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शुक्रवार, 16 मई 2008

यह ब्लॉग भाड़े पर देना है (जहाँ है, जैसा है के आधार पर)

'तमिल टाइम्स' में दो दिन पहले एक विज्ञापन छपा था। नहीं-नहीं मुझे तमिल पढ़ना नहीं आता, वह तो बगल में बैठे मेरे मित्र और तमिल के युवा कवि मदिअलगन सुब्बैयाह यह अखबार पढ़ते-पढ़ते अचानक जोर-जोर से हंसने लगे। मैंने पूछा कि अभी तक तो सकुशल थे अचानक यह क्या हो गया? क्या आलोक पुराणिक जी की कोई अगड़म-बगड़म पढ़ ली? वह बोले- 'यह बात नहीं है, एक विज्ञापन छपा है।'

उन्होंने विज्ञापन पढ़ कर सुनाया- 'ओरली पगुदियिल दिनमुम २५० किलोग्राम मावू विरापनैयागुम लेन विरापनैक्कू उल्ल्दु! नोडरबु कोलग: ०९८०.......'

मेरा पूरा शरीर सवाल बन गया, पूछा- 'अर्थात्?????????"

मदि ने बताया कि मुम्बई के वरली इलाके में कोई गली है जिसमें २५० किलोग्राम आटा की इडली रोजाना खप जाती है यानी एक दिन में बिकती है। यह आदमी गाँव जा रहा है और यह लेन यानी गली भाड़े पर देने के लिए इसने यह विज्ञापन दिया है.

हम दोनों यह सोचकर हैरान रह गए कि महानगर में कैसे-कैसे 'व्यौपार' चलते हैं।

इस प्रसंग से मुझे याद आया मुम्बई के ही मालाड इलाके का एक किस्सा। तब मैं मुम्बई नया-नया आया था. गर्मियों के दिन थे. एक सुबह हमारा अखबारवाला सूचित करने लगा कि वह तीन महीने के लिए गाँव जा रहा है इसलिए अब अखबार दूसरा आदमी देगा. कोई शिकायत हो तो उसी से कीजियेगा. हमने इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि तीन माह के लिए उसने अपना धंधा उस आदमी को भाड़े पर दे दिया है.

पहली बार ज्ञान हुआ कि मुम्बई में लोग दूकान और मकान ही नहीं; धंधे भी किराए पर उठा कर चले जाते हैं... और वापस आने पर फिर से उसी धंधे में जुट जाते हैं।

गुरु, इन प्रसंगों से एक आइडिया आया है। हिन्दी ब्लॉग जगत में काफी गड़बड़ी कर चुका हूँ। क्यों न कुछ दिनों के लिए दण्डक अरण्य चला जाऊं और किसी ऋषि से गुफा भाड़े पर लेकर माह भर तपस्या करूँ? तब तक लोगों का गुस्सा भी ठंडा हो जायेगा.

तो ठीक है. मैं अपना ब्लॉग जहाँ है, जैसा है के आधार पर महीने भर के लिए भाड़े पर देना चाहता हूँ- 'नॉन येनदु 'ब्लॉग' उल्लदु उल्लपडीये माठ्ररंगल येदुमिललादु ओरु मादनिरकु वाडहैकु विड विरुम्बुगिरेन! नोडरबु कोलग: ०९८०.......मोबाइल नंबर।'

इच्छुक व्यक्ति शीघ्र सम्पर्क करें!

शुक्रवार, 2 मई 2008

ब्लॉग लिखने की अनुमानित लागत उर्फ़ मेरा दुखड़ा!

This is a humourous article. भाई साहब, और बहनजियो! ब्लॉग blog लिखना अपन के लिए बवाल-ए-जान बन गया है। बल्कि सच कहूं तो बवाल-ए-जेब बन गया है. ब्लॉग लिखने की अनुमानित लागत (estimated cost) बढ़ती ही जा रही है. बीवी wife के डर से रोज़ प्लान बनाता हूँ कि आज जल्दी सो जाऊंगा लेकिन दीवानगी देखिये कि बीवी को गच्चा देकर बिस्तर से तीन बजे रात को निकल पड़ता हूँ और बैठ जाता हूँ कम्यूटर computer पर.


दाढी बढ़ गयी है। ब्लॉग के चक्कर में नहाया कई दिनों से नहीं है. फोटो photo इस भय से नहीं लगा रहा हूँ कि उसे देखकर आपके बाल-बच्चे डर जायेंगे. पत्नी ने अल्टीमेटम ultimatum दे दिया है कि मैं ब्लोगिंग blogging बंद करूं वरना वह मायके चली जायेगी. मुझे रह-रह कर 'बाबी' फिलिम film का गीत याद आ रहा है- 'मैं मैके चली जाऊंगी तू ब्लोगिंग blogging करते रहियो."


अभी-अभी एक शेर बनाया है-


'राधा की सौत थी गर किसना की बांसुरी,
बीवी की मेरी सौतन, मेरा ब्लॉग है।'


यह तो अच्छा है कि पत्नी ब्लॉग नहीं पढ़ती वरना मुझ पर और मुश्किलें पड़तीं। अपन के ब्लॉग पर न तो कोई टिप्पणी comment करता, न ही यह ब्लॉगवाणी के 'ज़्यादा बार देखा गया' की लिस्ट list में आ पाता। पसंद की सूची में तो यह आज तक नहीं आ पाया। खामखाँ पत्नी के आगे भद्द पिट जाती. छोड़िये भी, ग़मों की लिस्ट लम्बी होती जा रही है। जिन दोस्तों ने ब्लॉग शुरू करवाया था वे भूमिगत हो गए हैं वरना उन्हें ही बीवी के सामने खड़ा कर देता।


मैं उन जाँबाजों से ईर्ष्या करता हूँ जो एक दिन में कई-कई पोस्ट posts ठेलते हैं। पोस्ट में कुछ हो न हो दर्ज़नों टिप्पणियाँ मार ले जाते हैं. शीर्षक कुछ यों होते हैं- 'लुच्चा कहीं का' या 'मेरा ब्लॉग पढ़ा तो गोली मार दूंगा' टाइप type. टिप्पणियाँ करनेवालों का भी सिंडीकेट sindicate है. पसंद की लिस्ट में इन्हें ७-८ पसंद आसानी से मिल जाती हैं. चाहे पोस्ट में किसी ने माँ-बहन की गालियाँ ठेली हों या फूल-पत्ती-चिड़िया पर कोई कविता पेली हो.


मेरे रोने-धोने का अंत नहीं है। आंसुओं की धार तब और तेज हो जाती है जब मैं ब्लॉग लिखने की अनुमानित लागत कूतना शुरू करता हूँ। ब्लॉग लिखने से पहले मूड mood बनाना होता है. एक ब्लॉग लिखते-लिखते कई पॉकेट सिगरेट sigarette , कुछ मदिरा की बोतलों और इंटरनेट internet का बिल इतना बन जाता है कि एनजीओ NGO खोलने का मन करने लगता है.


लेकिन क्या करें! रहा भी न जाए, कहा भी न जाए और सहा भी न जाए की स्थिति हो चुकी है।
अपनी तो यह हालत है कि- 'हेरी मैं तो ब्लॉग दीवाणी, मेरो दरद न जाने कोय।"

सोमवार, 21 अप्रैल 2008

कितने साल बाद मरोगे?

This is an article talking about a life insurance policy in a humerous way. मेरा कल एक जीवन बीमा एजेंट life insurance policy agent से साबका पड़ गया। मुझे उसने कुछ पोलिसियाँ बताईं. उनका नफ़ा-नुकसान बताने लगा. इनमें एक पॉलिसी ऐसी थी जिसमें किस्त का हिसाब मुझे उल्टा लगा.


आम तौर पर लम्बी अवधि की पॉलिसी लेने पर प्रीमियम premium कम आता है, फ़िर चाहे वह मनीबैक पॉलिसी moneyback policy हो या endoment policy. लेकिन एजेंट की बताई इस पॉलिसी का प्रीमियम अवधि लम्बी होने के साथ-साथ ही बढ़ता जाता है. यानी ज्यादा समय की पॉलिसी तो ज्यादा बड़ी किस्त. मैंने एजेंट से इसका कारण पूछा.


एजेंट मुझे समझाने लगा- 'देखिये यह पॉलिसी उन लोगों के लिए है जिनके ऊपर कुछ लाइबेलिटीज libilities हैं। मसलन, बड़ा क़र्ज़, बेटी की शादी, बच्चों की उच्च शिक्षा higher education आदि. मान लीजिये कि घर के मुखिया की असमय मृत्यु हो गयी, तो कौन भरेगा क़र्ज़? वह माफ़ तो नहीं हो जायेगा. कौन करेगा बेटी की शादी? वह घर पर तो नहीं बैठी रहेगी. ऐसे में यह पॉलिसी साथ देती है.'


मैं तसल्लीबख्श होते हुए कहने लगा- 'चलो अच्छा है, मेरा भी इसी पॉलिसी के तहत बीमा कर दीजिये। नहीं मरा तो पैसा कहाँ जायेगा?'


इस पर एजेंट ने मुझे चौंका दिया- 'अगर बीमा की अवधि समाप्त होने से पहले मृत्यु नहीं हुई तो पैसा वापस नहीं मिलेगा। अगर ऐसा होने लगे तो लोग पाँच-दस वर्षों के लिए करोड़ों का बीमा करवा कर क्लेम claim नहीं कर लेंगे?. यही इस पॉलिसी की खासियत है कि जितनी लम्बी अवधि, उतना ज्यादा प्रीमियम.'


मैंने इसके पहले कभी जिंदगी और मौत के बारे में इस तरह से नहीं सोचा था। हिसाब लगाने लगा कि कम से कम कितने साल की पॉलिसी कराऊँ ताकि प्रीमियम भी बरदाश्त कर सकूं और मरने के बाद ज़्यादा पैसा परिवार को मिले. अभी मेरी उम्र ३८ वर्ष है. अगर कम प्रीमियम के लालच में १० साल की पॉलिसी ले लूँ तो कैसा रहेगा? लेकिन क्या मैं अगले १० सालों के अन्दर महज ४८ साल की अवस्था में ही मर जाऊंगा? और अगर नहीं मरा तो दस सालों तक भरा पूरा प्रीमियम व्यर्थ जायेगा. फ़िर सोचा कि २० साल की ले लूँ, लेकिन फ़िर वही ख़याल कि क्या ५८ की उम्र में मर जाऊंगा? यानी मैं मौत की आशंका से घबराने लगा. जितने अगले सालों के बारे में सोचता जाता था, मौत अगले ही पल खड़ी दिखाई देती थी॥


इसी मानसिक अवस्था में कई विचार आए-गए। गालिब Mirza Ghalib का शेर भी याद आया-

'था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ,

उड़ने से पेश्तर भी मेरा रंग ज़र्द था।'


इस शेर से थोड़ा तसल्ली हुई तो यक्ष का पांडवों Pandvas से पूछा प्रश्न 'किं आश्चर्यम? और युधिष्ठिर Dharmraj Yudhishthir द्वारा दिया गया उसका जवाब भी याद आ गया, जिसका भावानुवाद यहाँ दे रहा हूँ- 'दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि मानव यह जानते हुए भी कि एक दिन सबको मरना है, दुनिया भर के धतकरम ऐसे करता रहता है जैसे उसे कभी मरना ही नहीं है.' मेरी तो जान में जान आ गयी।


मैंने तुरत 'जीवेत शरदः शतम' वाला भारतीय आशीर्वाद गुना और एजेंट से अनुरोध किया- 'भाई, मेरा सौ साल के लिए इस पॉलिसी के तहत बीमा कर दो.'

रविवार, 20 अप्रैल 2008

'रिजेक्ट माल' में छपे लेख का जोड़ उर्फ़ भय को भूत न बनाएं

जिन मानसिक-शारीरिक बीमारियों को लोग भूत लग जाना समझ लेते हैं, उसका खुलासा दो-तीन घटनाओं के माध्यम से लेखक ने करने की कोशिश की है। लेकिन ये घटनाएँ, ऐसा लगता है कि एक थीम को किसी तरह साबित कर देने की जिद के तहत घटी हैं.

दरअसल लेख में आपकी मूल स्थापना से मैं सहमत हूँ कि भूत-प्रेत का हव्वा खड़ा करके सदियों से चालाक लोग अशिक्षित (और कई बार तो श्रेष्ठी वर्ग को भी) लोगों को ठगते एवं उनका शोषण करते रहे हैं। यह शोषण कई स्तरों पर होता आया है., लैंगिक शोषण भी.

आपको आश्चर्य होगा कि भारत में बौद्ध धर्म के पतन का एक प्रमुख कारण यह भी था। ये लोग उत्तर वैदिककाल की जिस बुराई के विरोध में पनपे थे, उसी का शिकार हो गए. अधिकांश बौद्ध मठ तंत्र-मन्त्र, जादू-टोना, भोगविलास का अड्डा बन गए थे. मठों में महिलाओं के प्रवेश ने धर्म का पतन और तीव्र कर दिया. अथर्ववेद के तंत्र-मन्त्र-यंत्र से घबराकर अधिकांश जनता जिस सरल धर्म की तलाश में बौद्ध धर्म की शरण में आयी थी, बौद्धों ने उसे फिर उसी जटिल हिन्दू धर्म के जंजाल में धकेल दिया था, जहाँ अंधविश्वास थे और तंत्र-मन्त्र के डरावने कर्मकांड भी. पतन की बाकी बातें राजनीतिक तथा सत्ता के कुचक्रों का नतीजा थीं.

लेख में अगर भूत-प्रेत की अवधारणा का चिट्ठा खोला जाता और इस अवधारणा की मौजूदगी की जेनुइन वजहें तलाशी जातीं तो संभवतः कई दिलचस्प बातें सामने आतीं।

याद आता है कि किस तरह एक गुरु घंटाल नागपुर से एक जज की बीवी को यह यकीन दिलाकर भगा ले गया था कि वह जज की बीवी के पूर्व जन्म में उसका पति था। और जज ने यकीन भी कर लिया था. संभवतः भूत-प्रेतों की मौजूदगी स्वीकारने के लिए दिमाग ऐसी ही किसी अवस्था में चला जाता होगा. ऐसे ढेरों उदाहरण समाज में आपको मिल जायेंगे. सम्मोहन भी इसका एक रूप है.

बचपन में कई बार मुझे ऐसा लगा भी कि 'श्श्श्श् कोई है' ...तो बड़े-बूढ़ों ने सदा यही कहा कि यह मन का भ्रम है। भूत-प्रेत नहीं होते. अगर वे मुझे ओझा या गुनिया के पास झाड़-फूंक के लिए पकड़ ले जाते तो मैं जिंदगी भर 'धजी को सांप' समझता रहता. लेकिन इस विश्वास का बीज बचपन में ही नष्ट कर दिया गया. बाद में कभी इस तरह के ख़याल का पौधा नहीं उगा.

आज पत्र-पत्रिकाओं, नाना प्रकार के टीवी चैनलों तथा सम्पर्क-अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों के ज़रिये हमारे बीच भूत-प्रेतों की दुनिया आबाद की जा रही है। बच्चों के कोमल दिमाग पर इसका क्या दुष्प्रभाव पड़ता है, कभी सोचा है? आप गौर करेंगे कि भूत-प्रेतों और जिन्नात की दुनिया वाले रिसाले उन लोगों के बीच ज्यादा खपते हैं जिनका विकसित और आधुनिक दुनिया से ज्यादा लेना-देना नहीं होता. सारा बिजनेस उसी बंद समाज से चलता है. किस्मत बदलने के लिए तांत्रिक की अंगूठी, बाज़ का पंजा, मर्दानगी बढ़ाने के लिए शिलाजीत जैसी अनेक चीजें वहीं खपती है. लेकिन मार्केट बढ़ाने के लिए जरूरत है कि यह तिलिस्म वृहत्तर शहरी समाज को भी अपनी गिरफ्त में ले ले. आश्चर्य की बात नहीं है कि आजकल अधिकांश हिन्दी चैनल शाम ढलते ही रामसे की फिल्मों के सेट में तब्दील हो जाते हैं.

इन भूत-प्रेत आधारित कार्यक्रमों (क्रियाकर्मों पढ़ें) को देखने के बाद बच्चों के मन पर क्या बीतती होगी? क्या बड़ा होकर वे भूत-प्रेत की संकल्पना से मुक्त हो सकेंगे? और फिर वे अपने बच्चों को क्या दे जायेंगे? यह सही है कि अन्य मनोविकारों की ही तरह मनुष्य के मन में भय उपस्थित रहता है. काम, क्रोध, मद लोभ, ईर्ष्या की तरह ही भय भी हमारे 'सॉफ्टवेयर' में 'इनबिल्ट' है. परन्तु मित्रो, हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम भय को भूत न बनाएं.

गुरुवार, 27 मार्च 2008

होली के दिन ट्रेन के सफर में रोया टेसू

होली के दिन मैं ट्रेन में था. जब कहीं रेलवे स्टेशन आ जाता था तो कुछ गुब्बारों के भय से हम खिड़कियाँ बंद कर लेते थे. लेकिन खंडवा में कोई ज़ोर न चला. कुछ लोग डिब्बों में घुस आए और उन्होंने रंग-गुलाल फेंकना शुरू किया. हमारे पास कुछ और तो था नहीं, सो पानी की बोतलों से ही काम चलाया. ट्रेन बिहार जा रही थी. कुछ महिला यात्रियों के पास महावर था. उन्होंने अपने पतियों को पानी में महावर घोल कर दे दिया.

महावर का लाल रंग किसी भी रासायनिक रंग को मात कर रहा था. जमकर होली खेली गयी. मुग़लसराय जा रहे एक बुढऊ भी जोश में आ गए. शिवजी की बूटी उन्होंने नासिक रोड स्टेशन पर ही चढ़ा ली थी. उन्होंने अपना सत्तू रंग-गुलाल की तरह इस्तेमाल कर लिया. सत्तू का ही टीका उन्होंने पूरे डिब्बे के यात्रियों को लगा मारा.

इतने में ट्रेन चल पड़ी. कुछ यात्री तो खंडवा में ही उतर गए लेकिन कुछ ट्रेन में ही चढ़े रह गए. उनको भी थोड़ा भांग का नशा था. हमने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है. खाना-पीना इफ़रात है. इटारसी से लौट आना. बस इतना सुनते ही उनका नशा हल्का हो गया और वे चैन खींचकर उतरते बने.

होली का आनंद, उमंग और खुलापन ही ऐसा है कि अगर आप सहज हैं, मनुष्य हैं, खुले हैं, अकुंठित हैं, तो कहीं भी रंगों से वंचित नहीं रहेंगे. चाहे देस हो या परदेस. उन लोगों की कल्पना कीजिये जो अपनों से दूर सीमा पर डटे देश की रक्षा कर रहे होते हैं, या वे लोग जो किसी फ़र्ज़ को निभाते हुए नौकरी या व्यवसाय की वजह से होली खेलने घर नहीं पहुँच पाते. आप क्या समझते हैं, वे रंगों के इस पर्व से वंचित रह जाते हैं? नहीं जनाब, वे आपस में ही होली खेल लेते हैं और रंगों को रूठने नहीं देते. ट्रेन की यात्रा करते वक्त यह भावना मेरे मन में बेतरह डूबती-उतराती रही.

...और तभी खिड़की से वसंत का राजा पुष्प टेसू मुझे नज़र आया. महाराष्ट्र से जैसे ही आप मध्य प्रदेश की सीमा में प्रवेश करते हैं, टेसू के वृक्ष और उन पर लदे फूल, रेल पटरी के दोनों तरफ आपका सफर सुहाना करते हुए साथ-साथ चलते हैं. कहीं भी चले जाइए- मालवा, निमाड़, महाकौशल, विन्ध्य, बघेलखंड, बुंदेलखंड, वे पूरे मध्य प्रदेश में आपके साथ चलेंगे. कुछ-कुछ इस तर्ज़ पर कि- 'तू जहाँ- जहाँ चलेगा मेरा साया साथ होगा'. वसंत ऋतु आते ही टेसू के वृक्ष फूलों से इस तरह लद जाते हैं जैसे किसी ने उन पर लाल-लाल बल्ब लगा दिए हों. किसी-किसी वृक्ष पर आपको एक भी पत्ता नजर नहीं आयेगा- सिर्फ़ फूल ही फूल.

मेरे बगल की सीट पर एक चंचल बच्चा अपनी माँ के साथ बैठा था. बातचीत से जाहिर हुआ कि यह परिवार मुम्बई, बोरीवली (पश्चिम) में रहता है. बच्चा चौथी का इम्तिहान देकर आ रहा था. उसकी माँ बड़े जोश और गर्व में भरकर बता रही थी कि बच्चा अपनी क्लास में पहली से ही अव्वल रहा है. उसने मुझे कुछ अंगरेजी गीत भी सुनवाये जो उसकी किताब में थे. जिज्ञासावश मैंने उस बच्चे से ट्रेन की खिड़की के बाहर कुछ पेड़ दिखाकर उनके नाम जानना चाहे, तो वह बच्चा अचानक गुमसुम हो गया. उसकी माँ घबरा गयी. उसने बच्चे को चिप्स का पैकेट थमाकर उसका मन बहलाया .

जिन पेड़ों का नाम मैंने बच्चे से जानना चाहा था उनमे महुआ, जामुन, कहुआ (अर्जुन) और टेसू आदि थे. मैं यह सोच कर दंग रह गया कि जो पीढ़ी टेसू का वृक्ष नहीं पहचानती, वो यह कैसे समझ पायेगी कि कभी होली के लिए टेसू के फूलों को सुखाकर इसके चूर्ण से टनों रंग बनाया जाता था, जिसके इस्तेमाल से न त्वचा पर छाले पड़ते थे और न ही मन पर. वसंत और रिश्तों की ऊष्मा में टेसू की खुशबू घुल जाती थी, वह अलग.

...और तभी मेरी तंद्रा भंग हो गयी. अगला स्टेशन जो आ रहा था. हम लोग फिर सावधान हो गए. प्लेटफॉर्म के बाहर गाना बज रहा था- 'होली आयी रे कन्हाई रंग बरसे, सुना दे ज़रा बांसुरी...'

बुधवार, 19 मार्च 2008

टीवी पत्रकारिता का रसातल

टीवी पत्रकारिता देखिये, 'कहाँ' से 'कहाँ' पहुँच गयी है! स्वर्गीय एसपी सिंह ने जब 'आजतक' का आधे घंटे का न्यूज बुलेटिन शुरू किया था तह चन्द ही हफ्तों बाद देश के नेताओं का वही हाल हो गया था जो बीबीसी की सिगनेचर ट्यून सुनकर ब्रिटेन और अमेरिका के शीर्ष नेताओं का हुआ करता था. अंगरेजी समाचारों को अखंड सत्य मानने और जानने वाले धुरंधरों की धुकधुकी बढ़ जाती थी 'आजतक' की सिगनेचर ट्यून सुनने के बाद! और तो और मेरे साथ एक सांध्य दैनिक के दफ्तर में 'दिल का हाल कहे दिलवाला' गा-गाकर नाचनेवाला एक बन्दा जब एसपी 'आजतक' में चला गया था तो हम लोग उसे अमिताभ बच्चन की तरह देखने लगे थे.

कट टू-

आजतक चौबीस घंटे का हुआ. उसका कायापलट होना शुरू हो गया. समाचार की जगह गिमिक ने ले ली और उसमें वे सारी बुराइयां आती गयीं जो एक पैसे के पीछे भागने वाले चैनल की हो सकती हैं. एसपी जहाँ बिना बाईट के भी मर्मान्तक कैप्स्यूल तैयार कर लेते थे वहीं अब 'पान की पीक' और 'धूमिल' के शब्दों में कहें तो 'थीक है-थीक है' वाली बाइटें प्रचुर मात्रा में होने के बावजूद बेजान समाचार परोसे जाने लगे.

दीगर चौबीस घंटे के समाचार चैनलों में तो जैसे भूत-प्रेत, अंधविश्वास, अपराध और हिंसा परोसने की होड़-सी लग गयी. स्त्री को कम कपड़ों में दिखाने के मामले में तमाम चैनल दुस्सासन और द्रौपदी प्रसंग साक्षात साकार करने लगे. ड्रामा देखने के लिए अब हिन्दी फिल्में देखने की आवश्यकता ही नहीं है. समाचार पर्याप्त नाटकीय हो चुके हैं. अच्छा हुआ जो एसपी चले गए. वरना अब के चैनल देखकर चले जाते. उनकी मृत्यु का एक कारण एक न्यूज कैप्स्यूल तैयार करने के बाद उनके मन में पैदा हुई बेचैनी को भी गिनाया जाता है. वह इतने संवेदनशील थे.

कट टू-

एक समाचार चैनल है. मुम्बई और महाराष्ट्र का हिन्दी चैनल है. एंकर महाशय पत्रकारिता के कालपुरूष हैं. उन्होंने 'डेली' टेबलोइड में जान फूंकी थी यह सभी जानते हैं. लेकिन यहाँ बैठकर वह सारा समाचार जगत ज्योतिषियों के दम पर चलाते हैं. दो ज्योतिषी उनके परमामेंट हैं. अब एक टैरो कार्ड रीडर भी जुड़ गयी है. उनकी टीवी पत्रकारिता का एक नमूना पेश है:-

एंकर- पंडित जी आप बताएं, सचिन तेंदुलकर कितने साल अभी खेल सकेंगे?
पंडितजी- सचिन का राहू केतु में, सूर्य धनु राशि में... ब्ला....ब्ला....ब्ला...

एंकर- आपने इस चैनल पर पहली बार सुना है.. एकदम पहली बार... (अब दूसरे पंडित से) अच्छा आप बताइये क्या सरबजीत को पाक छोड़ देगा?

पंडितजी- सरबजीत की कुंडली तो हमारे पास नहीं है लेकिन भारत और पाकिस्तान की कुंडली है. इससे लगता है कि पाक को छोड़ना पडेगा...

एंकर- आपने इस चैनल पर पहली बार सुना है.. एकदम पहली बार... (अब टैरो कार्ड वाली से) आप बताएं अगली सरकार किसकी बनाती दिखती है?

तीनों ज्योतिषी एक राय होकर कहते हैं- भाजपा की बनेगी.. क्योंकि सोनिया की कुंडली में अमुक दोष है और आडवाणी जी की कुंडली में फलां शुभ योग है... (यानी देश भर के तमाम ज्योतिषी भाजपा की सरकार बनते देखना चाहते हैं. धर्म का झंडा उसी ने थाम रखा है. वरना पृथ्वी कब की रसातल में चली गयी होती.
भाजपा सरकार में अचानक यज्ञों और धर्म सम्मेलनों की बाढ़ आ गयी थी. इसकी जाँच करवाई जाए तो किसी बोफोर्स घोटाले से कम मामला नहीं निकलेगा).

यह चंडाल चर्चा घंटे भर रोज चला करती है. इस चैनल पर. दूसरे चैनलों पर भी एक से एक जटाधारी और कास्ट्यूम ड्रामा में भाग लेने आए प्रतियोगियों जैसे बाबा लोग दिन में कई बार भविष्य बताया करते हैं. अब आप ही तय कीजिये कि टीवी पत्रकारिता कहाँ से कहाँ जा पहुँची है?

.....और यह भी कि आगे यह किस रसातल में जा गिरेगी!!

गुरुवार, 13 मार्च 2008

तुम्हारे प्रतिरोध की भाषा क्या है?

समाज में अक्सर जिन्हें दबा-कुचला समझा जाता है, वे दबंगों के सामने कभी ऊंची आवाज़ में बोलते नहीं देखे-सुने जाते. लेकिन अपनी आत्मा को जीवित रखने के लिए ये लोग प्रतिरोध की नई भाषा गढ़ लेते हैं, जो कभी दबंगों (ऊंची जातियों) के सामने बोल दी जाती है, तो कभी उनकी पीठ पीछे इसका इस्तेमाल किया जाता है.

प्राचीन संस्थागत समाजों में प्रतिरोध की इस भाषा के रूप ज्यादा रचनात्मक होते हैं. जाहिर है, ग्रामीण समाज में इस भाषा और इसके मुहावरों की जड़ें ज्यादा रचनात्मक, ज्यादा गहरी, ज्यादा मारक तथा ज्यादा उपयुक्त होती हैं. मुझे बघेली बोली की एक कहावत याद आती है--- 'इतनै होती कातनहारी, काहे फिरती जाँघ उंघारी.'
(शालीनता का ख़याल रखते हुए यहाँ 'जाँघ' लिखा गया है, असल प्रयोग में 'जांघ' की जगह गुप्तांग का नाम लिया जाता है.)

कहावत का अभिधार्थ यह है कि अगर सूत कातने में इतनी ही प्रवीणता होती तो बिना कपड़ों के क्यों घूमना पड़ता. लेकिन कहावतें अभिधा में कभी नहीं होतीं. इनमें गहरी व्यंजना छिपी होती है. इस कहावत में व्यंजना यह है कि राजाजी इतने ही गुणी होते तो इतनी फजीहत क्यों होती (किसी भी सन्दर्भ में).

अब यह बात राजाजी से आमने-सामने तो की नहीं जा सकती. इसलिए कमज़ोर तबके के लोग या तो आपस में या फिर पीठ-पीछे इस कहावत का इस्तेमाल करके अपनी भड़ास निकाल लिया करते हैं.

बच्चे अपेक्षाकृत सबसे कमज़ोर तबके के माने जाते हैं. लेकिन पिटाई करनेवाले मास्टर जी से बदला चुकाने के लिए वे भी अपनी कवितायें गढ़ लेते हैं जो कभी आपस में खेल-कूद के दौरान या काफी दूर से पंडित जी को जाते देखकर सुनायी जाती है. एक नमूना पेश है-

'पंडित जी, पंडित जी पाँय लागी,
पकड़ चुटैया दै मारी.'

-यानी ऐसे मास्टर जी को प्रणाम करते है, जिनकी चोटी पकड़ कर हम पटक दें.

अब बताइये, ऐसे बच्चों को इसकी भी परवाह नहीं होती कि अगर मास्टर जी ने सुन लिया तो अगले दिन स्कूल में क्या होगा! मुर्गा बनना पड़ेगा, बेंत खाने पड़ेंगे या मेज़ पर खड़ा होना पड़ेगा! लेकिन क्या कीजियेगा, प्रतिरोध की भाषा मनुष्य न गढे तो वह या तो कुंठित हो जायेगा, हीनभावना का शिकार हो जायेगा, या फिर उसका स्वाभिमान ही मर जायेगा. दबी-कुचली जातियाँ प्रतिरोध की इसी भाषा के चलते समाज में अपनी ही नज़रों में गिरने से बची रही हैं और अब जाकर उनमें प्रतिकार की शक्ति भी पैदा हो रही है.

शहरी जीवन में भी ऐसी भाषा का इस्तेमाल देखा जा सकता है. हालांकि इसमें अभिव्यंजना का स्तर उतना गहरा और मारक नहीं होता जितना कि ग्रामीण जीवन में. फिर भी लोग शहर में भी प्रतिरोध की अपनी भाषा विकसित कर ही लेते हैं.

कल 'बेस्ट' की बस में सफर करते वक्त मैंने एक युवक को अपनी प्रेमिका से यह कहते सुना- 'यार मेरा बॉस तो एकदम 'हरी साडू' है.'
प्रेमिका- 'हरी साडू? क्या मतलब?'
प्रेमी- 'हरी यानी एच...ए...आर...आई... और एच फॉर हिटलर, ए फॉर एरोगैंट, आर फॉर रास्कल...'
प्रेमिका- 'अच्छा तो टीवी पर उस नौकरी वाले विज्ञापन का भूत तुम्हारे सिर से अब तक नहीं उतरा... अगर तुम्हारे बॉस को पता चला न तो वह 'हरी साडू' से एकदम 'राज ठाकरे' बन जायेगा. अब बोलो, परप्रांतीय बनना चाहते हो क्या?'

इतना सुनना था कि बस में सवार अन्य लोग बुक्का फाड़ कर हंस पड़े.

मंगलवार, 4 मार्च 2008

गाँव गया था, गाँव से नहीं भागा!

साथियो,
इस बार कई दिन गाँव में डटा रहा. ठंड का लुत्फ़ उठाया. 'होरा' चाबा गया. भुने हुए आलू और भांटा (बैंगन) का भरता खाया गया. लहसन के हरे-भरे ताज़ा पत्ते सहज उपलब्ध थे, धनिया भी. नमक की डली के साथ इसकी चटनी लाजवाब होती है. इन सबका स्वाद लिया. (हरे चने की पुष्ट घेन्टियों को पौधे सहित आग में भून्जने से होरा बनता है. चूंकि यह होली के नजदीक आने का समय होता है इसलिए इसे होरा कहते हैं.)

जब भी गाँव जाता हूँ यही सब खाता-पीता हूँ. गनीमत है कि हमारे यहाँ यह सब अब तक पुराने बीजों वाले रूप में उपलब्ध है. देसी टमाटर का स्वाद मुम्बई में आते ही तरसाने लगता है. तब गाँव की ओर भागता हूँ. मटर और सेम की फलियाँ किसान घर-घर ख़ुद बेच जाते हैं. सुबह इन्हीं की पुकारों से होती है. मूली ऐसी रसीली कि बेचनेवाला किसी छोटे बच्चे का मन रखने के लिए वहीं आधी तोड़ कर पकड़ा देता है. यह मौसम अमरूदों का भी था. देसी अमरूद. ...बचपन में चुरा कर खाए गए इन अमरूदों का स्वाद अब भी ज्यों का त्यों है. कौन जाने यह अपने मूल बीज की कितने करोड़वीं नस्ल है. क्या यही स्वाद हमारी अगली पीढ़ियों के लिए भी बचा रहेगा?

गाँव जाने पर एक और चीज स्थायी भाव की तरह मिलती है. वह है हमारे यहाँ का बस स्टैंड. यह दूसरे बस स्टैनडों से अलग है. यहाँ सब एक दूसरे को जानते-पहचानते हैं. दुआ-सलाम करते हैं. कोई जोड़ीदार शहर की तरफ जा रहा हो तो उसे बस में चढ़ते-चढ़ते तक गालियाँ देते हैं. इस तरह जानेवाले की यात्रा मंगलमय बनाते हैं.

कुछ लोग बस स्टैंड में आपको सुबह के छः बजे से रात के बारह बजे तक मिल जायेंगे. कोई भी ऋतु हो, ये आपको ताश खेलते मिलेंगे. ताश साधारण से लेकर जुआ तक हो सकती है. फिर अगले दिन सुबह की चाय पर बस स्टैंड में सिर्फ़ इस बात पर चर्चा होगी कि अगर कल छठी बाजी में एक्का आ जाता तो मजाल क्या थी कि ठाकुर साहब जीत जाते, या फिर गुलाम ही आ जाता तो तिवारी जी पाँच सौ रुपये जीतकर भला मूंछों पर ताव देते हुए घर कैसे चले जाते?

फिर पूरे दिन यही ताश चर्चा चलेगी. स्कूल जा रहे शिक्षक भी इस चर्चा में शामिल हो जायेंगे. उसके बाद ताश के खिलाड़ियों की तलाश शुरू होगी और रात तक के लिए जम जायेगा जुए का फड़. अगले दिन फिर से वही पछतावा कि अगर बादशाह आ जाता तो... या बेगम फंस जाती तो...

बीच-बीच में धर्म की भी चर्चा कोई छेड़ता है. किसने इलाके में सत्यनारायण की कथा सुनी, श्रीमदभागवत की बैठकी कौन करवा रहा है या कोई पहुंचे हुए बाबाजी किसके घर ठहरे हैं - सारा समाचार यहाँ मिलता जायेगा. फिर कोई कहेगा, अरे भाई धरती में अभी धर्म बचा हुआ है. जिस दिन धर्म न रहा उसी दिन धरती रसातल में चली जायेगी.

ताश के खिलाड़ी जानते हैं कि यह आदमी दिन में दस बार यही बात कहता है. इसलिए वे अपने पत्तों पर नज़र गडाये हूँ-हाँ करते रहते हैं. तमाशबीन भी कम नहीं होते. इन्हीं की वजह से कभी-कभी अचानक झगड़ा भी शुरू हो जाता है. बार-बार हार रहा पत्तेबाज़ चिल्लाएगा- 'अरे यार तुम मेरे पत्ते देखकर दूसरे की ताश बनवा रहे हो!' तमाशबीन कहेगा- 'जीतने पर चाय-पान के पैसे देने का वादा करो तो तुम्हारी ताश भी बनवाऊँ.' फिर ये बातें रबर की तरह बढ़ती जाती हैं. लेकिन कम ही ऐसा होता है कि मारपीट हो जाए. शाम को महुए की दारू भी तो साथ-साथ पीनी है!

आप कितने भी दिनों बाद गाँव गए हों, लोग बस इतना पूछेंगे- अरे भैया, कब आए?' उसके बाद आप चाहे जितने दिन रहो, बस वही 'एक्का-बादशाह-गुलाम-बेग़म' की चर्चा सुनते बैठे रहो. कोई दूसरा विषय नहीं छेड़ेगा. आप कोशिश करेंगे तो बात वहीं ताश के पत्तों पर आकर ठहरेगी. इसीलिए मैं दो-तीन दिनों में ही गाँव से भाग आता हूँ और जनकवि कैलाश गौतम की मशहूर कविता याद करता हूँ- 'गाँव गया था, गाँव से भागा.'

लेकिन इस बार मंजर बदला हुआ था और चर्चा का विषय भी. हुआ दरअसल यह है कि मध्यान्ह भोजन योजना पर निगरानी रखने के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने स्व-सहायता समितियाँ गठित कर दी हैं. इन समितियों में गाँव के ही लोग होते हैं. इनकी कार्यकारिणी होती है. बाकायदा एक अध्यक्ष होता है. पहले यह योजना स्कूल शिक्षक की देखरेख में ही चलती थी. ये लोग छात्रों की मनमानी उपस्थिति दिखाकर राशन का तिया-पांचा करते थे. निर्धारित दिन पर निर्धारित भोजन की जगह कुछ भी सस्ता-मस्ता बनवाकर खिला देते थे और झूठे बिल बनाते थे. प्राथमिक शाला का हर शिक्षक महीने में कम से कम तीन-चार हजार रुपया इस योजना का फायदा उठाकर अवैध तरीके से कमा लेता था.

अब यह सम्भव नहीं हो पा रहा है. शिक्षकों के कलेजे में आग सुलग रही है. वही स्थिति हो गयी है कि रहा भी न जाए, सहा भी न जाए और कहा भी न जाए. स्व-सहायता समिति वाले ही छात्रों की उपस्थिति के हिसाब से राशन बाँटते हैं. निर्धारित दिन के हिसाब से खाद्यान मुहैया करवाते हैं.

दूसरी मुश्किल शिक्षकों के सामने यह भी खड़ी हो गयी है कि पहले जहाँ छात्रों की उपस्थित ९० प्रतिशत से ऊपर दिखा दी जाती थी वह अब घटकर ५०-६० प्रतिशत के आसपास रह गयी है. इससे जिला और ब्लाक स्तर के अधिकारी भी खफा हैं. उनका कहना है कि जुलाई-अगस्त में स्कूल खुलते समय ९०% उपस्थिति थी तो अब परीक्षा के समय २०-३०% छात्र कहाँ गए? यही फर्जीवाड़ा आजकल हमारे बस स्टैंड की चौपाल चर्चा का विषय बना हुआ है.

अब शिक्षक सीधे स्कूल चले जाते हैं क्योंकि उनके साथ ताश खेलनेवाले स्व-सहायता समितियों में आ गए हैं और स्थिति साँप और नेवला वाली हो गयी है. वैसे मुझे पूरा यकीन है कि पैसा खाने के लिए ये साँप और नेवले जल्दी ही हाथ मिला लेंगे और जल्द ही हमारा बस स्टैंड ताश चर्चा से गुलज़ार हो जायेगा.

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

राज ठाकरे से घबराए लोगो, सुनो!

शिवसेना ने जो बोया था, महाराष्ट्र नव निर्माण सेना उसे काटने की कोशिश कर रही है. राज ठाकरे की पैदाइश से भी पहले शिवसेना ने 'उठाओ लुँगी, बजाओ पुंगी' का नारा उत्तर भारतीयों के खिलाफ नहीं बल्कि पिछली सदी के सातवें दशक में दक्षिण भारतीयों के ख़िलाफ़ दिया था और हमले किए थे. इसी की चपेट में जोगेश्वरी और गोरेगाँव के तबेले भी आए थे और लोगों को जान बचाकर उत्तर-दक्षिण भारत भागना पड़ा था.

'लाल बावटा' की तब बड़ी ताकत थी. यह मिलों का दौर था. वामपंथी यूनियनें तगड़ी थीं. युवा बाल ठाकरे ने 'फ्री प्रेस जनरल' में कार्टून बनाना छोड़कर मराठी अस्मिता के नाम पर शिवसेना का गठन किया. कहने वाले कहते हैं कि यह कांग्रेस की शह पर हुआ था ताकि वाम पंथियों की ताकत मुम्बई और महाराष्ट्र से ख़त्म की जा सके. असलियत जो भी रही हो, नतीजा वही हुआ कि वाम पंथी ताकतों का मुबई से सफाया हो गया, परेल इलाके में शक्तिशाली वाम पंथी नेता की हत्या कर दी गयी. और यूनियनों पर शिवसेना का नियंत्रण होने लगा.

शिवसेना और महाराष्ट्र नव निर्माण सेना की हरकतों, हालत और हालात में काफी समानताएं हैं. शिवसेना भी तब सड़कों पर नंगा नाच करती थी, बाद में भी करती रही; मनसे भी कर रही है. दोनों पार्टियां 'मराठी माणूस' की राजनीति करने वाली हैं. शिवसेना की हिंसा को भी कांग्रेस की शह बताया जाता था और आज भी लोग यही समझ रहे हैं कि मनसे के कार्यकर्ता जब गरीब टैक्सी वालों तथा पानी पूरी, वडा पाव वालों के साथ मार पीट कर रहे हैं तो कांग्रेस की शह पर ही पुलिस मूक तमाशा देखती रहती है.

इस विश्लेषण में हम यह भूल जाते हैं कि पुलिस कहीं की भी हो, ख़ुद आगे बढ़कर दंगाइयों को नहीं रोकती. यह एक आम पुलिसिया प्रवृत्ति है. यूपी, बिहार, दिल्ली, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, गुजरात.. जहाँ कहीं भी भीड़ की हिंसा देखी गयी है वहाँ पुलिस मूक दर्शक ही रही है. सब कुछ निबट जाने तथा 'ऊपर' से दबाव पड़ने के बाद पुलिस लाठियाँ भांजती नज़र आती है, मुबई में ही यही देखा गया.

जो लोग मनसे विरुद्ध एक 'उत्तर भारतीय मनसे' बनाने की वकालत कर रहे हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि ज़बानी ज़मा खर्च करना सुरक्षित रहने तथा लोगों की नज़र में वीर बनने का तरीका हो सकता है लेकिन सड़क पर उतर कर लाठी गोली चलाना काफी मुश्किल काम है. वह भी ऐसी धरती पर जहाँ का आपने अन्न खाया है, जहाँ की कमाई से आप अपने बीवी-बच्चे पाल रहे हैं.

ऐसे लोगों से मैं पूछता हूँ कि जब मनसे ने रेलवे भर्ती बोर्ड की मुम्बई परीक्षा देने आये हजारों परप्रांतीय छात्रों के साथ कल्याण में मारपीट की थी तब इन्होने क्यों कोई जुलूस या मोर्चा नहीं लिकाला? पिछले साल जब सब्जियों की खेती करने वाले निरीह बिहारी मजदूरों के साथ गंदे पानी का इस्तेमाल करने का आरोप लगाकर खेतों में जाकर मारपीट की गयी थी तब ये कहाँ सो रहे थे?

...और जब यूपी-बिहार से आने वाली ट्रेनों से उतरने वाले गरीब लोगों के साथ रेलवे स्टेशनों पर पुलिसिया बर्ताव होता है तब किसी को बुरा क्यों नहीं लगता? कोई विवाद होने की सूरत में जब पुलिस वाले आपका 'उपनाम' देख कर रपट दर्ज करने या न करने का फैसला लेते हैं तब ये क्या करते हैं? राशन कार्ड बनवाने की लाइन में खड़े आदमी को यूपी-बिहार-बंगाल का होने की वजह से सरकारी कर्मचारी ही कैसी-कैसी गालियाँ देते हैं, कभी आपने सुना है? क्या यह सब आज शुरू हुआ है? मैंने ऊपर कहा है कि यह सब शिवसेना का बोया हुआ है. उसने महाराष्ट्र की पुलिस को अंग्रेजों के ज़माने की पुलिस (भारतीयों के ख़िलाफ़) बना दिया है.

'बड़े' लोग इसलिए भयभीत हैं कि कहीं यह मामला उनके घर तक न पहुँच जाए. अब तक गरीब पिटता रहा तो ठीक था. लेकिन अब पानी इनके सर से ऊपर बहने लगा है. ये लोग हिंसा का जवाब हिंसा से देने की बातें करने लगे हैं. लेकिन क्या इन्हें नहीं लगता कि जब हिंसा बढ़ेगी तो ये हवाई जहाज या रेल के एसी डिब्बे में घुसकर भाग खड़े होंगे और गरीब बेचारा सड़कों पर मारा काटा जायेगा. मेरे एक जान-पहचाने वाले उत्तर भारतीय ने दस साल पहले यहीं 'उत्तर सेना' बनायी थी और घाटकोपर की एक गंदी खोली में रहता था. उसने मध्य और पश्चिम रेलवे ट्रैक के बगल की दीवारें कई जगह 'उत्तर सेना' के बैनरों से पोत दी थीं. आज न उस ' शूरवीर' का कहीं पता है न उसकी सेना का.

हम सभी जानते हैं कि राज ठाकरे असंवैधानिक काम कर रहे हैं. उनका यह कदम देश को तोड़ने वाला है. उन्हें गिरफ्तार करके जेल में डाल देना चाहिए. लेकिन उन हजारों लोगों का क्या करेंगे जो उनके पीछे इसी समाज में रह जायेंगे. राज ठाकरे किसी व्यक्ति का नहीं बल्कि नफ़रत की उस राजनीति का नाम है जो भाषा, क्षेत्र, वर्ण, जाति और सम्प्रदाय के नाम पर भारतीय जनता को बांटने का काम करती है. यह भावना समूल नष्ट करने की जरूरत है.

और उन कांग्रेसी सरकारों का क्या करेंगे जो शिवसेना से लेकर
महाराष्ट्र नव निर्माण सेना तक बार-बार ऐसी असंवैधानिक गतिविधियों की देख-रेख करती रही हैं?

-विजयशंकर चतुर्वेदी.

सोमवार, 28 जनवरी 2008

मंगलेश डबराल पर क्यों पिल पड़े?

पहले तो जी में आया कि एक टिप्पणी ही पोस्ट कर दूँ, फ़िर सोचा कि मामला गंभीर है।

एक सज्जन ने मंगलेश जी के लेख पर लगभग वही बातें दोहराईं, जो मैंने 'मंगलेश डबराल की ब्लॉगघुट्टी' शीर्षक से लिखी थीं। शब्द तक लगभग वही उठा लिये. मेरी पोस्ट कई लोगों ने पढ़ी, लेकिन टिप्पणी सिर्फ़ अजित भाई की आयी. यह न समझियेगा कि मैं टिप्पणियों की संख्या का मुद्दा उठा रहा हूँ. पैगाम-ए-ज़बानी कुछ और ही है।

इन सज्जन के यहाँ बीसियों लोग पहुँच गए और पिल पड़े मंगलेश जी पर। क्या यह उचित है? मंगलेश जी ने अपनी बात रखी थी, लेकिन ये टिप्पणीकार उनकी खाट खड़ी करने में लग गए. कुछ इस तरह के तर्क देने लगे कि पहले अंडा देकर दिखाओ तब ऑमलेट की बात करो!

जो लोग पोस्ट तक मौलिक नहीं कर सकते, या जहाँ से विचार उडाये हैं, उसे श्रेय देने तक की दयानतदारी नहीं दिखा सकते उन्हें क्या हक़ है इस तरह चौपाल बनाकर एक अच्छे और संवेदनशील कवि पर हल्ला बोलने का? मंगलेश जी ने उसमें ऐसी क्या बात कह दी थी, जो इन्हें नागवार गुज़री?

मैंने अपने लेख में मंगलेश जी से विनम्रतापूर्वक असहमति जाहिर की थी और कहा था कि यह 'डिमांड' है। बस हो गया. लेकिन ये लोग तो उसी आँख मूँद कर प्रलाप कर रहे हैं जिस तरह कुत्ता रात में भोंकते समय आँखें बंद कर लेता है और इसी का फ़ायदा उठाकर लकड़बग्घा उसे उठा ले जाता है.

एक कामकाजी नामक सज्जन तो मंगलेश जी को जलील करने पर ही उतारू हो गए। पहले तो इन्होने लिखा कि कौन हैं मंगलेश डबराल? दावा ये कि ये उन्हें हरगिज नहीं जानते. आगे उन्होंने लिखा- 'डबराल जी अपने चारण भाटों द्वारा लिखे गये को अपने नाम से छ्पवाते हैं.'
जब इन्होने मंगलेश जी का नाम ही नहीं सुना तब इतनी बड़ी खोजी पत्रकारिता करके इस नतीजे पर कैसे पहुँच गए कि मंगलेश जी दूसरो से लिखवाकर अपने नाम से छपवाते हैं! अति है। व्यक्तिगत राग-द्वेष को इस स्तर तक ले जाना किस संस्कार के तहत आता है, मुझे नहीं मालूम.

साहित्य जगत के अपने मठ होंगे, महंत होंगे, गुट होंगे। लेकिन क्या यहाँ भी हम ऐसा ही नहीं कर रहे हैं। अगर हमें कोई ब्लॉग की ताकत का अंदाज़ा दिलाने की कोशिश कर रहा है तो क्या अनर्थ कर रहा है? यह दीगर बात है कि हम समय की कमी, संसाधनों की कमी, या घर जार कर लुकाठी लेकर निकल पड़ने की भावना की कमी के चलते शायद 'table stories' कर के रह जाते हैं। मेरा तो दिल करता है कि वीडियो कैमरा लेकर निकल पडूं सड़कों पर और जो भी असंगत दिखे उसे ही ब्लॉग पर चढ़ा दूँ. लेकिन न तो मेरे पास कैमरा है, न नौकरी से फुरसत. झल्ला कर लाठी भांजने के बजाये अगर आप यह कर सकें तो कीजिये और तब देखिये ब्लॉग की असली ताक़त.

कुछ करना धरना तो दूर की बात है, लोगों के पास concept तक नहीं है। वे जो कर रहे हैं अगर कोई उससे आगे ले जाना चाहता है तो उसी पर पिल पड़ते हैं. वही हाल है कि आदिवासी बच्चों को शुरू-शुरू में जब स्कूल भेजने को कहा जाता था तो उनके माता-पिता कहते थे कि पहले पैसे दो तब स्कूल आयेंगे. (यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि यह मनोविज्ञान मैं समझता हूँ इसलिए मुझे आदिवासी विरोधी न मानने लग जाएं जिस तरह कि मैं आपका विरोध नहीं कर रहा हूँ).

मंगलेश डबराल का मैं कोई भक्त नहीं हूँ। मैंने अपनी पहले की पोस्ट में कहा था कि मैं उनकी कवितायें बहुत पसंद करता हूँ. और यहाँ मेरा इरादा मंगलेश जी को विष्णु का अवतार बनाने का भी नहीं हैं. उनकी भी अपनी कमियाँ-अच्छाइयां होंगी, जैसी कि मेरी आपकी हैं.

अब आगे क्या लिखा जाए, समझ में नहीं आता. वैसे भी जिन मानवों को अपनी अज्ञानता पर गर्व हो उनके आगे तो यही कहना पड़ता है- 'दर्दुरा यत्र वक्तारः तत्र मौनं हि शोभनम्!'

रविवार, 27 जनवरी 2008

मंगलेश डबराल की हिन्दी ब्लॉगघुट्टी



नभाटा
में अग्रज कवि एवं वरिष्ठ पत्रकार मंगलेश डबराल का हिन्दी ब्लॉग की दुनिया पर लिखा मुख्य आलेख पढा. मैं मंगलेश जी की कविताओं का मुरीद हूँ. उनकी चिंताएं वाजिब हैं. इस आलेख में उन्होंने आगे का एजेंडा तय करने की कोशिश की है, जो उन जैसे प्रबुद्ध एवं चिंतनशील कवि से उम्मीद की जा सकती है. आलेख से यह भी जाहिर होता है कि हिन्दी ब्लॉग जगत पर वह बराबर नज़र बनाए हुए हैं.
इस तथ्य से उन ब्लॉगवीरों को सतर्क हो जाना चाहिए जो जंगल में मोर की तरह नाचने के भरम में हैं और ढीले-ढाले तौर पर बकवाद किया करते हैं। बड़े-बड़े लोग उनका नृत्य देख रहे हैं.

हिन्दी ब्लोगों को हिन्दी समाज की सांस्कृतिक शक्ति बनते देखना मंगलेश जी का सपना है। लेकिन इसमें अनेक अड़चनें हैं. पहली तो यही कि हिन्दी समाज को पढ़ने-लिखने से सत्व ग्रहण करने की आदत नहीं रही. जिन थोड़े लोगों को है वे साधनहीन हैं. उनकी क्रयशक्ति अनुमति नहीं देती कि वे पीसी, लैपटॉप खरीदने तथा इंटरनेट के खर्चे का भार उठा सकें. अधिकांश लोगों को यही नहीं पता कि यह ब्लोगिंग है क्या बला! अभी यह चंद शहरियों का खेल है, जिनमें मैं भी शामिल हूँ.

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि शहरों में भी अभी हिन्दी ब्लोगों के वैसे पाठक नहीं बने हैं जिनसे मंजर बदलने में मदद मिल सके। अभी स्थिति लघु-पत्रिकाओं वाली ही है. जो छपता है वही पढ़ता है. फिलहाल हिन्दी ब्लोगरों का हाल कुछ-कुछ ऐसा ही है कि- 'तू मेरा हाज़ी बिगोयम, मैं तेरा काज़ी बिगो'. लोग पोस्ट बाद में लिखते हैं, पहले गणित लगाते हैं कि कितने लोग पढ़ेंगे और कौन-कौन टिप्पणी कर सकता है. यह भी कि फ़लां से टिप्पणी करवाने के लिए फ़लां पर टिप्पणी करो, वगैरह-वगैरह.

अमेरिका की बात और है। वहाँ तो लगभग सारा समाज पेपरलेस बन चुका है. भारत में लोग अखबार तक ठीक से नहीं पढ़ते, ऐसे में जनता से ब्लॉग पढ़ने की कल्पना बेमानी है. और जो लोग संसद तथा विधानसभाएं चलाते हैं उनके हिन्दी ब्लॉग पढ़ने की संकल्पना 'साइंस फिक्शन' ही कही जायेगी.

ऐसे में मंगलेश जी की यह सलाह काम की लगती है कि हिन्दी ब्लॉग जगत को शनैः शनैः मुख्य मीडिया के निरंतर एवं स्थायी रूप में ख़ुद को ढालने की कोशिश करनी चाहिए। उससे भी महत्त्व की बात यह है कि ब्लोगों को सांस्कृतिक विस्मरण के विरुद्ध काम करना चाहिए. लेकिन दुःख की बात है कि जिनसे कुछ गंभीर की उम्मीद है वही 'चिरका' करने में मुब्तिला हो गए.

मंगलेश जी की एक बात से मैं असहमत होना चाहता हूँ। हिन्दी ब्लोगों पर बाबरी मस्जिद शाहदत की पंद्रहवीं बरसी पर कविता नहीं है या लेख नहीं हैं या ओर्तीज की कवितायें नहीं हैं, इसलिए ब्लॉग कहाँ कमतर हो जाते हैं? यह डिमांड है. 'टूटी हुई बिखरी हुई' पर वह चले जाएं तो उन्हें वहाँ अर्जेंटीना के कवि रोबर्तो हुआरोज मिलेंगे, वाल्ट ह्विटमैन मिलेंगे, यूगोस्लाविया के अद्भुत कवि वास्को पोपा मिलेंगे, 'कबाड़खाना' अगर वह और कबाड़ते तो वहाँ उन्हें एना गेब्रियल से लेकर ख़ुद नेरूदा तथा उनके बाद चिली के सबसे प्रभावशाली कवि निकानोर पार्रा मिल जाते. संगीत सुनाने के लिए छन्नूलाल मिश्रा से लेकर ट्रेसी चैपमैन और कुमार गन्धर्व सब उपस्थित हैं.

'मोहल्ला' में अविनाश भाई ने ऐसे-ऐसे लोकगीत सुनवाये हैं कि मंगलेश जी को अपने बचपन के मेले-ठेलों की याद ताज़ा हो जायेगी। 'झुलनी का रंग साँचा', 'पनिया के जहाज से पलटनिया बनि आइहा पिया॥; 'हमारा बलमवा किसान'.. क्या-क्या गिनाऊँ!

निर्मल-आनंद वाले अभय तिवारी के पास रूमी की शायरी का अनमोल खज़ाना है और कमाल की बात ये है कि यह उनका ख़ुद का अनुवाद किया हुआ है।दिलीप मंडल लगातार सार्थक और उत्तेजक ब्लॉग लेखन कर रहे हैं. अखबार से आगे समाचार को लाने की उनकी कोशिश रही है. यहाँ ब्लोगरों के नाम गिनाना उद्देश्य नहीं है. सभी तकनीकी चिट्ठे हिन्दी ब्लॉग चलाने वालों के लिए जैसे सांचे गढ़ने का काम करते आए हैं. सामग्री की फेहरिस्त लम्बी है। यहाँ मैं मंगलेश जी की मूल चिंताओं में पानी मिलाने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ. हिन्दी ब्लॉग के जरिये जो परिवर्त्तन वह सम्भव देखते हैं, काबिल-ए-गौर है और अमल करने लायक़ भी.

माना कि यह हिन्दी ब्लॉग जगत का शैशवकाल है। यह भी मान लिया कि तमाम क्षेत्रों के महारथी रंगमंच पर अभी उतरे नहीं हैं. लेकिन उनके इंतज़ार में हम अपने शिशु को पोलियोग्रस्त या कुपोषण का शिकार होते तो नहीं देख सकते. वे जब आयेंगे तब आयेंगे, अभी तो इसे स्वस्थ ढंग से पालने-पोसने की जिम्मेदारी हम सबकी ही बनती है.

मंगलेश जी की नेकनीयती से राब्ता रखते हुए अगर हिन्दी ब्लोगिंग को एक सशक्त वैकल्पिक माध्यम बनाना है तो सबसे पहला प्रश्न हिन्दी ब्लॉगवीरों को अपने आप से ही करना होगा कि उनका ब्लॉग कोई क्यों देखे? हमारा ब्लॉग किस तरह पाठकों की सुरुचिपूर्ण आवश्यकता बन सकता है? प्रश्न करके तो देखिये, सवाल अपने आप मिलने लग जायेंगे.

शुक्रवार, 25 जनवरी 2008

जब ब्लॉग करते हैं तो मक्कारी नहीं करते

कुछ दिनों से ब्लॉग एग्रीगेटरों पर चंद असमान्यताएं देखकर मन में उबाल आ रहा है. एक मुहावरा भी याद आ रहा है जो शायद दिलीप मंडल ने इस्तेमाल किया है- भकोस-भकोस कर खाना.

दोस्तो, लिखने का सदा ही एक मकसद रहा है, कुछ नया या दुर्लभ पुराना पढ़वाना। यह अपने द्वारा हो सकता है, या फिर दूसरों का अच्छा लिखा हुआ. अच्छा शब्द भी सापेक्ष है. न सिर्फ़ समय सापेक्ष बल्कि बहुत हद तक व्यक्ति सापेक्ष भी. आपका लिखा कोई किस तरीके से लेगा, वह इसके लिए आज़ाद है. फैज़ का शेर है- 'उनका जो काम है वो अहले सियासत जाने, मेरा पैगाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुंचे.'

लेकिन मैं देख यह रहा हूँ कि कुछ लोगों में कूड़ा करने की इतनी हवस है कि वे एग्रीगेटर पर एक ही घंटे में कई बार अलग-अलग ब्लोगों के जरिये एक ही चीज पेश करते रहते हैं. मैं यहाँ यह नहीं कह रहा हूँ कि अगर कोई चाट-पकौडा बनाने की विधि समझा रहा है तो वह बुरा हो गया, बल्कि वह भी किसी की रूचि का क्षेत्र मानूंगा. कोई अगर वामपंथी है तो जाहिर है वह अपनी रूचि के अनुसार लिखेगा. अर्थशास्त्र, क़ानून, चिकित्सा, मीडिया या तकनीक के जानकार लोग अपनी बात कहेंगे. यहाँ तक कि कई लोग एक साथ कई ब्लॉग चलाते हैं, इसमें भी मुझे फ़िलहाल कोई बुराई नज़र नहीं आती.

यह सब बहुत बढ़िया कवायद है. इसी स्वतंत्रता के लिए ही तो लोग तरस रहे थे. लेकिन क्या जो कुछ परोसा जा रहा है उसके लिए ब्लॉग की जरूरत थी? कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन लोगों को संपादकगण उठा कर कूड़े में फेंक देते थे वे अपनी कुंठा निकालने ब्लॉग पर पहुँच गए? अगर ऐसा है तो यह चिंता की बात है.

मेरी नज़र में लिखने का कोई भे क्षेत्र कमतर या बरतर नहीं कहा या माना जा सकता. बात होती है नजरिये की. सम्भव है कि कोई व्यक्ति मालपुए बनाने की विधि समझाये और उसमें इसका इतिहास-भूगोल भी कहता चले. या यह भी बताये कि उसमें प्रयुक्त तत्वों पर क्या बीतती है. वगैरह-वगैरह.

हो यह रहा है कि एक ही सामग्री कई ब्लोगों पर पेलने से कई अच्छी पोस्टें कुछ ही मिनटों में नीचे चली जाती हैं. (माफ़ कीजियेगा मुझे अपनी पोस्ट अच्छी होने का कोई मुगालता नहीं है. यहाँ यह भी जाहिर कर देना समीचीन होगा कि मैने नाना प्रकार के कम से कम ५ हजार लेख-आलेख संपादित करके हिन्दी के एक सर्वमान्य श्रेष्ठ अखबार में छापे होंगे.) समयाभाव के कारण मैं कोई पोस्ट एक चंद घंटों बाद एग्रीगेटर पर ढूँढने निकलता हूँ तो वह रसातल में या पिछले पन्नों पर जा चुकी होती है.

इस समस्या पर एग्रीगेटरों को ध्यान देना चाहिए. अगर एक ही व्यक्ति की वही पोस्ट है तो उसे एक ही बार दिखाना चाहिए, फिर वह चाहे कितने ब्लोगों पर ही क्यों न चढाई गयी हो. इसका प्रबंध करना एग्रीगेटरों की जिम्मेदारी बनती है, मेरा यह आग्रह भी है. फिर कविता या कहानी या ऐसी ही किसी विधा के अंतर्गत आने वाली पोस्टें एक अलग फोल्डर में दिखानी चाहिए, चाहे वह ताजा हों या बासी.

बातें तो बहुत हैं लेकिन फिलवक्त इतना ही कि-

ये हमने कब कहा कि हम अदाकारी नहीं करते
लेकिन जब ब्लॉग करते हैं तो मक्कारी नहीं करते.

-विजयशंकर चतुर्वेदी.

रविवार, 30 दिसंबर 2007

माता-पिताओं के लिए साल का मेरा अन्तिम प्रवचन


कई लोग इस उसूल पर चलते हैं कि 'हम नहीं सुधरेंगे'. उनका काम चल जाता है. लेकिन अगर आप एक औसत माता-पिता हैं और सचमुच बेहतर अभिभावक साबित होना चाहते हैं तो आपको सुधरना ही पड़ेगा. साल २००८ में आप निम्नलिखित नुस्खे आजमा सकते हैं---

आप अपने बच्चों के लिए एक रोल मॉडल नहीं बन सकते; न सही। कम से कम उनके सामने छोटी-छोटी बातों पर कुत्ते-बिल्लियों की तरह उलझिये तो मत. क्रोध में भी बुरे शब्दों का इस्तेमाल बच्चों के सामने न करें.


घर में अपने बच्चों के सामने नशा-पत्ता की चीजें न पड़ने दें। उनके सामने पेप्सी-कोक जैसी वाहियात चीजें न पियें. बच्चों को सामने बिठाकर हरी-भरी चीजें खाएं. टीवी के सामने बैठकर कभी भोजन न करें और घर में दफ्तर की फाइलें मुंह पर ओढ़कर तो कभी न सोयें.


हमारी आदत होती है कि गुस्सा किसी का और निकालते हैं किसी और पर। दफ्तर का गुस्सा अक्सर हम घर आकर पत्नी पर उतारते हैं. लेकिन विशेष ध्यान रखें, गुस्सा कहीं का भी हो, बच्चों पर हरगिज न उतारें. इससे आप उन्हें मनोरोगी बना देंगे. बच्चों को अपनी संपत्ति समझकर भी हम उन्हें पीट देते हैं. यह प्रवृत्ति दूर होनी चाहिए.


बच्चों की मांगों या शिकायतों को उनकी ही नजरों से देखने की कोशिश करें। अगर वे किसी चीज की मांग कर रहे हैं, चाहे वह कितनी भी असंभव क्यों न हो, आप भड़कें नहीं. कई बार वे जननेन्द्रियों के बारे में जिज्ञासा दिखाते हैं. उन्हें इस बारे में भ्रमित न करें; न ही थप्पड़ जमाएं. हंस कर टालना भी अनुचित होगा. उचित ढंग से उनकी उत्सुकता का समाधान करें.


बच्चों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने की कोशिश करें। अगर वे शिकायत करते हैं कि आप उन्हें पर्याप्त समय नहीं देते तो उन्हें डाँटें-फटकारें नहीं, बल्कि विनम्रता से इसका उपयुक्त कारण बताने की कोशिश करें.


रात में सोने से पहले कोई न कोई कहानी बच्चों को सुनाने की अवश्य कोशिश करें, चाहे वह अपने ही परिवार की कोई प्रशंसा भरी कहानी ही क्यों न हो। इसके लिए ख़ुद आपको पढ़ने का वक्त निकालना पड़ेगा. बार-बार किचन चमकाने से यह बेहतर ही होगा कि आप अपने बच्चों को पढ़ने-लिखने के संस्कार दें.


अगर अपने बच्चों के साथ आप साल भर बच्चों जैसे रह सके, तो आपका और उनका भविष्य उज्जवल होने के अवसर कई गुना बढ़ जायेंगे।


अजी, आजमा कर देखिये तो सही!

बंधु, इस साल जहाँ रहो वहीं रोशनी लुटाओ!

एक और साल गया, लेकिन समाज व्यवस्था में बदलाव के संकेत दिख नहीं रहे हैं. कोई अगर यह कहे कि यूपी में मायावती का सरकार बना लेना किसी क्रांति की शुरुआत है या मोदी का गुजरात में फिर सत्तारूढ़ होना पतन की; तो वह समझ उसे मुबारक हो. इन दोनों घटनाक्रमों में पुनरावृत्ति है, नवीनता नहीं।

नए साल से सिर्फ़ उम्मीद रखकर क्या होगा? सक्रिय होना पड़ेगा बंधु! सक्रिय होने का यह मतलब नहीं है कि 'नौकरी छोड़ो, व्यापार करो." बल्कि मुराद ये है कि जहाँ रहो, वहीं रोशनी लुटाओ. अगले साल अगर आप इतना भी कर ले जाते हैं कि अपनी मान्यताओं और आदर्शों से समझौता न करें, सही-ग़लत में फर्क करना सीख सकें, बड़े से बड़े रिस्क की परवाह न करते हुए सही पक्ष का साथ दे सकें, तो साल सार्थक समझियेगा।

अपने आस-पास नज़र डालिए, जो लोग समाज परिवर्त्तन के काम में लगे हैं, उनकी सूची बनाइये, उनका साथ देने की कोशिश कीजिये. कोई व्यक्ति अगर आपके विचार से सहमत नहीं है तो उसके साथ ज़ोर-जबरदस्ती मत कीजिये. अपने व्यवहार तथा काम से अपनी बात साबित कीजिये. कवियों के कवि शमशेर ने कहा भी है- 'बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही.'

'मेरे अकेले के बदल जाने से क्या होगा?'- अगर यह प्रश्न आपको निस्तेज कर दिया करता है तो मैं यहाँ एक किस्सा सुनना चाहूंगा।

एक राजा ने राजकुमारी की शादी में प्रजा के बीच ढिंढोरा पिटवाया कि बारातियों के स्वागत के लिए जिसके पास जितना हो सके, लोग आज की रात दूध दान करें. नगर के बीचों बीच एक हौज बनवाया गया ताकि लोग उसमें दूध डालें।

रात में एक दम्पति ने सोचा कि अगर वे एक लोटा दूध की जगह पानी डाल दें तो हौज भर के दूध में किसे पता चलेगा? उन्होंने ऐसा ही किया।

सुबह लोगों ने देखा तो जाहिर हुआ कि पूरा हौज ही पानी से भरा हुआ है।

तो देखा आपने एक आदमी की बेईमान सोच का क्या नतीजा निकला. इसी तरह अगर ज्यादा से ज्यादा लोगों की सोच जनहित वाली हो जाए तो पूरा मंजर ही बदल सकता है।

**प्रतिज्ञा कर लीजिये कि अगर आप लाभ के पद वाली किसी कुर्सी पर बैठे हैं तो उसका नाजायज फ़ायदा नहीं उठाएंगे और न ही किसी को उठाने देंगे।

** लांच-घूस से तौबा करेंगे और इसमें लिप्त लोगों का भंडाफोड़ करेंगे।

** अपने आस-पास के लोगों की समस्याओं को सुलझाने में ख़ुद दिलचस्पी दिखाएँगे और बदले में कोई उम्मीद न रखेंगे।

साल २००८ में इतना कर ले गए, तो समझो गंगा नहाई. मैं मानता हूँ कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे. लेकिन यह शराब और सिगरेट छोड़ने जैसे अवास्तविक 'न्यू इयर रेजोल्यूशंस' जितना दुर्धर्ष भी नज़र नहीं आता.


और अंत में एक आजमाया हुआ नुस्खा: किसी का ब्लॉग पढ़कर यदि गुस्सा आ जाए तो कुर्सी से सीधे उठकर २० मिनट की दौड़ लगा आयें तथा लौटने पर धीरे-धीरे एक गिलास पानी पी जाएं.

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