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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

क्यों है ग़ालिब का अंदाज़-ए-बयाँ और?

किसी ने आपसे ये कहा है क्या कि रोग़न किया कीजिये? ये तो शौक की बात है कि आप रोग़न करेंगे या सिर्फ रंग भरके रह जायेंगे... या रंग-रोग़न कोई रोग है?

लोग कहते आये हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और. ये तस्लीम भी किया गया है.
लेकिन ग़ालिब ख़ुद यह क्यों कहता है कि उसका है अंदाज़-ए-बयाँ और. ..और दीगर क्यों तसलीम करते हैं.

दरअसल ग़ालिब को समझ और समझा पाना वैसे ही कठिन है जैसे कि कबीर को समझ और समझा पाना. दोनों बड़े कवि हैं. दुनियावी मुहावरों में बात की जाये तो महाकवि. मुझे चेतना के स्तर पर यह समझ में नहीं आता कि कवि और महाकवि क्या होता है. बात कहने की होती है कि कोई किसी फ़िक्र को किस अंदाज़ में कितने कमाल से कह पाता है... और अगर कहने का कमाल न हो तो फ़िक्र कितना टटका और टोटका होती है. बस.

चलिए देखते हैं कि ग़ालिब का अंदाज़-ए-बयाँ और किस तरह और क्योंकर है.

ग़ालिब से पहले ये अंदाज़ नहीं था किसी के पास; ख़ुदा-ए-सुख़न मीर के पास भी नहीं कि वह अमल को दर रदद्-ए-अमल की तरह निभा सकता. मीर बड़ी से बड़ी बात सहल अंदाज़ में कह सकता था लेकिन ग़ालिब शेर में जीवन का काम्प्लेक्स लाया. उसने यह तरीका अपनाया कि जो रद्द-ए-अमल है दरअसल अमल हो जाए. ग़ालिब ने चीज़ों को जटिल होते हुए देखा.

आप ग़ालिब के चंद अश'आर देखिएगा. उसका एक मशहूर शेर है-

ये लाश बेकफ़न असद-ए-ख़स्ता जाँ की है
हक मगफिरत करे अज़ब आज़ाद मर्द था

और शेर सुनिए-

रंज से खूगर हुआ इंशां तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गयीं

फिर एक और शेर-

उनके देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक
वह समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

आशिक हूँ प माशूक फरेबी है मिरा काम
मजनूं को बुरा कहती है लैला मिरे आगे

गिनाने को तो बहुत शेर हैं गालिब के, जो उसके अंदाज़-ए-बयाँ की तारीख़ खुद लिखते हैं. लेकिन आप सब शोहरा को एक और सवाल में गाफ़िल किए जाता हूँ कि ग़ालिब का यह शेर पढ़िए और बताइये कि किस तारीखी शायर ने ये ख़याल अपने बेहद मक़बूल शेर में इस्तेमाल किया है. गालिब का शेर ये रहा-

खूँ होके जिगर आँख से टपका नहीं अय मर्ग
रहने दे मुझे याँ कि अभी काम बहुत है.

आखिर में इस नाचीज़ की एक बात-

आप मुझसे ज़ियादा पढ़े-लिक्खे अफ़राद हैं.
और यह बेवजह किया गया मज़ाक नहीं है.

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