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शनिवार, 17 मई 2008

मानव-मन की अन्तर्निहित प्रवृत्ति नहीं है धनोपार्जन

बुर्जुआ समाज और संस्कृति-१४


पिछली कड़ी में अपने पढ़ा कि सामान्य मानव-धर्म के बदले सामग्री-धर्म अपनाते-अपनाते मानव-चरित्र के नए दिगंत प्रकट हो रहे हैं। अब आगे...


विक्रेता के रूप में मनुष्य अपनी कार्यक्षमता, मेधा और व्यक्तित्व बेचता है। स्वभावतः क्रेता इसे अपने स्वार्थ में ही उपयोग करता है. क्रेता की पसन्द से ही माल तैयार होता है. पूँजीवाद में साधु, सत्यवादी, स्पष्टवादी, स्वाभिमानी, निष्कपट और सहृदय लोगों की मांग नहीं है. इसलिए इन गुणों की चर्चा भी कोई नहीं करता, वरन कोढ़ की तरह इन्हें गुप्त रखना ही श्रेयस्कर समझता है.


जो हत्या को आत्महत्या मानकर नहीं चल सकते , ऐसे लोग इस समाज में 'स्वर्गीय' ही हैं। खुशामद, बेईमानी, झूठ, खलता, निष्ठुरता और चालाकी आदि 'गुणों' की मांग है- इसलिए इन गुणों की परीक्षा में उत्तीर्ण होने की होड़-सी लगी रहती है. इस समाज में यदि मिलावटहीन द्रव्य, बेईमान व्यापारियों के उत्पातों से परेशान जनता और घूस तथा दुर्नीति से ग्रस्त व्यवस्था है तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. सामग्री से मानव-धर्म की अपेक्षा भी तो नहीं की जाती.


अपनी इच्छाओं का दमन करते हुए, रूचि को ठेंगे पर रखते हुए, दूसरे की पसंद के अनुसार अपने को ढालना सामग्री धर्म की दूसरी नियति है। लगातार दमित होते-होते, अंतर्द्वद्व के फलस्वरूप, सकारात्मक मानसिकता का लोप होता जाता है, हालांकि सांस्कृतिक प्रभाव कुछ ऐसा होता है कि इसका आभास भी नहीं हो पाता. बुर्जुआ संस्कृति में, जहाँ सार्थकता का पैमाना धन है, ऐश्वर्य के प्रति नमन और गरीबी के प्रति अवज्ञा इतनी स्पष्ट है कि हर कोई दरिद्र होना अपमान और हेठी का बायस समझता है. इस सामाजिक वातावरण से पैदा हुई इस सफलता की अवधारणा के फलस्वरूप कोई भी धनोपार्जन कर अपमान और ग्लानि से मुक्त हो, मान-मर्यादा का अधिकारी होना चाहता है.


धनोपार्जन मानव-मन की अन्तर्निहित प्रवृत्ति नहीं है, दूसरी कई प्रवृत्तियों की पूर्ति का उपाय मात्र है। अपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही धन की जरूरत होती है. लेकिन ऐसा करते-करते उपाय ही उद्देश्य हो जाता है. इस प्रक्रिया में अहं और प्रभुत्व आदि नकारात्मक प्रवृत्तियाँ चरितार्थ करते-करते धन की लालसा का नशा सवार होने लगता है. शराबी की ललक जैसे बढ़ती ही जाती है, वैसी ही धनोपार्जन की लालसा भी होती है.


लेकिन सफल होने पर भी अंत में यही लगता है कि कुछ भी नहीं मिला जीवन में. वांछित मूल्यबोध के अभाव में, पारिवारिक संबंधों की हताशा में, यौवन की संध्या में समझ पाता है कि सोने के हिरन के पीछे-पीछे ही सब कुछ बीत गया,. पारिवारिक सुख, प्रेम और मित्रता आदि की उपेक्षित दमित वासनाएं, स्वार्थी मन को निरंतर और भी चंचल और अस्थिर करती हैं. इन अतृप्त वासनाओं से व्यर्थताबोध और आक्रोश पैदा होता है और अपने नुकसान की भरपाई के लिए प्रतिशोध की भावना भड़कती है. पश्चिमी समाज में ऐसी हताशा के फलस्वरूप लाखों तलाक होते हैं. (Mass,Class and Bureasucracy (page-95)- Divorce (in USA) are now so high that they cover one out of every three or four marriages.
न्यूयोर्क के सौ संपन्न लोगों में बीस मानसिक रूप से विक्षिप्त बताये जाते हैं।


शेष अगली पोस्ट में जारी...


'पहल' से साभार

गुरुवार, 15 मई 2008

पीएम की पत्नी के फ्राड मेल से सावधान!

दोस्तो, मुझे आज एक ई-मेल मिला। इसे hotmail।com भी दबोच नहीं पाया. और यह जंक मेल की जगह मेरे इनबॉक्स में आ घुसा. आप लोग भी सावधान रहियेगा. इसे अंग्रेजी में ज्यों का त्यों दे रहा हूँ ताकि आप भाषा का भी पूरा फ़रेब पकड़ सकें.

ASSALAMU ALAIKUM
From:Mrs Fatima Hinga.
Dearest,
Thanks for finding time to go through my mail. I am Mrs. Fatima Hinga, the wife of Lieutenant Colonel John Garang Hinga the Leader of Sudanese People's Liberation Govement (SPLM) one of the leading political parties in Sudan which was formed in 1983. He died during the out brake of the recent civil war in Sudan. Before his death, he held many important offices which includes being the prime minister in a coalition government between 1986 to 1989.
He also was the leader of the Umma Party a strong political organization in Sudan. After his tenure as coalition prime minister, he was made to be in-charge of the payment of Sudanese Media communications department in 2001.
My husband was killed by a group known as Sadiq al Mahdi at the on set of the civil war while fighting for the liberation of the Sudanese people from the hands of a dictatorship government.
I am 47 years old now and seriously ill although I am now receiving treatment in a hospital here in Thailand. During the period of our marriage we were blessed with a male child by name Abdul Hinga who is also here taking care of me. After the death of my husband, I inherited a huge amount of money (12million US dollars) which my late husband deposited with a Security Company in Thailand for safe keeping.
I now decided to contact you to assist me and my son to claim this money from where it was deposited and probably guide us in investing the fund in a worthwhile flourishing business over there. I hereby ask for your help and assistance. Although I am a novice in business, I have an eye on rigid properties. Your advice on other areas of private sector will be highly appreciated. I believe that you would be of great help in guiding my son to a successful business investment in your country even when I am gone.
I will appreciate if you will show interest in collaborating with us, as this transaction will benefit both of us on joint venture partnership।Furthermore I am ready to give you a good negotiable percentage cash reward for your assistance. Detailed information on other proceedings will be made available to you upon receiving your reply showing interest in collaborating with us as I look forward to your urgent reply.

Sincerely Yours
Fatima Hinga।

पहले ये लोग लाटरी लगने का झांसा देते थे. अब यह तरीका अख्तियार किया है. आखिर में एक बार फिर पीएम की बेगम साहिबा फ़ातिमा हिंगा से सावधान करता हूँ. धन्यवाद!

बुधवार, 14 मई 2008

एक जिन्स होकर रह गया है मनुष्य!

(बुर्जुआ समाज एवं संस्कृति- १३)


इस लेखमाला में पिछले दिनों आपने पढ़ा था कि पूंजीवाद एक हाथ से देकर दूसरे से दुगुना लेता है। स्वाधीनता दी है, जीविका का निश्चित उपाय और सुरक्षा नहीं दी है. इससे जनता में अस्थिरता पैदा हुई है जो प्राचीनकाल में नहीं थी. अब आगे...


तब समाज की विषय व्यवस्था में सभी का स्थान निश्चित था। धनी-दरिद्र, ऊँच-नीच, मालिक-नौकर, ज़मींदार-दास, ब्राह्मण-शूद्र विषमता के आधार पर गठित होते हुए भी निर्दिष्ट कार्यों के लिए स्वीकृत थे और सम्बद्ध दायित्व पालन करते थे. इस समाज में निचले तबके के लोगों को दारुण दुःख, वंचना और लान्छ्ना सहनी होती थी लेकिन आधुनिक समाज के जैसा भय, उद्वेग एवं अस्थिरता नहीं थी. 'स्वर्गीय असंतोष' के साथ स्वर्ग के पीछे भागने की प्रेरणा भी नहीं थी, शूद्र को ब्राह्मण होने के लिए सात बार जन्म लेना होता था. (इस प्रसंग में मनु का वक्तव्य है-


शूद्रायाम ब्राह्मनाज्जातः श्रेयसा चेत प्रजायते,
अश्रेयान श्रेयासिम जातिम गच्छत्यासप्रमादयुगात।) मनु १०/६४.


धनोपार्जन कर ब्राह्मण या क्षत्रिय के समकक्ष होने की कल्पना भी किसी शूद्र ने नहीं की होगी।


प्रतियोगिता के अलावा भी एक महत्वपूर्ण कारण है क्रय-विक्रय सम्पर्क। प्राचीनकाल में सामाजिक सम्बन्ध प्रत्यक्ष थे. राजा-प्रजा, प्रभु-दास, ब्राह्मण-शूद्र सभी के परस्पर संबंधों में निश्चित अपेक्षाएं थीं.

बुर्जुआ समाज में परस्पर कोई निश्चित, विधिवत सम्पर्क नहीं है॥ माल का क्रय-विक्रय ही सम्बन्ध बनाते हैं। जनता जरूरत की चीजों के लिए उत्पादक पर निर्भर है, लेकिन उत्पादक से सामना नहीं होता. कई हाथों से गुज़रते हुए वह सामान उपभोक्ता के पास आता है. हम लोग अन्न के लिए किसान के पास नहीं जाते हैं और न ही वह हमारे पास आता है. इससे एक दूसरे पर निर्भरता का सम्पर्क स्वाधीन क्रेता-विक्रेता के आर्थिक लेन-देन में बदलता है. इसी लेन-देन पर बाज़ार का नियम चलता है. (कार्ल मार्क्स ने दास कैपिटल के प्रथम खंड में यह निष्कर्ष व्यक्त किया था: There is definite social relation between men, that assumes, in the eyes, the fantastic forms of a relation between things... PROGRESS PUBLISHERS, Moscow, 1965, page -72.)


इस लेन-देन के परदे में सामाजिक-निर्भरता की भावना मद्धिम हो जाती है। मोलभाव करके खरीदने और बेचने के साथ सामाजिक न्याय-अन्याय की प्रक्रिया जुड़ी है, यह सोच पैदा ही नहीं होता है. फिर भी यह सच है कि मुनाफ़ा, बाज़ार की अराजक अवस्था, श्रमजीवी और उपभोक्ताओं की दुर्गति, सभी सस्ते में खरीद कर मंहगे में बेचने से ही पैदा होती है.


सामाजिक सम्पर्क का क्रेता-विक्रेता सम्पर्क में बदलाव इस दौर पर आ पहुंचा है कि मनुष्य भी एक जिन्स होकर रह गया है। सामान्य मानव-धर्म के बदले सामग्री-धर्म अपनाते-अपनाते मानव-चरित्र के नए दिगंत प्रकट हुए हैं.


अगली पोस्ट में जारी...


'पहल' से साभार.

गुरुवार, 8 मई 2008

ये मूढ़मति और अंधविश्वासी लोग!

We often talk about Incredible India but see what is still happening in this great country. कल रात हमारी सोसाइटी co-op-housing society में दुखद घटना घट गयी। ऊपर के फ्लैट में एक परिवार रहता है. इस बात का ज़िक्र ज़रूरी नहीं समझता कि वह परिवार कहाँ का है लेकिन यह ज़रूर कह सकता हूँ कि वे लोग ग्रामीण पृष्ठभूमि (rural background) के हैं. हालांकि अन्धविश्वासों superstitions के मामले में शहर या ग्रामीण पृष्ठभूमि से अधिक फ़र्क नहीं पड़ता. ख़ैर, घर की मालकिन अभी-अभी एक ख़ूबसूरत बच्ची की माँ बनी है.


हुआ ये कि कल पास-पड़ोस की कुछ महिलायें उस बच्ची new born को देखने गयीं। उनके जाने के बाद बच्ची की माँ को लगा कि उसे इन महिलाओं की नज़र लग गयी है. सो वह लगी उसकी नज़र उतारने. उसने अपनी परम्परा से जो सीखा होगा उसी विधि से नज़र उतारने लगी.


उस महिला ने तेल में कागज़ डुबोया और उसमें आग लगाकर बच्ची के चारों ओर घुमाने लगी। इसी बीच असावधानीवश जलते कागज़ का एक टुकड़ा बच्ची के पेट पर गिर गया. नवजात बच्ची की नाजुक त्वचा skin झुलस उठी. घबराकर उस महिला ने उस पर पानी डाल दिया. अब क्या था, बच्ची की त्वचा छिल कर बाहर आ गयी और पूरे पेट से रक्त-मांस दिखने लगा.


अब वह बच्ची अस्पताल hospital में जिंदगी और मौत के बीच झूल रही है। ईश्वर उसकी रक्षा करे!


इस प्रसंग से मुझे अपने बचपन की एक घटना याद आ गयी। हमारे गाँव के एक चौधरी साहब एजेंसी agency से नया-नया ट्रैक्टर tractor खरीद कर लाये. ट्रैक्टर के लिए उन्होंने जमानत deposit के तौर पर अपनी आधी ज़मीन एजेंसी के पास रख दी थी.बहरहाल ट्रैक्टर आया. गाँव भर के लोग उसे देखने जुटे. हम बच्चों के लिए वह अजूबा चीज थी. हम उसे छूना चाहते थे लेकिन बड़े-बुजुर्ग डांट कर भगा देते.


सब लोग बेहद खुश थे कि गाँव में पहला-पहला ट्रैक्टर आया है। और चौधरी साहब तो गर्व से फूले नहीं समा रहे थे कि गाँव का पहला ट्रैक्टर उन्होंने ख़रीदा है. मूंछों पर देते घूम रहे थे.


रात में पूजा हुई। रिवाज के अनुसार ट्रैक्टर के चारों पहियों के नीचे दीपक जला कर रख दिए गए. दीपक में घी इतना भरा गया कि सुबह तक वे जलते रहें. सब लोग खुशी-खुशी सोने चले गए.


सुबह उठ कर लोगों ने देखा कि चार में से तीन पहिये आग पकड़ चुके थे और उनके टायर tyre जलने की बू से मोहल्ला गंधा रहा था। चौधरी साहब ने सर पीट लिया. सर मुडाते ही ओले पड़ गए थे. लगे हाथ ५ हज़ार का खर्चा! रोते-पीटते उन्होंने नए टायर लगवाये.


देखा आपने, कई बार पुराने रीति-रिवाज और अंधविश्वास कितना भारी पड़ जाते है!

गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

भंग का रंग जमा लो चकाचक!

This article is about lord shiva's booti 'bhang'. भारतवर्ष में भांग को 'शिवजी की बूटी' कहा और माना जाता है। भांग की महिमा में कई भजन और गीत भी रचे गए हैं, जिन्हें अनेक अवसरों पर खुलेआम गाया जाता है. समाज में भांग को सम्माननीय दर्ज़ा प्राप्त है. इसके उलट शराब liquer को नीची नज़र से देखा जाता है; और शराबी को तो ख़ैर नरक का कीड़ा मानता है समाज. मज़े की बात यह है कि भांग और शराब दोनों दिमाग़ में नशा पैदा करते हैं. और नशा करना भारतीय परम्परा Indian tradition में वर्जित है. कहा गया है कि नशा व्यक्ति को अंधा बना देता है. नशे में व्यक्ति विवेक खो बैठता है, वह पशु एवं नराधम हो जाता है. नशे में व्यक्ति अच्छे-बुरे और जायज-नाजायज का भेद करना भूल जाता है.

लेकिन पिछले दिनों मुझे मिले मेरे एक मित्र के पत्र ने भांग के प्रति मेरे मन में सम्मान पैदा कर दिया। मित्र खानदानी वैद्य हैं. उनका नाम है बृजेश शुक्ल. बहरहाल यह पत्र उन्होंने महाराष्ट्र सरकार Maharashtr government तक अपनी गुहार पहुंचाने के इरादे से लिखा है. मुख्तसर में कहूं तो वह दुखी हैं कि जब यह सरकार ताड़ी-माड़ी, देसी-विदेशी शराब के ठेकों को लाइसेंस ज़ारी करती है तो भांग को क्यों नहीं? आख़िर यूपी-एमपी UP, MP में तो भांग के ठेके दिए जाते हैं. वहाँ इसके शौकीन सुबह-शाम लाइन लगाकर ठंडई के बहाने सेवन करते हैं और मस्त रहते हैं.

निवेदन:- मित्र का महाराष्ट्र सरकार से अनुरोध है कि अगर भांग के ठेके खोल दिए जाएं तो उसे अन्य मादक द्रव्यों की ही तरह इससे आबकारी शुल्क Excise Duty मिलेगा और सरकारी ख़जाने Exchequer को लाभ होगा। दूसरे शराब और ताड़ी-माड़ी से जो स्वास्थ्य हानि होती है वह भी नहीं होगी क्योकि भांग एक आयुर्वेदिक औषधि है. मेरे यह वैद्य मित्र भी भांग की उपलब्धता कुछ औषधियों के निर्माण के लिए चाहते हैं.

मित्रो, हमारे वैद्यराज की बात में दम लगता है. गोस्वामी तुलसीदास Tulsidas ने रामचरितमानस Ramcharitmanas के बालकाण्ड में दोहा लिखा है-
नाम राम को कलपतरु, कलि कल्याण निवास,
जो सुमिरत भयो भांग ते, तुलसी तुलसीदास.
(दोहा क्रमांक- २६).

भांग के Medical लाभ:-
१) बवासीर piles, fishure & fistula (खूनी या वादी) में पीसकर गुदामार्ग में लेप करने से दर्द व जलन में राहत मिलती है.
२) इसके बीजों का तेल निकाल कर लगाने से चर्म रोगों skin deseases में आराम मिलता है.
३) इसके सेवन से मधुमेह Diabetes नहीं होता.
४) इसके सेवन से मर्दानगी Potency बनी रहती है।


मित्र का दावा है कि भांग एक सम्पूर्ण वनस्पति compelete hurb है। भांग की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्राचीन ग्रंथों में यह श्लोक shloka मिलता है:-

जाता मंदरमंथानाज्जलनिधौ, पीयूषरूपा पूरा,
त्रैलोक्यई विजयप्रदेती विजया, श्री देवराज्ज्प्रिया,
लोकानां हितकाम्या क्षितितले, प्राप्ता नरैः कामदा,
सर्वातंक विनाश हर्षजननी, वै सेविता सर्वदा।


कथा है कि मंदराचल पर्वत से जब समुद्रमंथन किया गया था तब अमृत Nectur रूप से भांग की उत्पत्ति हुई थी। त्रिलोक विजयदायिनी होने से इसका नाम विजया हुआ. यह देवराज इन्द्र को प्यारी है.

मेरी दिलचस्पी बढ़ी तो मैंने यह जानकारी निकाली-- "भांग के पौधे नर व मादा दो प्रकार के होते हैं। नर पौधों के पत्तों से भांग मिलती है. उत्तरप्रदेश, राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश, हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में भांग की खेती के लिए अनुकूल जलवायु होती है. इसके पत्ते नीम के पत्तों की भांति लंबे और कंगूरेदार होते हैं; लेकिन आकार में कुछ छोटे. हर डंठल पर ६-७ पत्ते होते हैं. भांग का अर्क खींचने से एक प्रकार का तेल निकलता है जो अर्क पर तैरता है, उसमें भी भांग के समान खुशबू आती है और रंग कहवे की तरह होता है.

एक जानकारी और- 'भारतवर्ष के हेम्प ड्रेज कमीशन ने वर्ष १८९३-९४ में यह निर्णय दिया था कि भांग का साधारण उपयोग कोई शारीरिक हानि नहीं पहुंचाता और न ही इसका दिमाग़ पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यूनानी मत से भी यह उत्तम वनस्पति है जो कई रोगों का समूल विनाश कर देती है।'

भांग को कई नामों से जाना जाता है- अजया, विजया, त्रिलोक्य, मातुलि, मोहिनी, शिवप्रिया, उन्मत्तिनी, कामाग्नि, शिवा आदि। बांग्ला में इसे सिद्धि कहते हैं. अरबी में किन्नव, तमिल में भंगी, तेलुलू में वांगे याकू गंज केटू और लैटिन में इसको कैनाबिस सबोपा कहते हैं.

किसी कवि ने भांग की महिमा में कवित्त रचा है:-

मिर्च, मसाला, सौंफ कांसनी मिलाय भंग,
पीये तो अनेक रंग, अंग को उबारती.
जारती जलोदर, कठोदर भागंदर,
बवासीर, सन्निपात बावन बिदारती.
दाद के शिवराज खाज को ख़राब करे,
सईन की छींक, नासूर को निकारती.
काम के रोग, शोक, सेवत ही दूर करे,
कमर के दर्द को गारद कर डारती।


भाई साहब, इस भंग महिमा के बाद भी अब कहने को कुछ बचता है क्या? हमारी दिली इच्छा है कि महाराष्ट्र सरकार का कोई नुमाइंदा भी इसे पढ़े और हमारे वैद्यराज मित्र के हृदय की पीड़ा दूर करे.

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

अबोध, मूर्ख और भावुक होती है जनता!

बुर्जुआ समाज और संस्कृति-१२

(अब तक आपने पढ़ा कि समाज से अलग, निस्संग जीवन व्यक्ति के लिए असहनीय होता है. अब आगे...)

संग साथ की प्रवृत्ति सहजात होती है, मनोविज्ञान में इसे सामाजिक प्रवृत्ति कहा जाता है. मनुष्य ही क्यों, चींटियाँ, मधुमक्खियाँ, मछलियाँ, चिडियाँ, हाथी, हिरण, वानर इत्यादि अनेक प्राणियों में एकजुट होकर रहने की सहजात प्रवृत्ति है. यह भाव ही सामाजिक बन्धन का आधार है.

दैहिक सानिध्य के अलावा भी दूसरों से एकात्म-बोध की अनुभूति हो सकती है. संन्यासी या क्रांतिकारी, निर्जन कक्ष में, निस्संग होते हुए भी दूसरों के साथ भावनात्मक सम्पर्क रखते हैं. ईश्वर, धर्म, देशप्रेम, और राष्ट्रीयता की भावना इत्यादि आदर्शों और विश्वास से भी कई लोगों के हृदय में भाईचारे की भावना पैदा होती है तथा उससे प्रेरित हो जीवन उत्सर्ग कर पलायन और निस्संगता भोगते हैं. लेकिन भावनात्मक बोध लुप्त होते ही मनोबल क्षीण पड़ता जाता है. उसी तरह भावनात्मक संबंधों के अभाव में, भीड़ में रहकर भी कोई अकेला महसूस कर सकता है. जिनके मन में ईर्ष्या-द्वेष के अलावा कुछ नहीं होता, वे हजारों की भीड़ में रहकर भी अकेले रहते हैं.

बुर्जुआ समाज में व्यक्ति दिनों-दिन अकेला और असहाय होता जा रहा है, सहयोगिता की भावना लुप्तप्राय है. जिस कार्य में समष्टिगत स्वार्थ होता है, वहाँ सभी का एक ही लक्ष्य होता है तथा स्वभावतः सहयोगिता का भाव रहता है. लेकिन जहाँ हरेक दूसरे का शत्रु है, दूसरे को परास्त कर प्रतियोगिता में आगे जाना है वहाँ सहयोगिता कैसे होगी? हालांकि कई संगठित प्रतिष्ठान आदि हैं, लेकिन उनका उद्देश्य भी किसी दूसरे प्रतिष्ठान को पराजित करना है. इस समाज में सामाजिक दायित्व पालन करने का आवाहन, जो प्रायः नेताओं के भाषणों में होता है, छलना मात्र है, प्रतिपक्ष को विभ्रांत करने का कौशल है. सहयोगिता के परदे के पीछे सभी प्रतियोगी और अकेले हैं.

बुर्जुआ समाज में सभी युद्धजीवी हैं. सभी एक दूसरे को धकियाते हुए, उद्विग्न, भयातुर और असुरक्षित हैं. गरीब की चिंता चूल्हा जला पाने की है, नौकरी वालों को छंटनी का भय है, अमीर को प्रतियोगिता और मुद्रास्फीति से बाज़ार मंदा होने की चिंता है, कामगार को हड़ताल की आशंका है. बुर्जुआ, साम्यवादियों के आक्रमण से भयभीत हैं, यहाँ तक कि स्वदेशी सरकार सब कुछ जब्त कर सकती है, यह निरंतर भय का कारण है.

आज शांति है तो कल युद्ध आरंभ हो सकता है. विद्रोह और दंगे हो सकते हैं. आज के मित्र देश, कल शत्रु हो सकते हैं. अस्थिरता इस समाज की विशेषता है. रोज़ नए फैशन, नए विचार आते-जाते हैं, सरकारों का उत्थान-पतन हो रहा है, एक तानाशाह दूसरे को हटा रहा है, दूसरा तीसरे को, वर्ष भर नए क़ानून बनते जाते हैं, चीज़ों के दाम बढ़ते जाते हैं, रुपयों के कमते जाते हैं, आज शिक्षानीति तो कल अर्थनीति में बदलाव आ रहे हैं.

कुछ समझ पाने से पहले हर व्यवस्था, दूसरी का विकल्प बन जाती है. आदमी की मानसिकता समुद्र के तूफान में फंसी नौका के नाविक जैसी है. इस अस्थिरता से मुक्ति की उम्मीद में जनता तानाशाहों की शरणागत होती है. हजारों वर्षों की लड़ाई के बाद जिन नागरिक अधिकारों का अर्जन जनता ने किया है उसे इतनी सहजता से उन्मादग्रस्त और हिंसक तानाशाहों के हाथों विसर्जन की यह प्रक्रिया विस्मयकारी है.

एरिक फ्रॉम ने कहा है कि बुर्जुआ समाज में सुरक्षा का अभाव और निरंतर अनिश्चितता की पीड़ा की व्याकुलता से ही फासिज़्म पैदा होता है. किसी भी चालाक भाग्यान्वेशी के संकट मोचन का झूठा आश्वासन देते ही, जनता उसके पीछे यों दौड़ती है, जैसे रेगिस्तान में मृगतृष्णा के पीछे प्यासा. स्वभावतया जनता अबोध, मूर्ख और भावुक होती है. जितना विवेक जनता के पास है, वह भी महाप्रलय के परिकल्पित भय से लुप्तप्राय है.

बुर्जुआ समाज में व्यक्ति स्वातंत्र्य, सुरक्षा के एवज में मिला है. प्राचीनकाल में व्यक्तित्व के विकास में कई अतार्किक , अन्यायपूर्ण और अलंघनीय बाधाएं थीं. जो जिस जति, श्रेणी, कुल या गोत्र में जन्म लेता, उसे उसके दायरे से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी. पूंजीवाद ने इन सभी धारणाओं पर झाड़ू फेर दी. अब चांडाल-पुत्र में योग्यता हो तो वह शिक्षक हो सकता है, ब्राम्हण मछली बेच सकता है. बदनामी का डर नहीं है. अपनी सुविधा के हिसाब से काम कीजिये. लेकिन यह परिस्थिति कुछ ऐसे पैदा हुई कि सर का दर्द दूर करने के लिए उसे काट दें.

बहुतों की रूचि के मुताबिक काम नहीं जुटता है. योग्यता और रूचि के अनुसार काम न होने पर व्यक्ति क्या करेगा? वह भी न मिले तो? बेकार बैठे हुए व्यक्ति-स्वातंत्र्य का 'आनंद' ही लेगा. करोड़ों बेकार घूमते हैं. पूंजीवाद एक हाथ से देकर दूसरे से दुगुना लेता है. स्वाधीनता दी है, जीविका का निश्चित उपाय और सुरक्षा नहीं दी है. इससे जनता में अस्थिरता पैदा हुई है जो प्राचील काल में नहीं थी.

'पहल' से साभार

(अगली किस्त में जारी...)

रविवार, 3 फ़रवरी 2008

ईश्वर पर विश्वास कायम होता है भय से

बुर्जुआ समाज और संस्कृति-११

(अब तक आपने पढ़ा कि विज्ञापन विशेषज्ञ झूठे प्रचार से लोगों को ठगने का कार्य करते हैं। अब आगे...)

सिर्फ कमज़ोर या ईमानदार लोग ही प्रतियोगिता के फलस्वरूप हाशिये पर आए हों ऐसा नहीं। अनेक बाहुबली भी इससे प्रभावित हो रहे हैं, और उनके दिन ज़्यादा नहीं बचे हैं. जिस समाज की रगों में युद्ध का उन्माद खून की तरह दौड़ता हो, उसका स्थायित्व भंगुर ही होता है. दरअसल बुर्जुआ समाज के लिए 'समाज' शब्द ही अनुपयुक्त है. इसमें समाज के कोई लक्षण ही नहीं हैं. स्वेच्छाचारिता को संयत किए बगैर समाज की रचना असम्भव है. यह भी बुर्जुआ समाज के द्वंद्व में, व्यक्ति-स्वाधीनता के छल से स्वेच्छाचारिता की अनुमति समाज के कतिपय लोगों को मिलती है.

लोकतंत्र की आलोचना में यह बात साफ उभर कर आयी है कि बुर्जुआ समाज में स्वाधीनता सिर्फ़ धनिकों के लिए होती है, ग़रीबों को सिर्फ अनशन करने की स्वाधीनता है. दिखावे के लिए अदालत है लेकिन अमीरों को इसके लंबे हाथ भी नहीं छू पाते. स्पैलंगर के अनुसार- "THE LAW IS ONLY FOR THOSE WHO ARE CUNNING OR POWERFUL ENOUGH TO IGNORE IT".

उच्च न्यायालय में आवेदन करते हुए, हजारों दाँव-पेंचों से गुज़रते हुए एक व्यक्ति का पूरा जीवन न्याय की आशा में बीत जाता है. पुलिस और न्यायाधीश को खुश कर, दिन को रात किया जा सकता है. लक्ष्मी कृपा से, बीच सड़क पर, दिन-दहाड़े हत्या कर बेक़सूर ख़लास हो जाते हैं. बाहुबल और अर्थबल की लड़ाई में कोई फ़र्क नहीं है.

किसी विद्वान ने कहा है- "न्यायालय की न्याय-प्रक्रिया के समर्थन में जितने भी तर्क दिए जाएं, लेकिन विजयी होने के लिए, ऊंची फ़ीस देकर प्रसिद्ध वकील और बैरिस्टर, ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। निरपेक्ष न्याय का ढिंढोरा पीटती हुई जो हमारी न्याय-व्यवस्था बनी थी, उसमें पैसों का यह खेल आने वाली पीढ़ी के लिए चकित करने वाला होगा, इसलिए भी कि प्राचीनकाल में प्रयुक्त बाहुबल की पद्धति से यह कहाँ अलग है. अस्त्र-युद्ध की जगह अर्थ-युद्ध को उत्तरण (उद्धार) तो नहीं ही माना जा सकता है." (एल. टी. हवहाउस/ Morals in Evolutin, भारतीय संसकरण, एशिया पब्लिशिंग हाउस, पेज-१२२).

धनी लोग क़ानून को ठेंगा दिखाते हैं, उनकी काली करतूतों पर क़ानून एक सुहावना परदा है। अन्यथा, सुकरात, ईसा से शुरू कर मार्क्स, डिबेलेरो, नेहरू और गांधी जैसे ज्ञानी, गुणी व्यक्तियों को कानूनन सज़ा नहीं भोगनी पड़ती.

धन के अलावा शब्द जाल भी मनुष्य को मोहित करते हैं। एक ऐसा ही शब्द है- 'व्यक्ति-स्वाधीनता'. पूंजीवाद अपने साथ ही इसका ढिंढोरा पीटता आया था; जनता के नहीं, वरन सरमायेदारों के स्वार्थ में. ज़मींदारी की गुलामी से मुक्त और आत्म-विक्रय की स्वाधीनता प्राप्त कामगारों के बगैर पूंजीवाद की शोषण-व्यवस्था को टिकाए रखना असम्भव ही था. इसलिए सरमायेदारों ने अभिजातों (कुलीनों) से युद्ध कर यह स्वाधीनता दिलाई. तत्पश्चात बुद्धिजीवियों का एक दल इस तथाकथित व्यक्ति-स्वाधीनता का ढोल पीटे जा रहा है.

ज़रा-सा ठहरकर सोचने में हर कोई इसकी टोह पा लेगा कि ढोल जनता के नहीं, सरमायेदारों के पक्ष में पीटे जा रहे हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार के अनुसार स्वाधीनता के प्रति जनता के मन में आकर्षण से ज़्यादा भय है. व्यक्ति अपनी स्वाधीनता सहन नहीं कर पाता है, वरन दूर भागता है. स्वाधीन रूप से रह पाने के लिए जिस शक्ति, साहस, आत्मविश्वास तथा मेधा की ज़रूरत है, वह गिने-चुने लोगों में ही हो सकती है.

निर्भरता आदमी की सहजात वृत्ति है। जन्मपूर्व ही वह माँ के गर्भ के निरापद आश्रय में रहता है. बचपन माँ-बाप और परिजनों के आश्रय में. किशोरावस्था में स्वाधीनता की भावना उछाल मारती भी है तो उसकी भ्रूणहत्या भय से हो जाती है. सामाजिक और प्राकृतिक वातावरण का दबाव, रोग, शोक, मृत्यु एवं दैवी प्रकोप आदि धारणाएं क्रमशः उसकी किशोर मानसिकता में घटाटोप बनाती जाती हैं. जिससे अनिर्वचनीय भय, उद्वेग और अलगाव तथा असाहयता की भावना पैदा होती है, जिससे मुक्ति के लिए वापस माँ के गर्भ का आश्रय भी नहीं रहता तथा परिवार के प्राथमिक संबंधों में टूटन आती है, उसे जोड़ना भी सम्भव नहीं होता.
ऐसी अवस्था में भयभीत किशोर मन कोई निरापद आश्रय चाहता है। इसलिए उसे सबसे पहले ईश्वर पर विश्वास होने लगता है; पूर्वजों से सुनता आ रहा है कि ईश्वर सर्व-सक्तिमान और निरापद है. यह विश्वास गहरे बैठता जाता है. इसी भावना से नेतृत्व के समक्ष आत्मसमर्पण का भाव पैदा होता है. जटिल समस्यायों का समाधान वह नेताओं पर छोड़ निश्चिंत होना चाहता है.

दूसरा विकल्प है सामाजिक संबंधों के विकास द्वारा संगठन की स्थापना। यौवन सहज ही मित्रभाव पैदा करता है. इस तरह एक दूसरे से जुड़ते चले जाने से व्यक्ति-सता की परिपूरक सामाजिक सत्ता का उदय होता है. व्यक्ति अब अकेला नहीं है. किसी संगठन का सदस्य होता है, समाज का अंश है. समाज व्यक्ति को सुरक्षा का आश्वासन देता है. दुखों और तकलीफों को झेलते हुए भी मनुष्य सामाजिक सम्बन्ध बनाए रखता है.

समाज के प्रति यह आकर्षण सिर्फ सभ्यता के विकास और स्वाधीनता की इच्छा से नहीं पैदा होता है, वरन पैदा होता है स्वाधीनता के भय की वजह से। समाज से अलग निस्संग जीवन व्यक्ति के लिए असहनीय होता है.

'पहल' से साभार

(अगली किस्त में ज़ारी)

शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

झूठे प्रचार से लोगों को ठगने की कला

बुर्जुआ समाज और संस्कृति- १०

(अब तक आपने पढ़ा कि सारा बुर्जुआ समाज ही जैसे कोई 'दग्ध थियेटर' है. प्रतियोगिता की सीमित सार्थकता हो सकती है, लेकिन इसे प्रोत्साहित करना ख़तरनाक होता है. अब आगे...)

प्राचीन मनीषियों का कहना है कि आकांक्षाएं असीम हैं और कभी भी पूरी नहीं हो सकतीं. भोग-विलास की आकांक्षा प्रश्रय पाकर और बढ़ती है. आज अगर इस विचार को मान लिया जाए तो कारखानों से जो उत्पादनों की बाढ़ आ रही है, और जिससे करोड़ों लोगों की जीविका चलती है- सबका क्या होगा. जनता अगर सादा जीवन व्यतीत करे, विलासिता के साधन जीवन से लुप्त हो जाएं, तो सारी आवश्यक वस्तुओं के उद्योगों पर ताले लग जायेंगे, श्रमिक छंटाई होगी, राष्ट्रीय आय का स्तर नीचे आ जायेगा और मालिकों के मुनाफ़े में गज़ब का ह्रास आयेगा.

इसलिए, येन-केन-प्रकारेण माल की मांग बनाए रखनी होगी, जनता को इसके उत्पादन के लिए उत्साहित करना होगा, नए फैशन खोजने होंगे, नए माडल और अश्लील विज्ञापनों द्वारा जनता के मन में ऐसा प्रलोभन जगाना होगा कि वह क़र्ज़ लेकर, चोरी करके या बेईमानी से अपनी आकांक्षा की पूर्ति करे. ऐसे बुद्धिजीवीगण, जो उत्पादन की बढोत्तरी के लिए पुख्ता दलीलें देते हैं, उनके ऐसे ही विचार हैं. भोग की आकांक्षा मनुष्य के अधोपतन का कारण है- यह विचार उनके लिए असंभव है क्योंकि वे विशेषज्ञ हैं. हिरन की तरह सर ऊंचा किए वे एक ही दिशा का संगीत सुन पाते हैं.

विशेषज्ञ झूठे प्रचार से लोगों को ठगने का काम करते हैं. ज्यादातर आयकर वकील कम से कम आयकर देकर बड़ी कंपनियों को ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा जुगाड़ कराने की योग्यता रखते हैं. जनसम्पर्क अधिकारी का काम सरकार के कुकृत्य की सफाई देना है. श्रमिक अधिकारी का काम श्रमिक विवाद में मालिकों का पक्ष लेना है. कूटनीतिज्ञों का काम स्वदेश के स्वार्थ में विदेश जाकर झूठ बोलना है. पुलिस का काम है घूस लेकर अपराधियों को छोड़ना. सैनिकों का काम है नरहत्या. राजनीतिज्ञों का काम है जनता पर अत्याचार कर सरमायेदारों को मजबूत करना, अखबारों का काम है झूठी खबरें छापकर जनता को बरगलाना और युद्ध के दिनों में उन्माद का वातावरण बनाना. (यहाँ मैं जोड़ना चाहूंगा कि दंगों के समय भी- विजयशंकर).

इन सभी की प्राथमिक शिक्षाएं हमारे विश्वविद्यालयों में मिलती हैं. लेकिन यही काम शोषित जनता करती है तो चारों तरफ शोर होने लगता है. दोनों के कामों में बुनियादी अन्तर न होते हुए भी बुर्जुआ बुद्धिजीवीगण बुर्जुआ वर्ग के सारे कुकृत्यों को सत्कर्म मानकर सफाई देते रहते हैं. एक ही-सा कृत्य अगर पूंजीवाद-विरोधी होता है तो समाज-विरोधी भी कहलाने लगता है.

बगैर युद्ध के उन्माद के कोई भी कार्य बुर्जुआ-सम्मत नहीं है. वर्त्तमान राजनीति ही युद्ध की राजनीति है. सरकार बनाने के लिए विभिन्न राजनीतिक दल युद्ध करते हैं. छल-बल-कौशल से निर्वाचन का युद्ध जीतकर कुर्सी हासिल करते हैं. यह एक खुला रहस्य है कि निर्वाचन में विराट खर्च का जुगाड़ कैसे होता है. जीतने के लिए दुर्नीति, मिथ्या प्रचार तथा कैसे-कैसे कीचड़ उछाले जाते हैं. लेकिन बुर्जुआ व्यवस्था में सरकार बनाने की इससे बेहतर प्रक्रिया हो ही नहीं सकती है.

कामगार और सरमायेदारों में भी युद्ध होता है. कामगार अपनी मांग के लिए नोटिस देंगे, हड़ताल करेंगे, पिकेटिंग (धरना) करेंगे, मालिक ले-ऑफ़ की घोषणा करेंगे, पुलिस की गोलियों से कुछ कामगार और आम लोग मारे जायेंगे, यातायात और विद्युत के ठप पड़ जाने से जनता भुगतेगी. फ़िर त्रिपक्षीय बैठक होगी, मोलभाव होगा और कमज़ोर पक्ष पराजित होगा.

कामगार अगर कुछ मांगें मनवा भी लें तो सरमायेदारों की तरफ से मुद्रास्फीति का तीर छोड़ा जायेगा. फ़िर से वही हड़ताल, लाक ऑउट और बैठक. ऋतुचक्र की तरह यह क्रम चलता रहेगा.

(यह लेख १९८१ में लिखा गया था इसलिए पाठक कृपया समय का यह अन्तर पाट कर चलें- विजय.)

'पहल' से साभार

(अगली किस्त में जारी...)

गुरुवार, 31 जनवरी 2008

जंगली पशु बना देती है प्रतियोगिता

बुर्जुआ समाज और संस्कृति-९

(अब तक आपने पढ़ा कि भारत में बचपन से ही हिंसा का पाठ पढ़ाने के क्या-क्या तरीके अपनाए जाते रहे हैं. अब आगे...)

पूंजीवाद की नींव है प्रतियोगिता जो कि एक असामाजिक प्रवृत्ति है. जंगल के जानवरों को जैसे शत्रु के आक्रमण के सम्मुख होकर अपना अस्तित्व बनाए रखना होता है, उसी तरह पूंजीवाद में हर नागरिक किसी न किसी प्रतियोगिता से गुज़र कर ही अपने को टिकाए रखता है. व्यक्तिगत सोच के ऐसे लोग भी हैं जो श्रमिकों की अवस्था से व्यथित हैं लेकिन वे एक ऐसी अवस्था में हैं कि अगर उनकी मांगें मान भी लें तो प्रतियोगिता में पराजित होंगे.

पूंजीवाद में हर उद्योग का दूसरे से, एक जाति से दूसरी जाति का युद्ध है. हरेक दूसरे को पराजित कर ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा अर्जित करना चाहता है. इस युद्ध में- ''कोई क घर म बाप मर, कोई क घर म माँ मर, आपणा घरा तो ढोल बाजणों चाये' के सिवाय कोई नीति हो ही नहीं सकती.

जीविका के लिए भी एक दूसरे को धकिया कर आगे बढ़ने में युद्ध की ही मानसिकता होती है. विजेता हैं तो ठीक है अन्यथा मृतप्राय ही जीवित रहेंगे. पूंजीवाद किसी को भी काम देने की जिम्मेदारी नहीं लेता है. व्यक्ति की जिम्मेदारी ही मानी जाती है. अब हर आदमी की शारीरिक और मानसिक योग्यता एक जैसी नहीं होती. जो कमज़ोर हैं, कमतर हैं, जिनके मामा-चाचा नहीं हैं, उनके अस्तित्व का संकट बना ही रहता है.

प्रदर्शन-कक्ष में अचानक आग लगने पर, भयभीत चकित जनता, शिशु, वृद्ध और स्त्रियों को रौंदते हुए जैसे भागती है, ठीक उसी तरह पूंजीवाद में हर एक का आचरण होता जाता है. सारा बुर्जुआ समाज ही जैसे कोई 'दग्ध थियेटर' है. मृत्युभय से भीति-ग्रस्त, पराजय की आशंका से प्रतियोगी के प्रति निर्मम, दूसरों के दुःख से निर्विकार, विजेता होने की उम्मीद में सारी जनता एक दूसरे को धकियाते हुए आगे जाना चाहती है. वह जानती है- पराजय का अर्थ ही मृत्यु है.

पूंजीवाद इस भावना का उत्पादक ही नहीं, उत्साहदाता भी है, क्योंकि उसकी उत्पादन व्यवस्था की जीवनी-शक्ति यह भावना ही है. कितने कम से कम व्यय में ज्यादा से ज्यादा उत्पादन हो सके, यह उसका बुनियादी सोच होता है. जनता भी ताल मिलाने लगती है. वह सोचती है, सरमायेदारों की अभिलाषा (अर्थनीति की भाषा में इन्सेन्टिव) पूरी नहीं होगी तो उत्पादन की प्रक्रिया ही ठप हो जायेगी.

उत्पादन का नशा ऐसा है कि बुद्धिजीवीगण भी सरमायेदारों की कुटिलता छिपाने के लिए इन्सेन्टिव की ज़रूरत को और भी प्रचारित करते हैं. उन्हें ऐसा नहीं लगता कि वे लगातार परस्पर विरोधी विचार प्रकट करते हुए प्रहसन के पात्र बनते जा रहे हैं. नहीं लगता, क्योंकि वे 'विशेषज्ञ' होते हैं, एक ही विषय में पारंगत.

प्रतियोगिता की सीमित सार्थकता हो सकती है, लेकिन इसे प्रोत्साहित करना ख़तरनाक होता है. समाज की एकता का सूत्र सहयोगिता में ढूँढा जा सकता है. प्रतियोगिता समाज-विरोधी प्रवृत्ति है. प्रतिद्वंद्वी को हराने की प्रवृत्ति मनुष्य में सहजात और दुर्दमनीय होती है, इसलिए बगैर रेफ़री के फुटबाल भी नहीं खेली जा सकती. पराजय की संभावना देखते ही खिलाड़ी आक्रामक होने लगते हैं. जहाँ सत्ता और संपत्ति की प्रतियोगिता होगी, उत्तेजना उतनी ही चरम पर होगी. पूंजीवाद इस उत्तेजना की आग में घी डालता है. मान-मर्यादा और इज्ज़त पाने के लिए व्यक्ति के उद्यम और प्रतियोगिता के संकल्प का वह हार्दिक स्वागत करता है.

'पहल' से साभार

(अगली पोस्ट में ज़ारी)

बुधवार, 30 जनवरी 2008

नाचूं चामुंडा रूप में इस समर में

बुर्जुआ समाज और संस्कृति-८

(अब तक अपने पढ़ा कि भारतीयों के हृदय में भी हिंसा की वैसी ही हवस है जैसी कि अन्य कुल के नागरिकों में. अब आगे पढ़िये--)

प्राचीन भारत में बुद्धिजीवियों ने हिंसा के विरोध की जगह उसके प्रचार में जिस नैपुण्य का परिचय दिया है, वह अमेरिकी लोगों के लिए डाह का विषय हो सकता है. बचपन से ही हिंसा का पाठ पढ़ाने के लिए पंडितों ने ऐसी पौराणिक कथाएं रचीं, ऐसे पूजा-अनुष्ठानों की स्थापना की कि वे मां की गोद में बैठे-बैठे, कहानियां सुनते हुए, हंसते हुए, बाल्यकाल से हिंसा से परिचित होते जाएं. महिषासुर मर्दिनी, दुर्गा-पूजा, नरमुंड कपालिनी काली पूजा की तरह हिंसा के प्रचार के ऐसे सार्थक उपाय अन्य किसी देश के पंडित शायद ही खोज सके हों.

दुर्गा काली की प्रेरणा से सिर्फ़ लड़कों का ही नहीं, लड़कियों का भी-
'मन करता है इसी भयंकर दंड को धारण कर
नाचूं चामुंडा रूप में इस समर में.'

युद्धरत देवी-देवताओं की जीवंतप्राय प्रतिमूर्ति, ढाक का रणवाद्य, शत्रु के प्रतीक छिन्नमुंड बकरे का ताज़ा रक्त, फ़िर पुरोहित का चंडीपाठ -

दृष्टावराल वदने शिरोमाला विभूषणे.
चामुंडे मुण्ड मथने नारायणी नमोस्तुते.

कुल मिलाकर नितांत भीरु के खूँ में भी उबाल पैदा कर सकता है.

भारतीय परम्परा ने हमें हिंसा-विमुख किया है, यह नितांत झूठ है. हिंसा से हमें कोई परहेज नहीं है. बुर्जुआ रीति में परहेज सिर्फ 'हिंसा' शब्द से है. कहिये शक्तिपूजा, बलवीर्य की साधना, वीरत्व, आत्मरक्षा, देश की सुरक्षा--- कुल मिलाकर इस भयंकर शब्द हिंसा को शब्दकोश से निकाल दें.

कोई कहे उसे लड़ना नहीं आता तो हमें गुस्सा आयेगा. प्रतिद्वंद्वी की चुनौती स्वीकार करने की योग्यता बगैर कोई मर्द हुआ भला! अंग्रेजों के राज में बंगालियों को असामाजिक जाति कहे जाने पर उनमें अपमान की तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी. कायर है, यह कोई भी जाति कहलाना पसंद नहीं करती. मार्क्स ने कहा है कि समाज को व्याधिमुक्त करने का सहज उपाय है कि भाषा से सारे श्रुतिकटु शब्द निकाल दें. इस अभिधान (शब्दकोश) के नए संसकरण के लिए विद्वानों से अनुरोध करना ही काफी होगा. (कार्ल मार्क्स, पावर्टी ऑफ़ फिलोसफी दृष्टव्य).

दरअसल बुर्जुआ समाज में अहिंसा और शांति के नाम पर हिंसा के सिवाय कोई विकल्प भी तो नहीं है. स्वैराचार कर्णकटु है, इसलिए लोकतंत्र में हत्यारे न कहकर सैनिकों को वीर कहना इस धोखे को चलाये जाने का सबसे श्रेष्ठ उपाय है.

मनुष्य की रग-रग में हिंसा की धारा और परम्परा में हिंसा का प्रशस्तिगान- ये बुर्जुआ संस्कृति के उदय में सहायक होते हैं. हिंसा की ऐसी व्यापकता पूर्ववर्ती किसी युग में नहीं थी. यह व्याप्ति संचार-साधनों के अभूतपूर्व विकास, पूंजीवाद के प्रसार और लगातार उन्नत मारक अस्त्र से सम्भव हुई है. इसको नैतिक समर्थन बुर्जुआ संस्कृति से मिलता ही है. विभिन्न समाज-विरोधी प्रवृत्तियों के लगातार फलने-फूलने पर ही पूंजीवाद का अस्तित्व निर्भर करता है और पूंजीवाद की यह जरूरत पूरी करती है बुर्जुआ संस्कृति.

'पहल' से साभार

(अगली किस्त में जारी...)

गुरुवार, 24 जनवरी 2008

हम भारतीय कब अहिंसक रहे हैं?

बुर्जुआ संस्कृति और समाज-७

(पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि किस तरह मनुष्य जाति युद्ध के बिना नहीं रह सकती। अब आगे...)

योरोप की तुलना में (युद्ध के मामले में) बाकी देश भी पीछे नहीं हैं। लोगों का भ्रम है कि पश्चिम के देश योरोप की तुलना में युद्धकातर नहीं हैं. इतिहास पर गौर करें तो यह सोच झूठ ही साबित होगा. योरोप की तरह ही चीन और भारत में भी हुआ है. कभी ज्यादा, कभी कम, कभी-कभी अंतराल. विदेशी आक्रमण के प्रतिरोध में युद्ध, साम्राज्य-स्थापना के लिए दो राज्यों में युद्ध, सत्ता के लालच में सेनापति का राजा के विरुद्ध, पिता के विरुद्ध पुत्र और भाई के ख़िलाफ़ भाई के युद्धों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं.

जब जनता लड़ाई करते-करते क्लांत हो जाती है तब शांतिवादी हो जाती है, फिर से बल संचय होते ही युद्ध में कूद पड़ती है। लहरें उठती हैं, गिरती हैं, उसी तरह युद्ध का उत्साह है, लेकिन युद्धलिप्सा का अवसान नहीं होता है.

आधुनिक युग में स्वदेशी सरमायेदारों के 'सेवकों' द्वारा एक अद्भुत नारा दिया गया है कि साम्यवाद की हिंसा भारतीय परम्पराविरोधी है। भारत शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक रास्ते पर चलना चाहता है। यह विमर्श उत्तम राजनीतिक प्रचार होते हुए भी विकृत इतिहास का उत्पादन है।

भारतीय परम्परा में कभी हिंसा का विरोध नहीं है. भारतीय परम्परा कितनी हिंसा विरोधी रही, यह महात्मा गांधी के दीनबंधु एन्ड्रूज को लिखे (६ जुलाई १९१८) के इस पत्र से जाहिर होती है:-

'आपने कहा है कि अतीत में भारत ने सचेतन रूप से हिंसा के विरोध में मानवता का पक्ष लिया है। क्या यह ऐतिहासिक तथ्य है? यहाँ तक कि रामायण और महाभारत में भी इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता. मेरे प्रिय तुलसीदास की रामायण में भी नहीं, हालांकि तुलसीदास में बाल्मीकि से ज्यादा आध्यात्मिक दृष्टिकोण उल्लेखनीय है. यहाँ मैं इन ग्रंथों की तत्वों की व्याख्या में नहीं जाना चाहता.

रामायण और महाभारत में वर्णित ईश्वर के अवतार भी घोर रक्त-पिपासु प्रतिहिंसा-परायण और निर्मम हैं।उनके चरित्र से यह साफ है कि शत्रु को पराजित करने में उन्होंने छल-कपट का आश्रय भी लिया है। जितने भी मरणास्त्रों की कल्पना की जा सकती है, वे सभी उनकी सेना के पास हैं. आधुनिक लेखकों की तरह तत्कालीन रचनाकारों का उत्साह, युद्ध वर्णन के लिए देखते बनता है. राम की प्रार्थना में जो कविता तुलसीदास ने लिखी है, उसमें भी सर्वप्रथम राम के शत्रु-निधन का कृतित्व ही वर्णित है.

फिर मुसलमानों के राज में देखें। युद्ध के लिए मुसलमानों में हिन्दुओं से कम उत्साह नहीं रहा है, हाँ हिन्दुओं की सांगठनिक शक्ति कम रही, क्षणजीवी तथा आत्मकलह से जर्जर होने का प्रभेद दोनों में रहा. आज जैसा सोचते हैं, मनु संहिता में वैराग्य का विधान वैसा नहीं है, बुद्ध का अहिंसा और मैत्री का प्रचार भी व्यर्थ ही साबित हुआ. किंवदंती है कि शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म के विरोध में अवर्णनीय निष्ठुरता के उपाय अपनाए थे और इस तरह भारतवर्ष से बौद्ध धर्म को उजाड़ने में सफल हुए थे.

अंग्रेजों के समय भारतीयों का अस्त्र रखना गैरकानूनी था, लेकिन जिज्ञासा तो बनी ही रही। जैनियों में भी अहिंसा की नीति शोचनीय रूप से परास्त हुई है. रक्तपात के लिए उनमें कुसंस्कार जनित आतंक है. शत्रुवध के लिए उनका भी उत्साह योरोपियन लोगों से कम नहीं है. मैं सिर्फ़ इतना कहना चाहता हूँ कि शत्रु की पराजय से वे भी और लोगों की तरह ही आह्लादित होते हैं.

भारत के सन्दर्भ में सिर्फ़ इतना ही कहा जा सकता है कि कभी-कभी ख़ास व्यक्ति द्वारा अहिंसा के प्रचार की आतंरिक चेष्टाएं हुई हैं, एवं वह कोशिश और राष्ट्रों की तुलना में कुछ ज्यादा सार्थक हुई है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि भारतीयों के हृदय में अहिंसा की नीति दृढ़मूल स्थापित हो चुकी है।'

(इस पत्र में भारतीय परम्परा में हिंसा का स्थान साफ समझ में आ जाता है)।

'पहल' से साभार

(अगली कड़ी में जारी...)

मंगलवार, 22 जनवरी 2008

युद्ध के बिना नहीं रह सकती मनुष्य जाति!

बुर्जुआ समाज और संस्कृति-6
(...गतांक से आगे)


संस्कृति परम्परा की ही सम्प्रसारण होती है। परम्परा से प्राप्त विचारधारा और दृष्टिकोण ही, आधुनिक प्रभाव के फलस्वरूप संस्कृति में रूपांतरित होते हैं. परम्परा, यानी अतीत के अनुभव, इतिहास तथा पूर्वजों द्वारा प्राप्त जीवन-दर्शन. ऐसी ही परम्परा से प्राप्त उपादान 'हिंसा', बुर्जुआ संस्कृति की नियामक शक्ति है. प्राचीन विचारकों का युद्ध के लिए असीम आग्रह और उत्साह था. उन्होंने युद्ध की प्रेरणा जगाकर यथार्थवादी दृष्टिकोण का परिचय दिया.

आक्रमण से आशंकामुक्त अवस्था मनुष्य की कभी नहीं रही। आत्मरक्षा के युद्ध में पराजित होने का अर्थ ही गुलामी का जीवन है. इसलिए हर जाति, सम्प्रदाय को युद्ध की दैहिक और मानसिक तैयारी का प्रयास करना होता है. हर देश, हर काल में तत्कालीन विजयी योद्धा श्रद्धाभाजन रहे. उन्हें ईश्वर के रूप में पूजा गया, कवितायें लिखी गयीं. गीता में भी वीरगति को प्राप्त होने पर स्वर्गलाभ का आश्वासन है.

महाज्ञानी प्लेटो ने कहा था कि यद्यपि स्वर्ग कल्पना ही है लेकिन उसे अति सुखद स्थान के रूप में प्रचारित करना है, वरना युद्ध में सैनिकों का उत्साह नहीं रह पाएगा। कुरान में भी धर्मयुद्ध में मौत का पुरस्कार स्वर्गवास है.

मनुष्य को उसके रूप में स्वीकृत होने से पहले ही आत्मरक्षा के लिए युद्ध होते रहे एवं जहाँ तक इतिहास हमारे कब्जे में है, वह युद्ध का ही है। युद्ध की निरंतरता ही मानव-जीवन की स्वाभाविक अवस्था है, शांति उसका व्यतिक्रम है.

सरोकिन ने, ईसा पूर्व ६२० से १९२५ शताब्दी तक हुए युद्धों का लेखा-जोखा किया है। इससे स्पष्ट है कि किसी भी जाति के लिए एक अंतराल पर, युद्ध एक सामान्य नियम है। किसी जाति ने, पच्चीस वर्ष शांति से गुजारे हों, यह विरल है. प्राचीन ग्रीक के ३७५ वर्षों के इतिहास में २३५ वर्षों तक युद्ध होते रहे. इसमें साल भर चलने वाले युद्ध लगभग २१० थे. रोम के ८७६ वर्षों के इतिहास में ४१६ वर्षों तक युद्ध हुए. ३६२ वर्ष युद्धव्यापी रहे.
आलोच्य काल में ग्रीक, रोम और योरोप तथा दूसरे नौ देशों में जो युद्ध हुए, उनका आनुपातिक निष्कर्ष इस प्रकार है:-

ग्रीक ५७%, रोम ४१%, ऑस्ट्रिया ४०%, जर्मनी २८%, हॉलैंड ४४%, स्पेन ५७%, इटली ३६%, फ्रांस ५०%, इंग्लैंड ५६%, रूस ४६% तथा पोलैंड और लिथ्युबिया ५८%।

सरोकिन का कहना है कि युद्धों की संख्या में ह्रास का भी कोई प्रमाण नहीं है। जो विवरण मिलते आए हैं उनसे जाहिर है कि जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ सैनिकों की बढ़ती संख्या, युद्ध में मृत्यु तथा साधारण म्रत्यु-दर बढ़ी है. फ्रांस, इंग्लैंड, ऑस्ट्रिया, हंगरी तथा रूस के हताहतों के विवरण में बारहवीं से उन्नीसवीं सदी का पार्थक्य उल्लेखनीय है-

बारहवीं शताब्दी ( उपर्युक्त पाँच देशों की कुल जनसंख्या) १,१६१००, युद्ध में मृत २९९४०, सेना में मृत्यु-दर 2.5%, उन्नीसवीं शताब्दी ( उपर्युक्त पाँच देशों की कुल जनसंख्या) १७८६९८००, युद्ध में मृत २९१२७७१, सेना में मृत्यु-दर ३८.९%, सन १९०० से १९२५ ( उपर्युक्त पाँच देशों की कुल जनसंख्या) ४१४५६०००, युद्ध में मृत १६१४७५५०, सेना में मृत्यु-दर (अप्राप्य).

सरोकिन के अनुसार सर्वाधिक भयंकर और खूनी युद्ध का अभिशाप और 'गौरव' बीसवीं शताब्दी का ही है। इस शताब्दी के प्रथम पच्चीस वर्षों में जितनी मृत्यु हुई है, अतीत में किसी एक सदी में नहीं हुई. स्वैरतंत्र से गणतंत्र में युद्धलिप्सा कम है, यह धारणा तथ्यों द्वारा एकदम ही झूठ साबित हुई है.

'पहल' से साभार

(जारी...)

गुरुवार, 17 जनवरी 2008

आदमखोरों से भी बर्बर हैं हम!

बुर्जुआ समाज और संस्कृति-5

... गतांक से आगे

रूढिवादी सामाजिक परम्पराओं द्वारा ही असभ्य और बर्बर लोगों में आत्महत्या की प्रवृत्ति का सूत्रपात हुआ था. सामाजिक स्वार्थ व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊंचा है और इसके पालन के बगैर किसी का अस्तित्व सम्भव नहीं था. इसीलिए सामाजिक स्वार्थ के लिए व्यक्ति का आत्मदान बाध्यतामूलक माना गया और उसी समर्थित वातावरण के प्रभाव से इसे प्राकृतिक नियम मानकर आत्महत्याएं हुईं. (एमिली डार्कहाइम/ जुईसाइड, अ स्टडी इन सोशियोलोजी, अंग्रेजी अनुवाद- ए. स्पोल्डिंग एवं जोर्ज सिम्पसन, रूटलेज एंड केगान पॉल लन्दन १९५२, पेज- २१२-२१३).

समाज और संस्कृति परिवर्त्तनशील है. संपत्ति के संबंधों में परिवर्त्तन, संस्कृति के विवर्त्तन को अनिवार्य रूप से प्रभावित करते हैं. उत्पादन की नयी पद्धति पुरानी का स्थानान्तरण करती है, स्वभावतः सामाजिक संबंधों का भी पुनर्विन्यास होता है. संपत्ति की व्यवस्थाएं तथा राष्ट्र नेतृत्व हस्तांतरित होते हैं तथा नए सरमायेदारों के नेतृत्व में नयी व्यवस्था की स्थापना होती है. नए सरमायेदारों की प्रमुख शक्ति उनके अस्त्र बल तो होते ही हैं, लेकिन नयी संस्कृति उन्हें स्थायित्व देती है।


इस तथाकथित नयी संस्कृति के प्रभाव से जनता के ह्रदय में प्राथमिक विरूपता मंद पड़ती जाती है एवं अंततः नयी व्यवस्था ही श्रेष्ठ, चिरंतन आदर्श समाज व्यवस्था के रूप में स्थापित होती है. इस संस्कृति के निर्माता बुद्धिजीवी होते हैं. अनजाने ही वे इस नयी व्यवस्था और शासक-श्रेणी का समर्थन करते जाते हैं. इसीलिए उस युग की संस्कृति उस युग के सरमायेदारों की स्वार्थपूर्ति में सहायक होती है.

युग में शासक श्रेणी (वर्ग) की धारणाओं को, शोषित श्रेणी यथार्थ मानकर स्वीकार कर लेती है; क्योंकि धन की लगाम जिस श्रेणी के हाथ हाथों में होगी, संस्कृति की लगाम भी वही संभालेंगे. जो लोग जनता की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे, मानसिक खुराक (पुस्तक, अखबार, शिक्षण, प्रचार आदि) का इंतज़ाम भी उन्हीं के हाथों होगा. स्वभावत जनता के मानसिक साम्राज्य पर भी उन्हीं का आधिपत्य होगा, क्योंकि संस्कृति के नियामक यही सरमायेदार ही होंगे. कार्ल मार्क्स की भाषा में-
‘The idea of the ruling class in every epoch the ruling ideas because the class which is the ruling material force in society is at the same time it's ruling intellectual force, the class which has the means of material production at it's disposal, has control at the same time over the means of mental production. so that thereby generally speaking the idea of those who lack the means of mental production are subject to it.’ (कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगल्स रचित द जर्मन आइडियोलोजी द्रष्टव्य)।


पूंजीवादी संस्कृति ही बुर्जुआ संस्कृति कहलाती है. यह संस्कृति पूंजीवादी विषम व्यवस्था का उत्पाद है तथा उसके लिए रक्षाकवच भी. इस संस्कृति के प्रभाव से पूंजीवाद द्वारा परिचालित नीति उत्कृष्ट सामाजिक नीति प्रतीत होती है, अतिजघन्य और न्रशंस अत्याचार भी सदाचार-सा लगता है, मूर्तिमान शैतान देवदूत-सी शांति देता है, अच्छे-बुरे का बोध लुप्तप्राय होता जाता है. कई आधुनिक विधि-विधान तो मनुस्मृति के विधानों से अधिक हिंसक हैं. बुर्जुआ समाज के कार्यकलाप आदिम युग के आदमखोर बर्बर लोगों को भी शर्मशार करते हैं. किंतु इस संस्कृति के नशे में हम अत्यन्त स्वाभाविक रूप से सब कुछ स्वीकार करते हैं।


बमवर्षण द्वारा लाखों शिशुओं, वृद्धों और स्त्रियों की हत्याएं क्या हमें गुरुतर अपराध का अहसास भी देती हैं? जबकि बुर्जुआ व्याख्या में इसे धर्मयुद्ध कहा जाता है. जातीय स्वार्थ में युद्ध करना अपराध होकर भी अपराध नहीं माना जाता. मध्ययुग में जो युद्ध धर्म के लिए होते थे, वे अब राष्ट्रीय स्वार्थ में होते हैं. इन युद्धों को हम स्वीकार कर अति उत्साह से समर्थन भी करते हैं।


युद्ध आरंभ होते ही देश के नागरिक खून की अन्तिम बूँद देकर शत्रु को पराजित करने का संकल्प लेते हैं. राष्ट्रीय स्वार्थ के लिए किसी देश के दो लाख शिशुओं का वध हो तो हमारा विवेक सोया रहता है. अपने देश के शिक्षित, स्वस्थ, चुने हुए युवकों को युद्धभूमि में बलि होते देख हमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगता. उनकी अकाल मृत्यु, लाखों संतानों से वंचित माँ-बापों का रुदन, माता-पिताहीन शिशुओं की दुर्गति, विधवाओं का विलाप; सभी राष्ट्रीय स्वार्थ के लिए कुरबान होते हैं।


उपाय भी क्या है? अगर चीन या पाकिस्तान हमले करे तो हम हाथ-पाँव समेट कर बैठे तो नहीं रहेंगे. इसलिए असहाय की भाँति नियति के समक्ष आत्मसमर्पण के सिवाय विकल्प ही क्या है. विश्व-पूँजीवाद की मृत्युफाँस में इस तरह जकड़े हुए हैं कि निकलने का रास्ता नहीं है. ऊपर से मोहग्रस्त बुद्धिजीवीगण इसके असली स्वरूप पर नाना मोहक परदे डालते रहते हैं।

'पहल' से साभार

(...अगली किस्त में ज़ारी)

मंगलवार, 15 जनवरी 2008

वे फूलों के मुकुट धारण कर आत्महत्या करते थे!

बुर्जुआ समाज और संस्कृति-4

(...गतांक से आगे)

पुरुषों के बहु-विवाह की ही तरह औरतों में भी यह रिवाज, कई देशों में स्वीकृत था। धार्मिक इतिहास के पन्नों के विवरण बताते हैं कि कुसंस्कार के प्रभाव से शायद ही कोई कुकृत्य बचा हो जो मनुष्य जाति से बचा रहा हो. ऐसी किसी भी प्रथा की कल्पना असम्भव है जो किसी समय किसी न किसी देश में प्रचलित न रही हो.

संसार में जीवित रहना हर कोई चाहता है। लेकिन सामाजिक वातावरण के प्रभाव से प्राणों को तुच्छ समझ, स्वेच्छा से मृत्युवरण भी मनुष्य ही चाहता है. आत्महत्या के इतिहास के लेखक एमिल डार्कहाइम ने लिखा है कि विभिन्न युगों में अलग-अलग सामाजिक अवस्थाओं में समाज के प्रति श्रद्धा-ज्ञापन हेतु मनुष्य ने आत्महत्या की है और इसे प्राणोत्सर्ग, आत्माहुति या आत्म-वलिदान इत्यादि विशेषणों से आभूषित किया गया है.

डेनिश योद्धाओं की धारणा थी कि उम्र के भार से जर्जर होकर बिछौने पर पड़े-पड़े मरना कायरता और मर्यादाहीनता है। इस लान्छना से बचने के लिए वे आत्महत्या करना ही पसंद करते थे. गोथ जाति के लोगों में यह धारणा थी कि जिनकी स्वाभाविक मृत्यु होती है, वे परलोक में विषाक्त कीड़े-मकौडों के बीच अंधेरे गह्वर में अनन्त काल तक यंत्रणा भोगते हैं.

किसी गोथ राज्य की सीमा पर 'पितृ पुरुषों की शिला (राक ऑफ़ फोरफादर्स)' नामक एक ऊंचा पर्वत था। जराग्रस्त होते ही इस पर से कूदकर लोग मुक्ति प्राप्त करते थे. थ्रेसियन, हेसली इत्यादि अनेक गोष्ठियों (समुदायों) में यह प्रथा प्रचलित थी. सिलवियास इतालिपकस ने लिखा है- 'स्पेन में 'kailtik' उपजाति के लोगों में रक्त और प्राणदान का अदम्य उत्साह था. बलवीर्य इत्यादि से परिपूर्ण होते ही वार्धक्य की सीमा तक इंतज़ार करना उन्हें अपमानजनक लगता था. उनका विश्वास था कि सबल अवस्था में जो लोग मृत्युवरण करते हैं, वे स्वर्गवासी होते हैं तथा जराग्रस्त हो वृद्धावस्था में प्राण त्यागने से नरक यंत्रणा भोगनी होती है.

भारत वर्ष में भी ऐसी आत्महत्याओं का प्रचलन था। वैदिक काल की नहीं भी हो, फिर भी काफी पुरानी प्रथा थी. प्लूटार्क और क्विन्ट्स कार्टीपास ने भारतीय संन्यासियों और ब्राह्मणों द्वारा अग्नि में प्राणाहुति का उल्लेख किया है. ब्राह्मणों के शास्त्र में ऐसा उल्लेख है कि निष्प्राण देह दग्ध होने से अग्नि अपवित्र होती है तथा व्याधिग्रस्त और निष्क्रिय होकर मृत्युवरण हीन माना जाता था.

हालांकि मनु स्मृति में कई शर्तों की पूर्ति के बाद ही आत्महत्या का प्रावधान है। गृहस्थ जीवन में शास्त्रोचित कर्त्तव्य पूरे करने के बाद व्याधिग्रस्त होकर जीने से उत्तम देहत्याग ही माना गया है. (मनु ६/१-४).

न्यू देवीडीज तथा फिजी द्वीपों में भी यही प्रथा प्रचलित थी। सिएरा द्वीप में, एक निश्चित आयु पूर्ण होने पर, सभी वृद्ध, फूलों के मुकुट धारण कर, एक जगह समवेत हो, हैमलाक विषपान द्वारा आत्महत्या करते थे. सदाचार के लिएप्रसिद्ध टौगलोडाईट और सेरी लोगों में भी यही रिवाज था.

उपर्युक्त जातियों में स्त्रियों के लिए भी पति की चिता में जल जाने का विधान था। कई देशों में जैसे 'गल' के राजा और सेनापति की मृत्यु पर उनके अनुचरों के लिए भी मृत्यु की प्रथा थी. हेनरी वार्तिन ने लिखा है कि युद्ध में मृत मुख्य नायकों की मृत देह के साथ उनके अनुचर, दास-दासी, अस्त्र-शस्त्र, गहने और बर्तन इत्यादि सभी एक महोत्सव में अग्नि के सुपुर्द कर दिए जाते थे.

प्रभु की मृत्यु के पश्चात उनके अनुचर, पत्नी, दास- दासियों को जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं था। अफ्रीका के 'असान्ति' कबीले में राजा की मृत्यु के बाद उसके मित्र, सहयोगियों को जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं था. हवाई द्वीप में भी यही प्रथा थी. टाइटस लिवी सीजर, वेलीरियए एवं मैक्सीयस बर्बर गाल और जर्मन लोगों द्वारा धीर, स्थिर और शांति से मृत्युवरण की तारीफ की गयी है. पोलेनेशिया के लोग तुच्छ कारणों से आत्महत्या कर लेते हैं. उत्तर अमेरिका के रेड इंडियन कबीले का भी यही रिवाज है. जापान में हाराकिरी (पेट चीरकर आत्महत्या) कर अपराध के प्रायश्चित्त की परम्परा है.

'पहल' से साभार

(...शेष अगली किस्त में)

अमेरिकी राष्ट्रपति ने बेची थी अपनी ही बेटी!

बुर्जुआ समाज और संस्कृति-३

(...गतांक से आगे)

मनु की दंडविधि हिंसक है। सामाजिक विधान निष्ठुर और वैषम्यमूलक हैं. यहाँ तक कि मनु स्मृति के कई विधान (जैसे अपराधी का अंग-भंग या बहु-विवाह) आदि दंडनीय हैं. मनु और याज्ञवल्क्य क्या हमेशा ज्यादा हृदयहीन और मूर्ख थे? नहीं. आधुनिक संविधान निर्माताओं की योग्यता मनु के पासंग भी नहीं है. विदेशी विद्वानों ने मनु की उच्छ्वसित प्रशंसा की है. और यह मनु का प्राप्य भी है.

लेकिन मनु के विधान हमारे युगानुकूल नहीं हैं। एकदम नहीं हैं, मगर तत्कालीन युग में उसे कठोर या अमानवीय नहीं समझा गया था. प्लेटो या अरस्तू जैसे मनीषियों के मन में भी दास-प्रथा का नकारात्मक पक्ष नहीं आया था. अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जोर्ज वाशिंगटन (१७८९-१७९६) ने अपनी वसीयत में १६० क्रीत दास छोड़े थे. (मार्टिन लूथर किंग/ केयोस ऑर कम्यूनिटी, होडार एंड स्टाफसन, लंदन, १९६८, पेज ७६).

बेंजामिन फ्रैकलिन और स्वाधीनता के घोषणापत्र के रचयिता टॉमस जेफ़रसन (१८००-१८०४) अपनी यौनेच्छा की पूर्ति के लिए छांट-छांट कर नीग्रो युवतियां खरीदते थे। फ्रैकलिन का तो दास उत्पादन का व्यापार ही था. (वह) भेड़-बकरियों की तरह नीग्रो दास-दासियों को इसलिए पालते थे कि उनकी संतानों को दास बनाकर बाज़ार में बेचा जा सके.

प्रेसीडेंट जेफ़रसन नीग्रो दासियों से उत्पन्न अपनी कन्याओं को रंडीखानों में बेचा करते थे। उनकी मृत्यु के बाद २ पुत्रियों को न्यू ओर्लिया के क्रीत दासों के बाज़ार में यौन-व्यापारियों को बेचा गया. उनकी ये दोनों ही पुत्रियाँ सुंदर, गोरी, शिक्षित और सुसंस्कृत तथा नीली आंखों वाली थीं, इसलिए उनके दाम १५०० डॉलर प्रति कन्या मिले. प्रेसीडेंट ताइलर ने भी ठीक इसी तरह अपनी कन्या को पतिता वृत्ति में झोंक दिया था. (जे. ए. रोजर्स/ सेक्स एंड रेस, द्वितीय खंड/ हैरी बेंजामिन तथा आ. ई. एल. मास्टर्स रचित प्रोस्टीच्यूशन एंड मोरालिटी के ७३वें पेज पर उद्धृत, सुवेनियर प्रेस, लंदन, १९६४).

वाशिंगटन, फ्रैंकलिन, जेफ़रसन और ताइलर आधुनिक भद्र लोगों से निकृष्ट नहीं थे। उनके कार्य उस युग की शिक्षा और संस्कृति के अनुकूल थे.

अभी कल की ही बात है, इंग्लैड के फौज़दारी विधान में केले या मूली जैसी दो सौ तुच्छ वस्तुओं की चोरी के लिए फांसी का फैसला दिया जाता था. अग्निपरिक्षा द्वारा सत्य-निर्णय का नियम था. जज साहब, वादी-प्रतिवादी, दोनों से ही खुलेआम घूस लेते थे. नौकरी के लिए भी यही प्रचलित था और कई को इसमें आपत्तिजनक कुछ नहीं लगता था. अंग्रेजों को दास-प्रथा इतनी लुभावनी लगी कि संसद में बिल लाकर भी इसे बंद करना सम्भव नहीं हो पाया। अंततः मालिकों को २०००००० पाउण्ड का जुर्माना अदा करने पर उनकी मुक्ति सम्भव हो पायी.

सामाजिक भावाकाश के प्रभाव से कोई सा भी काम जनता को स्वाभाविक प्रतीत होता है। हर क्रिया किसी समय अच्छी मानी गयी है और सारे महापाप काल की गति में सत्कर्म बनते गए. किसी समय युद्ध द्वारा ही न्याय-प्रतिष्ठा का नियम था. पिछड़े समाज के लोगों को क़ानून के फैसले से सख्त ऐतराज़ था. वे बाहुबल के पक्ष में थे.

कभी अनियमित यौन संबंधों के बदले विवाह जैसे विचार भी मनुष्य के व्यक्तिगत अधिकार में हस्तक्षेप माने जाते थे। मास्क, एस्किमो, केन्या की कई उपजातियों आदि अनेक समूहों में औरत उधार लेन-देन का चलन था. एस्किमो अपने अतिथि का सत्कार अपनी पत्नी को उसके साथ सोने की अनुमति देकर करते थे, लेकिन अगर वह फुसला कर भगा लेता तो उसकी हत्या तय थी. ज्यादातर नवजात शिशुओं को मार डालना कई जातियों का सामान्य नियम था.

'पहल' से साभार
(अगली किस्त में ज़ारी)

रविवार, 13 जनवरी 2008

हत्यारों का मनोविज्ञान


बुर्जुआ समाज और संस्कृति-२


...(गतांक से आगे)

मालिक की इच्छा का नकार मौत का बायस भी बन सकता है. अमेरिका के वैज्ञानिक ओपन हाइमर को हाइड्रोजन बम बनाने के विरुद्ध राय देने पर अपमानित होना पड़ा था. रूसी सरकार को बम बनाने का फार्मूला बताने के आरोप में रोजनबर्ग दम्पत्ति को झूठे मामले में फंसा कर मृत्युदंड दिया गया था. सरमायेदारों के स्वार्थ के विरुद्ध किसी काम को अंजाम देना इस युग में किसी भी वैज्ञानिक के लिए सम्भव नहीं है.

ध्वंस के लिए विज्ञान की प्रयुक्ति का यह तर्क सही होते हुए भी, बुद्धिजीवियों द्वारा अपनी आत्मा बंधक रखने के साथ इसका सम्बन्ध पर्याप्त नहीं है. सारे बुद्धिजीवी सचेत रूप से शोषण के पक्ष में नहीं होते. न्याय और सदाचार का पक्ष उपेक्षित होने से प्रायः सभी कुंठित होते हैं, कई बार विद्रोह भी करते हैं.

न्याय का पक्ष लेना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है. लेकिन दुनिया में मत्स्य-न्याय चला आ रहा है क्योंकि न्याय-अन्याय की धारणाएं सभी की एक नहीं होती हैं. किसी को हत्यारे को फांसी होने पर खुशी होती है तो दूसरा सोचता है वह अकेला ही दोषी नहीं है. हत्यारे भी इसी व्यवस्था के अंग हैं सो किसी एक को फांसी देने से प्रतिहिंसा ही चरितार्थ होती है, न्याय नहीं. बम फेंकने वाले न्याय, धर्म, सत्य और मानवाधिकार की रक्षा का दावा करते हैं.

आदर्श की प्रेरणा ही मनुष्य के आचरण की नियामक शक्ति होती है- यह प्रेरणा किसी भी मनुष्य को अमेरिकी लोगों से ज्यादा हिंसक और निष्ठुर बना सकती है. मनुष्य सिर्फ़ पैसों के लिए ही निष्ठुर आचरण नहीं करता है. स्तालिन के आदेश पर दो करोड़ रूसी नागरिकों की हत्या हुई थी, जबकि उन्हें पैसे का लेशमात्र लोभ नहीं था. उनके कठोर समालोचक रॉबर्ट कान्क्वेस्ट ने लिखा है-

"क्रेमलिन के महल में नौकरों के अति-साधारण कमरे में, साधारण मनुष्य की तरह स्तालिन रहते थे. उनके जीवन में भोग-विलास या अर्थ-लिप्सा का लेशमात्र स्थान नहीं था. उनका मासिक वेतन एक हज़ार रूबल था जो कि चालीस डॉलर के बराबर होता था. उनके सचिव इसी रकम से उनके घर का भाड़ा, पार्टी का चन्दा, इत्यादि सारे खर्च चलाते थे।" (रॉबर्ट कान्क्वेस्ट, द ग्रेट टेरर, मैकमिलन एंड कम्पनी, तीसरा संस्करण १९५९, पेज संख्या ६१)

स्तालिन ने अपनी कन्या के लिए कोई भी संपत्ति नहीं छोड़ी. माओ त्से तुंग के इशारे पर काफी लोगों की हत्याएं हुईं. लेकिन वह भी हर लोभ से परे थे तथा निहायत सादा जीवन व्यतीत करते थे. हिटलर ने साठ लाख से ज्यादा यहूदियों की न्रशंस हत्याएं कीं; उसका भी यह काम किसी आर्थिक लोभ से प्रेरित नहीं था.

मध्ययुग में सांसारिक सुखों से निस्पृह लोगों ने धर्मप्रचार के 'महान' उद्देश्य से हत्या और ध्वंस का तांडव किया था. न्रशंसता के लिए जो नायक इतिहास में प्रसिद्ध हैं, उनमें कम लोगों का ही उद्देश्य आर्थिक था. आदर्श से प्रेरित होकर ही मनुष्य हँसते-हंसते मारता है और मरता भी है. ऐसा कर वह अपने कर्तव्य का पालन करता है. (इस प्रेरणा के नियामक कारणों की कुछ व्याख्या आगे है.)

आदमी का हृदय ईश्वर, धर्म, पाप-पुण्य, सुनीति और दुर्नीति विषयक धारणाएं, समाज के भावाकाश और सांस्कृतिक वातावरण से साँस की तरह ग्रहण करता है. जैसे स्पंज पानी सोखता है, उसी तरह यांत्रिक प्रक्रिया में यह होता जाता है. इसीलिए हर व्यक्ति अपने समय की संतान होता है- समय-धर्म के प्रभावाधीन. समाज में प्रचलित नीतियों के प्रयोग से वह भले बुरे का विचार करता है. श्रेष्ठ मनीषियों से भी इसमें अधिक उम्मीद करना व्यर्थ है. आज से हजारों साल बाद सामाजिक नीतियाँ क्या होंगी, इसकी धुंधली-सी धारणा भी मुश्किल है.

"पहल' से साभार
(शेष अगली किस्त में)...

गुरुवार, 10 जनवरी 2008

आज वैसे सिरफिरे वैज्ञानिक कहाँ हैं?


बुर्जुआ समाज और संस्कृति-१


(बांग्ला में कभी छपने वाली 'aanrinya' पत्रिका में यह लेख जनवरी, १९८१ में छपा था. यह पत्रिका कुछ प्रगतिशील अध्यापक प्रकाशित किया करते थे. इस लेख के मूल लेखक हैं राधागोविंद चट्टोपाध्याय और अनुवाद प्रमोद बेडिया ने किया है. ज्ञानरंजन जी के सम्पादन में छपने वाली 'पहल' में यह लेख मैंने पढ़ा था और मैं इससे इतना मुतास्सिर हुआ कि आप सबको इसे पढ़वाने की इच्छा जागी. आदरणीय ज्ञान जी की अनुमति लेकर मैं इसे यहाँ कुछ किस्तों में प्रस्तुत कर रहा हूँ-- विजयशंकर)

जिन्हें सरमायेदार सर्वहारा के एकमात्र शत्रु प्रतीत होते हैं, उनके बारे में आलोचना के दौरान फ्रांसीसी विद्वान रेमंड ऑरेन ने कहा है कि पूंजीपतियों को जिस तरह बदजात और षड्यंत्रकारी के रूप में चित्रित किया जाता है, वास्तव में ऐसा है नहीं। ये लोगअपने कारोबार के नफे-नुकसान के अलावा कुछ नहीं समझते हैं. संपत्ति संबन्धी परिचालानाएं छोड़ दें, किस तरह यह विराट मामला परिचालित होगा, इसका कोई बोध इन्हें नहीं होता.


यह विचार आधारहीन नहीं है। क्योंकि मालिक सिर्फ कूपन काटते हैं. अनुपार्जित आय से भोग-विलास भरे जीवन के अलावा कदाचित ही ये किसी दूसरे मामले में सर खपाते हैं. इनके स्वार्थ से जुड़ी सारी चिंताएं और कार्य नौकरीपेशा बुद्धिजीवीगण करते हैं. बुर्जुआ समाज द्वारा अनाचार, अत्याचार और युद्धविग्रह के लिए ये लोग ही जिम्मेदार होते हैं.


बुद्धिजीवी इतने कुकर्म क्यों करते हैं? प्रत्यक्ष और परोक्ष दो कारण हैं। प्रत्यक्ष कारण तो बड़ा सीधा-सा है- ये अपने प्रभाव, सम्मान, अवस्थान और वित्त के लिए बुर्जुआओं पर निर्भर करते हैं. किसी भी व्यक्ति के लिए स्वतन्त्र रूप से शिक्षा का खर्च जुटा पाना सम्भव नहीं हैं. जितने भी निपुण वैज्ञानिक हैं, वे किसी प्रतिष्ठान या सरकार का पुछल्ला बनने को बाध्य हैं.


उद्योगों का अन्तिम उद्देश्य इसमें पैसा लगाने वाले लोग निर्धारित करते हैं। हर उद्योग की अपनी शोध-शाखा होती है. वहाँ ऐसे वैज्ञानिक उद्योगों के फलने-फूलने के लिए शोध करते हैं. मिलावट के उन्नत तरीके खोजते हैं. सरकारी शोध केन्द्रों, विश्वविद्यालयों और विभिन्न संस्थानों आदि में युद्ध में प्रयुक्त विषाक्त जीवाणु, वाष्प या फिर ज्यादा से ज्यादा घातक बम बनाने के लिए शोध होते हैं.


ऐसे लोग कुछ भी अच्छा नहीं करते होंगे, यह तो पता नहीं, लेकिन उन्हें अच्छा-बुरा जैसा भी निर्देश मिलता है, वे जरूर उसे पूरा करते हैं। सरमायेदारों की इच्छा से अलग उनके लिए कुछ भी करना सम्भव नहीं है। स्पष्टतः आधुनिक विज्ञान का उद्देश्य सरमायेदारों या उनकी सरकार द्वारा ही निर्धारित होता है. क्रीमिया युद्ध के दौरान अंग्रेज सरकार ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक माइकल फैराडे को विषाक्त गैस बनाने को कहा था, जिसे उसने सीधे नकार दिया था. आधुनिक युग में फैराडे जैसे 'सिरफिरे' वैज्ञानिक भूखों ही मरेंगे....


(अगली किस्त अगली पोस्ट में)


गुरुवार, 27 दिसंबर 2007

हिन्दी लेखकों के बारे में एक टिप्पणी

रियाज़ उल-हक़ ने जो कहा है उसे ज्यों का त्यों दे रहा हूँ- (नेट की विकट समस्या है)

लेखक-पत्रकार तभी घटनाओं के बारे में पहले से बता सकते हैं जबकि वे समाज के तमाम अंतर्द्वंद्वों को साफ़-साफ़ समझ सकते हों, चीज़ों को आपस में जोड़ कर देखने की उनके पास नज़र हो और घटनाओं का द्वंद्ववादी विश्लेषण करने की समझ हो. कई लेखक ऐसे रहे हैं कि उन्होंने कमाल की भविष्यवाणियां की हैं. नहीं मैं ज्योतिषवाली भविष्यवाणी की बात नहीं कर रहा, बल्कि भविष्य की दिशा के बारे में कह रहा हूं. इसमें जैक लंडन का नाम शायद सबसे पहले लिया जायेगा. उन्होंने 1908 के अपने उपन्यास आयरन हील में जिस तरह की घटनाओं का ज़िक्र किया है वे बाद में, 1936 तक और उसके बाद तक घटीं. अगर आप देखें तो सोवियत क्रांति, लेनिन जैसे नेता, हिटलर जैसे फ़ासिस्ट और अमेरिकी खुफ़िया पुलिस के गठन जैसी अनेक परिघटनाएं बाद में जो घटीं, उनके बारे में साफ़ साफ़ ज़िक्र आयरन हील में किया गया है. यह किसी चमत्कार के ज़रिये नहीं हुआ और न ही आयरन हील एक फैंटेसी है. यह बेहद यथार्थवादी उपन्यास है. एक कम्युनिस्ट क्रांति इसका विषय है.
इसी तरह शोलोखोव के उपन्यास एंड क्वायट फ़्लोज़ द डोन के बारे में भी कहा जा सकता है जिसमें सोवियत संघ के विघटन के सूत्र आसानी से तलाशे जा सकते हैं.अजित भाई, आपके सवाल का जवाब भी शायद इसी में है.
लगता है कि हमारे देश के अधिकतर समकालीन फ़िक्शन लेखकों के पास वह नज़र या समझ ही नहीं है, भले ही उनके साथ वामपंथी या प्रगतिशील या कम्युनिस्ट होने का टैग लगा हुआ हो. टैग लगा लेने से कोई वही नहीं हो जाता.एक और बात है कि हमारे यहां केवल सांप्रदायिक नहीं होने या इसका विरोधी होने भर से लेखक को वाम या प्रगतिशील लेखक मान लिया जाता, भले की उसके सोच में सामंती तत्व बने हुए हों और वह उतनी सूक्ष्मता से न सोच-देख पाता हो. भ्रम इसलिए भी बनता है.
इसके अलावा हिंदी लेखक जगत में एक बडी़ कमी यह है कि लेखक किसी आंदोलन से जुडे़ हुए नहीं हैं. वे पूरी तरह जनता के संघर्षों से कटे हुई हैं. उन्हें कई बार ज़मीनी हालात का पता भी नहीं होता और वे सिर्फ़ दिल्ली और दूसरे शहरों में बैठ कर बस लिखते रहने को अपने आप में एक महान कार्य समझते हैं. ऐसे में जो हो सकता है वही उनके साथ हो रहा है. न उनके पास वैसी रचनाएं हैं और पाठक.
(यह टिप्पणी मुझे ठीक लगी; सहमत-असहमत होना आपकी मनोदशा हो सकती है, अब कृपया सुधीजन यह न कहें कि मुझे मनोदशा का अर्थ पता है नहीं. पिछले दिनों मैंने ऐसी ही नुक्ताचीनी 'कबाड़खाना' पर देखी है. उसका नुकसान लगभग होते-होते बचा. इस बारे में अब भी भ्रम बना हुआ है. कई लोग उन्हें मनाने की कोशिशें कर रहे हैं).

बुधवार, 26 दिसंबर 2007

ईसा मसीह किस भाषा में बात करते थे?

गालिब का एक शेर है-


इब्ने मरियम हुआ करे कोई
मेरे दुःख की दवा करे कोई


यह इब्ने मरियम ईसा मसीह थे. २५ दिसम्बर वह दिन है जिसे हम दुनिया का सबसे बड़ा जन्मदिवस कह सकते हैं. इसी दिन उनका जन्म हुआ था. विश्वास किया जाता है कि ईसा मसीह के पास संसार के हर दुःख की दवा थी. उनके उपदेश सुनकर लोग भलाई का रास्ता अपना लेते थे. उनकी वाणी में ऐसा जादू था कि हजारों लोग मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते थे और उनके पीछे-पीछे चल पड़ते थे. लेकिन कभी आपने विचार किया है कि ईसा मसीह किस भाषा में बात करते थे?
विद्वानों के अनुसार ईसा मसीह का असली नाम जीजस था. लेकिन हम उन्हें जीजस क्राइस्ट के नाम से अधिक जानते हैं. जीजस शब्द ग्रीक के 'लेसअस' से आया है और क्राइस्ट ग्रीक के ही 'क्रिसटोज' शब्द से निकला. क्रिसटोज का ग्रीक में अर्थ होता है 'अभ्यंजित करना'. मसीहा हिब्रू का शब्द है और यह क्राइस्ट का अर्थ देता है.

ईसा के जन्म और जीवनचरित के बारे में विस्तृत जानकारी हमें गोस्पेल ऑफ़ मैथ्यू तथा गोस्पेल ऑफ़ ल्यूक या लूका में मिलता है. इसे प्रामाणिक माना जाता है. मैथ्यू और ल्यूक के मुताबिक ईसा मसीह का जन्म बेथेलहम (जूडिया) में हुआ था. ल्यूक कहता है कि अक्षतयौवना मैरी के सपने में देवदूत गैब्रियल ने कहा था कि ईश्वर ने उसे अपने बेटे को धारण करने के लिए चुना है. यही ल्यूक बताता है कि रोमन सम्राट सीज़र ऑगस्टास ने मैरी तथा जोजफ को नाज़रेथ के घर से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया था. क्विरिनियेस की जनगणना के लिए दोनों को अपने पुरखों के मकान में रहने जाना पड़ा था, जो डेविड का मकान था.

ईसा मसीह का बचपन अधिकांशतः नाज़रेथ तथा गैलिली में बीता. इसमें वह समय छोड़ दिया जाए जो उसके माता-पिता को शिशु जीजस के साथ मिस्र में बिताना पड़ा था. दरअसल राजा हेरोड शिशुओं का सामूहिक नरसंहार करवा रहा था. इससे बचने के लिए मैरी और जोजफ अपने शिशु को लेकर मिस्र भाग गए थे और राजा हेरोड की मौत होने तक वहीं रहे.

जीजस आरमेइक भाषा का इस्तेमाल करते थे. हिब्रू और ग्रीक भाषाएं भी जीजस की थीं लेकिन रोजमर्रा की बातचीत आरमेइक में ही करते थे. आर्मेनिक प्राचीन सेमेटिक कुल की भाषा है जिसमें हिब्रू तथा अरबी शामिल हैं. नाम एक जैसे लग सकते हैं लेकिन अरबी और आरमेइक एक जैसी कतई नहीं हैं. आरमेइक में २२ अक्षर होते हैं और यह दायें से बाएँ लिखी जाती है. यह उन लोगों की भाषा थी जो उत्तर-पश्चिमी मेसोपोटामिया/सीरिया के निवासी थे.

यह दज़ला-फ़रात के किनारे की आबादी और बेबीलोन के चाल्डीयनों की भी भाषा थी और जीजस के सैकड़ों साल पहले से बोली जा रही थी. जीजस के दिनों में तो यह मध्य-पूर्व की 'लिंगुआ फ्रैन्का' थी. आगे के वर्षों में जिस तरह लैटिन- इतालवी, फ्रांसीसी, स्पेनी, रोमानियाई, पुर्तगाली तथा ऐत्टिक ग्रीक भाषा आधुनिक ग्रीक में तब्दील हो गयी, ठीक इसी तरह प्राचीन अर्मेनिक आधुनिक आर्मेनिक के डायलेक्टों में बदल गयी. ये डायलेक्ट हैं- चाल्डियाई, असीरियाई, सीरियक आदि.

आज की आरमेइक बोलनेवाले संख्या में थोड़े तथा सीरिया, तुर्की, इजरायल, रूस, जोर्जिया, ईरान और इराक़ में फैले हुए हैं. तथ्य यह है कि इनकी संख्या दिनोंदिन तेजी से घटती जा रही है.

वह दिन दूर नहीं जब हजरत ईसा मसीह की भाषा बोलने वालों का नामोनिशान ढूँढे नहीं मिलेगा. मैं यह किसी धार्मिक भावना या विश्वास के वशीभूत होकर नहीं लिख रहा हूँ. बस, करुणा और 'ईश्वर के राज्य' का संदेश दुनिया को देनेवाली भाषा के बारे में सोचकर रोमांच हो आता है. कभी-कभी सोचता हूँ कि श्रीकृष्ण किस अंदाज़ में अपनी बातें कहते रहे होंगे? क्या सिर्फ़ ब्रज भाषा में ही बोलते थे या और भी कोई भाषा थी उनकी? आप क्या सोचते हैं?

बुधवार, 19 दिसंबर 2007

इस बार गाँव में मैंने सुनी महिला रामायण


'निराला की साहित्य साधना' में डॉक्टर रामविलास शर्मा ने लिखा है कि किशोरवय सूर्जकुमार तेवारी को उनसे भी उम्र में ३ साल छोटी उनकी पत्नी मनोहरा देवी के गले में साक्षात् सरस्वती नज़र आयी थीं। प्रसंग तब का है जब निरालाजी अपनी ससुराल डलमऊ मनोहरा देवी को लिवाने पहुंचे थे। सरस्वती नज़र आने की वजह थे बाबा तुलसीदास। मनोहरा देवी के मधुर कंठ से उन्होंने यह सुना-


'श्रीरामचन्द्र कृपालु भज मन हरण भय-भव दारुणम्.
नवकंज लोचन कंज कर पद कंज मुख कन्जारुणम.
कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरज सुन्दरम।
पट-पीत मानहुं तडित रूचि-सुचि नौमि जनकसुता वरम।'


तुलसी बाबा की ध्वन्यात्मक शब्द योजना ने निराला के किशोर मन पर कैसा असर डाला होगा, यह सहज ही समझा जा सकता है। यों ही नहीं है कि आधुनिक कविता में निराला से बड़ा ध्वन्यात्मक शब्दों का समर्थ उपयोग करनेवाला कवि दूसरा नहीं है। याद कीजिये-


'बांधो न नाव इस ठाँव बंधु, पूछेगा सारा गाँव बंधु'

ठाँव तथा गाँव का कोई और सानी है भला?


यह सब मुझे निराला की वजह से नहीं बल्कि तुलसीदास की वजह से याद आ गया. हुआ यों कि पिछले दिनों मैं मध्य प्रदेश स्थित अपने गाँव गया था. इच्छा जागी कि क्यों न रामायण करवाई जाए. हमारे यहाँ 'रामचरितमानस' के ढोल-ढमाका पूर्ण गायन को रामायण करवाना कहते हैं. ज्यादा खर्चा-पानी नहीं लगता. धार्मिक से अधिक यह भावना-प्रधान आयोजन होता है. संगीत की प्रमुखता होती है इसमें. भगवान के लिए दो-तीन नारियल और भक्तों के लिए पान-सुपाड़ी बस. पाठ भी ऐसा होता है कि कोई प्रसंग उठा लिया और जब तक पेट न भरे तब तक खूब झूम-झूम कर गाते रहो। आठ-दस आदमी इस तरफ़ और इतने ही दूसरी तरफ़.


आमने-सामने रामचरितमानस रखी जाती हैं रहलों पर। तुलसीबाबा ने श्रीगणेश करने के लिए मंगलाचरण पहले ही लिख रखा है. एक पक्ष शुरू करता है-

रामा, जेहि सुमिरत सिध होय, गन नायक करिवर बदन,

करहुं अनुग्रह सोय, बुद्धिरासि सुभ गुन सदन'।
'रामा, मूक होंय बाचाल, पंगु चढें गिरिबर गहन,

जासु कृपा सों दयाल, द्रवहूँ सकल कलिमल दहन।'


मंगलाचरण कई दोहों और सोरठों के बाद संपन्न होता है। अब तक कुछ लोगों को तमाखू की तलब लग आती है तो कुछ को बीड़ी पीनी होती है। पाँच मिनट का ब्रेक और उसके बाद हाथ-पाँव प्रच्छालित कर एक बार फिर सब आ जमते हैं दरी या जाजम पर.


अब तय होता है कि कौन-सा प्रसंग ठीक रहेगा उस दिन का माहौल देखते हुए। 'पुष्पवाटिका में रामजी' हमारे टोले का प्रिय प्रसंग है। इसके लिए पोथी देखने की भी जरूरत नही समझी जाती. ज्यादातर लोगों को मुखाग्र है यह प्रसंग. हाँ, नए लड़के ज़रूर चोरी-छिपे तुलसीबाबा की मदद ले लेते हैं. वरना पूरा दोहा पटरी से उतरने का भय रहता है. इसके साथ-साथ लोगों के बीच शर्मिन्दा होने की भी तो नौबत आ जाती है.


बहरहाल, पुष्पवाटिका प्रसंग शुरू होता है। एक पक्ष का प्रमुख गायक इस प्रसंग का पहला दोहा शुरू करता है-


'उठे लखन निस बिगत सुनि, अरुण सिखा धुन कान।

गुरु तें पहले जगतपति, जागे रामसुजान'

सियावर रामचंद्र की जय!


चलिए श्रीगणेश तो विधिवत हो गया। अब बारी है संपुट लगाने के लिए किसी गाने की, गीत की या फिर किसी भी ऐसी चीज की कि मज़ा आ जाए आज की रामायण का. ढोलक वाले ने यों ही नहीं ललकारा था- 'बोलो आज के आनंद की जय!'


तभी कोई छेड़ता है तान- 'कन्हैया अपनी बंसी को बजा दो, फिर चले जाना',

इसीके के साथ दोनों पक्ष इस पंक्ति को संभालते-संभालते यहाँ तक ले आते हैं कि 'बजा दो फिर चले जाना' ही बचता है। और शुरू हो जाता है आज का आनंद-


'रामा, तात जनकतनया यह सोई ,बजा दो फिर चले जाना

रामा, धनुषजज्ञ जेहि कारण होई ,बजा दो फिर चले जाना।"


लेकिन इस बार रंग में भंग पड़ने के सौ प्रतिशत अवसर पैदा हो गए॥ ढोलक वाले ने कहलवा भेजा कि अगर मैं उसे रामायण के बाद गांजा पीने के पैसे दूँ तो ही वह आयेगा वरना जय राम जी की। अब बगैर ढोलक के रामायण कैसे हो! बुलौवा भी गाँव में लग चुका था. लोग जुटना शुरू हो गए थे. पेटी मास्टर, करताल वाला और झांझ-मजीरे वाले पहुँच गए थे. पान-सुपारी का एक दौर भी हो चुका था.

किसी ने सुझाया कि आजकल गाँव की महिलाओं ने भी एक मानस-मंडली बना रखी है। यह मेरे लिए चौंका देनेवाली बात थी. अपने ३७ साल के जीवन में मैंने अपने ही गाँव में इस तरह की कोई बात कभी नहीं सुनी थी. बातों-बातों में पता चला कि इस महिला मंडली में सभी नयी बहुएँ हैं. वह भी गाँव में मौजूद सभी जातियों की. पेटी-ढोलक ऐसा बजाती हैं कि वह गंजेड़ी इनके सामने पानी भरेगा.


आनन-फानन में तय हुआ कि आज महिला मानस-मंडली की रामायण ही हो जाए। लोग दौड़े और आधे घंटे में पन्ना वाली, सुंदरा वाली, दमोह वाली, छतरपुर वाली बहुएँ आन पहुँचीं। इनमें से ज्यादातर बुन्देलखंड की थीं। फिर कुछ और जमा हो गयीं। रामायण शुरू हुई। विधिवत मंगलाचरण हुआ और प्रसंग चुना गया 'सीता का गौरी से वर माँगना।'


महिलाओं का समवेत स्वर गूंजा-


जय-जय-जय गिरिराज किशोरी, जय महेश मुख चंद चकोरी।


जय गजबदन षडानन माता, सत्य शपथ दामिनि दुखदाता.'

सनाका छा गया। सब मंत्रमुग्ध-से बैठे थे. मेरी तो दशा ही मत पूछिए. बुन्देलखंड की नारियों के गले में भी सरस्वती मैया ही विराजती हैं. बुन्देली लोकगीतों में जैसी मिठास, लचक और लोच है, वैसी और कहीं ढूँढे नहीं मिलेगी। फिर इन नारियों का गायन और यह प्रसंग. रोएँ खड़े हो गए. मैं अंदाजा ही लगा सकता हूँ कि मनोहरा देवी के कंठ से तुलसी बाबा का वह संस्कृत-पद सुनकर निरालाजी पर कैसा असर पड़ा होगा.


गाँव की महिलाओं के इस नए रूप को देखकर मैं अभिभूत तो था ही, उनके प्रति कृतज्ञ भी कम नहीं लौटा.

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