बुधवार, 30 सितंबर 2009

कब समाप्त होगा शोक का यह हिमयुग!

शोक मन का दीमक है. तन को तो यह घुन की तरह खाता रहता है. तिस पर मृत्यु का शोक घातक है. शोकग्रस्त माँ कहीं की नहीं रह जाती. जिसका २० साल का बेटा घर लौटते समय एक दुर्दांत डम्पर की चपेट में कुचलकर पल भर में मारा जाए उस माँ की अवस्था का वर्णन करने के लिए शब्द कहाँ से लाये जाएँ! मैं अपने साले अभय की बात कर रहा हूँ और वह शोकग्रस्त माँ मेरी सास है.

जाहिर है शोक ने हमारे पूरे कुनबे को अपनी गिरफ्त में ले रखा है. अभय की मौत के बाद पहले की तरह ही इस बार भी बरसात हुई, ठण्ड भी पड़ेगी, गर्मी की ऋतु भी आयेगी.. रिश्तेदार आते-जाते रहेंगे पहले की तरह ही, पर संबंधों की वह लपक... वह तपाक से मिलना-जुलना कभी हो सकेगा क्या! हम खाना खाते हैं, पानी पीते हैं, एक दूसरे से बात करते है; लेकिन अब वह बात नहीं रही. हँसने में भी रुलाई घुसी रहती है. पिता यानी मेरे ससुर के देखने में धुंधलापन शामिल हो गया है. पिता की माँ दिन-रात आँचल में आंसू छिपाती रहती हैं. मेरी पत्नी अब कभी न बांधी जा सकने वाली राखी का शोक गीत गाती रहती है. हम लोग कुछ-कुछ चिड़चिडे भी हो चले हैं. बातों-बातों में कटु हो जाते हैं. हर सही-गलत पर क्रोधित हो उठते हैं. मेरा बेटा अबोध है, सात माह का. उसकी बाल-सुलभ हरकतें कभी मन को बल्लियों उछालती थीं, अब सिर्फ देखने की चीज रह गयी हैं. फिर भी वह अपने में ही जिए जा रहा है. उसकी उम्र में शोक का भान भला किसे होता है!

मरनेवाले की याद घर के हर कोने से टपकती है. कुर्सी, पलंग, सोफा, फर्श, चटाई, दरी...न जाने किन-किन वस्तुओं से उसका उठना-बैठना चिपका हुआ है. उसके खाने-पीने की आदतें, उसका मोबाइल फोन, उसकी मोटरसाइकल, उसकी कार... उसकी भविष्य की योजनायें...सब यहीं छूट गयी हैं. घर के सामने की कुचली हुई घास तक शोकग्रस्त दिखाई पड़ती है. बिजली का खम्भा कैसी चटक रोशनी देता था, अब उसमें लटका बल्ब मरियल सी रोशनी देता है जिसे पतंगे घेरे रहते हैं. गंगा में विसर्जित करने के बाद शेष रह गए मृतक के कपड़े हमने पहनने के लिए बाँट लिए हैं. अब वह कपड़ों की शक्ल में हमारी देह से चिपका रहता है. उसके पहने हुए कपड़े एक दिन हमारे पहनते-पहनते फट जायेंगे, फिर भी वह मन से चिपका रहेगा. देखते हैं कब तक?

दशहरा के दिन बेटे का मुंडन संस्कार था. जबलपुर में नर्मदा किनारे ग्वारी घाट हम पहुंचे. दसियों बार तो मैं ही अपने साले के साथ यहाँ उमंग में भरकर आ चुका था. और कुछ ही दिन पहले यहीं नर्मदा किनारे उसका अंतिम संस्कार करके शोकग्रस्त लौटा. नर्मदा का यह किनारा जीवन के गीत तथा मृत्यु के शोकगीत दोनों का आयोजन कर लेता है. मैंने मीलों फैले नर्मदा के पाट पर नजर डाली तो अनुभव हुआ कि माँ का दामन तो सबके लिए है, जो इसे चाहे जिस रूप में अंगीकार करे.
ग्वारी घाट के चबूतरों पर दो-चार और बच्चों का मुंडन हो रहा था. महिलायें मंगलगीत गा रही थी. तभी हमें शोक ने आ दबोचा. हम लोग मुंडन की औपचारिकता निभा रहे थे. गाना-वाना तो हममें से किसे था! बगल की महिलाओं को गाता देख मेरी पत्नी को अचानक अपने भाई की याद आ गयी. बहुत रोकने के बावजूद नर्मदा के घाट पर उसकी आँखों से एक और धारा बह निकली. न जाने शोक का यह हिमयुग हमारे जीवन से कब समाप्त होगा!

मेरी नई ग़ज़ल

 प्यारे दोस्तो, बुजुर्ग कह गए हैं कि हमेशा ग़ुस्से और आक्रोश में भरे रहना सेहत के लिए ठीक नहीं होता। इसीलिए आज पेश कर रहा हूं अपनी एक रोमांटि...