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रविवार, 1 जून 2008

तुझे सोमरस कहूं या शराब? (अन्तिम)


पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि पैट्रिक एडवर्ड मैकगवर्न ने अपनी किताब 'एनसियेंट वाइन: द सर्च फॉर द ओरीजिंस ऑफ़ विनी कल्चर' में लिखा है कि यूरेशियाई वाइन (अंगूर की खेती और शराब का उत्पादन) आज के जोर्जिया में शुरू होकर वहाँ से दक्षिण की तरफ़ पहुँची होगी. यह किताब प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस से साल २००३ में छपी थी. अब आगे...
'चिकित्सक के लिए औषधियों का वही महत्त्व है जो कि राजा के लिए मंत्रियों की प्रशासनिक संस्था का होता है. जो औषधियों का ज्ञान रखता है, चिकित्सक है और वही शरीर की गड़बडियों को ठीक कर सकता है. मैं कई औषधियों को जानता हूँ जैसे- अश्ववटी, सोमवटी, उर्जयंती, उदौजस आदि.'--- ऋगवेद: अध्याय १०/९७, ऋचा ६,७).'


एकदम आरंभ में किसान जंगली फलों तथा अंगूर से एल्कोहलिक पेय बनाते थे. इन फलों तथा अंगूरों को ग्रीक में वितिस सिल्वेस्त्रिस कहा गया है. लेकिन पेय को संरक्षित रखने के लिए बर्त्तन नहीं होते थे. जब आज से करीब ९००० वर्ष पूर्व नियोलिथिक युग के निकट-पूर्व में मिट्टी के बर्तन बनने लगे तो इन पेयों को सुरक्षित रखना आसान हो गया और शराब उत्पादन को भी गति मिली.

सुमेर में 2750 साल ईसा पूर्व शराब बनाए जाने के प्रमाण मिले हैं. उधर प्राचीनकाल में चीनवासी पर्वती अंगूरों से शराब बनाते थे, लेकिन जब दूसरी शताब्दी में मध्य-एशिया से उन्होंने बजरिये सिल्क-रूट घरेलू अंगूर आयात करने शुरू किए तो चीन में शराब उत्पादन का नया युग आरंभ हो गया.

कहा जाता है कि एकदम आरंभिक काल में जंगली अंगूर उत्तरी अफ्रीका से मध्य एशिया में आते थे. लेकिन शराब बनाने लायक घरेलू अंगूर निकट-पूर्व में सबसे पहले उगाये गए, जो आज के ईरान का इलाका है. यह विवादास्पद है फिर भी इस बात को काफी हद तक माना जाने लगा है कि आर्य ईरान की तरफ़ से आए थे, जिसके कई प्रमाण मिल चुके हैं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यही आर्य अपने साथ घरेलू अंगूर की कई किस्में लेते आए होंगे. क्योकि वह उनकी संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन चुके थे.

सिंधु सभ्यता में शराब के सेवन का अब तक कोई संकेत नहीं मिला है. अलबत्ता उत्खनन से प्रमाण मिले हैं कि सिंधुवासी मछली का सेवन करते थे. जबकि आर्य दुग्ध, सोमरस और सुरा से परिचित थे. दूध में पकाए गए चावलों की खीर को 'क्षीरणकोदन' कहा जाता था. आर्य भेड़ और बकरी का मांस बड़े चाव से खाते थे. सोम का प्रयोग यज्ञों में होता था जबकि सुरा आम प्रयोग में थी. जाहिर है सोम एक पवित्र पेय था जिसे सुरा से भिन्न किस्म के अंगूरों एवं भिन्न विधि से निर्मित किया जाता रहा होगा. उल्लेखनीय बात यह यह है कि सोम में मादकता नहीं होती थी जबकि सुरा में मदिरा की तरह नशा होता था.

यहाँ दो बातें जहन में आती हैं- एक, गाय-भेड़-बकरी ईरान की तरफ के मूल पशु थे. दो, जिसे हम सोमलता के नाम से जानते हैं वह अंगूर की किसी अनोखी किस्म की लता रही होगी. लेकिन यह निश्चित है कि आर्य अपने समय में वनस्पतियों को बहुत महत्त्व एवं मान देते थे. ऋगवेद में दृष्टव्य है-(कृपया बॉक्स मैटर देखें)
'ये औषधियाँ प्रकृति से मिली हैं. ये पूर्व समय में थीं, हैं और रहेंगी. अपने चिकित्सकीय गुणों के चलते ७०० औषधियाँ सर्वज्ञात हैं. सोम सबसे महत्वपूर्ण औषधि है. हजारों जन इन औषधियों का प्रयोग करके बार-बार लाभान्वित हुए हैं.'-- ऋगवेद: अध्याय १०/९७, ऋचा १,२).

स्पष्ट है कि सोमवटी को कितना महत्त्व दिया गया है. यह श्रेष्ठ औषधियों में से एक थी. इसीलिए इससे बना पेय देवताओं को अर्पित किया जाता था; सामान्यजन को नहीं.

कहने का तात्पर्य यह है कि सोमरस और सुरा जैसे पेय आर्यों के जीवन का अभिन्न अंग थे. नियोलिथिक युग से शराब की जो यात्रा शुरू हुई थी वह आर्यों के जरिये भारतवर्ष तक चली आयी. यह अनंत यात्रा आज भी ज़ारी है. और अब तो शराब के शहस्त्रबाहु एवं कोटिसिर हैं. इसे चाहे जिन नामों से पुकारिये लेकिन यह तय है कि दुनिया में शराब का डंका बजता है और यह आज के बड़े-बड़े इन्द्रों के सर चढ़कर तांडव करती है.

इति श्रीरेवाखंडे अन्तिमोध्याय समाप्तः -- बोलो वृन्दावन बिहारी लाल की जै!

(सनका दिक् मुनि टोटल सनक गए हैं. सुबह-सुबह उठे तो कहने लगे कि दण्डक अरण्य में कुछ दिन सोमरस बनाने की नयी-नयी विधियां ईजाद करेंगे! ताज़ा रपट यह है कि अभी-अभी अपनी लकुटि-कमरिया लेकर प्रस्थान कर गए हैं).

ईश्वर उन्हें शांति दे!

शनिवार, 31 मई 2008

तुझे सोमरस कहूं या शराब? (भाग-२)


पिछली कड़ी में आपने सवाल उठते देखा कि आर्य इसे सोमरस ही क्यों कहते थे? अब आगे...
ईसा पूर्व ८००० ईस्वी तक भिन्न-भिन्न आकारों के भांड (बर्त्तन) बनने शुरू हो गए थे. निकट पूर्व में उत्तरी जाग्रोस पर्वत के हाजी फिरूज़ (तेपे, आज का ईरान) नामक स्थान पर मेरी ए. वोइट ने जब खुदाई की तो वहाँ से उन्होंने दुनिया में पहली बार एक बड़ा जार बरामद किया. इसमें तकरीबन ९ लीटर यानी २.५ गैलन द्रव आ सकता था. मिट्टी का एक मकान था. उसमें ऐसे ५ जार और फराहम हुए जो फर्श पर एक दीवार से सटे रखे थे. यह कमरा किसी रसोईघर जैसा लगता था. इन जारों को तकरीबन ५४००-५००० ईसा पूर्व का आँका गया. इन जारों में पीले रंग की सामग्री चिपकी हुई मिली जिसे प्रयोगशालाओं में गहन परीक्षणों के बाद वाइन करार दिया गया.


सम्भव है इसके सेवन से ऐसे बल का संचार होता रहा हो कि पीने वाला महायोद्धा यहाँ तक कि युद्ध का देवता तक बन सकता था. आश्चर्य नहीं है कि ऋगवेद में इन्द्र को नगरों का नाश करने वाला कहा गया है और सोमरस इन्द्र जैसे देवताओं को प्रस्तुत किया जाता था. तब कहीं इन्द्र येहोवा की परम्परा का वाहक तो नहीं था जो कालांतर में स्वयं एक पीठ बन गया था!

अब हम ज़रा पश्चिम में नशे के आम जरिये वाइन की जड़ें तलाशने की कोशिश करेंगे. आज भी पश्चिमी देशों में व्हिस्की, रम या जिन से कहीं ज्यादा वाइन का सेवन अधिक प्रतिष्ठित माना जाता है. ध्यान देने की बात यह है कि प्राचीन काल में लोग वाइन और बीयर में फ़र्क करते थे. वाइन काफी पहले ईजाद कर ली गयी थी. प्राचीन ईरान तथा मिस्र से प्राप्त चित्रों में दर्शाया गया है कि वाइन पीने के लिए प्यालों का प्रयोग होता था जबकि बीयर सीधे बैरलों से पतली सटक के जरिये पी जाती थी. मदिरापान अक्सर सामूहिक होता था.

मिस्र में एक परम्परा थी कि वर्ष के प्रथम माह में एक स्थान पर सैकड़ों स्त्रियाँ इतनी शराब पीती थीं कि सुबह तक उनमें से कोई अपनी टांगों पर खड़ी नहीं हो पाती थी. यह विराट शराब आयोजन एक अंधविश्वास के तहत किया जाता था. इस पर यहाँ विस्तृत बात करने से विषयांतर हो जाने का खतरा है.
नियोलिथिक युग(ईसा पूर्व ८५००-४००० वर्ष) तक निकट पूर्व तथा मिस्र की आबादियां स्थायी हो गयी थीं. इसके चलते पेड़-पौधों और घरेलू पशुओं से लोगों का सम्बन्ध करीबी होने लगा. घुमंतू जातियों के मुकाबले स्थायी खाद्य-श्रृंखला और व्यंजन अस्तित्व में आ गए. खाद्य संरक्षण में किण्वन, सोकिंग, पकाना, तिक्त करना आदि विधियां प्रचालन में आयीं. नियोलिथिक लोगों को ब्रेड, बीयर और अनाजों के उत्पादन का आदि मानव-समूह माना जाता है.

प्राचीनकालीन मिस्र में अंगूर की खेती नहीं होती थी. लेकिन फिलिस्तीन से व्यापार के कारण नील डेल्टा में शाही शराब का उत्पादन होता था. वे कांस्ययुग के शुरुआती दिन थे. इसे 'पुराने राज्य' का शुरुआती दौर भी कहा जाता है. बात २७०० ईसा पूर्व की है. तब के फिलिस्तीन में आज का इजरायल, पश्चिमी तट, गाज़ा और जोर्डन शामिल थे. नील डेल्टा में अंगूर की खेती बहुत बाद में शुरू हुई. यहाँ शराब के जार तीसरे वंश के फिराओनों की क़ब्रों में दफ़न किए जाने के प्रमाण मिले हैं. एब्रीडोस की क़ब्रों में ऐसे कई जार मिले हैं.

मेसोपोटामिया में दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से पहले का शराब-इतिहास दस्तावेज़ के तौर पर लगभग न के बराबर मिलता है. लेकिन जारों के अन्दर पाये गए द्रव्य के परीक्षण ने यह साबित कर दिया कि ३५००-३१०० ईसा पूर्व के दरम्यान यहाँ का उच्च वर्ग शराब का छककर सेवन करता था. यह सिलसिला उरुक काल के बाद के दौर तक चला. शराब के सिलेंडरों पर मिली शाही सीलों से पता चलता है कि बीयर ट्यूबों में स्ट्राओं के जरिये तथा शराब (वाइन) प्यालों में पी जाती थी, जैसा कि मैंने पहले ही अर्ज़ किया है. यह आज के इराक़ का दक्षिणी इलाका था. पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व के 'father of history' कहे जाने वाले ग्रीक इतिहासकार हेरोडेटस ने लिखा है कि यूफ्रेतस या टिगरिस से लेकर आर्मीनिया के इलाकों में शराबनोशी काफी बाद तक होती थी.

आज के जोर्जिया में भी ६००० वर्ष ईसा पूर्व के जार मिले हैं. यह सुलावेरी का इलाका था. पैट्रिक एडवर्ड मैकगवर्न ने अपनी किताब एनसियेंट वाइन: द सर्च फॉर द ओरीजिंस ऑफ़ विनी कल्चर में लिखा है कि यूरेशियाई वाइन (अंगूर की खेती और शराब का उत्पादन) आज के जोर्जिया में शुरू होकर वहाँ से दक्षिण की तरफ़ पहुँची होगी. यह किताब प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस से साल २००३ में छपी थी.

दूसरा भाग यहीं समाप्त होता है.. इतिश्री रेवाखंडे द्वितीयोध्याय समाप्तः...

अगली पोस्ट में ज़ारी...

शुक्रवार, 30 मई 2008

तुझे सोमरस कहूं या शराब? (भाग-१)

ऋगवैदिक कालीन साहित्य में सोमरस का उल्लेख आता है. कुछ विद्वान इसे सुरा या शराब समझते हैं. हालांकि आज तक यह साबित नहीं हो पाया है कि सोमरस शराब था या नहीं. यह बात और है कतिपय लोगों ने इसे बनाने की विधि और रहस्य जान लेने का समय-समय पर दावा किया है. कहते हैं कि इसे सोमलता की पत्तियों से तैयार किया जाता था जिसमें विशेष प्रकार का आटा तथा चूर्ण मिलाया जाता था और इसका स्वाद मीठा होता था लेकिन नशा नहीँ होता था. यज्ञकर्म में देवताओं को यह प्रस्तुत किया जाता था. कहा जा सकता है कि यह एक उच्चकोटि की वाइन थी.

एक पोस्ट भंग का रंग जमा लो चकाचक में मैंने शिवजी की बूटी भांग की महिमा गाई थी. क्या भांग ही सोम रस है? ---नामक लेख में भाई अभय तिवारी ने उस सिल पर निर्मल-आनंद घोंटते हुए सोमरस का उद्गम ढूँढने की कोशिश की थी. वह कुछ-कुछ थाह ले पाये थे. सच कहूं तो उनका लेख पढ़ कर मुझमे गज़ब उत्साह पैदा हुआ. सहयोगी गोताखोर की हैसियत से मैंने भी लंगोट कस कर सोमरस के अथाह सागर में डुबकी लगाई और जो हाथ लगा है, आपके प्यालों में उंडेल रहा हूँ. 'सोमरसभांड' ज़रा बड़ा हो गया है. एक-दो दौर में ख़त्म होगा. लीजिये, नोश फरमाइये-

... सो मुर्गीखेत में जो कथा सनके दिक् मुनि ने मुझसे कही थी वह अब मैं आप श्रवणों से कहता हूँ....

'अगर उचित तरीके से ली जाए तो बढ़िया शराब एक बहुपरिचित जीव है'- विलियम सेक्सपियर.

ओल्ड टेस्टामेंट में भी वाइन का ज़िक्र कई जगह आया है. लेकिन इसे बनाने के प्रथम प्रमाण मध्य-पूर्व एशिया में मिले है.

भारतवर्ष में वैदिक सभ्यता ईसा से ३००० से २००० वर्ष पहले मानी जाती है. इसमें सोम देवता था. सोम को 'द्रव आनंद' (लिक्विड प्लेजर) का देवता माना गया है. ऋगवेद में एक स्थान पर कहा गया है- 'यह सोम है जो शराब बहाता है, जो स्फूर्ति एवं शक्तिदायक है. सोम अंधों को दीदावर बना देता है तथा लंगडों को दौड़ा देता है.'
यहाँ ईश्वर की प्रशस्ति में कहा गया गोस्वामी तुलसीदास का एक दोहा याद आता है-

'मूक होंहिं वाचाल, पंगु चढें गिरिवर गहन,
जासु कृपा सो दयाल, द्रवहुं सकल कलिमल दहन.'

चरक संहिता में सोमरस को अनिद्रा, शोक, सदमा एवं थकान की दवा बताया गया है. चरक संहिता भारत में मौर्यकाल के दौरान लिखी गयी थी. यह लगभग ३०० वर्ष ईसा पूर्व का काल था. चरक का मतलब होता है घुमंतू विद्वान या घुमंतू चिकित्सक. इस संहिता में आठ खंड तथा १२० अध्याय हैं.

भारत के पहले ज्ञात सर्जन सुश्रुत ने सोमरस को एनेस्थीशिया के तौर पर इस्तेमाल करने की सलाह दी है. वहीं चरक भी कहते हैं कि शल्यक्रिया (ऑपरेशन) से पहले मरीज को इच्छानुसार भोजन तथा सोमरस पीने को दिया जाए ताकि वह नश्तर की धार का अनुभव न कर सके और शल्यक्रिया के दौरान बेहोश न होने पाये. चरक ने यह भी कहा है कि सोमरस के पान से भूख, पाचन क्रिया और आनंद में वृद्धि होती है. यह शरीर के प्राकृतिक द्रवों का प्रवाह सुचारू करता है नतीजतन शरीर हमेशा स्वस्थ रहता है. समझा जा सकता है कि ऋगवैदिक काल से लेकर मौर्य काल तक वाइन को सोमरस ही कहा जाता था.

तंत्र एवं शास्त्रों में सोमरस को ईश्वर की मदिरा कहा गया है. प्राचीन चिकित्सक इसे अमृत कहते थे. दिलचस्प बात यह है कि सोमरस और बकरी के दूध को टीबी के इलाज के लिए उपयोग में लाने की सलाह दी जाती थी. पश्चिम के जाने माने विद्वान एमडी गाउल्डर ने वर्ष १९९६ में बताया था कि ईसाई धर्मग्रन्थ 'बांकेल' बयान करती है-
'सोमरस येहोवा की उपाधि थी जिसका मतलब है- प्राचीन युद्ध देवता. वह अपने देवदूत के पंखों वाले सिंहासन पर बैठा था.' इसका अर्थ यह हुआ कि सोमरस शब्द हमें 'जेंद अवेस्तां' ग्रन्थ में तलाशना चाहिए. उससे और स्पष्ट हो जायेगा कि आर्य इसे सोमरस ही क्यों कहते थे?...

पहला भाग यहीं समाप्त होता है.. इतिश्री रेवाखंडे प्रथमोअध्याय समाप्तः...

अपनी पीठ इन्द्रपीठ- यह लेख 'दैनिक भास्कर' की रविवारीय पत्रिका 'रसरंग' में गुजिश्ता २५ मई, २००८ को पंजाब, हरियाणा और पता नहीं कहाँ-कहाँ के संस्करणों में कवर स्टोरी बन कर रोशनी में आ चुका है. सैकड़ों फोन इस आशय के आ चुके हैं कि मैं उन्हें सोमरस बनाने की विधि बता दूँ. मेरा जवाब है लागत लगाओ, बता देंगे. लेकिन कोई खर्चा देने को तैयार नहीं है इसलिए घर में ही महुए का सोमरस बनाना पड़ रहा है.

अब पल्ला झाड़नेवाली सूचना:- यह लेख ब्लॉगकालीन सोमरस की हांडी चढाए रहने के चार घटी, तीन पल बाद ३० अक्षांश, १८३ देशांतर में लिखा गया है. विद्वज्जनों को अगर कोई गफलत पकड़ में आए तो यह मेरी नहीं, सोमरस की जिम्मेदारी मानी जाए.

सत्यकथा:- बीड़ी बीवी ने छिपा दी है उसे ढूँढना वैदिककालीन ऋषि को अतिआवश्यक जान पड़ रहा है...

अब अगले भाग का इंतज़ार करें. इन्द्र का बहुत आवाहन किया लेकिन वह नहीं आया. थक-हार कर ख़ुद ही इन्द्र बनना पड़ा. टूटी खाट में पड़े रहकर ब्लोगिंग नहीं हो पा रही है...

मेरी नई ग़ज़ल

 प्यारे दोस्तो, बुजुर्ग कह गए हैं कि हमेशा ग़ुस्से और आक्रोश में भरे रहना सेहत के लिए ठीक नहीं होता। इसीलिए आज पेश कर रहा हूं अपनी एक रोमांटि...