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मंगलवार, 3 जून 2008

पढ़िये लीलाधर जगूड़ी की 'पुरुषोत्तम की जनानी'


हमारे समय के बहुत बड़े कवि लीलाधर जगूड़ी की यह कविता मैं चाहता हूँ कि ब्लॉगर साथी पढ़ें. 'पहल' के हालिया अंक में छपी यह कविता आजकल चर्चा में है.

जगूड़ी जी से इस कविता को लेकर फोन पर मेरी बात हुई. उन्होंने कहा- "पेड़ तटस्थ समाज का प्रतीक न समझा जाए बल्कि विवश मनुष्यता का साक्ष्य प्रस्तुत करने वाला या आंखों देखा हाल बयान करने वाला एक संवाददाता मात्र भी पेड़ वहाँ नहीं है बल्कि पेड़ एक बहुत बड़े अपराध-बोध से ग्रस्त दिखलाई देता है और वह पुरुषोत्तम की जनानी की आत्महत्या वाले अपराध की जैसे समीक्षा कर रहा हो. यह मरने वाले की और जीने वाले पेड़ की ग्लानि से उत्पन्न कथानक है."

मुझे लगता है कि यह कविता जैसी न लगने वाली कविताई है. हिन्दी में यह नया फिनामिना है. यह बहुप्रचलित शिल्प को तोड़ती हुई कविता है. जगूड़ीजी की कविता का यह नया शिखर है जो अनुभव और अवस्था के साथ माउन्ट एवरेस्ट होता चला जा रहा है. महाकवि पाब्लो नेरूदा की कविताओं में जिस तरह पेड़ आते हैं जगूड़ी जी की कविता में भी पेड़ तरह-तरह से आते हैं और हर बार वे एक नए मनुष्य की भूमिका निभाते दिखते हैं.

जगूड़ी जी चंद कवितायें पिछले दिनों कबाड़खाना में साथी अशोक पांडे ने पढ़वाई थीं. अब पढ़िये यह कविता-

पुरुषोत्तम की जनानी

एक पेड़ को छोड़कर फ़िलहाल और कोई ज़िंदगी मुझे
याद नहीं आ रही
जो जिस समय डरी हो और उसी समय मरी न हो

जिसने मरने का पूरा उपाय रचे जाते देखा हो
और न जी पाने वालों के बाद भी ज़िंदा रहना और बढ़ना न छोड़ा हो
जो न कह पाते हुए भी न भूल पाने का हवाला देकर
फांसी के फंदे की याद दिला देता हो

भले ही ऐसे और जो ऐसे नहीं हैं वैसे पेड़ अंधेरे में भूत नज़र आते हों
पर वे रातों को घरों में
खिड़कियों के सींखचे पार करके आ पहुँचते हैं
और घर की सब चीज़ों को छूकर
नाक से फेफड़ों में चले जाते हैं
और बालों, नाखूनों तक से वापस होकर
रोशनदानों से बाहर निकलकर फिर सींखचों से अन्दर चले आते हैं

वैसे वे पेड़ अंधेरे में भूतों-से और उजाले में देवदूतों-से नज़र आते हैं
कि जैसे अलग-अलग किस्म का दरबार लगाए हुए हों
कुछ उत्पादन का, कुछ व्यक्तित्व की छाया का
कुछ अपने छोटेपन का, कुछ अपनी ऊँचाइयों का दरबार...

पर जो पेड़ खेत किनारे पगडंडी से थोड़ा ऊँचाई पर दिखते हैं
जैसे जन्म से ही सिंहासनारूढ़ हों
भले ही कुछ तो सिपाहियों जैसे दिखते हैं
पर एक जो सयाना-सा बीच में कुछ ज़्यादा उचका हुआ नेता-सा दिखता है
उससे पता नहीं पुरुषोत्तम की जनानी ने
कब क्या और कैसे कोई आश्वासन ले लिया कि बेचारी ने वह योजना
बना डाली
सारे विकल्प बेकार हो जाने पर जिसका नम्बर आता है

पुरुषोत्तम की जनानी द्वारा आत्महत्या के अनजाने कारणों वाली रात से
वह नेताओं वाली शैली में नहीं बल्कि पेड़ वाली खानदानी शैली में
लाश के साथ टूटने की हद तक झुका रहा काफी दिन
जैसे मनुष्य मूल्यों के अनुसार अटूट सहारा देना चाह रहा हो
जो मनुष्य होकर पुरुषोत्तम नहीं दे सका अपनी जनानी को

बकौल लोगों के इस जनानी में धीरज न था
और पेड़ की चुप्पी कहती है कि उसमें उतना वज़न न था
कि टहनी फटकर टूट जाती या इतना झुक जाती
कि मरने से पहले ही वह ज़मीन छू लेती और बच जाती

मकानों में जो घर होते हैं और घरों में जो लोग रहते हैं
और लोगों में जो दिल होते हैं और दिलों में जो रिश्ते होते हैं
और रिश्तों में जो दर्द होते हैं
और दर्द में जो करुणा और साहस रहते हैं
और उनसे मनुष्य होने के जो दुस्साहस पैदा होते हैं
वे सब मिलकर इस टीले वाले पेड़ तक आए थे रात
पुरुषोत्तम की अकेली जनानी का साथ निभाने या उसका साथ छोड़ने
एक व्यक्ति के निजी कर्त्तव्य और दुखी निर्णयों ने भी
अन्तिम क्षण कितनी पीड़ा से उसका साथ छोड़ा था यहाँ पर,
चरमराया पेड़ मारे घबराहट के कभी बता न सकेगा

पूरे इलाके में छह महीने से एक मनुष्य की मृत्यु टँगी हुई है
उस पेड़ पर
जो कैसे और क्यों ज़िंदा रहने पर पछताया हुआ दिख रहा है
मजबूत समझकर पुरुषोत्तम की जनानी ने उस पर फंदा डाला होगा
जो पहली बार डरा होगा उसकी कमज़ोरी और अपनी मजबूती से
कई दिन तक रोज़ जुटने वाली भीड़ के बावजूद उसकी निस्तब्धता तो
यही बताती थी

अब इस पेड़ के सिवा पुरुषोत्तम की जनानी की ज़िंदगी के बारे में
कोई दूसरी ज़िंदगी मुझे फ़िलहाल याद नहीं आती
जो किसी के सामने जिस समय डरी हो और उसी समय मरी न हो...

बाकायदा फंदा डालते हुए उसने
कुछ तो और समय मरने की तैयारी में लगाया होगा
पहले बिल्ली की तरह चिपककर, तने पर वहाँ तक पहुँची होगी
जहाँ से पेड़ चौराहे की तरह कई शाखाओं में बँट गया है
फिर कमर से रस्सी खोलने के बाद टहनी पर फंदा बनाया होगा
तब एक छोर गले में बाँध कर कूदने का इरादा किया होगा
तब सुनिश्चित होकर अनिश्चित में छलाँग लगाई होगी
मरने से पहले कुछ देर पहले वह जीवित झूली होगी

उसकी कोई झिझकी या ठिठकी मुद्रा बची रह गयी हो
तो पेड़ की अंधेरी जड़ों में होगी
आसमान में कहीं कुछ अंकित नहीं है

पता नहीं पेड़ और पुरुषोत्तम की जनानी में जीने के बदले
मरने का यह रिश्ता कैसे बना?
जिस पर मरने वाले के बजाय जीने वाला पेड़ होकर भी शर्मिन्दा है
इसी शर्मिन्दगी में से पैदा होने हैं इस साल के फूल-फल और पत्ते
पर इस देश में वसंत पर शर्मिन्दगी का संवाद सुनने-पढ़ने की परम्परा नहीं है.

(jagoodi ji ka photo: ashok pande ka blog 'kabadkhana' se sabhaar)

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