शनिवार, 19 अप्रैल 2008

आशिक़ की बद्दुआ

आप सबने मोहम्मद रफ़ी के गाने 'बाबुल की दुवायें लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले' की पैरोडी सुनी होगी, जो इस तरह है- 'डाबर की दवाएं लेती जा, जा तुझको पति बीमार मिले'। लेकिन मुझे इस गाने की ताज़ा पैरोडी दस्तयाब हुई है. यह हैदराबाद से छपने वाले उर्दू मासिक 'शगूफा' में शाये हुई थी. पागल आदिलाबादी ने इसे तैयार फ़रमाया है. आप सबकी नज़र करता हूँ:--

आशिक की दुवाएं लेती जा, जा तुझको पति कंगाल मिले
खिचड़ी की कभी न याद आए, जा तुझको चने की दाल मिले.
गारत हो किचन में हुस्न तिरा, ये रूप तेरा हो बासी कढी
चीखे तू कुड़क मुर्गी की तरह, हर एक मिनट, हर एक घड़ी
तू झिडकियां खाए शौहर की, शौहर भी गुरु-घंटाल मिले.
खिचड़ी की कभी न याद आए, जा तुझको चने की दाल मिले.
गालों में तिरे पड़ जाएं गड्ढे, लग जाए जवानी में ऐनक
ये रेशमी जुल्फें झड़ जाएं और मुंह पे निकल आए चेचक
ससुरा भी तुझे खूंखार मिले और सास बड़ी चंडाल मिले.
खिचड़ी की कभी न याद आए, जा तुझको चने की दाल मिले.
तरसे तू लिपस्टिक, पाउडर को और याद करे तू काजल को
रेशम की तुझे साड़ी न मिले, मोहताज रहे तू मलमल को
मेक-अप की तुझे फुरसत न मिले, जा जी का तुझे जंजाल मिले.
खिचड़ी की कभी न याद आए, जा तुझको चने की दाल मिले.
शादी का किया मुझसे वादा, धनवान से शादी कर डाली
रन आउट मुझे करवा ही दिया और सेंचुरी अपनी बनवा ली
दिल तूने जो तोड़ा पागल का, जा तुझको पति कव्वाल मिले.
खिचड़ी की कभी न याद आए, जा तुझको चने की दाल मिले।


मेरी दिलजलों से गुजारिश है कि वे अपनी पूर्व या भूतपूर्व महबूबा को ऐसी बद्दुआ तो हरगिज़ न दें.

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