शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2019

ट्रैफिक कानून संशोधित- क्या अब भारतीय सड़कों पर सचमुच रामराज उतरेगा?


बात हल्के-फुल्के अंदाज में शुरू की जाए तो ऐसा लगता है कि जैसे देश में मोटर वाहन (संशोधन) विधेयक 2019 को तेलुगु सुपरस्टार महेश बाबू की फिल्म 'भारत अने नेनु' का वह सीन देख कर लागू किया गया है, जिसमें नायक मुख्यमंत्री की भूमिका में है और अधिकारियों को ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन करने वालों पर कई गुना ज्यादा जुर्माना ठोकने का आदेश दे रहा है. यह बात और है कि नए निमय लागू होने के पहले दिन से ही देश भर में वाहन चालक ट्रैफिक पुलिस के सामने ‘तू डाल-डाल मैं पात-पात’ वाली तरकीबें आजमाने को मजबूर हैं और उनके फिल्मों से भी मजेदार कॉमेडी सीन सोशल मीडिया पर देखने को मिल रहे हैं.
सड़क परिवहन को लेकर भारतीय समाज में इतनी कहावतें, लोकोक्तियां और मिथक प्रचलित हैं कि लगता है जैसे ट्रैफिक के नियम तोड़ना कोई शानदार कारनामा हो. रांग साइड में वाहन घुसेड़ना, छोटे-से वाहन में पूरा मोहल्ला लेकर चलना, नो पार्किंग जोन में वाहन पार्क करना, स्कूलों-अस्पतालों के दरवाजे पर जोर-जोर से हॉर्न बजाना, सिग्नल तोड़ कर आगे बढ़ जाना, जेब्रा क्रॉसिंग पर वाहन बढ़ा लेना गर्व की बात समझी जाती है. हमारे विंध्य क्षेत्र (एमपी) में तो बच्चे-बच्चे की जबान पर चढ़ा हुआ है- ‘पकड़ के हैंडल, तोड़ के सिग्नल, मार के पैडल, जांय दे कक्का सांय-सांय!’ पंजाब के किसी भी ड्रायवर से पूछिए, वह बताएगा कि सड़क पर ‘मत्स्य न्याय’ होता है और ‘जंगल का कानून’ चलता है!


जिस वाहन में जितने ज्यादा पहिए होते हैं, उसका उतना बड़ा रुतबा होता है. बारह चका वाला मालवाहक ट्रक उखड़ी हुई सड़क पर भी खुद को व्हेल मछली और दोपहिया वाहन को झींगा मछली मान कर चलता है. ट्रैफिक वाले कितने भी बड़े बोर्ड लगाएं कि ‘दुर्घटना से देर भली’, लेकिन वाहनवीरों के बीच यह मान्यता पुख्ता हो चुकी है कि सड़क दुर्घटनाएं अपनी लापरवाही से नहीं बल्कि दूसरों की असावधानियों के चलते ही होती हैं. यातायात के नियम तोड़ने वालों के पास ट्रैफिक वालों को गच्चा देकर पतली गली से निकलने, नाकाबंदी करने वालों पर पद या पैसों का रौब झाड़ने, किसी रिश्तेदार मंत्री या अधिकारी का नाम उछाल कर साफ बच निकलने की ऐसी-ऐसी वीरगाथाएं होती हैं कि उनके सामने पृथ्वीराज रासो लिखने वाले महाकवि चंदबरदाई भी पानी भरें! भले ही उनके पास हेलमेट, ड्रायविंग लाइसेंस, रजिस्ट्रेशन, टैक्स, बीमा और वाहन के एक भी कागजात न पाए जाते हों!


राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा संशोधित विधेयक को मंजूरी मिलने के बाद 1 सितंबर, 2019 से प्रभावी नियमों के अंतर्गत जुर्माना राशि 30 गुना तक बढ़ा दी गई है और चालक अथवा वाहन स्वामी को सलाखों के पीछे भेजने के साथ-साथ उनके लाइसेंस निरस्त करने के भी प्रावधान हैं. और तो और, यदि किसी नाबालिग से वाहन चलाते समय कोई दुर्घटना हो जाती है तो उसके माता-पिता या अभिभावक को 3 साल तक की जेल काटनी पड़ेगी. सभी नियम और जुर्माना विस्तार से देखने के लिए कृपया यह लिंक क्लिक करें - https://sarkaricourse.com/motor-vehicle-act-2019/


लेकिन ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि 'पइसा कै टोरबा, टका मुड़उनी’ (एक पैसे का बच्चा और उसके मुंडन का खर्च एक रुपया) वाली कहावत सिद्ध होने लगे. कहीं ऐसा न हो कि कर्ज की ईएमआई चुका कर वाहन खरीदने वालों को जुर्माना भरने के लिए नया कर्ज लेना पड़ जाए! हालांकि लिंक देखने पर यही आभास होता है कि पुराने अधिनियम को वाहन चालकों की भलाई के लिए ही संशोधित किया गया है. संशोधित एक्ट के प्रावधानों में यह व्यवस्था है कि हर दुर्घटना की साइंटिफिक जांच होगी और कारणों की तह तक जाकर दुर्घटना की हर वजह दूर की जाएगी, ड्राइविंग लाइसेंस जारी करने के पहले ऑनलाइन टेस्ट होगा, जिससे रिश्वत देकर लाइसेंस हथियाने वाले अनाड़ियों की छंटनी हो जाएगी, अगर सड़क की डिजाइनिंग में खराबी है या सड़क के टूटा-फूटा होने की वजह से कोई एक्सीडेंट हुआ है तो उसके लिए संबंधित विभाग के इंजीनियर और ठेकेदार भी जिम्मेदार माने और धरे जाएंगे, किसी घायल को अस्पताल पहुंचाने वाले मददगार व्यक्ति को कानून के पचड़ों से घायल नहीं होने दिया जाएगा.


इसके उलट चर्चा यह गर्म है कि नोटबंदी और जीएसटी आदि के चलते अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान की भरपाई के लिए सरकार ने नया वसूली अभियान चलाया है. इस पर केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी का कहना है कि पैसे से ज्यादा कीमत लोगों की जान की है और जुर्माने में भारी वृद्धि का फैसला कानून का पालन अनिवार्य बनाने के लिए किया गया है, सरकारी खजाना भरने के मकसद से नहीं. लेकिन भारी जुर्माने की मार झेल रहे लोग बेहद आक्रोश में हैं. एक शख्स ने ट्विटर पर लिख मारा कि नए एक्ट में सिर्फ फांसी की सजा का प्रावधान ही नहीं है, बाकी सब सजाएं हैं. एक साहब ने कुछ इस तरह से खुन्नस निकाली- ‘जिस तरह सरकार बिना हेलमेट के या ज्यादा सवारी बिठाने पर जुर्माना ठोक रही है, क्या हम भी उसी तरह टूटी हुई सड़क, बंद पड़े सिग्नल, किसी चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस वाला न होने या ट्रैफिक जाम की स्थिति में सरकार पर जुर्माना ठोक सकते हैं?’ हद तो यह है कि अगर बीच सड़क पर गाय या भैंस विराजमान हैं तो इसका जिम्मेदार भी ट्रैफिक पुलिस को ही माना जा रहा है!


लोगों को समझना चाहिए कि ट्रैफिक नियमों का अनुपालन इसलिए भी जरूरी है कि हमारे देश में आतंकवाद के कारण कम और सड़क हादसों में उससे कई गुना लोग मारे जाते हैं. तथ्य है कि सड़क दुर्घटनाओं में हर साल करीब डेढ़ लाख लोगों की जान चली जाती है और साढ़े चार लाख से ज्यादा लोग घायल होते हैं. मरने वालों में 60 फीसदी लोग 18 से 35 की चरम उत्पादक आयुवर्ग के होते हैं. प्रापर्टी के नुकसान का आकलन किया जाए तो वह देश की जीडीपी के दो फीसदी के बराबर बैठता है. बड़े-बड़े मंत्री-संत्री, वैज्ञानिक-खिलाड़ी और कवि-कलाकार भीषण सड़क दुर्घटनाओं में जान गवां चुके हैं. इसी बिंदु पर प्रतिप्रश्न उठता है कि आम लोगों के लिए यातायात के नियम तो सख्त बना दिए गए हैं लेकिन क्या सरकार व प्रशासन की गलतियों और लापरवाहियों तथा भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे ट्रैफिक कर्मचारियों की वजह से जनता को होने वाले नुकसान, दुर्घटनाओं, यहां तक कि लोगों की मौत के लिए किसी को सजा या जुर्माना होगा कि नहीं?


सरकार सिर्फ कानून बना कर बरी नहीं हो जाती. अगर वह लोगों से नए ट्रैफिक नियमों का अक्षरशः पालन करने की अपेक्षा करती है तो लोग भी अपेक्षा करते हैं कि संशोधित एक्ट के सभी जनहितैषी प्रावधानों पर सरकार की तरफ से अक्षरशः अमल किया जाए. विडंबना यह है कि जुर्माना वसूली तो तत्काल चालू हो गई, लेकिन संशोधित कानून में उल्लिखित बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर का कोई अता-पता नहीं है. हाईवे की यह वनवे कार्रवाई लोगों को आखिर कब तक और किस हद तक पचेगी? यातायात के नियम तोड़ने वालों के प्रति हमारी कोई सहानुभूति नहीं है लेकिन सरकार को भी चाहिए कि वह सड़कों को गड्ढामुक्त करे, मेनहोल बंद करे, जाम की समस्या से निजात दिलाए, सांड, गाय, भैंस, सुअर, घोड़े, कुत्ते, गधे तथा नीलगाय जैसे आवारा पशुओं के सड़क पर खुलेआम घूमने और बैठने को रोके, सड़कों का चौतरफा अतिक्रमण हटाए, सिग्नल चाक-चौबंद करे, पुलों और सड़कों पर रोशनी की व्यवस्था करे तभी तो यह भारी जुर्माना और सजा तर्कसंगत व न्यायसंगत लगेगी.


हमारी सरकार मानती है कि सख्त सजा का डर ही लोगों को अपराध करने से रोक सकता है. नए ट्रैफिक नियमों की खासियत यही है कि वे बेहद सख्त हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि नए नियम जनता की मुट्ठी गरम करने की लत और सरकारी अमले की ऊपरी कमाई की हवस का शिकार नहीं होंगे. पूरा ट्रांसपोर्ट और ट्रैफिक सिस्टम आने वाले सालों में पटरी पर आ जाएगा और यातायात को लेकर लोगों में इतना आत्म अनुशासन पैदा हो जाएगा कि जुर्माना और सजा की नौबत ही नहीं आएगी. अगर इतना हो गया तो भारतीय सड़कों पर रामराज्य आने से कोई नहीं रोक सकता!

जरा-सी भी बाढ़ क्यों बर्दाश्त नहीं कर पाते हमारे शहर?


मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद, अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली... कोई महानगर नहीं बचा है, जिसने पिछले एक दशक के दौरान जलप्रलय न भोगा हो! हाल की कुछ तबाहियों को याद करें तो साल 2000 में हैदराबाद के हुसैन सागर के पास बनी कई झोपड़पट्टियां बाढ़ में बह गई थीं. पेड़ उखड़ कर बीच सड़क पर पड़े थे और शहर की रफ्तार ठप पड़ गई थी. सूरत में 2006 की बाढ़ ने 200 से ज्यादा लोगों और सैकड़ों पशुओं की जान ले ली थी. राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान 2010 में दिल्ली तिब्बती बाजार से लेकर खेल गांव तक पानी-पानी हो गई थी. लेकिन 26 जुलाई 2005 को मुंबई में आई बाढ़ सबसे विकराल थी. इसमें यह विराट महानगर लगभग आधा डूब गया था, सभी बुनियादी सेवाएं गायब थीं और जान-माल के नुकसान की तो कोई इंतहा नहीं थी. अधिक वर्षा, समुद्री किनारा और बाबा आदम के जमाने का ड्रेनेज सिस्टम मुंबई और चेन्नई का लगभग हर दूसरे साल गला घोंट देता है. इन दिनों बिहार की राजधानी पटना में जलप्रलय का मंजर है.


कोई ऐसा मानसून नहीं गुजरता जो देश के किसी न किसी नगर अथवा महानगर में तबाही न मचाता हो. हर कोई जानता है कि अगले मानसून में क्या होने जा रहा है. लेकिन जैसे ही जिंदगी पटरी पर लौटती है, शहर के लोग और स्थानीय प्रशासन उस तबाही को ऐसे भूल जाते हैं, जैसे कि वह प्राचीन ग्रंथों में वर्णित कोई किस्सा हो! हर बार ड्रेनेज, नालियों की साफ-सफाई और बाढ़ से निबटने के लिए आपदा-प्रबंधन का पहले से ज्यादा बजट बनता है और स्वाहा हो जाता है. हर बार मानसून से ठीक पहले नालियों और ड्रेनेज का कचरा निकालकर उसी के बगल में छोड़ दिया जाता है और बरसात होने पर उसी में समा जाता है. हर बार मंत्री-संत्री इंद्रदेव का अचानक कोप हो जाने का रोना रोते हैं, जो उस शहर के बाशिंदों और देश की आंखों में धूल झोंकने से ज्यादा कुछ नहीं है.


भारतीय मायथालॉजी में कहा गया है कि जब किसी नगर की रचना दोषपूर्ण हो जाती थी तो भगवान इंद्र अपना पुरंदर रूप धारण करके उस नगर को नष्ट कर देते थे. अधिकारियों को इस कथा से सबक हासिल करना चाहिए क्योंकि नगर की संरचना को दोषमुक्त बनाए रखना और बेहतर जल-निकासी की योजनाएं बनाना उनके हाथ में ही होता है. अल्पावधि में अत्यधिक वर्षा को शहर डुबाने का जिम्मेदार ठहराने का सीधा मतलब भू-माफिया, राजनीतिज्ञों, बिल्डरों, पूंजीपतियों के गठजोड़ को पाप की भागीदारी से मुक्त करना है, जो आधुनिक नगर-संरचनाओं को विकृत करने में वर्षों से जुटे हुए हैं. यह गठजोड़ शहरों के बीच की खुली जगहों को नगर-प्रशासन के नियंत्रण से मुक्त करवाता है, उन पर अवैध कब्जा होने देता है, समुद्र और बड़ी नदियों के किनारे की दलदली भूमि और मैंग्रोव्स कटवाता-पटवाता है, व्यावसायिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए वहां गगनचुम्बी इमारतें, मल्टीप्लेक्स और शॉपिंग कॉम्प्लेक्स वगैरह खड़े करवा देता है.


इसका सीधा असर यह हुआ है कि वर्षा का जो जल खुली जगहों की जमीन से होता हुआ भू-गर्भ में संचित हो जाता था, या बाढ़ का जो अतिरिक्त पानी नदी-नालों से होता हुआ सागरों तक पहुंच जाता था, उसके रास्ते अवरुद्ध हो गए हैं. हम देख रहे हैं कि प्राचीन नगर-संरचनाओं की बुनियाद पर खड़े कोलकाता और पटना जैसे कई आधुनिक शहर भी चोक हो चुके हैं. शहरों के भीतर मौजूद छोटी-मोटी जलधाराएं, नदियां, कुदरती नाले, कुएं, तालाब, जोहड़, बावड़ियों जैसी संरचनाएं भी जल-संचयन, बाढ़ को नियंत्रित करने अथवा अतिरिक्त जल की प्राकृतिक-निवृत्ति में बड़ी सहायक होती थीं. लेकिन अब इन समतल की जा चुकी जगहों को राजनेता और बिल्डर प्राइम लोकेशन बताकर ऊंचे दामों पर बेचते हैं और पीने का पानी गंगा (दिल्ली में), कृष्णा (हैदराबाद में), कावेरी (बैंगलुरु में) जैसी दूर-दराज की नदियों से लाया जाता है!


मुंबई के अंदर मीठी और ओशिवरा समेत 7 नदियां थीं जो नेशनल पार्क से निकलकर विभिन्न खाड़ियों में जा गिरती थीं. वर्षा जल का दबाव कम करने में इनकी बड़ी भूमिका थी. लेकिन रासायनिक और औद्योगिक कचरे, इमारतों के मलबे, प्लास्टिक और तरह-तरह के भंगार से पटी ये नदियां बाढ़ का पानी सड़कों पर उड़ेल कर बीच में ही लुप्त हो जाती हैं. मुंबई का ड्रेनेज सिस्टम 21 सदी की शुरुआत में तब की विरल बसाहट के हिसाब से यह सोच कर डिजाइन किया गया था कि अगर प्रतिघंटे अधिकतम 25 मिलीमीटर वर्षा हुई तो आधा पानी मिट्टी में जज्ब हो जाएगा. लेकिन आज वर्षा का अवरुद्ध पानी रेल की पटरियों को नदियां बना देता है.


दिल्ली की बात करें तो आज जहां व्यस्ततम आईटीओ रोड है वहां से एक नाला बहा करता था और बाढ़ का पानी यमुना में ले जाता था. लेकिन आज पहली बारिश में ही यह इलाका जलमग्न होता है. रिंग रोड बनाते समय दिल्ली के स्लोप को ध्यान में नहीं रखा गया, न ही इस बात का इंतजाम किया गया कि वर्षा का अतिरिक्त जल किधर से कहां जाएगा. राजधानी के जितने भी बस स्टैंड हैं, लगभग सबके सब जल-एकत्रित होने की जगहों को पाट कर बनाए गए हैं. कभी दिल्ली में नजफगढ़ झील, डाबर इलाके और यमुना पार समेत लगभग 800 जगहों पर स्थायी तौर पर पानी संग्रहीत रहता था, आज इनमें से अधिकांश जल-स्रोत गायब हैं और वहां कब्जा या निर्माण हो चुका है.


स्वभावतः पानी अपना रास्ता स्वयं खोज और बना लेता है. कोसी नदी का हर साल मानवनिर्मित तटबंध तोड़ कर रास्ते बदल लेना इसका जीवंत उदाहरण है. लेकिन पटना के बीच नागरिकों द्वारा की गई अवैध घेराबंदी को तोड़ कर वर्षा का जल आखिर कहां जाए, क्या करे! मजबूर होकर वह हहराता हुआ आपके-हमारे ड्राइंग रूम में घुसता चला आता है. इस स्थिति से बचने के लिए, शहर में जब कोई निजी मकान या बहुमंजिला इमारत बनाता है तो उसे उस प्लॉट और प्रभावित क्षेत्र द्वारा जज्ब किए जाने वाले वर्षा जल का विकल्प तैयार करना चाहिए, वरना वह आस-पास के इलाके में संचित होकर बाढ़ ला देगा. इमारत के आस-पास पार्किंग और फुटपाथ पर कंक्रीट व अस्फाल्ट के बजाए पत्थर बिछाना, वृक्षारोपण और प्राकृतिक ड्रेनेज के अनुसार ही सड़कें बनाना समझदारी का काम है. इसके लिए हम पाटिलपुत्र की नगर-रचना की ओर देख सकते हैं. कहते हैं कि जब महाराजा अजातशत्रु वैशाली के वज्जि गणसंघ को जीतने के लिए पाटलिपुत्र किले के निर्माण हेतु गंगा की तटबंदी करा रहे थे, तब गौतम बुद्ध वहां का पधारे थे और शहर को आशीर्वाद देते हुए आगाह किया था कि किसी नगर के ह्रास के कारण होते हैं- आग, पानी, और शहरवासियों में कलह. अजातशत्रु और बाद के मगध-शासकों ने इस बात का ध्यान रखा था लेकिन आज का शासक-वर्ग उस शिक्षा को भूल चुका है. कलिकाता गांव आज विशाल कोलकाता में तब्दील हो चुका है लेकिन जलनिकासी हुगली नदी के रहमोकरम पर ही है.


बाढ़ में फंसे असहाय लोगों और निरीह पशु-पक्षियों की तस्वीरें और कहानियां हम सबने देखी-सुनी हैं. सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का जुहू (मुंबई) स्थित घर जल-प्लावित होते देखा है. पटनावासी बिहार के उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी को परिवार सहित सड़क पर खड़ा देख चुके हैं. लेकिन हम लोग अब भी यह नहीं समझ रहे हैं कि बादल जितना भी पानी बरसाते हैं, वह भू-जल बनने के लिए होता है, बाढ़ लाने के लिए नहीं. उसे बाढ़ के रूप में हम और आप बदलते हैं, क्योंकि बेकार में बही एक-एक बूंद बाढ़ लाने में योगदान करती है. हमारे शहर वर्षा के अतिरिक्त जल को क्यों बर्दाश्त नहीं कर पाते, इसे समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है. पर्याप्त जल-संचयन, उचित जल-संरक्षण और सटीक जल-प्रबंधन करने की प्राचीन-कला सीख कर आज भी हम बाढ़ की विभीषिका से निबट सकते हैं. लेकिन जनता के पैसे से बनी हर योजना में से अपना हिस्सा निकाल लेने और आग लगने पर ही कुआं खोदने की हमारी आदत जाती नहीं है!


-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
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