This article is about an unknown martyr. अमर शहीद सोहनलाल पाठक Sohanlal Pathak का जन्म सन् १८८३ में पट्टी गाँव जिला अमृतसर में पंडित जिंदा राम के घर में हुआ था। गाँव में मिडिल पास कर वह शिक्षक बन गए. इसी बीच उनका सम्पर्क लाला हरदयाल और लाला लाजपत राय से हुआ, जिनकी प्रेरणा से वह निष्ठावान क्रांतिकारी बने. उनके एक मित्र ज्ञान सिंह स्याम देश में रहकर क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े थे. उन्हीं के आग्रह पर सोहनलाल पाठक भी यहाँ पहुंचे, परन्तु कार्यक्षेत्र सीमित जानकर वहाँ से उन्होंने अमेरिका जाने का निश्चय किया.
सोहनलाल पाठक को जहाँ विनायक दामोदर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) से क्रांतिकारी बनने की प्रेरणा मिली वहीं नलिनी घोष भी उनके प्रेरणास्रोत रहे। नलिनी घोष नज़रबंद थे. अंग्रेजों की आँख में धूल झोंक कर वह चंदन नगर पहुँच गए और वेश बदलकर सन् १९१९ में बिहार पहुँच कर संगठन कार्य का संचालन करने लगे. पुलिस के पीछा करने पर वह गौहाटी चले गए और वहाँ सक्रिय हो गए. लेकिन पुलिस ने उनका पीछा यहाँ भी नहीं छोड़ा और तंग आकर घोष को दूसरा अड्डा तलाशना पड़ा.
दिनांक १५ जून १९१८ को ढाका में तारिणी मजूमदार के मकान को पुलिस ने घेर लिया। पुलिस को गुप्तचरों द्वारा सूचना मिली थी की नलिनी घोष उस अड्डे पर सक्रिय हैं. दोनों तरफ़ से गोलियाँ चलीं. मजूमदार शहीद हो गए. पुलिस घायल नलिनी घोष के निकट पहुँची और नाम पूछा तो घोष ने निर्भीक होकर अपना नाम बताया और कहा कि उन्हें भारतमाता के चरणों में अपने प्राणों की आहुति देने दी जाए.
पाठक जी के मित्र ज्ञान सिंह ने पत्र लिखा - 'हम लोगों ने जंगलों में जाकर मातृभूमि की आज़ादी के लिए फांसी चढ़कर मरने की शपथ ली थी। अब वह समय आ गया है.'
उन दिनों सोहनलाल पाठक अमेरिका में सक्रिय थे। उन्हें आदेश मिला कि वह बर्मा पहुँचकर सैनिकों में काम करें. पाठकजी ने आदेशानुसार बैंकाक मार्ग से बर्मा में प्रवेश किया और अपना काम बड़ी चतुराई तथा मनोयोग से प्रारंभ कर दिया. वह फौज़ में विद्रोह कराने में सफल रहे.
एक दिन पाठक जी गुप्तरूप से जब फौज़ के जवानों को देशभक्ति और अंग्रेजों के विरुद्ध मरने-मारने का पाठ पढ़ा रहे थे, अचानक एक भारतीय जमादार ने उनका दांयाँ हाथ पकड़ लिया और अपने अफ़सर के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए ले जाने का बलात् प्रयास करने लगा। पाठकजी को यह आशंका न थी. उन्होंने जमादार को काफी समझाया पर वह नहीं माना.
यद्यपि पाठकजी उस समय सशस्त्र थे, जमादार का काम तमाम कर सकते थे। लेकिन एक भारतीय भाई का खून अपने हाथों से बहाना उन्होंने उचित नहीं समझा. उन्हें लगा कि इस कृत्य से उनका क्रांतिकारी संगठन कलंकित हो जायेगा. वे स्वयं गिरफ़्तार हो गए. मुक़दमा चला और उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई गयी.
जेल में उन्होंने कभी जेल के नियमों का पालन नहीं किया। उनका तर्क था कि जब अंग्रेज़ नियमों को नहीं मानते तो उनके नियमों का बन्धन कैसा? बर्मा के गवर्नर जनरल Governer General ने जेल में उनसे कहा- 'अगर तुम क्षमा मांग लो तो फांसी रद्द की जा सकती है.' पाठकजी ने जवाब दिया- 'अपराधी अंग्रेज हैं, क्षमा उन्हें मांगनी चाहिए. देश हमारा है. हम उसे आज़ाद कराना चाहते हैं. इसमें अपराध क्या है?'
बर्मा जेल के रिकॉर्ड Record बताते हैं कि फांसी के समय पाठकजी ने जल्लाद के हाथों से फांसी का फंदा छीन कर स्वयं अपने गले में डाल लिया था।
किसी कवि ने ऐसे ही जाँबाजों के लिए कहा है कि-
गर्दन अब हाथ से अपने ही कटानी है हमें,
मादर-ए-हिंद पे यह भेंट चढ़ानी है हमें,
किस तरह मरते हैं अहरार-ए-वतन भारत पर,
सारे आलम को यही बात दिखानी है हमें।
'मीरा-भायंदर दर्शन' द्वारा प्रकाशित 'शहीदगाथा' से साभार
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गुरुवार, 1 मई 2008
शनिवार, 26 अप्रैल 2008
सूने में बुझ गए कन्हाईलाल दत्त की गाथा 'शहीद गाथा-१'
This is a new series on unknown martyrs of India. मित्रो, भारत को स्वतंत्रता दिलाने में जिन महान सेनानियों का योगदान रहा है उनमें शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक़उल्ला खाँ, सुखदेव, खुदीराम बोस, चाफेकर बंधु, राजेन्द्र नाथ लाहिडी, भगवती चरण बोहरा आदि को तो कमोबेश हम सब जानते हैं, लेकिन हजारों शहीद ऐसे हैं जो सूने में ही बुझ गए। इस सीरीज में ऐसे ही चंद अमर सेनानानियों के बारे में संक्षिप्त जानकारी देने की कोशिश कर रहा हूँ.
इस कड़ी में सबसे पहले प्रस्तुत है अमर शहीद martyr कन्हाईलाल दत्त की कहानी-
कन्हाईलाल दत्त Kanai lal Dutt का जन्म १८८८ में हुआ था. माता-पिता मुम्बई Mumbai में रहते थे इसलिए उनका लालन-पालन और शिक्षा उसी प्रवास में हुई. आगे वह मुम्बई से कोलकाता विश्वविद्यालय Calcutta university में आ गए. कुछ कर गुज़रने की ललक से वह क्रांतिकारी संगठन से जुड़ गए. कोलकाता विश्वविद्यालय से डबल बीए ऑनर्स double BA honours की उपाधि digree प्राप्त की. यहीं उनकी मुलाक़ात अमीर आदमी के बेटे नरेन्द्रनाथ गोस्वामी से हुई।
३० अप्रैल १९०८ को खुदीराम बोस Khudiram Bose और प्रफुल्ल चन्द्र चाकी ने मजिस्ट्रेट किंग्स फोर्ड Kings Ford की घोड़ा गाड़ी पर बम फेंक कर उसकी जान लेने की कोशिश की। निशाना चूक गया जिससे किंग्सफोर्ड तो बच गया लेकिन उसकी गाड़ी में बैठी २ अंग्रेज़ महिलायें मारी गयीं। इसे ही 'अलीपुर षडयंत्र केस' 'Alipore conspiracy' कहा जाता है. खुदीराम और प्रफुल्ल तो वहाँ से भाग निकले लेकिन बाद में छापों के दौरान इस केस के सिलसिले में जो लोग पकडे गए उनमें कन्हाईलाल दत्त, बारीन्द्रकुमार घोष, इंदुभूषण रॉय, उल्लासकर दत्ता, उपेन्द्रनाथ बैनर्जी, विभूतिभूषण सरकार, नागेन्द्रनाथ गुप्ता, धरणीनाथ गुप्ता, अशोकचन्द्र नंदी, बिजोयरत्न सेन गुप्ता, मोतीलाल बोस, निरापद रॉय, अरबिन्दो घोष, अबनीशचन्द्र भट्टाचार्जी, शैलेन्द्रनाथ बोस, हेमचन्द्र दास, दीनदयाल बोस, निर्मल रॉय, सत्येन्द्रनाथ बसु , नरेन्द्रनाथ गोस्वामी आदि थे।
खुदीराम बोस बाद में पकड़े गए लेकिन प्रफुल्लचन्द्र चाकी ने पुलिस के हाथ में आने से पहले ही ख़ुद को गोली मार कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। जल्द ही मुकदमा शुरू हो गया। इस case में ४९ लोग अभियुक्त थे, २०६ लोगों की गवाही हुई, ४०० से ज्यादा दस्तावेज documents दाखिल किए गए. बमों, रिवाल्वरों और तेज़ाब जैसी ५००० चीजें पेश की गयीं. क्रांतिकारियों के वकील युवा चित्तरंजन दास थे.
जेल में यातनाओं से तंग आकर नरेन्द्र गोस्वामी पुलिस की तरफ से सरकारी गवाह बनने को दबी ज़बान से तैयार हो गया. यह ख़बर कन्हाईलाल दत्त को जेल में ही मिली. उन्होंने गोस्वामी को फटकारा. पकड़े गए क्रांतिकारियों के बीच आपसे मशविरा हुआ कि तालाब की इस गंदी मछली का क्या किया जाए. सरकारी गवाह बनने के बाद नरेन्द्र गोस्वामी अस्पताल भेज दिया गया था.
इस बीच अरबिन्द घोष की बहन सरोज ३० अगस्त १९०८ को बारीन्द्र घोष से मुलाक़ात के बहाने जेल आयी और जेल अधिकारियों की आंखों में धूल झोंककर बारीन्द्र को एक पिस्तौल देकर चली गयी. नरेन्द्र गोस्वामी के साथ सत्येन्द्रनाथ बसु भी आ मिले और दोस्ती का वास्ता देकर गोस्वामी का बयान रटने के बहाने उससे मांग लिया।
योजना के अनुसार ३० अगस्त को पेट दर्द का बहाना बनाकर उपेन्द्र नाथ बैनर्जी अस्पताल के पलंग पर जाकर लेट गए. कन्हाईलाल दत्त ने भी सख्त खांसी की शिकायत की और उन्हें भी जेल के उसी अस्पताल भेज दिया गया. नरेन्द्र गोस्वामी और सत्येन्द्रनाथ बसु ३१ अगस्त १९०८ को एक टेबल पर लिखा-पढ़ी के बहाने आमने-सामने बैठे. अचानक टेबल के नीचे से गोली चली. नरेन्द्र गोस्वामी भागा. उसके पैर में गोली लग चुकी थी. लेकिन उसका पीछा करते हुए कन्हाईलाल दत्त पहुंचे और पिस्तौल की बाकी गोलियाँ भी दाग दीं. नरेन्द्र गोस्वामी ने वहीं प्राण त्याग दिए।
जब यह ख़बर जेल से बाहर देशवासियों तक पहुँची तो खुशी की लहर दौड़ गयी. नरेन्द्र गोस्वामी के सरकारी गवाह बनने से लोगों में आक्रोश और क्षोभ था. कन्हाईलाल दत्त और सत्येन्द्रनाथ बसु गिरफ्तार कर लिए गए थे. आनन-फानन 'अलीपुर षड़यंत्र केस' में कन्हाईलाल दत्त को फांसी की सज़ा सुना दी गयी।
१० नवम्बर, १९०८ की सुबह कन्हाईलाल दत्त को फांसी के तख्ते पर खड़ा किया गया. जब जल्लाद ने उनके गले में फांसी का फंदा डाला तो उन्होंने मुस्करा कर पूछा- 'क्या यह रस्सी थोड़ी मुलायम नहीं हो सकती थी! बड़ी खुरदरी और सख्त है. गरदन में चुभती है भाई!'
इष्टमित्र जब लाश लेने पहुंचे तो एक अँग्रेज सिपाही ने धीरे से कहा कि जिस देश में ऐसे वीर जन्म लेते हैं वह देश धन्य है. मरते दम तक कन्हाईलाल दत्त के चहरे पर मुस्कान रही, भय के चिह्न आंखों में उतरे ही नहीं. उनकी शव यात्रा जनता ने बड़ी धूमधाम से निकाली. असंख्य लोगों ने श्रद्धांजलियाँ अर्पित कीं।
सत्येन्द्रनाथ बसु को २१ नवम्बर १९०८ को फांसी दी गयी। लेकिन जनता के आक्रोश के भय से उनके माता-पिता को मजबूर किया गया कि वे सत्येन्द्र का अन्तिम संस्कार अलीपुर जेल के अन्दर ही करें.
इन अमर शहीदों की भावनाएं व्यक्त करने के लिए ही एक क्रांतिकारी ने लिखा था-
इलाही वह भी दिन होगा जब अपना राज देखेंगे,
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा।
और शहीदों का यह सपना सच होकर रहा।
'मीरा-भायंदर दर्शन' द्वारा प्रकाशित 'शहीदगाथा' से साभार, प्रस्तुतकर्ता- सीपी सिंह 'अनिल'
इस कड़ी में सबसे पहले प्रस्तुत है अमर शहीद martyr कन्हाईलाल दत्त की कहानी-
कन्हाईलाल दत्त Kanai lal Dutt का जन्म १८८८ में हुआ था. माता-पिता मुम्बई Mumbai में रहते थे इसलिए उनका लालन-पालन और शिक्षा उसी प्रवास में हुई. आगे वह मुम्बई से कोलकाता विश्वविद्यालय Calcutta university में आ गए. कुछ कर गुज़रने की ललक से वह क्रांतिकारी संगठन से जुड़ गए. कोलकाता विश्वविद्यालय से डबल बीए ऑनर्स double BA honours की उपाधि digree प्राप्त की. यहीं उनकी मुलाक़ात अमीर आदमी के बेटे नरेन्द्रनाथ गोस्वामी से हुई।
३० अप्रैल १९०८ को खुदीराम बोस Khudiram Bose और प्रफुल्ल चन्द्र चाकी ने मजिस्ट्रेट किंग्स फोर्ड Kings Ford की घोड़ा गाड़ी पर बम फेंक कर उसकी जान लेने की कोशिश की। निशाना चूक गया जिससे किंग्सफोर्ड तो बच गया लेकिन उसकी गाड़ी में बैठी २ अंग्रेज़ महिलायें मारी गयीं। इसे ही 'अलीपुर षडयंत्र केस' 'Alipore conspiracy' कहा जाता है. खुदीराम और प्रफुल्ल तो वहाँ से भाग निकले लेकिन बाद में छापों के दौरान इस केस के सिलसिले में जो लोग पकडे गए उनमें कन्हाईलाल दत्त, बारीन्द्रकुमार घोष, इंदुभूषण रॉय, उल्लासकर दत्ता, उपेन्द्रनाथ बैनर्जी, विभूतिभूषण सरकार, नागेन्द्रनाथ गुप्ता, धरणीनाथ गुप्ता, अशोकचन्द्र नंदी, बिजोयरत्न सेन गुप्ता, मोतीलाल बोस, निरापद रॉय, अरबिन्दो घोष, अबनीशचन्द्र भट्टाचार्जी, शैलेन्द्रनाथ बोस, हेमचन्द्र दास, दीनदयाल बोस, निर्मल रॉय, सत्येन्द्रनाथ बसु , नरेन्द्रनाथ गोस्वामी आदि थे।
खुदीराम बोस बाद में पकड़े गए लेकिन प्रफुल्लचन्द्र चाकी ने पुलिस के हाथ में आने से पहले ही ख़ुद को गोली मार कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। जल्द ही मुकदमा शुरू हो गया। इस case में ४९ लोग अभियुक्त थे, २०६ लोगों की गवाही हुई, ४०० से ज्यादा दस्तावेज documents दाखिल किए गए. बमों, रिवाल्वरों और तेज़ाब जैसी ५००० चीजें पेश की गयीं. क्रांतिकारियों के वकील युवा चित्तरंजन दास थे.
जेल में यातनाओं से तंग आकर नरेन्द्र गोस्वामी पुलिस की तरफ से सरकारी गवाह बनने को दबी ज़बान से तैयार हो गया. यह ख़बर कन्हाईलाल दत्त को जेल में ही मिली. उन्होंने गोस्वामी को फटकारा. पकड़े गए क्रांतिकारियों के बीच आपसे मशविरा हुआ कि तालाब की इस गंदी मछली का क्या किया जाए. सरकारी गवाह बनने के बाद नरेन्द्र गोस्वामी अस्पताल भेज दिया गया था.
इस बीच अरबिन्द घोष की बहन सरोज ३० अगस्त १९०८ को बारीन्द्र घोष से मुलाक़ात के बहाने जेल आयी और जेल अधिकारियों की आंखों में धूल झोंककर बारीन्द्र को एक पिस्तौल देकर चली गयी. नरेन्द्र गोस्वामी के साथ सत्येन्द्रनाथ बसु भी आ मिले और दोस्ती का वास्ता देकर गोस्वामी का बयान रटने के बहाने उससे मांग लिया।
योजना के अनुसार ३० अगस्त को पेट दर्द का बहाना बनाकर उपेन्द्र नाथ बैनर्जी अस्पताल के पलंग पर जाकर लेट गए. कन्हाईलाल दत्त ने भी सख्त खांसी की शिकायत की और उन्हें भी जेल के उसी अस्पताल भेज दिया गया. नरेन्द्र गोस्वामी और सत्येन्द्रनाथ बसु ३१ अगस्त १९०८ को एक टेबल पर लिखा-पढ़ी के बहाने आमने-सामने बैठे. अचानक टेबल के नीचे से गोली चली. नरेन्द्र गोस्वामी भागा. उसके पैर में गोली लग चुकी थी. लेकिन उसका पीछा करते हुए कन्हाईलाल दत्त पहुंचे और पिस्तौल की बाकी गोलियाँ भी दाग दीं. नरेन्द्र गोस्वामी ने वहीं प्राण त्याग दिए।
जब यह ख़बर जेल से बाहर देशवासियों तक पहुँची तो खुशी की लहर दौड़ गयी. नरेन्द्र गोस्वामी के सरकारी गवाह बनने से लोगों में आक्रोश और क्षोभ था. कन्हाईलाल दत्त और सत्येन्द्रनाथ बसु गिरफ्तार कर लिए गए थे. आनन-फानन 'अलीपुर षड़यंत्र केस' में कन्हाईलाल दत्त को फांसी की सज़ा सुना दी गयी।
१० नवम्बर, १९०८ की सुबह कन्हाईलाल दत्त को फांसी के तख्ते पर खड़ा किया गया. जब जल्लाद ने उनके गले में फांसी का फंदा डाला तो उन्होंने मुस्करा कर पूछा- 'क्या यह रस्सी थोड़ी मुलायम नहीं हो सकती थी! बड़ी खुरदरी और सख्त है. गरदन में चुभती है भाई!'
इष्टमित्र जब लाश लेने पहुंचे तो एक अँग्रेज सिपाही ने धीरे से कहा कि जिस देश में ऐसे वीर जन्म लेते हैं वह देश धन्य है. मरते दम तक कन्हाईलाल दत्त के चहरे पर मुस्कान रही, भय के चिह्न आंखों में उतरे ही नहीं. उनकी शव यात्रा जनता ने बड़ी धूमधाम से निकाली. असंख्य लोगों ने श्रद्धांजलियाँ अर्पित कीं।
सत्येन्द्रनाथ बसु को २१ नवम्बर १९०८ को फांसी दी गयी। लेकिन जनता के आक्रोश के भय से उनके माता-पिता को मजबूर किया गया कि वे सत्येन्द्र का अन्तिम संस्कार अलीपुर जेल के अन्दर ही करें.
इन अमर शहीदों की भावनाएं व्यक्त करने के लिए ही एक क्रांतिकारी ने लिखा था-
इलाही वह भी दिन होगा जब अपना राज देखेंगे,
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा।
और शहीदों का यह सपना सच होकर रहा।
'मीरा-भायंदर दर्शन' द्वारा प्रकाशित 'शहीदगाथा' से साभार, प्रस्तुतकर्ता- सीपी सिंह 'अनिल'
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