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शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

हम ने यह माना, कि दिल्ली में रहें खाएंगे क्या

उर्दू में व्यंग्य का उद्गम तलाशने की सलाहियत मुझमें नहीं है. लेकिन शायरी में व्यंग्य की छटा मीर, ज़ौक, ग़ालिब, सौदा, मोमिन जैसे पुरानी पीढ़ी के शायरों ने जगह-जगह बिखेरी है. मुझे ग़ालिब की एक पूरी की पूरी ग़ज़ल ध्यान में आती है जिसका हर शेर करुणा, आत्मदया और व्यंग्य के उत्कृष्ट स्वरूप में मौजूद है. आप भी गौर फ़रमाइए-



दोस्त ग़मख्वारी में मेरी, स'इ फ़रमाएंगे क्या
ज़ख्म के भरने तलक, नाखुन न बढ़ जाएंगे क्या

बेनियाज़ी हद से गुज़री, बंद: परवर कब तलक
हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमाएंगे क्या

हज़रत-ए-नासेह गर आएं, दीद:-ओ-दिल फ़र्श-ए-राह
कोई मुझको यह तो समझा दो, कि समझाएँगे क्या

आज वाँ तेग़-ओ-कफ़न बांधे हुए जाता हूँ मैं
'उज़्र मेरा क़त्ल करने में वह अब लाएंगे क्या

गर किया नासेह ने हमको क़ैद, अच्छा यूँ सही
ये जुनून-ए-इश्क़ के अंदाज़ छुट जायेंगे क्या

खान: ज़ाद-ए-ज़ुल्फ़ हैं, ज़ंजीर से भागेंगे क्यों
हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा, ज़िन्दाँ से घबराएँगे क्या

है अब इस मा'मूरे में केह्त-ए-ग़म-ए-उल्फ़त, असद
हम ने यह माना, कि दिल्ली में रहें खाएंगे क्या

बुधवार, 21 मई 2008

ब्लॉग आईपीएल: बेनामी वर्सेज सुनामी

हिन्दी ब्लॉग जगत में कुछ लोग बहस फंसाये रहते हैं। भाषा, वर्ण, लिंग, जाति आदि आजकल के लोकप्रिय विषय हैं. आगे चल कर इनका स्वरूप क्या होगा कह नहीं सकते. पर इतना तय है कि हरि अनंत हरिकथा अनंता की तर्ज पर ब्लॉग जगत के संत इसे अपनी-अपनी तरह से अपनी-अपनी स्टाइल में कहते-सुनते रहेंगे. जय हो!


...तो हुआ ये कि एक ब्लॉग ने भाषा की अशुद्धता पर बहस छेड़ दी। अब बहस छिड़ी तो टिप्पणियों का दौर दौरा शुरू हुआ. कुछ शीरीं जबान में तो कुछ कुल्हड़कट भाषा में. और एग्रीगेटरों का पोस्ट दिखाना था कि ठपाक से टिप्पणी आ गयी-


रामचंद्र डेविड ने कहा- बोले तो, तुम अपना पोस्टिंग में जो बी फरमायेला है। पण अपुन को बरोबर जमेला नहीं है. तुम बोलता है लैंग्वेज प्योर होना मांगता, पण अपुन का लैग्वेज जितना मांगता है उतना प्योर नहीं है. तो क्या अपुन पोस्टिंग नईं करने का?


टिप्पणी पढ़कर बहस छेड़ने वाले अर्द्धसत्य त्रिपाठी ने यथासंभव शालीनता से जवाब सरकाया- बन्धु, पोस्टिंग नहीं, चिट्ठी लिखिए और यह लिखने में कठिनाई हो तो पोस्ट लिखिए पोस्टिंग नहीं। ॥और यहाँ विचार-विमर्श भाषा पर चल रहां है, और आप तनिक अपनी जिह्वा तो देखिये..!


रामचंद्र डेविड- क्या बोल रेला है हव्वा? मैं अपना हव्वा देखूं? हलकट कहीं का!


अर्द्धसत्य (क्रोध पीकर) - हव्वा नहीं बन्धुवर, जिह्वा।


रामचंद्र डेविड- अबी अपुन को समझ में आ रेला है, तुम साला लोग अपुन का लैंग्वेज सुधारने का चांसइच नई देना चाहता। अपुन ऐसाइच लेखेंगा, जो उखाड़ना है उखाड़ लो.



अब अर्द्धसत्य त्रिपाठी को तो प्रचंड क्रोध आ गया। वह बेनामी मोड में चले गए- अरे सठ! कनगोजर की संतान. तुझ जैसा तुच्छ चिठ्ठाकार मुझसे इस भाषा में बात करने का दुस्साहस कर रहा है?


उधर रामचन्द्र डेविड सुनामी मोड में आकर बोला- अबे वरली के गटर, पारसी बावा के सड़ेवे अंडे के छिलके! वट है तो सामने आ। ये बेनामी-तेनामी होके क्या बोलबचन दे रेला है?


अर्द्धसत्य त्रिपाठी ने क्रोध में की-बोर्ड तीन बार पटक दिया। पास बैठकर एबीसीडी लिख रहे उनके बच्चे सहम गए. लेकिन संयत होकर अगली टिप्पणी टाइप की- हमारा तात्पर्य यह है कि आप जैसा सज्जन पुरूष इस जीवन में आज तक नहीं मिला है. अभी-अभी आपने जो गालियाँ दी हैं वह बेनामी मैं नहीं था. मैं तो यह अनुरोध कर रहा था कि-


तभी उधर से रामचन्द्र डेविड की टिप्पणी आ गयी- अबे, कोन से बिल में घुस गएला है? हिम्मत है तो सामने आ झाडू से बिछड़े हुए तिनके...


अब पंडित जी हत्थे से उखड़ गए और बेनामी मोड में पहुँचकर बोले- तुम अवश्य किसी शूद्र खानदान से हो। वरना भाषा की बहस में भाषा की शालीनता का ध्यान अवश्य रखते...


उधर रामचन्द्र डेविड भी सुनामी मोड में आ गया- अबे भाषा की तो अलटम की पलटम। तू डिबेट को अब लैंग्वेज से कास्ट पे ले जा रेला है॥अबे डर गएला है क्या? लोकल को पटरी से उतार रेला है हटेले?


अब अर्द्धसत्य जी पाजामे से बाहर हो गए। कम्प्यूटर के सामने चुल्लू में पानी लेकर बेनामी मोड में ही बोले- अबे मैं मारण, उच्चाटन, वशीकरण सारी विद्याएँ जानता हूँ. यहीं से ऐसी मंत्रबिद्ध टिप्पणी करूगा कि तेरे प्राण-पखेरू उड़ जायेंगे. ले यह रहा-- ओइम फट स्वाहा॥ ओइम ह्रीं क्लीं..बिच्चई-बिच्चई..


पंडित जी को पता नहीं था कि रामचन्द्र डेविड के यहाँ बिजली चली गयी है और वह आलमारी से रम का अद्धा निकाल कर बिजली आने का इंतज़ार कर रहा है।


कुछ देर तक अर्द्धसत्य त्रिपाठी क्रोध में थर-थर कांपते रहे फिर कोई टिप्पणी न आयी देख संतोष से बोले- मृत्यु को प्राप्त हो गया साल्ला...


उनका यह कहना था कि अचानक सिर पर बड़े ज़ोर का बेलन पड़ा। पंडिताइन को लगा कि वह उसके भाई को गाली दे रहे हैं. शाम को ही दहेज न लाने को लेकर अर्द्धसत्यजी ने उनके पिता और भाई को भला-बुरा कहा था, सो वह पहले से ही चिढी बैठी थीं. बेलन के प्रहार से पंडितजी के सिर पर अमरूद के आकार का एक गूमड निकल आया और वह तत्काल प्रभाव से मूर्छित होकर भू-लुंठित हो गए. उनके मुंह से निकला- 'ओ मीन गोत्ट'. पंडितजी इन दिनों जर्मन सीख रहे थे.


लेकिन भाई साहब, यह सब तो ठीक है। अब चंद प्रतिरक्षात्मक उपाय कर लूँ:---


सावधानिक चेतावनी: 'भाइयो और भाइयो! उपर्युक्त संवाद और घर का माहौल पूर्णतः काल्पनिक था. अगर यह किसी जीवित ब्लोगर से मेल खा जा जाए (मृत की कौन परवाह करता है!) तो इसे महज संयोग माना जाए. फिर भी अगर कोई असंतुष्ट आत्मा मुझे लपेटे में लेना चाहे तो ब्लॉग जगत के प्रख्यात वकील दिनेश राय द्विवेदी जी से बात हो चुकी है. उनकी फीस उड़नतस्तरी जी फायनेंस कर रहे हैं सौदा द्विवेदी जी की हर पोस्ट (अच्छी हो बुरी) पर कम से कम बीस टिप्पणियों का हुआ है.... और गाली-गलौज करने से पहले ज्ञानदत्त पांडे जी की मुखमुद्रा उनके ब्लॉग पर जाकर अवश्य देख लें.'

मेरी नई ग़ज़ल

 प्यारे दोस्तो, बुजुर्ग कह गए हैं कि हमेशा ग़ुस्से और आक्रोश में भरे रहना सेहत के लिए ठीक नहीं होता। इसीलिए आज पेश कर रहा हूं अपनी एक रोमांटि...