पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि पैट्रिक एडवर्ड मैकगवर्न ने अपनी किताब 'एनसियेंट वाइन: द सर्च फॉर द ओरीजिंस ऑफ़ विनी कल्चर' में लिखा है कि यूरेशियाई वाइन (अंगूर की खेती और शराब का उत्पादन) आज के जोर्जिया में शुरू होकर वहाँ से दक्षिण की तरफ़ पहुँची होगी. यह किताब प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस से साल २००३ में छपी थी. अब आगे...
'चिकित्सक के लिए औषधियों का वही महत्त्व है जो कि राजा के लिए मंत्रियों की प्रशासनिक संस्था का होता है. जो औषधियों का ज्ञान रखता है, चिकित्सक है और वही शरीर की गड़बडियों को ठीक कर सकता है. मैं कई औषधियों को जानता हूँ जैसे- अश्ववटी, सोमवटी, उर्जयंती, उदौजस आदि.'--- ऋगवेद: अध्याय १०/९७, ऋचा ६,७).'
एकदम आरंभ में किसान जंगली फलों तथा अंगूर से एल्कोहलिक पेय बनाते थे. इन फलों तथा अंगूरों को ग्रीक में वितिस सिल्वेस्त्रिस कहा गया है. लेकिन पेय को संरक्षित रखने के लिए बर्त्तन नहीं होते थे. जब आज से करीब ९००० वर्ष पूर्व नियोलिथिक युग के निकट-पूर्व में मिट्टी के बर्तन बनने लगे तो इन पेयों को सुरक्षित रखना आसान हो गया और शराब उत्पादन को भी गति मिली.
सुमेर में 2750 साल ईसा पूर्व शराब बनाए जाने के प्रमाण मिले हैं. उधर प्राचीनकाल में चीनवासी पर्वती अंगूरों से शराब बनाते थे, लेकिन जब दूसरी शताब्दी में मध्य-एशिया से उन्होंने बजरिये सिल्क-रूट घरेलू अंगूर आयात करने शुरू किए तो चीन में शराब उत्पादन का नया युग आरंभ हो गया.
कहा जाता है कि एकदम आरंभिक काल में जंगली अंगूर उत्तरी अफ्रीका से मध्य एशिया में आते थे. लेकिन शराब बनाने लायक घरेलू अंगूर निकट-पूर्व में सबसे पहले उगाये गए, जो आज के ईरान का इलाका है. यह विवादास्पद है फिर भी इस बात को काफी हद तक माना जाने लगा है कि आर्य ईरान की तरफ़ से आए थे, जिसके कई प्रमाण मिल चुके हैं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यही आर्य अपने साथ घरेलू अंगूर की कई किस्में लेते आए होंगे. क्योकि वह उनकी संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन चुके थे.
सिंधु सभ्यता में शराब के सेवन का अब तक कोई संकेत नहीं मिला है. अलबत्ता उत्खनन से प्रमाण मिले हैं कि सिंधुवासी मछली का सेवन करते थे. जबकि आर्य दुग्ध, सोमरस और सुरा से परिचित थे. दूध में पकाए गए चावलों की खीर को 'क्षीरणकोदन' कहा जाता था. आर्य भेड़ और बकरी का मांस बड़े चाव से खाते थे. सोम का प्रयोग यज्ञों में होता था जबकि सुरा आम प्रयोग में थी. जाहिर है सोम एक पवित्र पेय था जिसे सुरा से भिन्न किस्म के अंगूरों एवं भिन्न विधि से निर्मित किया जाता रहा होगा. उल्लेखनीय बात यह यह है कि सोम में मादकता नहीं होती थी जबकि सुरा में मदिरा की तरह नशा होता था.
यहाँ दो बातें जहन में आती हैं- एक, गाय-भेड़-बकरी ईरान की तरफ के मूल पशु थे. दो, जिसे हम सोमलता के नाम से जानते हैं वह अंगूर की किसी अनोखी किस्म की लता रही होगी. लेकिन यह निश्चित है कि आर्य अपने समय में वनस्पतियों को बहुत महत्त्व एवं मान देते थे. ऋगवेद में दृष्टव्य है-(कृपया बॉक्स मैटर देखें)
'ये औषधियाँ प्रकृति से मिली हैं. ये पूर्व समय में थीं, हैं और रहेंगी. अपने चिकित्सकीय गुणों के चलते ७०० औषधियाँ सर्वज्ञात हैं. सोम सबसे महत्वपूर्ण औषधि है. हजारों जन इन औषधियों का प्रयोग करके बार-बार लाभान्वित हुए हैं.'-- ऋगवेद: अध्याय १०/९७, ऋचा १,२).
स्पष्ट है कि सोमवटी को कितना महत्त्व दिया गया है. यह श्रेष्ठ औषधियों में से एक थी. इसीलिए इससे बना पेय देवताओं को अर्पित किया जाता था; सामान्यजन को नहीं.
कहने का तात्पर्य यह है कि सोमरस और सुरा जैसे पेय आर्यों के जीवन का अभिन्न अंग थे. नियोलिथिक युग से शराब की जो यात्रा शुरू हुई थी वह आर्यों के जरिये भारतवर्ष तक चली आयी. यह अनंत यात्रा आज भी ज़ारी है. और अब तो शराब के शहस्त्रबाहु एवं कोटिसिर हैं. इसे चाहे जिन नामों से पुकारिये लेकिन यह तय है कि दुनिया में शराब का डंका बजता है और यह आज के बड़े-बड़े इन्द्रों के सर चढ़कर तांडव करती है.
इति श्रीरेवाखंडे अन्तिमोध्याय समाप्तः -- बोलो वृन्दावन बिहारी लाल की जै!
(सनका दिक् मुनि टोटल सनक गए हैं. सुबह-सुबह उठे तो कहने लगे कि दण्डक अरण्य में कुछ दिन सोमरस बनाने की नयी-नयी विधियां ईजाद करेंगे! ताज़ा रपट यह है कि अभी-अभी अपनी लकुटि-कमरिया लेकर प्रस्थान कर गए हैं).
ईश्वर उन्हें शांति दे!