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गुरुवार, 12 जून 2008

बारिश जो न करवाए, गीत लिखवा लिया!




बारिश जो न चाहे करवा ले!
कल वर्षा में सराबोर होकर जब घर पहुंचे तो हल्का-हल्का सुरूर छा चुका था. गली में बैठने वाले बुजुर्ग घड़ीसाज़ रियाज काका से सुबह ही छतरी सुधरवाई थी. रास्ते में हवा-पानी की मार से वह क्षत-विक्षत हो चुकी थी. पैराहन से पानी टपक रहा था. घर में घुसने से पहले ताकीद हुई कि ज़रा बाहर ही निचुड़ लो. फिर तौलिया आया, सूखे कपड़े आए, तब अपन घर के अन्दर दाखिल हुए.

मेथी के पकौड़े तैयार थे. फिर चाय का दौर चला. इसी बीच मन में एक गीत उमड़ने-घुमड़ने लगा. कागज़ पर उतरने के बाद कुछ यों हो गया है. पढ़िये और कहिये कैसा लगा-


बारिश की बूँदें चुईं
टप...टप...टप
कांस की टटिया पे
छप...छप...छप
बरखा बहार आयी
नाच उठा मन
घनन घनन घन,
घनन घनन घन

उपले समेट भागी
साड़ी लपेट भागी
पारे-सी देह भई
देहरी पे फिसल गयी
अपनी पड़ोसन
घनन घनन घन,
घनन घनन घन

बिल में भरा पानी
दुखी चुहिया रानी
बिजली के तार चुए
जल-थल सब एक हुए
पेड़ हैं मगन
घनन घनन घन,
घनन घनन घन

फरर-फरर बहे बयार
ठंड खटखटाये दुआर
कैसे अब आग जले
रोटी का काम चले
मचल रहा मन
घनन घनन घन,
घनन घनन घन.

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