाषाओं में अनेक नज़्में, ग़ज़लें कही हैं. इनमें उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता का प्रबल शब्दों में समर्थन किया है तथा धार्मिक उन्माद, कट्टरता, घृणा और असहिष्णुता की खुली भर्त्सना व निंदा की है. आज भारत को ऐसे लोगों की बड़ी आवश्यकता है जो बहादुरशाह ज़फ़र जैसी सोच, व्यापक-हृदयता, सच्चाई और रोशन-ख़याली के प्रतीक हों. मौजूदा हालात में, जब धार्मिक कट्टरता से वातावरण दूषित किया जा रहा है बहादुरशाह ज़फ़र के व्यक्तित्व और कटिबद्धता से सहनशीलता के प्रचार-प्रसार की बड़ी आवश्यकता है.

मेरे पास शब्द नहीं और मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं उन सब महानुभावों को कैसे धन्यवाद दूँ जिन्होंने इस पुस्तक के लिए अपने बहुमूल्य समय में से वक़्त निकालकर हमारे निवेदन पर लेख लिखे और अपने सुझाव भी दिए, मेरी सहायता की और साहस बढ़ाया.

साहिर शीवी और सैयद मैराज जामी की पत्रिका 'सफ़ीरे उर्दू' के द्वारा हमें बहुत से लेख प्राप्त हुए. 'सफ़ीरे उर्दू' का बहादुर शाह ज़फ़र विशेषांक मेरे ही निवेदन पर प्रकाशित किया गया था. बारह वर्ष पूर्व मोइनुद्दीन शाह साहब (मरहूम) ने अपनी पत्रिका 'उर्दू अदब' का बहादुरशाह ज़फ़र विशेषांक प्रकाशित कर ज़फ़र को श्रद्धांजलि दी थी. इस पुस्तक में कुछ लेख उल्लिखित विशेषांक से भी लिए गए हैं. अंत में उर्दू के विश्वसनीय लेखक व प्रकाशक 'खादिम-ए-उर्दू' (उर्दू-सेवक) प्रेमगोपाल मित्तल साहब की सेवाओं को भी नहीं भुलाया जा सकता जिन्होंने प्रस्तुत पुस्तक की साज-सज्जा में अपना बहुमूल्य समय लगाया.(समाप्त)

-डॉक्टर विद्यासागर आनंद

पुस्तक: '१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र', सम्पादक: डॉक्टर विद्यासागर आनंद, प्रकाशक: माडर्न पब्लिशिंग हाउस, ९ गोला मार्केट, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२. पृष्ठ ५७६, मूल्य ६०० रूपए.

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

उनमें ऐसा आदमी था इक बहादुरशाह ज़फ़र

(जिस पुस्तक '१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र' का जिक्र मैंने अपने ब्लॉग 'आज़ाद लब' में पिछले दिनों किया था, उसकी भूमिका है यह. पुस्तक के संकलनकर्ता और संयोजक डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने यह भूमिका लिखी है. आलेख की भाषा अवश्य अधिक चुस्त नहीं है, लेकिन विश्वास है कि इसमें व्यक्त की गयी तीव्र भावना पाठकों को ईमानदार लगेगी. यही भूमिका कुछ कड़ियों में प्रस्तुत की जा रही है- विजयशंकर चतुर्वेदी)
क्या नहीं हमने किया आज़ाद होने के लिए
खून भी अपना बहाया शाद होने के लिए
ताकि हम आज़ाद हों, अपने वतन में शान से
उर दिया बुझने न दें लड़ते रहें तूफ़ान से
हक़ हमारा था कि आज़ादी को फिर हासिल करें
मात अंग्रेज़ों को देने में जिएँ या हम मरें
पेशे-आज़ादी हमारी ज़िंदगी क्या चीज़ है
उर गुलामी को मिटाने जान भी क्या चीज़ है


गुलामी से मुक्ति तथा विदेशी प्रभुत्व व प्रभुसत्ता से आज़ादी पाने के लिए सम्पूर्ण राष्ट्र ने एकजुट होकर स्वतंत्रता-संकल्प लिया था. अपने जान-माल की परवाह किए बिना तथा परिणाम के बारे में सोचे बिना, कफन को लहू में डुबोकर अपने सिरों से बाँध लिया था.

सन १८५७ का भयावह काल वास्तव में भारतीय राष्ट्र की अनगिनत कुर्बानियों व बलिदान की दास्तान है. एक ऐसी दास्तान जिसका आरंभ बहादुरशाह ज़फ़र के व्यक्तित्व से हुआ- वे पवित्र परन्तु क्षीण हाथ- जिन पर सारे हिन्दुओं, मुसलमानों व सिखों ने आस्था रखी, उन पर विश्वास रखा; जिसके कारण ही आज हम भारत को स्वतन्त्र देख रहे हैं. वह वास्तव में हमारे नब्बे वर्ष के लंबे संघर्ष का ही फल है.

आज़ादी की इच्छा एक ऐसी इच्छा थी जिसने विमुखता, अवज्ञा और नाफ़रमानी को जन्म दिया. अंग्रेज़ों ने इसे 'ग़दर' का नाम दिया, जिससे जाग्रति की एक ऐसी किरण फूटी; एक ऐसा सूर्य उदय हुआ जिससे अंग्रेज़ों को अपने पतन का आभास होने लगा. यह एक ऐसा संघर्ष था, एक ऐसा प्रकाश था जिसने अंग्रेज़ों के इरादों को जला देने के लिए चिंगारी का काम किया. तमाम भारतीयों के मन में विदेशी-प्रभुत्व तथा गुलामी का फंदा अपने गले से उतार फेंकने के सुदृढ़ संकल्प थे. किसी ने क्या ख़ूब कहा है-

'रोशनी आग से निकली है जला सकती है.'

सन् १८५७ के बाद बहादुरशाह ज़फ़र को अत्यन्त बेइज्जती एवं तौहीन भरे बर्ताव का सामना करना पड़ा था. आज़ादी का चिराग जलानेवाले इस अन्तिम मुग़ल शासक को रुसवा करके बड़ी दयनीय स्थिति में घर से हज़ारों मील दूर कैदखाने में भेज दिया गया तथा भारतीय नागरिकों पर भी अत्याचारों का पहाड़ तोड़ा गया. उन्हें गोलियों का निशाना बनाया गया. मासूम बच्चों को रौंदा गया तथा पवित्र नारियों की शीलता को तार-तार किया गया. इन अत्याचारों और सख्तियों के कारण भारतीयों में स्वतंत्रता-संग्राम की उमंग और बढ़ गयी, अधिक प्रबलता प्राप्त हुई और वे देश पर मर-मिटने के लिए तैयार हो गए. मजरूह सुल्तानपुरी का एक शेर है-
'सतून-ए-दार प रखते चलो सरों के चराग़
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले.'

इन सामूहिक संकल्पों और निरंतर संघर्ष का तर्क-संगत परिणाम सन् १९४७ में सामने आया. यह एक कठिन समय था जिसमें अनेक उत्त्थान-पतन हुए. आज़ादी की लड़ाई को विभिन्न स्तरों पर लड़ना पड़ा.

बहादुरशाह ज़फ़र को यद्यपि इतिहासकार एक पीड़ित और बेबस बादशाह के रूप में प्रस्तुत करते हैं पर आम व्यक्ति के दिल में उनके लिए स्नेह, मान और हमदर्दी के भाव मिलते हैं. वर्त्तमान में स्वयं को न्यायप्रिय कहलवाने वाला राष्ट्र (यहाँ आशय ब्रिटिश साम्राज्य से है), जिसने भारत में अपना शासन बनाए रखने के लिए, संस्कृति, सभ्यता एवं मानवता के नियमों की धज्जियाँ उड़ा दीं, वह क्रूरतम शासकों में शामिल हुआ. अंगेज़ लेखकों ने उस काल के भयावह हालत का उल्लेख अपने लेखों में शायद ही पूरी ईमानदारी से किया हो. ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ मासूम व बेबस बादशाह अपने बेटों की जाँ-बख्शी की भीख मांगता है तो तानाशाह उसके बेटों के सर काटकर थाल में सजा कर प्रस्तुत करता है;-

दे दिया जिसने आज़ादी का नारा वो ज़फ़र
अपने बेटों के सिरों को जिसने देखा वो ज़फ़र
ये ख़ुदा ही जानता है किस तरह ज़िंदा रहा
दूर जाकर अपने घर से बेनवां होकर मरा
फ़र्ज़ अब अपना है हिन्दुस्तान में लाएं उसे
इज्ज़त-ओ-तकरीम से देहली में दफ़नाएं उसे
परचम-ए-आज़ादी उसकी क़ब्र पर लहराएं हम
ताज-ए-आज़ादी अब उसकी नअश को पहनाएं हम
भूलने पाएं न उसकी याद को हम हश्र तक
आन उसकी कम न हो न माद हो उसकी चमक
हो शहीदों की चिताओं के मज़ारों की ज़िया
औ न हो पाए कभी ख़ामोश आख़िर तक सदा
ऐसे शोहदा जिनको अपनी जान की परवा न थी
देश-भक्ति में फना कर दी जिन्होंने ज़िंदगी
उनमें ऐसा आदमी था इक बहादुरशाह ज़फ़र
बेबसी में थी गुज़ारी जिसने हर शाम-ओ-सहर
उसकी क़ुरबानी को जो भूले नहीं वो आदमी
मीर-ए-आज़ादी को जो भूले, नहीं वो आदमी


अगली कड़ी में जारी...

मेरी नई ग़ज़ल

 प्यारे दोस्तो, बुजुर्ग कह गए हैं कि हमेशा ग़ुस्से और आक्रोश में भरे रहना सेहत के लिए ठीक नहीं होता। इसीलिए आज पेश कर रहा हूं अपनी एक रोमांटि...