शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

स्मृति शेष: हिन्दी का क्रान्तिधर्मी कवि वेणु गोपाल

कागज़नगर में हम तीनों रोज़ ही शाम को मिलते. लेकिन रविवारों को हम सारा दिन साथ रहते. वेणु और तेज को एक कमरे का छोटा-सा मकान स्कूल की ओर से मिला हुआ था. वेणु मुझे रविवार को ख़ास आमंत्रित करता-- 'सुबह दस-ग्यारह बजे आ जाना'. मैं पहुंचता. मैं और वेणु गप्पों में लगते, तेज खाना पकाने में जुटता. गप्पों में कविता होती, कवि-यार-दोस्त होते. पुरानी फिल्मों के गीत होते. मैं गाता और वेणु एक घड़े को उलटा करके बजाता. वेणु बिलकुल भी सुरीला नहीं था, लेकिन जी खोलकर गाता. मुझसे वह मन्नाडे का गाया 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई' बार-बार सुनता. कुछ ख़ास बांगला रवीन्द्र-संगीत भी सुनता. ख़ासकर- 'हे नूतोन, देखा दिक आर बार जीबोनेर प्रथम शुभो क्षण.'

(क्रान्तिधर्मी कवि वेणु गोपाल को बेहद आत्मीयता से याद कर रहे हैं प्रसिद्ध कवि और प्रतिष्ठित मंच-संचालक आलोक भट्टाचार्य, जो वेणु गोपाल के साथ बरसों रहे हैं)

मेरे एक छोटे भाई और तीन छोटी बहनों का वह शिक्षक था- हिन्दी पढ़ाता था उन्हें. मेरा सहकर्मी था. मेरा प्यारा दोस्त था वह, जिसका मैं सम्मान करता था. 'था' लिखते-कहते हुए दुःख हो रहा है कि मेरा प्यार और सम्मान पाने के लिए अब वह नहीं रहा, जब तक मैं ज़िंदा हूँ, और सिर्फ मेरा ही क्यों, और सिर्फ हिन्दी जगत ही क्यों, समूचे साहित्य जगत का प्यार और सम्मान वह पाता रहेगा, जब तक भाषा ज़िंदा रहेगी और ज़िंदा रहेंगे बोलनेवाले, पढ़नेवाले, लिखनेवाले. वह था वेणुगोपाल- हिन्दी का क्रान्तिधर्मी कवि. हिन्दी कविता से प्यार करनेवाले लोग जिसे इस तरह गिनते हैं- कबीर- निराला- मुक्तिबोध- नागार्जुन- राजकमल- धूमिल और फिर वेणुगोपाल और आलोक धन्वा.

सन् साठ के दौरान हिन्दी को लगभग एक ही साथ जिन कई प्रगतिशील-जनवादी कवियों ने वैचारिक तौर पर आंदोलित किया, कविता में दलित-शोषित-सर्वहाराजन के दर्द को पूरी सच्चाई के साथ कहने के लिए कविता का शिल्प ही बदल दिया, कविता को नयी भाषा देकर ज़्यादा तीव्र, ज़्यादा ताक़तवर बनाया, कविता को आम जनता के लिए राजनीति समझने का पाठ बनाया, उनमें राजकमल, धूमिल, आलोक धन्वा के साथ प्रमुख कवि थे वेणुगोपाल, जो १ सितम्बर २००८, सोमवार को रात १० बजकर २० मिनट पर तमाम जनवादी-प्रगतिशील विचारधारा से जुड़े लोगों और मजदूरों-किसानों सहित इस चालाक और क्रूर व्यवस्था के शिकार तमाम आम जनों को अपना अन्तिम 'लाल सलाम' कह गए. पीछे छोड़ गए अपनी अद्भुत ताकतवर रचनाएँ, जो कमज़ोर और सताए जा रहे लोगों को पूंजीवादी साजिशों के ख़िलाफ़ लड़ते रहने की प्रेरणा और साहस देती रहेंगी. संघर्ष का रास्ता सुझायेंगी.

वेणुगोपाल मुझसे लगभग दस साल बड़े थे, लेकिन मैं उन्हें वेणु ही कहता. हम लगभग ३७-३८ वर्षों पहले मिले, आंध्र प्रदेश के तेलंगाना स्थित एक छोटे-से शहर सिरपुर-कागज़नगर में. १९७१-७२ का ज़माना. मैं १९-२० साल का था. कवितायें करने लगा था. सिरपुर-कागजनगर में कविता के लिए उपादान तो बहुत थे, कविता समझने वाला कोई नहीं था. वहाँ बहुत गरीबी थी, अशिक्षा थी. बहुत शोषण था. नंगी वर्ग-विषमता थी. बिड़ला का विशाल कागज़-कारखाना था. बिड़ला ने कालोनी बना रखी थी. अफ़सरों के लिए शानदार बंगलों की अलग कालोनी, क्लर्कों-बाबुओं के लिए क्वार्टरों के अलग मोहल्ले और मजदूरों के लिए दड़बानुमा एक कमरे के मकानों के अलग मोहल्ले. मोहल्ले विभाजित थे, सो उच्च, मध्य और निम्न वर्ग बिलकुल अलग पहचाने जाते थे. शोषण का आलम यह था कि रोज़ मजदूरों को आठ घंटों की मजदूरी ढाई रुपये मिलती थी, मजदूरिनों को सवा रुपये! यानी महीने में साढ़े सैंतीस रुपये!

ऐसे माहौल में मैंने कविता लिखना शुरू किया. बांग्ला और हिन्दी में कविता करने वाला वहाँ सिर्फ मैं था. कविता सुनने वाला कोई नहीं था. तभी वहाँ वेणुगोपाल आए, तेजराजेन्द्र सिंह आए. हैदराबाद से. हैदराबाद कागज़नगर से पाँच-छः घंटे पर पड़ता है. छोटी-सी जगह. ढाई-तीन हज़ार की बस्ती. सो हम लोगों को मिलते देर नहीं लगी. वेणु और तेज दोनों बिड़ला द्वारा संचालित हाई स्कूल में अध्यापक बनाकर आए थे. वेणु हिन्दी पढ़ाते, तेज विज्ञान. दोनों को पाकर मैंने मानो प्राण पाये. मुझसे मिलकर हैदराबाद छोड़ आने की उनकी भी उदासी दूर हो गयी. रोज़ शाम को मिलते. साहित्यिक बातें होतीं. कभी मैं सुनाता, कभी वेणु. तेज की रूचि समीक्षा में थी.

पहले वेणु की कवितायें छपनी शुरू हुईं. 'लहर' में. फिर मेरी भी छपने लगीं. 'साम्य' में विजय गुप्त ने मुझे और वेणु को ख़ूब छापा. वेणु की उन दिनों की कवितायें उसके पहले संग्रह 'वे हाथ होते हैं' में संकलित हैं. ये वे कवितायें हैं, जिन्हें कागज़नगर के एक कवि-सम्मलेन में सुनाने के बाद वहाँ के कुछ व्यापारी मारवाड़ियों ने कहा था- 'मारवाड़ी होकर तुम ऐसी कवितायें लिखते हो? ये कवितायें हैं क्या?'

कागज़नगर के हमारे उन दिनों की यादें वेणु ने अभी पिछले दिनों हैदराबाद से निकलने वाली पत्रिका 'गोलकोंडा दर्पण' में धारावाहिक छप रहे अपने संस्मरण 'कविता के पड़ाव' में बहुत शिद्दत से लिखीं. लेकिन वेणु 'कविता के पड़ाव' पूरा नहीं कर पाया. बीमारी की वजह से उसका लिखना लगभग दस-ग्यारह महीनों पहले ही बंद हो गया. मैंने फ़ोन किया, तो उस पार से उसकी आवाज सुनकर मैं डर गया. कमज़ोर-कांपती-थरथराती महीन-सी आवाज. जबकि वेणु की आवाज भारी और स्पष्ट हुआ करती थी.गूंजनेवाली. उसकी आवाज का कमाल हम सबने तब ख़ास देखा था, जब कागज़नगर के अपने स्कूल 'बाल विद्या मन्दिर' के बच्चों के साथ उसने मोहन राकेश के 'आषाढ़ का एक दिन' का मंचन किया था. वेणु ने कालिदास की भूमिका की थी. मेरा छोटा भाई तुषार मातुल बना था और मेरी छोटी बहन प्रतिमा प्रियंगुमंजरी. वेणु ने 'कविता के पड़ाव' में इसका जिक्र करते हुए लिखा है- 'मंचन के दौरान कई गलतियाँ हुईं, लेकिन तुषार और प्रतिमा ने मंजे हुए कलाकारों की तरह सब सम्भाला.' (गोलकोंडा दर्पण, पृष्ठ २८, अंक अक्टूबर २००७.).

मैं १९८१ में मुंबई आ गया. इसके पहले, यानी काफी पहले सन् १९७४-७५ में ही वेणु की नौकरी छूट चुकी थी. वह हैदराबाद चला गया था. बाद में एक बार नागपुर के एक कार्यक्रम में उससे मुलाक़ात हुई, और आख़िरी मुलाक़ात डोम्बीवली (ठाणे, महाराष्ट्र) में तब हुई जब वह किसी फिल्मी लेखन के सिलसिले में मुम्बई आया. उसने मुझे फ़ोन किया तो मैंने उसे डोम्बीवली बुला लिया. हम मिले. मैंने अपना घर उसे दिखाया. बहुत ख़ुश हुआ वह मेरी पत्नी रूना से मिलकर. मेरा घर, मेरी पत्नी, मेरा बच्चा, मेरी किताबें देख कर वह बहुत ख़ुश हुआ. फिर शाम को हम 'रंगोली' में बैठे. उसने बीयर पी. पंचमावस्था में हमने तीस साल पहले के वही फिल्मी गाने फिर गाये, जो हम कागजनगर में वेणु के घर रविवारों की दोपहरों में गाते थे- 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई, 'कौन आया मेरे मन के द्वारे', 'लागी छूटे न अब तो सनम' और 'जीत ही लेंगे बाजी हम तुम'... तब वेणु घड़ा बजाता था, अब उसने टेबल बजाई.
वाकई वेणुगोपाल के लिए कविता करना बहुत कठिन था. वह मारवाड़ी था, ब्राह्मण, नन्दगोपाल शर्मा. पिता हैदराबाद के एक मन्दिर में पुजारी थे, वेतनभोगी. ख़ुद वेणु बिड़ला की नौकरी में. व्यवस्था के ख़िलाफ़ बेटे का एक शब्द बाप-बेटे दोनों की नौकरियाँ खा सकता था. बाद में वेणु की वह नौकरी गयी, कविता की वजह से नहीं, उसकी राजनीतिक गतिविधियों की वजह से.

फिर तीन साल के अंतराल के बाद हम 'गोलकोंडा दर्पण' के माध्यम से मिले. दोनों एक साथ छप रहे थे. हर अंक के बाद फ़ोन पर बातें होतीं. मैंने कहा- 'मुम्बई आओ.' तो बोला, 'डायबिटीज ने एक पाँव खा लिया. बीमार हूँ. नहीं आ सकता. तुम हैदराबाद आ जाओ.' मैं इस दशहरे यानी अक्टूबर २००८ को कागजनगर होते हुए हैदराबाद जाने की सोच रहा था कि २ सितम्बर २००८, मंगलवार की सुबह हैदराबाद से फ़ोन आ गया- 'वेणु नहीं रहे!.'

आठ महीने से वह कैंसर से पीड़ित था. इलाज चल रहा था. कई प्रांतीय सरकारों, ख़ासकर मध्यप्रदेश सरकार ने इलाज के लिए आर्थिक मदद दी, कई संस्थाओं ने भी, मैं समझ सकता हूँ, वेणु का स्वाभिमान न अपने बीमार-कमज़ोर हो जाने को ही मान पाता होगा, न ही सरकारों-संस्थाओं की मदद को, सो पैंसठ की अल्पायु में ही वह चल बसा.

दशहरे में जाऊंगा जरूर हैदराबाद, पुराना पुल स्थित उस शमशान में भी, जहाँ वेणु की राख पड़ी हुई है. बारह साल पहले जब हैदराबाद गया था तह वेणु, ओमप्रकाश निर्मल और शेषेन्द्र शर्मा ने मिलकर मेरे सम्मान में एक कवि-गोष्ठी की थी. आज ये तीनों नहीं हैं. मुझे जानने-पहचानने वाले वहाँ बहुत हैं, कवि-गोष्ठी करने वाले भी बहुत, लेकिन गोष्ठी में हिन्दी की श्रेष्ठ कविताओं का पाठ करने वाला वह वेणु अब नहीं मिलेगा. नहीं मिलेगा गोष्ठी में पढ़ी गयी किसी कठिन कविता को सरल भाषा में समझानेवाला वेणु...

-आलोक भट्टाचार्य
(संपर्क: ०९८६९६८०७९८ और ०९८२१४०००३१)

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ

'वेबदुनिया' से यह मसाला मैं ज्यों का त्यों उड़ा रहा हूँ. आप भी आनंद लीजिये. मुआफी चाहता हूँ कि कॉपी करते वक्त इसके संग्रहकर्ता का नाम कट गया. और अब बेहद ईमानदार कोशिश के बावजूद उनका नाम याद नहीं कर पा रहा हूँ. इरादा नेक है. और तबीयत दुरुस्त.

अब उन अनजाने दोस्त की लिखी भूमिका-

'हर शायर अपने हालात से मुतास्सिर होकर जब अपनी सोच और अपनी फ़िक्र को अल्फ़ाज़ का जामा पहनाता है तो वो तमाम हालात उसके कलाम में भी नुमायाँ होने लगते हैं। 1857 के इंक़िलाब के बाद जो हालात हिन्दुस्तान में रूनूमा हुए उनसे उस दौर का हर शायर मुतास्सिर हुआ। अकबर इलाहाबादी ने उन हालात का कुछ ज़्यादा ही असर लिया।

अपने मुल्क और अपनी तहज़ीब से उन्हें गहरा लगाव था। वो खुद अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे थे और अंग्रेज़ों की नौकरी भी करते थे। लेकिन इंग्लिश तहज़ीब को पसन्द नहीं करते थे। उन्हें ऐसा महसूस होने लगा था कि अंग्रेज़ धीरे-धीरे हमारी ज़ुबान हमारी तहज़ीब और हमारे मज़हबी रुझानात को गुम कर देना चाहते हैं।

इंग्लिश कल्चर की मुखालिफ़त का उन्होंने एक अनोखा तरीक़ा निकाला। मुखालिफ़त की सारी बातें उन्होंने ज़राफ़त के अन्दाज़ में कहीं। उनकी बातें बज़ाहिर हंसी-मज़ाक़ की बातें होती थीं लेकिन ग़ौर करने पर दिल-ओ-दमाग़ पर गहरी चोट भी करती थीं।'

क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत हैं मगर आराम के साथ

चार दिन की ज़िन्दगी है कोफ़्त से क्या फ़ाएदा
खा डबल रोटी, कलर्की कर, ख़ुशी से फूल जा

शौक़-ए-लैला-ए-सिविल सर्विस ने इस मजनून को
इतना दौड़ाया लंगोटी कर दिया पतलून को

अज़ीज़ान-ए-वतन को पहले ही से देता हूँ नोटिस
चुरट और चाय की आमद है, हुक़्क़ा पान जाता है

क़ाइम यही बूट और मोज़ा रखिए
दिल को मुशताक़-ए-मिस डिसोज़ा रखिए

रक़ीबों ने रपट लिखवाई है जा जा के थाने में
कि अकबर नाम लेता है ख़ुदा का इस ज़माने में

मज़हब ने पुकारा ऎ अकबर अल्लाह नहीं तो कुछ भी नहीं
यारों ने कहा ये क़ौल ग़लत, तन्खवाह नहीं तो कुछ भी नही

हम ऎसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं
कि जिनको पढ़ के बेटे बाप को खब्ती समझते हैं

शेख जी घर से न निकले और मुझसे कह दिया
आप बी.ए. पास हैं तो बन्दा बी.बी. पास है

तहज़ीब-ए-मग़रबी में है बोसा तलक मुआफ़
इससे आगे बढ़े तो शरारत की बात है

ज़माना कह रहा है सब से फिर जा
न मस्जिद जा, न मन्दिर जा, न गिरजा

अंग्रेज़ों के खिलाफ़ लड़ाई लड़ने का ये भी एक तरीक़ा था। ये तो वो कलाम है जो छप कर अवाम के सामने आया। अकबर के कलाम का एक बड़ा ज़खीरा एसा भी है जो शाए नहीं हुआ है। शाए न होने की एक अहम वजह उसका सख्त होना भी है।

पका लें पीस कर दो रोटियाँ थोड़े से जौ लाना
हमारा क्या है ए भाई, न मिस्टर हैं न मौलाना


ग़ज़ल : अकबर इलाहाबादी

उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
निकलती हैं दुआऎं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर

तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी-मियाँ होकर

न थी मुतलक़ तवक्को बिल बनाकर पेश कर दोगे
मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ होकर

हक़ीक़त में मैं एक बुल्बुल हूँ मगर चारे की ख्वाहिश में
बना हूँ मिम्बर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर

निकला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनू है
सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर.



उम्मीद है उस पेशकर्ता की पेशकश आपको पसंद आयी होगी. शुक्रिया!

मेरी नई ग़ज़ल

 प्यारे दोस्तो, बुजुर्ग कह गए हैं कि हमेशा ग़ुस्से और आक्रोश में भरे रहना सेहत के लिए ठीक नहीं होता। इसीलिए आज पेश कर रहा हूं अपनी एक रोमांटि...